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पुस्तक का गर्भकाल

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Nov 3, 2012, 12:00 am IST
in Archive
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पुस्तक का गर्भकाल

दिंनाक: 03 Nov 2012 12:20:11

व्यंग्य

  विजय कुमार

प्राणी शास्त्र के विद्यार्थियों को यह बताया जाता है कि किस प्राणी का गर्भकाल कितना होता है ? अंडे से जन्म लेने वाले प्राणियों का विकास मां के पेट के अंदर तथा फिर बाहर भी होता है। जो प्राणी सीधे मां के पेट से जन्मते हैं, उनमें से कोई छह मास गर्भ में रहता है, तो कोई अधिक मास। हो सकता है कोई भौतिकवादी इसे ईश्वर का अन्याय कहे; पर हम तो इसे उस जगत नियन्ता की माया कहकर चुप ही रहते हैं।

 प्राणियों के गर्भकाल का तो समय तो भगवान ने निश्चित किया है; पर कुछ चीजों का गर्भकाल निश्चित करना उसके हाथ में भी नहीं है। पुस्तक एक ऐसी ही वस्तु है।

इस भूमिका के बाद अब असली बात पर चलें। बचपन से ही मुझे लिखने की बीमारी लग गयी। सबसे पहले कविता में हाथ आजमाया। कई अध्यापकों पर कविताएं लिखीं, जिन्हें कुछ धूर्त्त मित्रों ने सार्वजनिक कर दिया। इससे विद्यालय और घर में कई बार मार खानी पड़ी। अत: इस विधा को छोड़कर कहानी, निबन्ध और व्यंग्य के क्षेत्र में उतर गया। ऐसी कुछ रचनाएं छपीं भी, पर जिस नाम और दाम की मुझे इच्छा थी, वह पूरी नहीं हुई।

 मेरे एक मित्र ने कहा कि साहित्य के क्षेत्र में प्राय: उपन्यासों का बोलबाला रहता है। अधिकांश बड़े देशी और विदेशी पुरस्कार उन्हें ही मिले हैं। उपन्यासों पर ही फिल्में बनती हैं। अत: मुझे भी एक अदद उपन्यास लिखना चाहिए। यदि वह किसी फिल्म निर्माता को पसंद आ गया तो लखपति और फिर करोड़पति बनते देर नहीं लगेगी। अखबारों और चिकने कागज पर छपने वाली रंगीन फिल्मी पत्रिकाओं में तुम्हारे फोटो अमिताभ बच्चन और रणवीर कपूर के साथ छपेंगे।

  बात मेरे भेजे में बैठ गयी। मैं उसी दिन से उपन्यास के बारे में सोचने लगा। मैंने सुना था कि देवकी नंदन खत्री को 'चंद्रकांता' जैसे प्रसिद्ध उपन्यास का विचार जंगल और पुराने खंडहरों में मिला था। अमृतलाल नागर कई बार बदनाम क्षेत्र में गये, तब जाकर 'कोठे वालियां' उपन्यास बन पाया। अन्य कई प्रसिद्ध उपन्यास और उपन्यासकारों के साथ भी ऐसा ही             हुआ है।

  इससे प्रेरित होकर मैं भी जंगल और खंडहरों में जा घुसा। जंगल में हाथियों की कृपा से मुझे दो दिन भूखे–प्यासे पेड़ पर बिताने पड़े। खंडहर में अपनी नेक कमाई का बंटवारा करते चोरों ने मेरे कपड़े भी उतरवा लिये। मेरे पास जो कागज और कलम था, उसे उन्होंने अपने हिसाब–किताब के लिए रख लिया। बदनाम क्षेत्र की बात सुनते ही मैडम ने तलाक की धमकी दे दी। इसलिए इन विचारों को छोड़ना पड़ा।

  पर उपन्यास तो मुझे लिखना ही था। इसलिए घूमते–फिरते, सोते–जागते, घर–दफ्तर और बाजार में सब जगह उपन्यास ही दिमाग में घूमता रहता था। एक बार खाना खाते समय पूरे परिवार के लिए बना खाना मैं अकेले ही खा गया। ऐसे में पत्नी से झगड़ा होना ही था। एक बार सब्जी वाले को बिना पैसे दिये चल दिया, तो दूसरी बार सौ का नोट देकर पैसे वापस लेना ही भूल गया। गलत नंबर की बस पकड़ना तो आम बात हो गयी। हद तो तब हो गयी जब एक दिन मैं दफ्तर की बजाय श्मशान जा पहुंचा।

  दफ्तर में भी जब कभी कोई विचार आता तो मैं बाकी सब काम छोड़कर लिखने बैठ जाता। कई सरकारी कागजों के पिछले पृष्ठों पर मैंने उपन्यास के अंश लिख दिये। इस कारण कई बार अधिकारियों से डांट खानी पड़ी। एक बार तो नौकरी जाते–जाते बची।

  लोग मुझे पागल समझते थे; पर उन्हें क्या पता था कि मैं एक महान उपन्यास के सृजन की प्रक्रिया से जूझ रहा हूं। लोग मुझ पर व्यंग्य कसते थे; पर मैं यह सोचकर चुप रहता था कि जब मुझे कोई बड़ा पुरस्कार मिलेगा या मेरे उपन्यास पर सुपरहिट फिल्म बनेगी, तब यही लोग मुझे माला पहनाएंगे। युवक और युवतियां हस्ताक्षर लेने के लिए मेरे आसपास घूमेंगे। ऐसे में मुझे वह उक्ति याद आती कि,' हे पिता, इन्हें क्षमा करना। चूंकि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं?'

  दो वर्ष के इस शारीरिक और मानसिक व्यायाम का परिणाम यह हुआ कि उपन्यास की पांडुलिपि तैयार हो गयी। अब अगला काम उसे टाइप कराना था। मैंने कई लोगों से बात की; पर 'आप लिखें, खुदा बांचे' जैसा मेरा हस्तलेख देखकर कोई इसे टाइप करने को तैयार ही नहीं होता था। एक बुजुर्ग ने सहमति दी; पर वे खटपट वाले पुराने टाइपराइटर पर टाइप कर सकते थे। मैं इसे कम्प्यूटर पर लिखवाना चाहता था। जैसे–तैसे पांच हजार में एक व्यक्ति तैयार हुआ। उसने तीन हजार रु0 अग्रिम लेकर पांडुलिपि रख ली और एक महीने बाद आने को कहा।

  मेरे लिए वह एक महीना मानो एक सदी के बराबर हो गया। कभी–कभी मैं रात को चौंक कर उठ बैठता। लगता कि वह पांडुलिपि चोरी हो गयी है। कभी वह बाढ़ में बहती दिखाई देती। कभी लगता कि टाइप वाले ने दस हजार रु. में उस कालजयी उपन्यास को बेच दिया है। ऐसे कुविचारों के शमन के लिए मैं हर मंगलवार को संकटमोचन हनुमान मंदिर  में प्रसाद चढ़ाने लगा। एक दिन घर पर यज्ञ भी करा लिया।

  जैसे–तैसे एक महीना पूरा हुआ। मैं टाइप वाले के पास गया तो उसने अपनी पत्नी की बीमारी की बात कहकर एक महीने का समय और ले लिया। अगले महीने उसने बच्चों की परीक्षा का बहाना बना दिया। मैं उससे झगड़ भी नहीं सकता था, चूंकि एक तो पांडुलिपि उसके पास थी, दूसरे वह तीन हजार रु. भी ले चुका था। राम–राम करके चौथे महीने में उसने टाइप की हुई प्रति मेरे हाथ में दे दी।

  प्रसन्नता से कूदते हुए मैं घर आया; पर उसे पढ़ते ही सारी खुशी काफूर हो गयी। शायद ही कोई पृष्ठ हो, जिसमें दस–बीस गलती न हों। उसे पढ़कर सुधारने में मेरे दस दिन खर्च हो गये। टाइप वाले ने प्रूफ लगाकर पन्द्रह दिन बाद मेरे हाथ में एक प्रति और सीडी थमा दी। इसके बाद भी मुझे पूर्ण संतुष्टि नहीं हुई।

  अब उसकी फोटोस्टेट प्रतियां लेकर मैं कुछ बड़े प्रकाशकों के पास गया। कुछ ने तो साफ मना कर दिया, जबकि कुछ ने उसे पढ़ने के लिए रख लिया। दो महीने इस प्रतीक्षा में बीत गये। जब उनमें से किसी का फोन नहीं आया तो मुझे ही उनके पास जाना पड़ा, पर हर जगह से निराशा ही हाथ लगी। झक मारकर कुछ नये प्रकाशकों के दरवाजे खटखटाये। एक प्रकाशक बिना किसी रॉयल्टी के उसे छापने को तैयार हो गया।

  मैं अजब मुसीबत में था। मेरा दो महीने का वेतन इस चक्कर में खर्च हो चुका था, फिर भी पुस्तक का गर्भकाल समाप्त होने का नाम नहीं ले रहा था। अत: मैंने हामी भर दी। प्रकाशक ने सीडी रख ली और तीन महीने बाद पता करने को कहा।

  ये तीन महीने कैसे बीते, मैं ही जानता हूं। कभी मन करता था कि प्रकाशक का सिर फोड़ दूं, पर इससे भी क्या होना था ? इसलिए शान्त बना रहा। जब भी प्रकाशक से पूछता, वह अपनी मुसीबतें गिना देता। कभी प्रेस में हड़ताल हो गयी तो कभी कागज मंडी में। एक बार तो कम्प्यूटर खराब होने से सारी कवायद दोबारा करनी पड़ी। अंतत: छह महीने बाद उसने मुझे आकर प्रूफ देखने को कहा। यहां फिर एक समस्या आ गयी। फोण्ट बदलने से उसमें हजारों गलतियां हो गयीं थीं। उसे पढ़ना भी पूरी कसरत के समान था; पर मरता क्या न करता। यह भी करना पड़ा।

  किसी के घर में नया प्राणी आने वाला हो, तो प्राय: कहा जाता है कि उसके घर में खुशी होने वाली है। उस समय परिवार वालों की मानसिकता कुछ और ही होती है। पुस्तक के संबंध में मुझे भी इस खुशी की प्रतीक्षा थी। जैसे–तैसे एक साल बाद प्रकाशक ने बधाई देते हुए उपन्यास की 50 प्रतियां मेरे घर भिजवा दीं।

  मेरी खुशी का ठिकाना न था। मैंने कुछ प्रतियां अपने मित्रों में बांट दी। कुछ समीक्षार्थ पत्र–पत्रिकाओं, पुरस्कार देने वाली संस्थाओं और फिल्म निर्माताओं को भेज दीं। ले–देकर मेरे पास पांच प्रतियां बच गयीं। उन्हें मैंने संभाल कर तिजोरी में रख लिया।

  इस बात को भी अब दो साल हो गये। न किसी पुरस्कार देने वाले ने मुझसे सम्पर्क किया, न फिल्म वाले ने। कहीं समीक्षा छपी हो, ऐसा भी किसी ने नहीं बताया। फिर भी मैं निराश नहीं हूं। बड़े लेखकों को प्रारम्भ में प्राय: उपेक्षा सहनी ही पड़ती है।

  प्राणियों के सृजन की प्रक्रिया में नर और मादा की मुख्य भूमिका है; पर फिर दाई, नाई, हलवाई और पंडित की भी आवश्यकता पड़ती है। ऐसे ही पुस्तक के सृजन में लेखक से लेकर टाइप वाले और प्रकाशक तक अनेक लोगों को भूमिका निभानी पड़ती है। मुद्रक और 'बाइंडर' का महत्व भी कम नहीं है।

   भारतीय मनीषियों ने शिशु के गर्भाधान से नामकरण के बीच पुंसवन, सीमांतोन्नयन और जातकर्म नामक संस्कारों का प्रावधान किया है। इसी तरह लेखन, टाइपिंग, प्रूफ रीडिंग आदि भी पुस्तक के जन्म से पूर्व के आवश्यक संस्कार हैं। यद्यपि लोग इन्हें भूलकर अब केवल नामकरण तक ही सीमित रह गये हैं, पर पुस्तक के लिए तो इन संस्कारों का पालन आवश्यक ही है।

  कहते हैं, अंत भला तो सब भला। पुस्तक छपने से मुझे बहुत शांति मिली। जब उसे कोई बड़ा पुरस्कार मिलेगा तो आपको भी मिठाई खिलाऊंगा; पर यह प्रश्न अभी तक बाकी है कि पुस्तक का गर्भकाल कितना है? कहते हैं कि बड़े लेखकों की पुस्तकों का गर्भकाल छोटा होता है, जबकि छोटे लेखकों की पुस्तकों का बड़ा। इस बारे में आपके पास कोई अनुभव हो तो मुझे भी बताने का कष्ट करें।

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