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कुछ वर्ष पूर्व जब भारतीय दण्ड संहिता में धारा 498-ए जोड़ी गई तो उस समय समाज, विशेषकर उन परिवारों ने बहुत राहत महसूस की थी जिनकी बेटियां दहेज के कारण ससुराल में पीड़ित थीं अथवा परिवार से निकाल दी गई थीं। ऐसा अनुभव हुआ था कि अब विवाहिता बेटियों की सुरक्षा के लिए देश के कानूनविदों ने एक कवच सा ही दे दिया। इसमें संदेह नहीं कि प्रारम्भ में इस धारा का सदुपयोग हुआ और उन परिवारों में भी कुछ डर बना जो अपनी बहुओं को तंग करते थे, दहेज के नाम पर ताने मारते थे और घर से निकाल भी देते थे। ससुराल में बहुत सी लड़कियों को शारीरिक यातना भी झेलनी पड़ती थी। उन परिस्थितियों में धारा 498-ए ने मानसिक बल और सुरक्षा दी।
कानून का दुरुपयोग
प्रारम्भ में सभी परिवार कानून की इस धारा और इससे मिलने वाले लाभ से परिचित नहीं थे। धीरे-धीरे कानून की इस धारा से लोग परिचित हुए, इसका सदुपयोग तो हुआ, पर कुछ समय पश्चात कुछ मामलों में यही कानून डराने का शस्त्र बन गया। इसका दुरुपयोग भी होने लगा। मैंने लुधियाना की एक जेल में एक पूरा परिवार ही बंद देखा। ससुराल में ब्याही एक नवयुवती, जो परलोक सिधारी जेठानी की देवरानी बनकर घर में गई थी, वह भी कारागार में थी और उसके पहले बच्चे का जन्म भी जेल में हुआ। किसी ने यह नहीं सोचा कि जो युवती कुछ माह पहले ही घर में छोटी बहू बनकर आई थी उसका जेठानी को तंग करने में कितना हाथ हो सकता था। दुर्भाग्य से उस परिवार के पिता-पुत्र, माता और बहुएं, सभी जेल में थे। कहीं-कहीं तो विवाहिता और अविवाहिता ननद भी शिकंजे में आ जाती हैं। सच यह है कि परिवार के सरकारी नौकरी में लगे सदस्यों और अविवाहित लड़कियों को फंसाने पर ज्यादा बल दिया जाता है। पिछले पांच वर्षों में कानून के रक्षकों, पुलिस और प्रशासन ने भी यह महसूस किया कि धारा 498-ए का कहीं-कहीं दुरुपयोग हो रहा था। भारत के सर्वोच्च न्यायालय तक भी यह आवाज पहुंची। अभी हाल में विधि आयोग द्वारा भी इस ओर ध्यान दिया और इसे रोकने के लिए सरकार को सुझाव दिए गए हैं। मेरे परिचित कुछ वकीलों ने बताया कि उनके पास जो लोग इस धारा के अंतर्गत मुकदमा लड़ने के लिए आते हैं उनमें से अधिकतर यही सोचते हैं कि एक बार बेटी के ससुराल वालों पर मुकदमा दर्ज हो जाए उसके बाद उन्हें तलाक और मुंहमांगी रकम आसानी से मिल जाएगी। सच बात तो यह है कि धारा 498-ए कुछ लोगों के लिए विवाहिता बेटी को ससुराल से मुंहमांगी रकम दिलवाने का एक प्रबल शस्त्र बन गयी। जिन लोगों ने सादगी से विवाह किया, लड़की वालों से कोई बड़ा दहेज नहीं लिया वे भी अपराधी बनाकर पहले हवालात और फिर जेलों में बंद किए गए।
न्यायालय ने समझा दर्द
पंजाब की कुछ प्रमुख जेलों, विशेषकर जहां महिलाएं बंद हैं, का मैंने स्वयं निरीक्षण किया। यह देखकर गहरा दुख होता था कि कुछ परिवारों की सभी महिला सदस्य वहां बंद थीं, क्योंकि उनके परिवार की किसी बहू ने या तो दहेज के कारण कष्ट देने की शिकायत की थी अथवा आत्महत्या कर ली थी। उनकी यह हालत थी कि बाहर परिवारों में कोई मुकदमा लड़ने वाला भी नहीं था, क्योंकि सभी पुरुष सदस्य भी बंदी बना लिए गए थे। ऐसे वातावरण में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने पिछले दिनों जो निर्णय दिया है वह वास्तव में ऐसा है जैसे गर्म रेगिस्तान में भटकते व्यक्तियों को छाया और पानी मिला हो। अब भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्देश दिया है कि दहेज प्रताड़ना के मामले में केवल एफआईआर के आधार पर मुकदमा नहीं चल सकेगा। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि पति व अन्य रिश्तेदारों के खिलाफ मुकदमा चलाने के लिए अपराध का स्पष्ट आरोप होना आवश्यक है। न्यायमूर्ति टी.एस. ठाकुर व न्यायमूर्ति ज्ञानसुधा मिश्र की पीठ ने यह फैसला ननद व जेठ के खिलाफ एक मुकदमा निरस्त करते हुए सुनाया है। निर्णय देते हुए माननीय न्यायाधीशों ने यह स्पष्ट लिखवाया है कि जब तक प्राथमिकी में मुख्य अभियुक्त के रिश्तेदार सह अभियुक्तों के विरुद्ध शिकायतकर्ता (पत्नी) को मानसिक व शारीरिक रूप से प्रताड़ित करने के विशिष्ट आरोप न हों तब तक सिर्फ एफआईआर में नाम होने के आधार पर नामित अभियुक्तों पर मुकदमा चलाना कानूनी और अदालती प्रक्रिया का दुरुपयोग होगा। कानून का निर्धारित सिद्धांत है कि अगर एफआईआर में अपराध का खुलासा न होता हो तो अदालती प्रक्रिया का दुरुपयोग रोकने के लिए अदालत का मुकदमा निरस्त करना न्यायोचित होगा। माननीय न्यायाधीशों ने बल देकर कहा कि अदालतों से अपेक्षा की जाती है कि वे वैवाहिक झगड़ों के मुकदमों को निरस्त करने की मांग पर विचार करते समय सतर्क रहेंगी। विशेष तौर पर उन मामलों में जहां शादी के बाद ससुराल में पत्नी को परिवार के साथ सामंजस्य बनाने में कोई कठिनाई विशेष आई हो और पत्नी द्वारा मुख्य अभियुक्त के रिश्तेदारों पर बढ़ा-चढ़ाकर अपराध करने के आरोप लगाए गए हों और उसमें पूरे परिवार को शामिल कर दिया गया हो।
पूरे भारत के उन परिवारों के लिए, जहां पत्नी की शिकायत पर बहुत से सदस्यों को आरोपी बनाकर जेल में भेज दिया गया है, यह निर्णय शीतल छाया की तरह आया है। अब होना यह चाहिए कि जो लोग पहले से इस तरह के आरोपों में जेलों में बंद हैं, उन्हें अदालतें मुक्त करें।
झूठे गवाहों पर सख्ती हो
शिकायत उन लोगों से भी है जो झूठी गवाही देने के लिए हर समय तैयार रहते हैं, जो यह नहीं सोचते कि उनकी झूठी गवाही एक परिवार की मदद तो कर देगी, पर जिनके विरुद्ध वे गवाही देने जा रहे हैं उनके परिवार तथा उनके भविष्य पर इसका कितना बुरा प्रभाव होगा। पुलिस अधीक्षक स्तर के एक अधिकारी ने जनता का दुख महसूस करते हुए वास्तव में दुखी होकर कहा था कि जब क्षेत्र के बहुत सम्मानित कहे जाने वाले लोग किसी एक के पक्ष में खड़े हो जाते हैं और यहां तक कह देते हैं कि उन्होंने अपनी आंखों के सामने अपराध होते हुए देखा, तब पुलिस के पास मुकदमा दर्ज करने और आरोपी को जेल भेजने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं रहता। अब, जब देश के न्यायाधीशों ने इस संदर्भ में सताए गए भारत के अनेक परिवारों को राहत दी है, उन लोगों को भी सोचना चाहिए जो झूठी गवाही देकर केवल अपनी रिश्तेदारी निभाते हैं अथवा नोट कमाकर किसी के गवाह तो बन जाते हैं, पर कई परिवारों की तबाही का कारण बनते हैं। बहरहाल, भारत के सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला बहुत बड़ी राहत और आशा की किरण बनकर आया है। वास्तविकता यह है कि पहले लोग बेटी के विवाह के समय ज्यादा चिंतित होते थे, पर अब बहू घर लाने के समय अधिक चिंता करते हैं।
आवश्यकता यह भी है कि जो लोग झूठी गवाही देते हैं उनको अपराधी से भी ज्यादा दंड देने की व्यवस्था भारत के कानून में होनी चाहिए और इसे अधिक सख्ती से लागू करवाया जाना चाहिए। कौन नहीं जानता के झूठी गवाहियां देना भी आज एक लाभदायक व्यवसाय जैसा बन गया है?
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