धूमल के विकास मंत्र से बढ़ाभाजपा का आत्मविश्वास
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भाजपा का आत्मविश्वास
कांग्रेस में धींगामुश्ती, भ्रष्टाचारी वीरभद्र पर
उनके अपनों ने ही खींचीं तलवारें
हिमाचल प्रदेश में नई विधान सभा के लिए 4 नवम्बर को मतदान होगा। जाहिर है कि दोनों प्रमुख राजनीतिक दल, भारतीय जनता पार्टी और सोनिया कांग्रेस सत्ता के शिखर तक पहुंचने के लिये एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं। हिमाचल लोकहित पार्टी की निगरानी में एक तीसरा मोर्चा भी है, जिसमें सी.पी.आई. से लेकर सी.पी.एम. तक कुछेक अस्तित्ववान व अस्तित्वहीन दल सिमटे हुये हैं। ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस का शोर भी पहाड़ की चोटियों पर सुनाई दे रहा है, लेकिन मकसद शायद इतना ही है कि चुनाव आयोग से उसे अखिल भारतीय दर्जा प्राप्त हो जाए।
हिमाचल प्रदेश में भाजपा (उस समय जनता पार्टी) प्रमुख खिलाड़ी की हैसियत में 1977 में आपातकाल के बाद हुए विधानसभा के चुनावों में आई थी। आपातकाल के खिलाफ जो संघर्ष तत्कालीन जनसंघ ने इस पहाड़ी प्रदेश में किया था, उसी का नतीजा था कि 1977 में हुए विधानसभा चुनावों में तत्कालीन जनता पार्टी ने विधानसभा की 68 में से 53 सीटें व 49 प्रतिशत मत प्राप्त कर प्रदेश का राजनीतिक इतिहास बदल दिया था। कांग्रेस को केवल 9 सीटें मिली थीं। 1982 के चुनाव में जब भाजपा को 29 और कांग्रेस को 31 सीटें प्राप्त हुईं तभी स्पष्ट हो गया था कि अब प्रदेश में द्विदलीय प्रणाली स्थापित हो गई है। 1985 के चुनावों में कांग्रेस की सीटें 58 तक पहुंच गईं और भाजपा केवल 7 सीटों पर सिमट कर रह गई। लेकिन यहां तक आते-आते तीसरे मोर्चा की संभावना अपने आप समाप्त हो गई। साम्यवादी दलों के जो कुछ गिने-चुने प्रभाव क्षेत्र होते थे, वे भी समाप्त हो गये।
भाजपा का उभार
1990 के चुनावों में स्थिति एकदम उलट गई। भाजपा ने 46 सीटें प्राप्त कीं और कांग्रेस को 9 पर ही संतोष करना पड़ा। लेकिन 1993 के चुनावों में मामला फिर पलट गया। भाजपा को 8 सीटें मिलीं और कांग्रेस ने 52 सीटें झटक लीं। 1998 का चुनाव इस दृष्टि से महत्वपूर्ण कहा जायेगा कि भाजपा ने यह चुनाव उस समय के प्रभारी नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में लड़ा था। भाजपा और कांग्रेस में कांटे की जंग थी। दोनों पार्टियों ने 31-31 सीटें प्राप्त कीं। हिमाचल विकास पार्टी के पांच सदस्य भी भाजपा का समर्थन कर रहे थे। लेकिन उस समय की राज्यपाल ने कांग्रेस पार्टी के वीरभद्र सिंह को ही सरकार बनाने के लिए निमंत्रित कर लिया। उस सरकार का चन्द दिनों बाद वही हश्र हुआ जो होना चाहिये था। उसके बाद प्रेम कुमार धूमल के नेतृत्व में भाजपा ने सरकार बनाई। धूमल के नेतृत्व में चुनावी जंग में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन आया। इससे पहले सत्ता में रहने के बाद जब भाजपा हारती थी तो सात-आठ सीटों पर ही सिमट जाती थी। लेकिन उस बार जब 2003 में चुनाव हुए तो कांग्रेस ने चाहे 43 सीटें जीतीं लेकिन भाजपा ने भी 16 सीटें प्राप्त कीं। कांग्रेस और भाजपा को प्राप्त मतों का अन्तर भी मात्र 5.62 प्रतिशत ही था। 2007 के चुनावों में परिणाम इसके ठीक विपरीत रहा। भाजपा ने 43.78 प्रतिशत मत प्राप्त कर 41 सीटें जीतीं जबकि कांग्रेस 39.54 प्रतिशत मत प्राप्त कर 23 सीटें जीत सकी। लेकिन जो लोग प्रो. प्रेमकुमार धूमल की रणनीति से परिचित हैं वे जानते हैं कि धूमल गणित के प्रश्नों को प्रचलित सूत्रों से हल नहीं करते, बल्कि उस के लिये जन-जन में प्रचलित देसी सूत्रों का सहारा लेते हैं। हिमाचल में यह माना जाता रहा है कि ऊपरी या पुराना हिमाचल कांग्रेस का गढ़ है और निचला या नया हिमाचल भाजपा का गढ़ है। धूमल अच्छी तरह जानते हैं कि यदि यही गणितीय सूत्र लम्बी देर तक चलता रहा तो एक बार भाजपा और एक बार कांग्रेस की परम्परा को तोड़ा नहीं जा सकता। इसलिये उन्होंने पिछले पांच साल में पुराने हिमाचल में भाजपा की जड़ें गहरी करने के लिये बहुत मेहनत की है। वैसे किन्नौर में तो ठाकुरसेन नेगी ही भाजपा को स्थापित कर गये थे, लेकिन शिमला और सिरमौर जिलों को राजशाही के मनोविज्ञान से मुक्त करवाने में महत्वपूर्ण कार्य धूमल ने ही किया है। पिछले साल हुए उपचुनाव में राजा वीरभद्र सिंह के गढ़ रोहडू में भाजपा को जिताकर उन्होंने सभी को आश्चर्यचकित कर दिया था। अभी कुछ अरसा पहले सिरमौर जिले में कांग्रेस की परम्परागत सीट रेणुका पर भाजपा ने जीत का परचम फहराया तो उसके समर्थक भी हैरान थे। इसलिये वीरभद्र सिंह को अपने इन्हीं पुराने गढ़ों को बचाने के लिये इस चुनाव में जमीन-आसमान एक करना पड़ रहा है । भाजपा इस बार इन क्षेत्रों में हाशिये की पार्टी नहीं बल्कि मुख्य पार्टी के रूप में चुनाव लड़ रही है।
छंटा धुंधलका
चुनाव से पहले मीडिया के एक वर्ग की सहायता से शान्ता कुमार और प्रेम कुमार धूमल में मतभेदों की चर्चा बहुत उछाली जा रही थी। लेकिन अब जब चुनाव अभियान ने गति पकड़ ली है तो कांग्रेस के दुर्भाग्य से धरातल पर वे मतभेद कहीं दिखाई नहीं दिये। ये दोनों नेता जिस प्रकार एकजुट होकर चुनाव अभियान में जुटे हैं उससे आम कार्यकर्ता तो ऊर्जावान हुआ ही है, प्रदेश की आम जनता के मन में छाया कोहरा भी छंट गया है। प्रदेश भाजपा अध्यक्ष सतपाल सत्ती युवा वर्ग को साथ जोड़ने के लिए जो मेहनत कर रहे थे, उसका स्पष्ट असर इस अभियान में देखा जा सकता है। प्रदेश में भाजपा ने लगभग पन्द्रह नये और युवा चेहरे मैदान में उतारे हैं। हिमाचल प्रदेश में भाजपा एकजुट होकर चुनाव मैदान में उतरी है, जिसका यकीनन चुनाव के नतीजों पर अच्छा असर पड़ेगा।
इस चुनाव की सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भाजपा सकारात्मक धरातल पर वोट मांग रही है। धूमल प्रदेश की जनता से पांच वर्षों में किये गये काम के आधार पर वोट मांग रहे हैं। जब वे अपनी उपलब्धियों की चर्चा करते हैं तो उनके चेहरे पर आत्म संतुष्टि का भाव झलकता है । प्रदेश ने अनेक क्षेत्रों में सर्वश्रेष्ठ काम करने के कारण 72 पुरस्कार प्राप्त किये । सड़कों के मामले में तो हिमाचल प्रदेश पूरे हिमालयी राज्यों में आदर्श माना जाता है। स्वास्थ्य क्षेत्र में अटल स्वास्थ्य योजना ने इस पहाड़ी राज्य में भी त्वरित चिकित्सकीय सहायता को यकीनी बनाया है। प्रो. धूमल एक और योजना की चर्चा करते हैं-अटल बिजली बचत योजना। प्रदेश में साढ़े सोलह लाख घरेलू बिजली उपभोक्ता हैं। राज्य में प्रत्येक उपभोक्ता को चार-चार सी.एफ.एल. मुफ्त दिए गए। इससे देश में 2700 लाख यूनिट बिजली बची और प्रदेश को एक सौ दस करोड़ रुपये की बचत हुई, जिसे प्रदेश के विकास के लिये खर्च किया गया। राज्य में जितने भी राशनकार्ड धारक हैं उनको हर महीने तीन दालें, दो खाद्यान्न तेल, राशन तथा नमक इत्यादि सस्ती दर पर उपलब्ध करवाया जा रहा है।
शिक्षा के क्षेत्र में भी प्रदेश सरकार के कार्यों की सराहना की जाती है। राज्य के कुल बजट का उन्नीस प्रतिशत शिक्षा पर खर्च किया गया। राज्य में साक्षरता की दर बढ़ कर 83.78 प्रतिशत हो गई है। इस क्षेत्र में वह अब केरल के बाद दूसरे नम्बर पर आता है। सड़क निर्माण के क्षेत्र में निश्चय ही धूमल गर्व कर सकते हैं। प्रदेश में 3400 किलोमीटर नई सड़कों और नये पुलों का निर्माण किया गया। आम जनता के लिये स्वास्थ्य बीमा योजना शुरू की गई। गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों को सस्ता राशन दिया जा रहा है। 65 वर्ष के ऊपर के लोगों को राज्य सरकार मुफ्त चावल दे रही है। प्रो. धूमल मानते हैं कि कृषि और पर्यटन दो ऐसे क्षेत्र हैं जो हिमाचल की आर्थिक स्थिति को मजबूत कर सकते हैं। सरकार कृषि के क्षेत्र में मौसमी फसलों को बीमा के दायरे में लाई। पर्यटन के क्षेत्र में आधारभूत संरचना के निर्माण में सरकार ने 428 करोड़ रुपए दिए। प्रदेश में प्लास्टिक और गुटखा को प्रतिबन्धित किया गया है। जनसेवा गारंटी अधिनियम पारित किया गया है।
आरोपों में घिरे वीरभद्र
इसके विपरीत कांग्रेस की समस्याएं दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही हैं। वीरभद्र पर भ्रष्टाचार के इतने आरोप लगे हैं कि उनका उतना समय चुनाव प्रचार में नहीं बीतता जितना इन आरोपों पर सफाई देने में बीतता है। लेकिन अपने आप को निर्दोष सिद्ध करने की हड़बड़ी में उन्होंने एक ऐसा कदम उठाया जिससे प्रदेश में उनकी फजीहत भी हुई है। प्रदेश में बसपा के पूर्व अध्यक्ष विजय सिंह मनकोटिया एक लम्बे अरसे से वीरभद्र पर आचरण और वित्तीय अनियमितताओं के आरोप लगाते रहे हैं। मनकोटिया द्वारा दिये गये इन्हीं सबूतों के कारण न्यायालय ने वीरभद्र पर आरोप तय किये जिसके कारण उन्हें केन्द्रीय मंत्रिमंडल से बाहर होना पड़ा। लेकिन अब वीरभद्र सिंह ने उन्हीं मनकोटिया के आगे एक किस्म से आत्मसमर्पण करते हुए उन्हें कांग्रेस में शामिल ही नहीं किया बल्कि शाहपुर से टिकट भी थमा दिया।
चुनाव के इस अवसर पर कांग्रेस की भीतरी फूट पार्टी के लिए विनाशकारी सिद्ध हो रही है। चुनावी रणभूमि में भी वीरभद्र सिंह और शेष कांग्रेसियों में धींगामुश्ती थम नहीं रही है। वीरभद्र सिंह चुनाव प्रचार के बीच प्रदेशवासियों को बाकायदा सूचना देते रहते हंस कि उनके खिलाफ भ्रष्टाचार के तथ्य और कोई नहीं बल्कि पूर्व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कौलसिंह के रिश्तेदार ही मीडिया को उपलब्ध करवा रहे हैं। कौलसिंह भी तुरन्त अपना चुनाव अभियान रोककर जवाब देते हैं कि वीरभद्र को कौलसिंह फोबिया हो गया है। इस समय सोनिया गांधी के खास सिपहसालार केन्द्रीय मंत्री आनन्द शर्मा 'रैफरी' की भूमिका में उतर आए हैं। वे प्रदेश की जनता को बता रहे हैं कि कौल सिंह बड़े नेता हैं और अवश्य जीतेंगे।
राजा विरोधी धड़ा प्रभावी
वीरभद्र सिंह के लिये एक और सिरदर्द है। सोनिया गांधी ने प्रदेश में चुनाव की बागडोर तो उनको थमा दी, लेकिन टिकटों के आवंटन में तरजीह राजा विरोधी धड़े को ही दी। वीरभद्र सिंह बमुश्किल अपने बीस-पच्चीस लोगों को टिकट दिलवा पाये। कांग्रेस के भीतर यह तो सभी जानते हैं कि वीरभद्र सिंह सोनिया की पहली पसन्द नहीं हैं।
कमरतोड़ महंगाई भी इस चुनाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। महंगाई ने इस पहाड़ी प्रदेश के लोगों, जिनकी आय के साधन पहले ही सीमित हैं, को हिलाकर रख दिया है। केन्द्र सरकार के खिलाफ जनता में गुस्सा फूट रहा है। शायद यही कारण है कि वीरभद्र सिंह की बौखलाहट अब सार्वजनिक रूप से सामने आने लगी है। हमीरपुर की एक जनसभा में उन्होंने कहा कि 'मैं तो जन्मजात राजा हूं।' जब पत्रकारों ने जन्मजात राजा को उनके भ्रष्टाचार के तथ्यों से परिचित करवाया तो उन्होंने उनके कैमरे तोड़ देने की धमकियां देनी शुरू कर दीं। शायद यही कारण था कि 'जन्मजात' राजा के सहारे जब सोनिया गांधी चुनाव प्रचार के लिये मंडी पहुंचीं तो मैदान का काफी हिस्सा खाली पड़ा था। वैसे भी हिमाचल प्रदेश में मशहूर है कि सोनिया इस प्रदेश में जहां भी प्रचार के लिए गई हैं वह सीट कांग्रेस ने अवश्य हारी है।
चुनाव का नतीजा क्या निकलता है यह तो समय ही बतायेगा, लेकिन फिलहाल तो भाजपा के आक्रामक चुनाव प्रचार के आगे वीरभद्र सिंह रक्षात्मक मुद्रा ही अपनाये हुये हैं। ऐसी स्थिति में यदि धूमल प्रदेश में एक बार कांग्रेस, एक बार भाजपा की परम्परा को तोड़ पाते हैं तो एक नया इतिहास लिखा जायेगा। पड़ोसी राज्य पंजाब ने इसे आश्चर्यजनक ढंग से कर दिखाया है। लगता है, अब हिमाचल प्रदेश की बारी है।
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