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गवाक्ष

by
Sep 3, 2011, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 03 Sep 2011 13:53:18

अन्ना हैं संकल्प व्यवस्था-परिवर्तन का

आपातकालीन परिवेश और उसमें लोकनायक जयप्रकाश नारायण की ज्योतिष्मती भूमिका पर टिप्पणी करते हुए कभी कविवर दुष्यन्त कुमार ने कहा था- खास सड़कें बन्द हैं सारी मरम्मत के लिए,
ये हमारे दौर की सबसे बड़ी पहचान है।
एक बूढ़ा आदमी है मुल्क में या यूं कहें,
इस अंधेरी कोठरी में एक रोशनदान है।

आज फिर ये पंक्तियां अचानक प्रासंगिक हो उठी हैं। सरकार की संवेदनहीनता उसके प्रवक्ताओं के अशिष्ट और अनर्गल बयान यदि आपातकाल के अंधेरे की याद दिला रहे हैं तो एक बुजुर्ग व्यक्ति की भ्रष्टाचार के खिलाफ उठी हुंकार कभी गांधीजी की स्मृति जगाती है तो कभी जयप्रकाश की। हजारों की संख्या में अण्णा हजारे के पीछे चलने वाले हर तबके के लोगों को देखकर ख्याल आता है कि आजादी की लड़ाई के दौरान ऐसे ही दृश्यों को देखकर कविवर सोहन लाल द्विवेदी ने अपनी सुप्रसिद्ध रचना में बापू के संदर्भ में कहा होगा-
चल पड़े जिधर दो डग मग में,
चल पड़े कोटि पग उसी ओर।
पड़ गई जिधर भी एक दृष्टि,
गड़ गये कोटि दृग उसी ओर।

आज अन्ना को केन्द्र में रखकर हिन्दी कविता कह रही है-

शौर्य शिवा का है गांधी की सच्चाई,
वृद्ध कलेवर में तेजस्वी तरुणाई है।
अन्ना हैं संकल्प व्यवस्था-परिवर्तन का,
अन्ना नई सुबह की पहली अंगड़ाई हैं।

। । ।

इस वर्ष स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर उत्तराखण्ड के संस्कृति विभाग द्वारा राजधानी देहरादून में आयोजित काव्य-समारोह से संयुक्त होने का अवसर मिला। कुमायुंनी-गढ़वाली-हिन्दी-उर्दू के समर्थ रचनाकारों द्वारा मंच पर पढ़ी गई रचनाओं में आजादी के बलिदानियों के प्रति गहन श्रद्धा-भाव और वर्तमान की विसंगतियों के प्रति विक्षोभ और आक्रोश के दर्शन हो रहे थे। वरिष्ठ गीतकार रामेन्द्र त्रिपाठी ने भारतीय स्वतंत्रता के फल खाने वाले चतुर नायकों का चरित्र-चित्रण करते हुए कहा-

आजादी के बाद चली जो
क्या कहने उस आंधी के,
जिनके नंगे पांव थे उनपे
जूते आ गये चांदी के।

उनके एक दूसरे गीत की मुखपंक्तियां भी आम आदमी की त्रासदी का रूपक प्रस्तुत करते हुए अपने समय को गा रही थीं-

राजनीति की मण्डी बड़ी नशीली है
इस मण्डी में सबने मदिरा पी ली है,
कमरबन्द पुख्ता हैं सिर्फ दलालों के
आम आदमी की तो धोती ढीली है।

व्यंग्यकार तेज नारायण शर्मा व्बेचैनव् ने स्वयं कविता के मंच की विकृति पर चोट करते हुए अर्थलिप्शा की अंधी दौड़ की तरफ संकेत किया तो नैतिक मूल्यों के भयावह अध:पतन को भी निरूपित किया-

मंच जबसे अर्थदायक हो गये,
तोतले भी गीत-गायक हो गए
राजनैतिक मूल्य कुछ इतने गिरे,
जेबकतरे तक विधायक हो गए।

भ्रष्टाचार की भयावहता, महंगाई की भीषणता, जनप्रतिनिधियों की उदासीनता, सत्ता की आत्ममुग्धता और जन-जन के मन में जागता हुआ अमर्ष विविध रचनाओं में कलात्मकता से अभिव्यक्त करते हुए बल्ली सिंह चीमा ने अपनी रचना में उस राजसत्ता पर व्यंग्य किया जो अपनी अकर्मण्यता को प्रकृति के प्रकोप का सहारा लेकर छिपाती है और अपनी जनविरोधी नीति में मीडिया को भी सहयोगी बनाना चहाती है-
जैसे-तैसे महंगाई पर काबू पाया जा सकता है,

भूखे रहकर भी अब घर का
खर्च चलाया जा सकता है।
राजा बोला कम बारिश ही
जननी है इस महंगाई की,
साथ मीडिया दे तो सबको
ये मनवाया जा सकता है।
सुप्रसिद्ध शायर मुनव्वर राणा ने अन्धे विकास के दुष्परिणाम भोग रहे मजबूर गांव की पीड़ा को बड़े ही प्रभावी ढंग से व्यक्त किया-

मंजिल करीब आई तो इक पांव कट गया,
चौड़ी हुई सड़क तो मेरा गांव कट गया।

कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ रचनाकार वसीम बरेलवी ने जहां गहन जीवन-दर्शन और आध्यात्मिक चिन्तन से आपूरित अशआर सुनाए, वहीं अन्ना के संदर्भ का संस्पर्श करने वाली सांकेतिक पंक्तियों में इस नवीन जननायक के हौसले के अभिनन्दन के साथ-साथ जनता को उसके कर्तव्य का बोध भी कराया-

दुआ करो कि सलामत रहे मेरी हिम्मत,
ये इक चराग कई आंधियों पे भारी है।
मैं कतरा होके भी तूफां से जंग लेता हूं,
मुझे बचाना समन्दर की जिम्मेदारी है।

अन्ना के आन्दोलन ने एक बार फिर इस पूरे देश को एकता के सूत्र में बांध दिया है। कविता का मंच हो, बुद्धिजीवियों की सभा हो, जवानों की टोली हो- अन्ना धर्मयुद्ध के आह्वान के प्रतीक बन गये हैं। व्मैं अन्ना हूंव् का वाक्य हर परिवर्तनकामी की टोपी या छाती पर लिखा दिख रहा है। लोकमानस की उपेक्षा करने वाली, दिवा स्वप्नों में खोई केन्द्रीय राजसत्ता अब पराभूत होने को अभिशप्त है।

। । ।
कृष्ण की बांसुरी पे भरोसा रखो
युवा कवि देवल आशीष ने अपने गीतों के माधुर्य से श्रोताओं और पाठकों को रसाप्लावित किया है। अपेक्षाकृत कम उƒा में उन्होंने अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाई है। किन्तु मुझे उनका एक छन्द उनकी तमाम काव्य-सृष्टि में अप्रमेय लगता है। हिन्दी के गीतकारों की युवा पीढ़ी अपनी चेतना में अनन्य भागवत निष्ठा संजोए है। देवल के उस चर्चित छन्द को देने से पूर्व मैं लोकप्रिय युवा गीतकार डा. विष्णु सक्सेना के एक गीत की अन्तिम पंक्तियां भी उद्धृत करना चाहूंगा, प्राथमिक पंक्तियां भी-

कृष्ण की बांसुरी पे भरोसा रखो,
मन कहीं भी रहे पर डिगेगा नहीं।
तुमने पत्थर का दिल हमको कह तो दिया-
पत्थरों पे लिखोगे मिटेगा नहीं,
रेत पे नाम लिखने से क्या फायदा,
एक आई लहर कुछ बचेगा नहीं।

विष्णु की बांसुरी निष्ठा की तरह व्कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् तथा व्श्रीकृष्ण शरणं ममव् के कोष्ठक में बंधा है देवल का यह छन्द-

विश्व को मोहमयी महिमा के असंख्य स्वरूप दिखा गया कान्हा,
सारथी तो कभी प्रेमी बना तो कभी गुरुधर्म निभा गया कान्हा।
रूप विराट धरा तो तिहुं लोक में
छा गया कान्हा,
रूप धरा लघु इतना कि जसोदा की गोद में आ गया कान्हा।।

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर विष्णु और देवल की पंक्तियां पुन: पुन: स्मृति में जगमगा रही हैं। अनिर्वचनीय का निर्वचन इन पंक्तियों को गुनगुना कर ही कर पा रहा हूं।

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