चर्चा सत्र
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सुधरो या गद्दी छोड़ो
राजनाथ सिंह 'सूर्य'
अण्णा हजारे के अनशन ने आम जनता में सत्ता की शह पर फलते-फूलते भ्रष्टाचार के खिलाफ अकुलाहट को फूट पड़ने का अवसर प्रदान किया है। अतीत के कुछ शासकों को जिस प्रकार पैर के नीचे से धरती खिसकते जाने का तभी आभास हुआ जब वे मुंह के बल गिर पड़े, वैसी ही स्थिति इस समय भी है। फर्जी आंकड़ों और सैद्धांतिक गालबजाऊ शोर के प्रभाव से चुप बैठी जनता को उन्होंने समर्थक मानने की जो भूल की है उसका आभास होने के बाद भी सुधरने के बजाय व्नाक बचानेव् की सरकार की नाकाम कोशिश से जनता में जिस आक्रोश की वृद्धि होती जा रही है उसके दुष्परिणामों की ओर उनका ध्यान नहीं जा रहा है। क्या है सरकारी लोकपाल और जनलोकपाल, यह समझाने के दौरान सत्ता-सितारों ने जो अभिनय किया और संवाद बोले वही उन पर व्बूमरेंगव् होकर मारक शस्त्र बन गये। अपने व्शिक्षित, सभ्य और ज्ञानवानव् होने का दावा करने वाले ये लोग एक अति साधारण व्यक्ति के मुकाबले इसलिए अज्ञानी और बौने साबित हुए हैं क्योंकि उन पर सत्ता का नशा सवार है। क्या है जन लोकपाल, यह अण्णा के आह्वान पर सड़कों पर उतरे युवकों और समाज के आम आदमी की समझ में शायद उतना न आए, लेकिन एक बात उन्हें बहुत स्पष्ट रूप से समझ में आ गई है कि अण्णा की लड़ाई भ्रष्टाचार के खिलाफ है। राष्ट्रपति ने अपने 14 अगस्त के संदेश में जिसके कैंसर रोग के समान फैलते जाने पर चिंता जताई थी और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा फटकारे जाने के बाद ही जिसके प्रति सरकार के कान पर जूं रेंगी।
जिम्मेदार कौन?
देश के सामने नित्य उभरतीं समस्याओं से त्रस्त समाज के सामने प्रधानमंत्री का यह कथन कि उनके पास कोई जादुई छड़ी नहीं है जिसके द्वारा वे समस्या का समाधान कर सकें, उत्तेजना बढ़ाने वाला ही साबित हुआ है। वे संविधान की गूढ़ व्याख्या समझने का दावा तो करते हैं, लेकिन दीवार पर लिखी इबारत पढ़ सकने में असमर्थ हैं। उन्हें बस एक भाषा समझ में आती है, वोट की भाषा। जो लोग गांधी के उत्तराधिकारी होने का दावा करते हैं वे अंग्रेजों की वेशभूषा, खानपान, सत्ता- संचालन के पक्षधर बन चुके हैं। गांधी टोपीधारी एक साधारण सा व्यक्ति जिस प्रकार देश की भावना का केंद्रबिन्दु बन गया है, उसे उन्हें समझना चाहिए। जैसे ही कोई हुंकार भरता है, देश की जनता की तंद्रा टूट जाती है। प्रधानमंत्री कहते हैं कि भ्रष्टाचार ऊपर से नीचे तक व्याप्त है। तो इसके लिए जिम्मेदार कौन है? उनके पास जादुई छड़ी नहीं है तो क्या है? कोई भी समस्या हो, जादुई छड़ी न होने का रोना अब गुमराह करने में सफल नहीं होगा।
किसी को यह गलतफहमी नहीं होनी चाहिए कि समय के साथ यह आक्रोश समाप्त हो जाएगा, चाहे केंद्र के सत्ताधारी हों या राज्य के, सभी को दीवार पर लिखी इबारत को समझने का प्रयास करना चाहिए जो इस नारे को भी झुठला रही है कि व्सुधरो या गद्दी छोड़ोव्? क्योंकि वे समझते हैं कि सुधरने का नाटक करते रहने से जनता को भ्रमित रखा जा सकता है। पहले अभिवादन फिर सोते हुए लोगों पर लाठियों का प्रहार, पहले बिना अपराध के गिरफ्तारी फिर अनशन के लिए मांगी गई जगह की इजाजत, पहले सिर से पांव तक भ्रष्टाचारी फिर बीच के रास्ते की तैयारी, पहले नाकाबंदी फिर नाक बचाने की लाचारी, पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मुखौटा और लाल किले तथा संसद में विदेशी ताकतों का हस्तक बताना फिर एक चुप्पी, इन सबके बीच अण्णा का प्रभाव बढ़ते जाने और सरकारी साख गिरते जाने का जो स्वरूप उभरा वह बकौल अण्णा, देश को विदेशी लुटेरों से नहीं, खजाने की रक्षा करने वाले अपने ही पहरेदारों की गद्दारी के कारण है। जब कभी भी भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान शुरू होता है उसको बदनाम करने के लिए संघ और अन्य राष्ट्रनिष्ठ संगठनों का हाथ होने का धुंआधार प्रचार किया जाता है। क्या संविधान में इन संगठनों से संबंधित लोगों को नागरिक कर्तव्य निभाने के अधिकार से वंचित कर दिया है? जयप्रकाश नारायण को सीआईए एजेंट तक कहा गया था और विश्वनाथ प्रताप सिंह के पुत्र का सेंट कीट्स नामक किसी द्वीप में बैंक खाता होने का प्रचार किया गया था। कांग्रेस को कब यह समझ में आयेगा कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती? अण्णा और बाबा रामदेव का छिद्रान्वेषण करने में कांग्रेस अपने लिए गहरी खाई खोदती जा रही है। लोगों को यह सरकारी अभियान समझ में आया है या सरकार को व्जनलोकपाल विधेयक लाओ या जाओव् की चेतावनी समझ में आ गई है?
क्या समझेंगे दुराभिमानी?
मूल मुद्दा है सत्ता की अधिनायकता और भ्रष्टाचार से तबाही को रोकना। इस मुद्दे पर जो दल अण्णा के समर्थक हैं, वे एकजुट क्यों नहीं हो रहे हैं? जब जयप्रकाश नारायण और विश्वनाथ प्रताप सिंह ने आंदोलन प्रारंभ किया था तो उसमें कांग्रेसी भी कूद पड़े थे। आज जब परिस्थिति उससे कई सौ गुना गंभीर है तो कांग्रेसी, जो भीतर-भीतर भयभीत हैं चुपचाप बैठे हैं। क्यों कोई चंद्रशेखर नहीं उठा खड़ा हो रहा है? क्योंकि संभवत: व्जागीरव् जमीर से ज्यादा प्रभावी हो गई है। क्या तथाकथित युवा कांग्रेसी मिलकर कैम्ब्रिाज और ऑक्सफोर्ड वाले दुराभिमानियों को समझा सकेंगे? हम अपने प्रधानमंत्री को क्या कहें जो हाथ में पकड़ा दी गई इबारत से आगे आंख उठाकर भी नहीं देखते? वे आदेशों के पालन का अभ्यास बनाये हुए हैं जबकि उनको आदेश देने का अधिकार है। जिस व्यक्ति ने 2004 में लोकायुक्तों के सम्मेलन में यह कहा हो कि लोकपाल के दायरे में प्रधानमंत्री और जनप्रतिनिधियों को लाने पर आम सहमति है, वह अब यह बहाना बना रहा है कि उसका मंत्रिमंडल इस बात पर सहमत नहीं है तो व्आम सहमतिव् किनमें थी? लोकपाल विधेयक 40 से ज्यादा वर्ष से संसद में लंबित है और वे चाहते हैं कि और समय दिया जाय। ऐसे में संसद की सर्वोच्चता और राज्यों की स्वायत्तता की दुहाई देकर देश को भ्रमित करने का प्रयास अब सफल नहीं होगा। उन्हें यह समझ में क्यों नहीं आ रहा है कि जनता सर्वोच्च है जो अब सड़कों पर आ गई है? ऐसे लोगों के बारे में ही गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है, व्जाको प्रभु दारुण दु:ख देही ताकी मति पहले हर लेही।व्
जयप्रकाश नारायण ने जनता के उबाल से सत्ता को बदला था। आज भ्रष्टाचार से आहत जनता को अण्णा हजारे और बाबा रामदेव ने फिलहाल सत्ता परिवर्तन के लिए तैयार कर दिया है, लेकिन यह आश्वस्त करना बाकी है कि क्या व्यवस्था परिवर्तन भी होगा? अण्णा ने कहा है जब तक व्यवस्था परिवर्तन नहीं होगा उनका अभियान जारी रहेगा। इस पर लोगों को भरोसा होने लगा है, क्योंकि इस अभियान में राजनीतिक महत्वाकांक्षा से अभिभूत लोगों की वांछनीयता हावी नहीं हो पायी है। इस स्वरूप को कायम रखकर और जिनकी चाल-चरित्र और चेहरा विद्रूप नहीं हुए हैं उनको ही नेतृत्व प्रदान करने से यह संभव हो पा रहा है। यह स्वरूप बना रहना चाहिए। जहां तक सरकार या नौकरशाही का सवाल है, उनके पैर उखड़ चुके हैं। उन्हें फिर जमने का अवसर न मिलने पाये। लेकिन इसके लिए भी जरूरी है कि जो चैतन्यता इन दिनों समाज, विशेषकर युवाओं ने दिखाई है उसकी निरंतरता बनी रहे, क्योंकि निहित स्वार्थियों के खिलाफ यह लड़ाई लंबे समय तक चलेगी।द
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