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दिल्ली में यमुना किनारे मजनूं का टीला स्थित डेरा बाबा धुनीदास। खुले आसमान के नीचे जमीन पर पतली-सी चादर बिछाकर कुछ महिलाएं लेटी हुई थीं, कुछ अपने बच्चों को नहला रही थीं, तो कुछ बरसात में गीली हो चुकीं लकड़ियों को जलाने का प्रयास कर रही थीं ताकि खाना पकाया जा सके। और भूख से बिलबिलाते नंग-धड़ंग कुछ बच्चे कभी उस मिट्टी के चूल्हे के पास जा रहे थे, जिससे केवल धुआं निकल रहा था, तो कभी अपनी-अपनी मां के पास जाकर खाने की मांग कर रहे थे।
पाकिस्तान से आए हिन्दुओं ने कहा-
मर जाएंगे, पर पाकिस्तान नहीं जाएंगे
अरुण कुमार सिंह
वह समय था 15 सितम्बर की सुबह के लगभग 11 बजे का और जगह थी दिल्ली में यमुना किनारे मजनूं का टीला स्थित डेरा बाबा धुनीदास। खुले आसमान के नीचे जमीन पर पतली-सी चादर बिछाकर कुछ महिलाएं लेटी हुई थीं, कुछ अपने बच्चों को नहला रही थीं, तो कुछ बरसात में गीली हो चुकीं लकड़ियों को जलाने का प्रयास कर रही थीं ताकि खाना पकाया जा सके। और भूख से बिलबिलाते नंग-धड़ंग कुछ बच्चे कभी उस मिट्टी के चूल्हे के पास जा रहे थे, जिससे केवल धुआं निकल रहा था, तो कभी अपनी-अपनी मां के पास जाकर खाने की मांग कर रहे थे। किंतु उन माताओं के पास अपने बच्चों को खिलाने के लिए कुछ नहीं था। एक बच्चा अपनी मां से खाना मांगे और वह उसे खाना न दे पाए उसके लिए इससे बड़ी बद- किस्मती और क्या होगी?
ऐसे लगभग 600 महिला-पुरुष और बच्चे 9 सितम्बर को पाकिस्तान से भारत आए हैं। इनमें से 114 दिल्ली में हैं। ये सभी हिन्दू हैं और पाकिस्तान में कट्टरवादियों के बर्बर अत्याचारों को वर्षों से सहते रहे हैं। अपनी बहू-बेटियों की इज्जत की रक्षा, जान की सुरक्षा और अपने सनातन धर्म को बचाने के लिए ये लोग वर्षों से भारत आने के लिए वीजा मांग रहे थे। पिछले दिनों इन लोगों को बमुश्किल पर्यटक वीजा मिला और ये भारत आ गए। इन गरीब हिन्दुओं के पास न तो खाने के लिए अन्न है, न पहनने के लिए वस्त्र। इन सबके लिए खाने, रहने आदि की व्यवस्था स्थानीय हिन्दुओं की मदद से बाबा डेरा धुनीदास ने की है। सामाजिक संस्था सेवा भारती ने भी इन बेचारों के लिए खाद्य सामग्री और दवा आदि भेजी। कुछ अन्य सेवाभावी बन्धु भी उनकी मदद कर रहे हैं। इसलिए फिलहाल इन्हें ठहरने और खाने की, चिंता नहीं है। चिंता है तो सिर्फ वीजा अवधि की, क्योंकि वीजा केवल 35 दिन के लिए है। इसलिए ये सभी रात-दिन इस उधेड़बुन में लगे हैं कि वीजा अवधि कैसे बढ़ाई जाए। वीजा अवधि क्यों बढ़ाना चाहते हैं? भारत में क्यों रहना चाहते हैं? इसका जवाब 41 वर्षीय गंगाराम ने दिया, ‘पाकिस्तान में हिन्दुओं के साथ पशुओं से बदतर व्यवहार किया जाता है। वहां की अवाम हिन्दुओं के साथ पग- पग पर दुव्र्यवहार करती है। फरियाद लेकर पुलिस- प्रशासन के पास जाते हैं तो उलटे हिन्दुओं को ही मारा-पीटा जाता है। हमारी बहू-बेटी अकेली घर से निकल नहीं पाती हैं। बच्चों को स्कूल में इस्लामिक शिक्षा दी जाती है। हम लोगों से खेतों पर दिन-रात काम करवाया जाता है। किंतु जायज मजदूरी नहीं दी जाती है। मांगने पर पिटाई करते हैं। घर और मंदिर में आग लगा देते हैं। इतनी बुरी हालत में हिन्दू वहां हिन्दू के नाते नहीं रह सकता। हम लोग पाकिस्तान वापस नहीं जाएंगे। यदि भारत सरकार हमें यहां नहीं रखना चाहती है, तो गोली मार दे। हम लोग मरना पसंद करेंगे, पर पाकिस्तान वापस नहीं जाएंगे।’
गंगाराम न्यू हला, जिला-मटियारी, सिंध के रहने वाले हैं। इनके परिवार में कुल 46 लोग हैं। घर के सभी पुरुष सदस्य, पाकिस्तान में मजदूरी करते थे और स्त्रियां डर से घर से बाहर नहीं निकल पाती थीं। ये लोग अपने बच्चों को स्कूल इसलिए नहीं भेजते थे कि उन्हें इस्लामी शिक्षा दी जाती थी। इन्हें लगता है कि भारत में हिन्दू के नाते वे रह सकते हैं, और खुली हवा में सांस ले सकते हैं।
जब गंगाराम अपनी आपबीती बता रहे थे तब मिट्ठूमल्ल गुमसुम एक किनारे बैठे थे। कुछ पूछा तो उनकी आंखें डबडबा गर्इं। मिट्ठूमल्ल के साथ जो हुआ है उसे जानकर हर किसी का ह्मदय चीत्कार कर उठेगा। मिट्ठूमल्ल ने कहा, ‘जिला सांघड़ के जामगोठ गांव में मेरा बड़ा सा घर था और 21 सदस्यीय परिवार के गुजारे के लिए जमीन भी थी। किंतु तीन साल पहले गांव के ही कट्टरवादियों ने हम पर एक झूठा आरोप लगाया और घर जला दिया। जमीन पर भी कब्जा कर लिया। जान बचाकर हम लोग गांव से निकल गए और दूर के एक जंगल में छुपकर रहे। हम लोगों के पास न तो पैसा था और न ही खाने के लिए एक दाना। ऐसे हालात में जंगल में कब तक रहते। फिर भी भूखे-प्यासे हम लोग वहां कई दिन रहे। जब भूख बर्दाश्त नहीं होने लगी तो अपने रिश्तेदारों के यहां गए। रिश्तेदारों ने ही मुकदमा करने को कहा। पर अभी तक कुछ नहीं हुआ है। अब हमारा घर किस हालत में है, यह भी नहीं पता, क्योंकि फिर हम लोग कभी गांव नहीं लौट पाए। तीन साल का समय हम लोगों ने जंगल, सड़क के किनारे या किसी रिश्तेदार के यहां बिताया है। कुछ हिन्दुओं ने ही हम लोगों का वीजा बनवाया और अब हम लोग भारत आ चुके हैं। भारत सरकार से गुजारिश है कि वह हमें यहां शरण दे।’
हैदराबाद (सिंध) के अर्जुन दास अपने परिवार के 11 सदस्यों के साथ आए हैं। कहते हैं, ‘पाकिस्तान में हिन्दुओं को सिर्फ खेतिहर मजदूर बनाकर रखा जाता है। मजदूरी भी इतनी कम दी जाती है कि अकेले आदमी का भी गुजारा नहीं होता है। कुछ कहने पर कहा जाता है कि मुसलमान बन जाओ हर चीज मिलेगी। पाकिस्तान की कुल 25 करोड़ आबादी में 1 प्रतिशत भी हिन्दू नहीं रह गए हैं। हिन्दुओं को जबर्दस्ती इस्लाम कबूलवाया जाता है। मंदिर तोड़ दिए जाते हैं। हम जैसे लोग किसी भी सूरत में अपने पूर्वजों के सनातन धर्म को नहीं छोड़ना चाहते हैं। इसलिए सब कुछ छोड़कर यहां आए हैं। हिन्दुओं को सरकारी नौकरी में नहीं लिया जाता है। एकाध हिन्दू किसी सरकारी दफ्तर में काम कर रहा हो तो यह कोई बड़ी बात नहीं है। सेना और पुलिस बल में तो हिन्दुओं को लिया ही नहीं जाता है।’
सिंध के हाला शहर से आए रामलीला कहते हैं, ‘पाकिस्तान में हिन्दुओं को खुलकर सांस भी नहीं लेने दी जाती है। पड़ोसी मुस्लिम बहुत ही बारीकी से हिन्दुओं पर नजर रखते हैं। किसी हिन्दू त्योहार के आने से पहले ही चेतावनियां मिलने लगती हैं। चाहे होली, दीवाली, रामनवमी या कोई अन्य त्योहार हो, कहा जाता है जो कुछ करो घर के अंदर करो। इबादत की आवाज बाहर नहीं आनी चाहिए। शंख, घंटी आदि बजाना सख्त मना है। त्योहारों या अन्य किसी दिन हिन्दू जब मंदिर जाते हैं, तो मंदिर के बाहर मुसलमान खड़े रहते हैं और कहते हैं मंदिर क्यों जाते हो, मस्जिद जाओ। उनकी बात नहीं मानने पर हिन्दुओं पर हमले किए जाते हैं। घरों में आग लगा दी जाती है।’
हाला शहर के ही चंदर राय की उƒा सिर्फ 18 साल है और मोटर मैकेनिक हैं। कहते हैं, ‘लोग गाड़ी ठीक करवाकर मुझे पैसे नहीं देते थे। कहते थे मुस्लिम बन जाओगे तो तुम्हारी सारी दिक्कतें खत्म हो जाएंगी। किंतु मैं अपनी जान दे सकता हूं, किंतु धर्म नहीं। पाकिस्तान में हिन्दुओं का कोई भविष्य नहीं है। इसलिए मैंने वहां शादी भी नहीं की। सोचा कि जब यहां मैं ही सुरक्षित नहीं हूं तो फिर शादी करके अपने बच्चों को इस नरक में क्यों लाऊं? पाकिस्तान में हिन्दू पैदा हो तो मुसीबत और मर जाए तो और बड़ी मुसीबत। यदि कोई हिन्दू मर जाता है तो अंतिम संस्कार नहीं करने दिया जाता है। मुसलमान कहते हैं मुर्दे को जलाने से बदबू आती है, इसलिए उसे दफना दो। यही वजह है कि अपने किसी रिश्तेदार के मरने पर हिन्दू रो भी नहीं पाते हैं। उन्हें लगता है कि यदि रोए तो पड़ोसी मुसलमान को पता लग जाएगा और फिर वे उसे दफनाने पर जोर देंगे। हम लोग अपने किसी मृत परिजन का अंतिम संस्कार चोरी-छुपे रात में कहीं सुनसान जगह पर करते हैं। शव को आग लगाने के बाद भाग खड़े होते हैं।’
डेरा बाबा धुनीदास के संचालक राजकुमार कहते हैं पाकिस्तान से आए इन हिन्दुओं की हर तरह से मदद की जाएगी। उन्होंने हिन्दू समाज से भी कहा कि इन हिन्दुओं की सहायता के लिए खुलकर आगे आए। उनके इस आह्वान पर ही कई लोग इन हिन्दुओं की मदद में लगे हैं। गंगानगर (राजस्थान) के ईश्वरदास और फिरोजपुर (पंजाब) के डा.कृष्ण चन्द सोलंकी कागजी कार्रवाई में इन हिन्दुओं की सहायता कर रहे हैं।
वरिष्ठ अधिवक्ता और दुनिया भर के हिन्दुओं के अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले राजेश गोगना कहते हैं, ‘पाकिस्तान में हिन्दुओं को बचाने के लिए वहां अल्पसंख्यक आयोग और अल्पसंख्यक मंत्रालय बने। वहां हिन्दुओं को शिक्षा और सरकारी नौकरी में आरक्षण दिया जाए।’ सेन्टर फार ह्रूमन राइट्स एण्ड जस्टिस के अध्यक्ष जगदीप धनकड़ ने कहा कि भारत इस मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र संघ में उठाए और विश्व बिरादरी में पाकिस्तान को बेनकाब करे।
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सांस्कृतिक धरातल पर ही सम्भव होगा
व्यवस्था परिवर्तन
नरेन्द्र सहगल
भ्रष्ट राज्य व्यवस्था को बदलने के लिए चारों ओर परिवर्तन का शोर मच रहा है। राजनीतिक तौर तरीकों में परिवर्तन, चुनाव प्रणाली में परिवर्तन, शिक्षा क्षेत्र में परिवर्तन, आर्थिक नीतियों में परिवर्तन और सरकारी तंत्र में परिवर्तन अर्थात राष्ट्र जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में परिवर्तन की जरूरत पर बल दिया जा रहा है। योगगुरु बाबा रामदेव और सामाजिक नेता अण्णा हजारे ने देश में चल रही परिवर्तन की इस हवा को एक प्रचण्ड आँधी का रूप दे दिया है। इस संदर्भ में हमारे राजनीतिक दलों के नेताओं ने तो मानो परिवर्तन लाने के आश्वासनों की झड़ी लगा दी है।
प्रशासनिक ढांचे को भ्रष्टाचार से मुक्त करके साफ-सुथरी राज्य व्यवस्था देने का आश्वासन, सामाजिक वैमनस्य को समाप्त करके सामाजिक समरसता स्थापित करने का आश्वासन, साम्प्रदायिक झगड़ों को मिटाकर शांति का आश्वासन, आर्थिक विषमता को दूर करके सबके भरण-पोषण का अश्वासन और आतंकवाद को रोककर परस्पर सौहार्द बनाने के आश्वासनों के इन गरजते बादलों में से कहीं भी ठोस परिवर्तन की बूंदें बरसती हुई दिखाई नहीं दे रहीं।
सभी सद्प्रयास विफल हो गए
व्यवस्था परिवर्तन का ये राजनीतिक एवं गैर राजनीतिक अभियान स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरंत पश्चात् प्रारम्भ हो गया था। प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने वामपंथ प्रेरित रूस की समाजवाद आधारित आर्थिक व्यवस्था के मॉडल को आदर्श मानकर परिवर्तन की दिशा तय करने का निश्चय किया। उन्होंने इस ओर संवैधानिक पग भी बढ़ाए। बहुत थोड़े कालखण्ड में इस व्यवस्था के दुष्परिणाम सामने आने लगे।
व्यवस्था परिवर्तन की इस दिशा पर अपनी असहमति प्रकट करते हुए तत्कालीन कांग्रेस पार्टी के दिग्गज जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेन्द्र देव, आचार्य कृपलानी, डॉ. राममनोहर लोहिया इत्यादि नेताओं ने भारत की ग्रामीण संस्कृति पर आधारित समाज व्यवस्था का नारा बुलंद कर दिया। इन नेताओं ने समाजवादी आंदोलन का धरातल तैयार करने का भरसक प्रयास किया। अपनी समाज भक्ति और ध्येयनिष्ठा के बावजूद ये समाजवाद प्रेरित कांग्रेसी नेता सफल नहीं हो सके। इनके सद्प्रयास छोटे-छोटे समाजवादी दलों में बिखर कर समाप्त हो गए।
अन्त्योदय और संपूर्ण क्रांति
इसी तरह महात्मा गांधी के परम शिष्य एवं उनके द्वारा बताए गए समाज परिवर्तन के आदर्शों से प्रेरित आचार्य विनोबा भावे ने भी अपनी तरह का एक सामाजिक आंदोलन खड़ा करने का प्रयास किया। सामाजिक जीवन में समानता लाने के उद्देश्य से उन्होंने देश के सामने ‘धन और धरती बंट कर रहेंगे’ का आदर्श वाक्य रखा। आचार्य विनोबा भावे ने अन्त्योदय क्रांति के नाम से अनेक कार्यक्रम शुरू किए। इन आदर्शों पर आधारित भूमि वितरण से संबंधित कई सुधारों को सरकार ने कानून के माध्यम से लागू करने की मुहिम छेड़ी। परन्तु इस सरकारी प्रयास में से कोई भी दीर्घकालीन सुचारु व्यवस्था परिवर्तन नहीं कर सका।
भ्रष्ट राज्य व्यवस्था से देश और जनता की हो रही भारी हानि से व्यथित होकर लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने 80 के दशक में एक प्रचण्ड सामाजिक आंदोलन ‘संपूर्ण क्रांति’ को जन्म दिया। परिणामस्वरूप देश के तत्कालीन शासकों ने घबराकर अथवा अपनी सत्ता बचाकर रखने के उद्देश्य से देश में आपातकाल लागू कर दिया। लोकतंत्र की इस तरह से की गई हत्या के विरोध में सारा देश संपूर्ण क्रांति अर्थात व्यवस्था परिवर्तन के लिए खड़ा हो गया। परिणामस्वरूप आपातकाल हटा, सत्ता परिवर्तन हुआ परन्तु इस परिवर्तन के बाद सत्ता पर काबिज जनता पार्टी के घटक दलों ने आपस में लड़कर व्यवस्था परिवर्तन के जयप्रकाश नारायण के स्वप्न को चूर-चूर कर दिया।
अण्णा और बाबा ने जगाई अलख
लगभग तीन दशक के पश्चात् आज फिर अपने देश में व्यवस्था परिर्तन को लेकर जन आंदोलन प्रारम्भ हुए हैं। सामाजिक नेता श्री अण्णा हजारे ने महात्मा गांधी के रास्ते पर चलते हुए अपने ऐतिहासिक अनशन के माध्यम से केन्द्र की सरकार को जनलोकपाल विधेयक के मुद्दे पर झुकाया है। भ्रष्टाचार मुक्त राज्य व्यवस्था की स्थापना के लिए अण्णा हजारे ने अपने गैर राजनीतिक सामाजिक आंदोलन का तीसरा चरण प्रारम्भ करने की घोषणा कर दी है। वे देश के कोने-कोने में जाकर प्रशासनिक व्यवस्था में सम्पूर्ण परिवर्तन लाने के लिए समाज को विशेषतया युवकों को लम्बे संघर्ष के लिए तैयार करेंगे। अण्णा हजारे के इन कार्यक्रमों में भ्रष्ट राजनीतिक नेताओं का विरोध करना और स्वच्छ छवि वाले नेताओं को एक मंच पर लाना भी शामिल है। अण्णा हजारे ने बहुत शीघ्र अपने लक्ष्य को प्राप्त करने का विश्वास प्रकट किया है।
उधर देश के हर कोने में योग आधारित भारतीय संस्कृति की अलख जगाने वाले स्वामी रामदेव ने भी अपने द्वारा शुरू की गई राष्ट्रीय स्वाभिमान यात्रा का दूसरा चरण स्वतंत्रता सेनानी वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई की कर्मस्थली झांसी से प्रारम्भ कर दिया है। वे 16 दिन में एक लाख कि.मी. की यात्रा करके देशवासियों को भ्रष्टाचार और काले धन के विरोध में संगठित करेंगे। स्वामी जी ने 2012 में एक ऐसी जनक्रांति की भविष्यवाणी की है जिसका नेतृत्व देश का युवा वर्ग करेगा। बाबा ने इस क्रांति को ‘2012 महासंग्राम’ का नाम दिया है।
दलगत राजनीति से ऊपर उठें
इन दोनों गैर राजनीतिक सामाजिक नेताओं के प्रयासों के फलस्वरूप व्यवस्था परिवर्तन के लिए समाज में हुए जागरण का प्रभाव सत्ताधारी दलों पर थोड़ी बहुत मात्रा में पड़ना शुरू हुआ है। अनेक राजनीतिक दलों ने अपने क्रियाकलापों में भ्रष्टाचार, कालाधन और व्यवस्था परिवर्तन के मुद्दों को प्रमुखता से स्थान दिया है। यह एक अच्छी बात है। यदि देश के राजनीतिक दल भ्रष्ट राजनीतिक व्यवस्था को बदलने के उद्देश्य से अपनी गतिविधियों को अंजाम देते हैं तो निश्चित रूप से परिवर्तन आएगा। परन्तु इसके लिए दलगत स्वार्थों और सत्ता केन्द्रित राजनीतिक तौर तरीकों को तिलाञ्जलि देकर राष्ट्र/समाज केन्द्रित कार्य संस्कृति को अपनाना होगा। श्री अण्णा हजारे और बाबा रामदेव द्वारा शुरू किए गए जन आंदोलनों का समर्थन इसी मानसिकता से किया गया तो समाज जीवन में निश्चित रूप से परिवर्तन आएगा।
उपरोक्त संदर्भ में इस सच्चाई पर विचार करना भी बहुत जरूरी है कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् हमारे समाज जीवन को दिशा भ्रमित करने में सबसे अधिक योगदान हमारे राजनीतिक दलों और नेताओं का रहा है। आज प्रत्येक क्षेत्र में राजनीति का वर्चस्व है। राजनीतिक नेता अपने-आपको परिवर्तन का एकमात्र मसीहा और साधन मानकर पेश कर रहे हैं। यदि समस्त राजनीतिक दलों के चुनावी घोषणापत्र पढ़े जाएं तो लगेगा कि बस अब भारत के लोग सुखी सम्पन्न होने ही वाले हैं। इन नेताओं के भाषणों से लगता है कि इनसे बड़ा ईमानदार जनता का हमदर्द और कोई नहीं है। ये राजनीतिक दल समाज सुधार, समरसता, साम्प्रदायिक सौहार्द और आर्थिक उन्नति इत्यादि नारों और वादों के माध्यम से परिवर्तन की स्वप्निल दुनिया खड़ी करने के लिए निरंतर प्रयासरत दिखाई देते हैं। परन्तु परिवर्तन की किरण कहीं दृष्टिगोचर नहीं हो रही।
सांस्कृतिक प्रदूषण को समाप्त करें
विचारणीय बिंदु यह भी है कि परिवर्तन जब होगा तो किसी एक कोने में न होकर सभी क्षेत्रों में होगा। आज तो हमारे राष्ट्र जीवन के सारे अंग-प्रत्यंग दूषित हैं। शिक्षा जगत में नैतिक शिक्षा का अभाव है। धार्मिक शिक्षा को जातिगत और साम्प्रदायिक कहकर नकारा जा रहा है। रोजगारोन्मुख शिक्षा की अवधारणा ने शिक्षण संस्थाओं को संस्कृति और नैतिकता से दूर करके भ्रष्टाचार के निकट पहुंचा दिया है। प्रशासन के प्रत्येक अंग में भ्रष्टाचार का वर्चस्व भी इसी सांस्कृतिक प्रदूषण का प्रतिफल है। वास्तव में परिवर्तन का चक्का यहीं जाम हो गया है।
अपने देश में साधु संन्यासियों, धार्मिक उपदेशकों, गुरुओं, महामण्डलेश्वरों और शंकराचार्यों की कोई कमी नहीं है। सबके मत-मतांतर, वैचारिक क्रियाकलाप और कथा प्रवचन इत्यादि समाज को प्रेरित करके इसी परिवर्तन की ओर मोड़ने के ही प्रयास हैं। परन्तु हमारे राष्ट्र जीवन को व्यवस्थित करने के लिए गैर राजनीतिक धरातल पर हजारों लाखों साधन उपलब्ध होने के बावजूद हमारा समाज तेज गति के साथ अपनी शाश्वत जीवन पद्धति और अपनी अजर अमर सांस्कृतिक धरोहर से कटता चला जा रहा है। समाज जीवन में से सह-अस्तित्व, निस्वार्थ भाव, सत्य, अहिंसा, ईमानदारी, सेवा समर्पण और सहयोग जैसी मानवीय अवधारणाएं समाप्त हो रही हैं।
दीर्घकालीन व्यवस्था परिवर्तन हो
इस दिशा-भ्रमित परिवर्तन को रोके बिना न तो हमारे समाज जीवन में से भ्रष्टाचार का महारोग समाप्त होगा और न ही अण्णा हजारे और स्वामी रामदेव जैसे सामाजिक नेताओं के प्रयास ही सफलीभूत होंगे। किसी भी देश की संस्कृति ही वह धरातल होती है जिस पर समाज जीवन को व्यवस्थ्ति किया जाता है और समय-समय पर आवश्यक परिवर्तन भी किया जा सकता है। अपनी संस्कृति से विमुख हुए समाज में कभी भी सुचारु व्यवस्था की पकड़ नहीं बन सकती।
अत: भ्रष्ट राज्य व्यवस्था को बदलने के तात्कालिक उपायों को न छोड़ते हुए दीर्घकालीन व्यवस्था परिवर्तन के लिए भारतीय संस्कृति के श्रेष्ठ धरातल पर मजबूती से खड़ा होने की जरूरत है। देश के राजनीतिक दल तो तात्कालिक उपायों को लागू करने तक ही सीमित रहेंगे। यह स्वाभाविक ही है परन्तु देश में सक्रिय गैरराजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक संगठनों को भारतीय जीवन मूल्यों पर आधारित कार्यसंस्कृति को सशक्त करने का अभियान छेड़ना चाहिए।
राज्य व्यवस्था के संचालकों एवं देश की राजनीतिक शक्तियों के विचलन के कारण जो अव्यवस्था फैल रही है उसे संस्कृति के समन्वित धागे से ही बांधा जा सकता है। सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, संयम इत्यादि मानवीय अवधारणाओं पर आधारित संस्कृति हमारे समस्त राष्ट्र जीवन में परिवर्तन ला सकती है। परिवर्तन की यही दिशा सार्थक होगी। अन्यथा परिवर्तन की दिशा की कल्पना करना व्यर्थ होगा।
समाज को सजग करना होगा
आज देश में भ्रष्ट शासकीय व्यवस्था के विरुद्ध जो आवाज बुलंद हो रही है वह समस्त जनता की वेदना का स्वाभाविक प्रस्फुटन है। गैर राजनीतिक धरातल पर उभरकर सामने आए जनांदोलन को विफल करने के प्रयास भी युद्धस्तर पर शुरू हो गए हैं। सत्ताधारी गठबंधन में शामिल राजनीतिक दलों के नेताओं को ये आंदोलन पसंद नहीं आ रहा है। अपने वोट बैंक को विपक्षी दलों के खाते में जाता देखकर कांग्रेस समेत ऐसे सभी दल घटिया राजनीति पर उतर आए हैं।
इस समय भारतीय समाज को सजग रहने की आवश्यकता है। भ्रष्ट राज्य व्यवस्था के संचालक एवं संरक्षक राजनीतिक नेता प्रत्येक प्रकार के हथकंडे अपना कर इस सामाजिक जागृति को कुचलने का प्रयास करेंगे। इस समय बाबा रामदेव के प्रयासों से भारतीय संस्कृति पर आधारित सामाजिक जागृति का दौर शुरू हुआ है और अण्णा हजारे के आंदोलन के फलस्वरूप वंदे मातरम् और भारत माता की जय के नारों से देशभक्ति का माहौल देश में बना है। भारतीय संस्कृति के इसी धरातल पर व्यवस्था परिवर्तन होगा, यह निश्चित है।
मंथन
देवेन्द्र स्वरूप
गोपालगढ़ से महबूबा मुफ्ती तक
इस 14 सितम्बर (बुधवार) को सोनिया पार्टी द्वारा शासित राजस्थान के भरतपुर जिले के गोपालगढ़ नामक कस्बे में 9 मुस्लिम मेवों की मौत ने सोनिया पार्टी की वोट बैंक राजनीति में भारी उबाल ला दिया है। मुस्लिम नेताओं का आरोप है कि उनकी मौत पुलिस की गोलीबारी से हुई। पुलिस ने गोपालगढ़ की बड़ी मस्जिद में घुसकर अशर की नमाज में भाग ले रहे मुसलमानों पर ताबड़तोड़ गोलियां चलायीं, जिनके निशान मस्जिद की दीवारों और दरवाजों पर अभी भी मौजूद हैं। उनका यह भी कहना है कि पुलिस की शह पर गुर्जर हिन्दुओं ने मस्जिद में घुसकर मेवों पर धारदार हथियारों से हमला किया, उन पर पेट्रोल छिड़ककर आग लगा दी, और अपने पाप को छिपाने के लिए जली हुई लाशों को मस्जिद के पीछे कुएं में फेंक दिया, या उन्हें आग के ढेर में जला दिया- ऐसी अफवाहों के आधार पर राजस्थान की मुस्लिम संस्थाओं के साझा मंच ‘मुस्लिम फोरम’ का आरोप है कि मृतकों की संख्या 9 नहीं, बहुत अधिक है, कम से कम पन्द्रह है, ‘मुस्लिम फोरम’ की शिकायत है कि जबसे सोनिया पार्टी की सरकार राजस्थान में आयी है तब से (पिछले दो साल में) जालेसर, सारदा, मनोहरथाना और महेशपुरा आदि अनेक स्थानों पर साम्प्रदायिक दंगे हो चुके हैं, जिनमें मुस्लिम समाज को ही जान-माल की हानि उठानी पड़ी है। गुस्साए मुस्लिम नेतृत्व ने चेतावनी दी है कि पिछले विधानसभा और लोकसभा चुनावों में मुस्लिम वोटरों के एकमुश्त समर्थन का अगर यही बदला दिया जाना है तो अब सोनिया पार्टी मुसलमानों के समर्थन की उम्मीद न करे।
सोनिया पार्टी की घबराहट
इस धमकी से सोनिया गांधी के होश उड़ना स्वाभाविक है। उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा पार्टी केन्द्रित नहीं, वंश केन्द्रित है। उसका एकमात्र लक्ष्य ‘युवराज’ राहुल का प्रधानमंत्री पद पर अभिषेक कराना है और उसके लिए पूरे देश में 18 प्रतिशत मुस्लिम और 5 प्रतिशत चर्च नियंत्रित ईसाई वोट बैंक को अपने समर्थन में एकजुट करना है। इसके लिए अगर राज्यों में विभिन्न क्षेत्रीय दलों और भाजपा की सरकारें चलती रहें, पर केन्द्र में मुस्लिम-ईसाई गठबंधन उनके पीछे खड़ा रहे तो वे अपनी रणनीति को सफल मानेंगी। इसके लिए वे किसी भी गैरसोनिया दल द्वारा शासित राज्य में किसी भी छोटी-सी साम्प्रदायिक घटना पर अपने आंसू बहाना आवश्यक समझती हैं-चाहे वह बिहार में फारबिसगंज हो या उत्तरप्रदेश में बरेली। पर, राजस्थान ने तो सब गुड़गोबर कर दिया। अगर गोपालगढ़ की घटना को लेकर मुस्लिम नेतृत्व नाराज हो गया तो अगले वर्ष पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में सोनिया पार्टी की लुटिया डूब जाएगी, विशेषकर उत्तर प्रदेश में तो सोनिया पार्टी की चुनाव रणनीति पूरी तरह ढह जाएगी। इसलिए वहां मायावती, मुलायम सिंह और सोनिया पार्टी- तीनों ही मुस्लिम कार्ड खेलने में जुट गए हैं। मायावती ने केन्द्र को चिट्ठी लिखकर मुसलमानों को आरक्षण देने की मांग उठायी है तो सोनिया की केन्द्र सरकार ने पूरे भारत के मुसलमानों को आरक्षण देने का इरादा जाहिर कर दिया है।
पर, गोपालगढ़ के चक्र से कैसे बाहर निकलें। अपनी वंशवादी रणनीति के तहत सोनिया ने सार्वजनिक रूप से राजस्थान सरकार और मुख्यमंत्री गहलोत पर गोपालगढ़ कांड की पूरी जिम्मेदारी डालकर अपने मुस्लिम वोट बैंक को बचाने की कोशिश की है। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने सावधानी के तौर पर पहले ही जांच का जिम्मा सीबीआई को सौंपने के साथ भरतपुर के जिलाधिकारी कृष्णकमल और पुलिस अधीक्षक सिंगलाजदास का स्थानांतरण करके वहां नये चेहरे भेज दिये। मृतकों के परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी देने और परिवार को समुचित मुआवजा देने की घोषणा की। गृहमंत्री शांति धारीवाल ने राज्य के मुख्य सचिव एस.अहमद से पत्रकार वार्ता में घोषणा करायी कि गोपालगढ़ में पुलिस ने मस्जिद के भीतर भीड़ पर गोली चलायी ही नहीं, केवल हवाई फायर किये थे। पुलिस के वहां पहुंचने के पहले ही गुर्जरों और मेवों के बीच गोलीबारी शुरू हो चुकी थी। मारे गये लोगों के शरीर में से छर्रे निकले हैं जो पुलिस की गोलियों में नहीं होते। पुलिस का यह भी दावा है कि अगर पुलिस उस समय उपद्रव स्थल पर नहीं पहुंचती तो दोनों पक्षों के बीच गोलीबारी में 100-150 लोग मारे जाते।
गोपालगढ़ की घटना
इसके जवाब में मुस्लिम नेतृत्व का कहना है कि अगर दो पक्षों के बीच गोलीबारी हुई तो केवल मुसलमान ही क्यों मारे गए? एक भी गुर्जर क्यों नहीं मरा, 21 घायलों में 4 गुर्जरों को छोड़कर शेष सब मेव मुसलमान ही क्यों हैं? मुस्लिम नेतृत्व पूरे कांड को केवल 14 सितम्बर के अपरान्ह में मस्जिद के भीतर पुलिस के प्रवेश और 9 मृतकों पर केन्द्रित कर रहा है, उसके पहले के घटनाक्रम पर पर्दा डालने की कोशिश में लगा है। इसके लिए दैनिक हिन्दू में 19 सितम्बर और इंडियन एक्सप्रेस में 22 सितम्बर को प्रकाशित रपटों का अध्ययन बहुत आवश्यक है। इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार गोपालगढ़ में उपद्रव की शुरुआत एक दिन पहले मंगलवार को ही हो गयी थी। गोपालगढ़ की बड़ी मस्जिद के इमाम मौलवी अब्दुल रशीद ने खुद को पीटे जाने की खबर फैला दी थी। 5000 की जनसंख्या वाले गोपालगढ़ में गुर्जरों का भारी बहुमत है। वहां के सरपंच शेर सिंह भी गुर्जर रहे और मेवों के सिर्फ 100 घर हैं। लेकिन गोपालगढ़ के चारों ओर 40 गांवों में मुसलमान मेवों का बहुमत है और मौलवी अब्दुल रशीद के आह्वान पर 14 तारीख की सुबह से ही गोपालगढ़ के इन 40 गांवों के मेवों का जमावड़ा आरंभ हो गया था। 5000 से अधिक मेव गोपालगढ़ में इकट्ठा हो गये थे, उधर गुर्जरों ने भी आत्मरक्षार्थ महा पंचायत बुलायी। अत: 14 की प्रात: से ही तनाव का वातावरण पैदा हो गया। उस समय मेव पक्ष भारी रहा। उन्होंने गोपालगढ़ में गुर्जरों के मकानों और दुकानों पर हमला करके उन्हें तोड़ा, आग लगाई, पिछले एक हफ्ते के समाचार पत्रों में इस ध्वंसलीला का वर्णन किसी कोने में दबा मिल जाएगा। इस तनाव के वातावरण में जिला प्रशासन व पुलिस अधिकारियों ने दोनों पक्षों के प्रतिनिधियों की एक बैठक मस्जिद से 50 मीटर दूर स्थित गोपालगढ़ थाने में बुलायी। कम्मार क्षेत्र की कांग्रेसी विधायक जाहिदा खान और नगर क्षेत्र की भाजपा विधायक अनिता सिंह गुर्जर ने भी समस्या का हल खोजने का प्रयास किया। जब थाने में यह बैठक चल रही थी तभी शोर मचा कि मस्जिद में गोली चल गयी है जिसमें गुर्जर मारे गये हैं। तब तक प्रशासन इस घटना का सामना करने के लिए पूरी तरह तैयार नहीं था। इसलिए वह पीछे गया और उसने दंगा निरोधक दस्ते को उसके बख्तरबंद वाहन वज्र के साथ बुलाया।
यहां प्रश्न खड़ा होता है कि गुर्जर और मेव समुदायों के बीच झगड़े की जड़ क्या है। झगड़े की जड़ है मस्जिद के पीछे एक छह बीघा जमीन का टुकड़ा, जो एक तालाब के किनारे स्थित है। गुर्जर समाज का कहना है कि परम्परा से यह जमीन तालाब का हिस्सा है और हिन्दुओं के धार्मिक उपयोग के लिए है, किन्तु 42 साल पहले पता नहीं कैसे किसी पटवारी ने अपने खाते में जमीन के इस टुकड़े को कब्रागाह दिखला दिया। तभी से यह विवाद चला आ रहा है। कुछ महीने पहले पूरी जांच-पड़ताल के बाद राजस्व विभाग ने पटवारी की भूल को सुधारकर इस भूखंड को तालाब के साथ जोड़ दिया, जिसके विरोध में मौलवी अब्दुल रशीद न केवल न्यायालय में चले गए, बल्कि उन्होंने उस जमीन पर अपना कब्जा दिखाने के लिए निर्माण कार्य भी आरंभ करा दिया। उनकी इसी जल्दबाजी ने तनाव और संघर्ष की स्थिति पैदा कर दी। जो विवाद आपस में बैठकर हल किया जा सकता था, वह इतना भयंकर रूप धारण कर गया।
राष्ट्रवादी सोच का मोल नहीं
सोनिया पार्टी में शबनम हाशमी जैसे उसके सिपहसालार इस स्थिति को संघ परिवार की साजिश का रंग देने की कोशिश कर रहे हैं। पता नहीं क्यों उनका विश्वास है कि संघ का नाम जोड़ने मात्र से कट्टरवादी मुस्लिम नेतृत्व उनके साथ आ जाएगा। इसे राष्ट्र का दुर्भाग्य ही कहना होगा कि जो लोग संघ परिवार पर मुस्लिम विरोधी छवि लादने में दिन-रात जुटे रहते हैं वही लोग साम्प्रदायिक सद्भाव और एकता के सबसे बड़े शत्रु हैं। वस्तुत: हिन्दू- मुस्लिम विग्रह में उन्होंने अपना निहित स्वार्थ पैदा कर लिया है। विभाजन के बाद जिन मुसलमानों ने खंडित भारत में रहने का निर्णय किया, उन्हें द्विराष्ट्रवाद की मानसिकता से बाहर निकालकर राष्ट्रीय धारा में समरस करने की दिशा में उन्होंने कोई प्रयास नहीं किया, उलटे उनमें मजहबी कट्टरवाद का जहर घोलने और उन्हें पृथकतावाद के रास्ते पर धकेलने में ही अपनी वोट बैंक राजनीति की सफलता दिखी। उन्होंने मुस्लिम समाज में उदार राष्ट्रवादी नेतृत्व को उभरने ही नहीं दिया। ऐसे मुस्लिम नेता विभाजन के समय से ही हाशिये पर खड़े रहे। चाहे वे मुहम्मद करीम छागला हों, एम.एच.ए.बेग हों, सिकंदर बख्त हों या आज आरिफ मुहम्मद खान, नजमा हेपतुल्ला, आरिफ बेग, शाहनवाज हुसैन, मुख्तार अब्बास नकवी, प्रो.इम्तियाज अहमद जैसे बुद्धिजीवी हों।
संघ परिवार ने इस दिशा में जो रचनात्मक प्रयास किये, उनकी या तो उन्होंने उपेक्षा की या उनको विकृत रूप में प्रस्तुत किया। संघ की प्रेरणा से गठित राष्ट्रीय मुस्लिम मंच ने जो राष्ट्रवादी साहित्य रचा है, राष्ट्रभक्ति के नारे व गीत रचे हैं, प्रखर राष्ट्रीय भाव व एकता को सुदृढ़ करने वाले कार्यक्रम किये हैं, प्रदर्शन किये हैं, उन्हें ये छद्म सेकुलरवादी अपनी नफरत की राजनीति में बाधा समझते हैं। अत: ऐसे राष्ट्रभक्त मुस्लिम कार्यकत्र्ताओं को वे हिन्दुओं या संघ की कठपुतली कह देते हैं। यही आरोप मि.जिन्ना मौलाना आजाद पर लगाया करते थे। संघ की प्रारंभ से ही यह मान्यता रही है कि भारतीय मुसलमानों की रगों में उनके हिन्दू पूर्वजों का ही रक्त बह रहा है। परिस्थिति के दबाव में उनके किसी पूर्वज ने किसी समय इस्लामी उपासना पद्धति को अपनाया होगा, पर पूर्वज तो नहीं बदले थे। इस्लामी कट्टरवादी सोच का प्रयास रहा है कि मतान्तरित लोग अपने इस्लाम पूर्व के इतिहास से संबंध विच्छेद कर लें और उसे ‘जाहिलिया’ या ‘अंधकारयुग’ के रूप में देखें।
पूर्वज तो हिन्दू ही हैं
राष्ट्रीय समाज की रचना के लिए जहां देशभक्ति का अधिष्ठान आवश्यक है वहीं समान ऐतिहासिक विरासत में गर्व की भावना भी आवश्यक है। संघ यह भी मानता है कि भारतीय मुसलमानों को मध्यकालीन विदेशी आक्रमणकारियों की ध्वंसलीला के लिए कदापि जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। इसलिए पाप के उस बोझ को वे अपने सिर पर क्यों ढोयें? यदि इस्लामी उपासना पद्धति से उनकी आध्यात्मिक भूख तृप्त होती है तो वे पूरी श्रद्धा के साथ उसका पालन करते हुए भी अपने देश की समान ऐतिहासिक परम्परा को गर्वपूर्वक शिरोधार्य करें। यही बात जवाहरलाल नेहरू ने 24 जनवरी 1948 को अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के छात्रों के सामने रखी थी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इसी दिशा में कार्य कर रहा है। उसकी सहमति से 1951 में जन्मे राजनीतिक दल ने भारतीय जनसंघ नाम धारण किया, अपने सदस्यता के द्वार प्रत्येक जाति, भाषा, पंथ और क्षेत्र के नागरिकों के लिए खोले। इस समय भी संघ की प्रेरणा से एक और मूलगामी प्रयास हो रहा है। राजस्थान में संघ के कार्यकत्र्ता मुस्लिम समाज में जाकर उन्हें उनके मूल गोत्रों को खोजने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। एक कार्यकत्र्ता का अनुभव इस दृष्टि से स्पंदित करने वाला है। उन्होंने भरतपुर जिले के ही मुस्लिम युवकों की एक बैठक में पूछा कि क्या आपमें किसी को अपने हिन्दू गोत्र का पता है? तो उसे आश्चर्य हुआ कि उस बैठक में आठ युवकों ने खड़े होकर अपना मूल गोत्र तो बताया ही, यह भी बताया कि उनका कौन-सा पूर्वज कब इस्लाम में दीक्षित हुआ था। थोड़ा और प्रयास करने पर इन कार्यकत्र्ता को पता चला कि राजस्थान में भाटों का एक वर्ग है जिसके पास इन मतान्तरितों के वंश वृक्ष अभी भी सुरक्षित हैं। उन्होंने हिन्दू गुर्जरों और मुस्लिम गुर्जरों का सामूहिक मिलन आयोजित किया और पाया कि समान गोत्र के कारण उपासना पद्धति की भिन्नता होने पर भी उनके बीच भ्रातृत्व का भाव जाग्रत हुआ, किंतु वोट बैंक की नफरती राजनीति करने वालों को राष्ट्रीय एकता के ऐसे रचनात्मक जमीनी प्रयास शत्रु नजर आते हैं।
मोदी से नफरत का अपप्रचार
कट्टरवाद और पृथकतावाद की राजनीति में उनका कितना गहरा स्वार्थ पैदा हो गया है इसका ताजा उदाहरण गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के सद्भावना मिशन और उपवास के विरुद्ध अपप्रचार और षड्यंत्री राजनीति में मिल जाता है। मोदी के सद्भावना उपवास को फीका करने के लिए संघ और भाजपा की पाठशाला में पढ़कर सोनिया पार्टी में गये शंकर सिंह वाघेला ने दुर्भावना उपवास का नाटक रचा। नरेन्द्र मोदी के उपवास स्थल पर मुस्लिम नेताओं व समाज की भारी उपस्थिति से घबराकर मोदी विरोधी अभियान की सूत्रधार मल्लिका साराभाई और एडवोकेट मुकुल सिन्हा ने अहमदाबाद में नरोडा पाटिया में मुस्लिम प्रदर्शन का स्वांग रचा। मल्लिका साराभाई ने अपने वकीलों को नरेन्द्र मोदी के द्वारा दस लाख रुपये की रिश्वत देने का आरोप लगाया और इसके प्रमाण स्वरूप मोदी विरोधी पूर्व आईजी श्रीकुमार और संजीव भट्ट के हलफनामों का उल्लेख किया। किन्तु श्रीकुमार ने अपने हलफनामे की बात को झूठ बताया और वकीलों ने वक्तव्य दे दिया कि उन्हें कभी कोई रिश्वत नहीं दी गयी। उपवास स्थल पर मुसलमानों की भारी उपस्थिति के बारे में अपप्रचार किया गया कि उन्हें सरकारी तंत्र गाड़ियों में भरकर लाया था। यहां तक कहा गया कि वे सब हिन्दू ही थे जिन्हें मुसलमानों की टोपी पहना दी गई थी। नरेन्द्र मोदी की मुस्लिम विरोधी छवि को जिंदा रखने के लिए दूर दराज के किसी अनजाने इमाम की दी टोपी को न पहनने का खूब प्रचार किया गया कि इस टोपी को न पहनने से स्पष्ट है कि मोदी अब भी मुस्लिम विरोधी हैं।
ये लोग नारा विकास का लगाते हैं पर राजनीति सम्प्रदायवाद की या अल्पसंख्यकवाद की करते हैं। यह तब स्पष्ट हो गया जब लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने 10 सितम्बर को राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक में 138 प्रतिनिधियों की उपस्थिति में कश्मीर की पीडीपी नेता महबूबा मुफ्ती के उस अनुभव को सुना दिया जिसमें उन्होंने कहा कि उनके एक उद्योगपति मुस्लिम मित्र ने नरेन्द्र मोदी से मिलने का समय लिया और संबंधित अधिकारियों की उपस्थिति में चर्चा करके आधे घंटे में उनके प्रस्ताव को स्वीकृति मिल गई। इस अनुभव को सुनकर महबूबा ने कहा कि मोदी के गुजरात में विकास कार्य में हिन्दू-मुस्लिम भेद नहीं रखा जाता। टेलीविजन चैनलों और अखबारों में इस भाषण के प्रचारित होते ही महबूबा मुफ्ती को जम्मू-कश्मीर में अपनी पृथकतावादी राजनीति खतरे में दिखाई देने लगी। वहां के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने इस अनुभव को महबूबा के विरुद्ध राजनीतिक हथियार बना लिया। जिससे तिलमिलाकर महबूबा ने उमर और उनके पिता फारुख अब्दुल्ला पर गुजरात के दंगों के समय मौन रहने और मोदी का समर्थन करने का आरोप लगा डाला। महबूबा ने सुषमा स्वराज पर झूठ बोलने का आरोप लगाते हुए कहा कि राष्ट्रीय एकता परिषद में मैंने ऐसा कोई भाषण दिया ही नहीं। उन्होंने सरकार से परिषद की बैठक में उनके मूल भाषण को प्रकाशित करने का अनुरोध किया। इसके पीछे शायद उनका यह विश्वास होगा कि यह भाषण जितना महबूबा की पृथकतावादी राजनीति के विरुद्ध जाता है उतना ही सोनिया सरकार की वोट बैंक राजनीति के लिए घातक होगा। किन्तु मनमोहन मंत्रिमंडल के एक सदस्य ई.अहमद ने, जो स्वयं भी परिषद् की उस बैठक में उपस्थित थे, पुष्टि की है कि महबूबा ने अपने एक उद्योगपति मित्र के अनुभव के आधार पर नरेन्द्र मोदी की असाम्प्रदायिकता की प्रशंसा की थी। शायद मीडिया पर हावी नरेन्द्र मोदी विरोधी मानसिकता ही कारण होगी कि अहमद का यह कथन केवल मेल टुडे (22 सितम्बर) में छपा है, किसी दैनिक या खबरिया चैनल ने उसका जिक्र तक नहीं किया। वोट बैंक राजनीति में राजनेताओं का स्वार्थ तो समझ आता है, पर मीडिया का इसमें क्या लाभ हो सकता है, समझ नहीं आता।
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आंदोलन के शुभ संकेत
डा. मनमोहन वैद्य, अ.भा. प्रचार प्रमुख, रा.स्व.संघ
श्री अण्णा हजारे के नेतृत्व में जन लोकपाल बिल को लेकर हाल ही में हुए भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के दौरान सभी देशवासियों ने, विशेषत: युवा पीढ़ी ने एक अभूतपूर्व, पूर्णत: अहिंसक, देशव्यापी एवं व्यापक जन समर्थन प्राप्त एक जन आंदोलन का सुखद अनुभव किया। आंदोलन के समय ‘भारत माता की जय और वन्देमातरम्’ के जयघोषों ने सभी के मन की क्षुद्रता तथा आत्मग्लानि को धो डाला और शुद्ध राष्ट्रभाव से सभी के ह्मदयों को ऐसा भर दिया कि लाखों युवक-युवतियों के ह्मदयाकाश से जगदाकाश तक गूंजने वाली ‘भारत माता की जय’ की ध्वनि सर्वत्र सुनाई दे रही थी।
नई पीढ़ी के सरोकार
नई पीढ़ी, जिसे ‘फिल्म, फैशन, फेसबुक’ वाली पीढ़ी कहा जाता था, के भी राजनीतिक सरोकार हैं तथा चुनौती सामने आने पर वह सड़क पर आकर, तिरंगा हाथ में लेकर, ‘भारत माता की जय-वंदेमातरम्’ के नारे गुंजाकर अहिंसक मार्ग से अपनी शक्ति का प्रदर्शन कर सकती है, यह भी इस आंदोलन ने सिद्ध किया। संसदीय लोकतंत्र का प्रवाह जब अपनी ही सीमाओं का बंदी होकर जन भावनाओं के प्रति संवेदनहीन हो जाता है तब जनता अपना दबाव बनाकर संसदीय लोकतंत्र को अपनी सीमाओं के बंधन से मुक्त कर संवेदनशील लोकतंत्र के अवरुद्ध प्रवाह को पुन: प्रवाहित करा सकती है, यह संकेत भी इस आन्दोलन से मिलता है। भ्रष्टाचार के बारे में जनता कितनी चिंतित है और आंदोलित हो सकती है, यह भ्रष्टाचार के विरोध में चल रहे सभी प्रकार के आंदोलनों यूथ अगेन्स्ट करप्शन, श्री बाबा रामदेव तथा श्री अण्णा हजारे को मिले व्यापक जन समर्थन से सभी ने अनुभव किया। स्वामी रामदेव व श्री अण्णा हजारे के आंदोलनों के समय आंदोलनकारियों के साथ सरकार के व्यवहार तथा कांग्रेस के पदाधिकारियों के अशोभनीय वक्तव्यों से भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाकर उसे निर्मूल करने की सरकार की इच्छा का अभाव तथा सत्ता के कारण पैदा हुआ दंभ भी उजागर हुआ। पर अंतत: सरकार ने जन दबाव के सामने अपनी जिद छोड़कर समझौते का मार्ग अपनाया, यह अच्छा ही हुआ। श्री अण्णा हजारे के आंदोलन से एक शुभ संकेत यह भी मिला कि जनता एकजुट होकर अहिंसक मार्ग से अन्यायी सरकार को भी झुका सकती है, यह विश्वास जनता के मन में जगा है।
संघ की सहभागिता
कुछ लोगों ने श्री अण्णा हजारे के आंदोलन के लिए रा.स्व.संघ को अकारण विवाद में घसीटने का असफल प्रयास किया। वस्तुत: श्री अण्णा हजारे संगठनात्मक दृष्टि से रा.स्व.संघ के साथ कभी भी जुड़े नहीं थे। अपने गांव रालेगण सिद्धि में उनके द्वारा किए गए ग्रामीण विकास के सफल प्रयोगों से प्रभावित होकर रा.स्व.संघ ने ग्रामीण विकास के कार्य में श्री अण्णा हजारे का मार्गदर्शन एवं सहयोग प्राप्त किया था। उसी समय तत्कालीन सरकार्यवाह श्री हो.वे. शेषाद्रि ने श्री अण्णा हजारे तथा उनके ग्रामीण विकास के कार्य का सभी को परिचय कराने हेतु ‘एक कर्मयोगी का गांव’ नामक पुस्तिका लिखी थी। संघ के अनेक कार्यकर्ताओं ने श्री अण्णा हजारे द्वारा किए गए ग्रामीण विकास के कार्य को प्रत्यक्ष देखने हेतु रालेगण सिद्धि की यात्रा की थी।
रा.स्व.संघ ने मार्च, 2011 में अपनी अ.भा. प्रतिनिधि सभा की बैठक में एक प्रस्ताव पारित कर भ्रष्टाचार जैसी देश विघातक गंभीर समस्या पर चिंता जताते हुए, भ्रष्टाचार को समाप्त करने हेतु करणीय व प्रभावी उपायों पर चर्चा की थी। उसी प्रस्ताव में सभी देशवासियों से आवाहन किया था कि भ्रष्टाचार के विरोध में चलने वाले प्रत्येक आंदोलन में सहभागी हों। इसलिए भ्रष्टाचार विरोधी सभी आंदोलनों में जनता के साथ संघ के स्वयंसेवक भी सर्वत्र सक्रिय रूप से सहभागी थे।
मातृभूमि की वंदना
इस आंदोलन का एक और शुभ संकेत है कि सभी लोग ‘भारत माता की जय’ और ‘वन्देमातरम्’ का मुक्त कंठ से जयघोष करते दिखे। इन नारों को इस्लाम विरोधी कहकर इसका विरोध करने का प्रयास भी हुआ। ‘भारत माता की जय’ या ‘वन्देमातरम्’ को इस्लाम विरोधी कहना साम्प्रदायिक एवं अलगाववादी सोच है। परन्तु आंदोलन के आयोजकों तथा जनता ने भी इस सांप्रदायिक तथा अलगाववादी स्वर को महत्व नहीं दिया। मुस्लिम समुदाय ने भी इस सांप्रदायिक सोच वालों का साथ नहीं दिया। यह एक और शुभ संकेत है। कुछ लोगों ने ‘वन्देमातरम्’ को रा.स्व.संघ के साथ जोड़ने तथा इसे सांप्रदायिक बताने का प्रयास किया। माता तथा मातृभूमि का सम्मान करना, उसकी जय-जयकार करना, उसका आदरपूर्वक वंदन करना, इसमें सांप्रदायिकता कहां से आती है? यह तो भारत की सदियों पुरानी परम्परा है। ‘वन्देमातरम्’ गीत रा.स्व.संघ की स्थापना (1925) के पहले से ही समूचे राष्ट्र में स्वतंत्रता आंदोलन का मूल मंत्र बन चुका था। इसीलिए 1905 में ब्रिाटिश सरकार ने वन्देमातरम् बोलने पर प्रतिबन्ध लगाया था। संघ संस्थापक डा. हेडगेवार ने दसवीं कक्षा में पढ़ते समय (1907में) इस अन्यायी प्रतिबंध का उल्लंघन कर वन्देमातरम् गुंजाकर अपनी प्रखर देशभक्ति का परिचय दिया था तथा माफी न मांगते हुए उसके दण्ड को सहर्ष स्वीकार किया था।
वन्देमातरम् की यात्रा
वन्देमातरम् गीत बंकिम चंद्र चटर्जी ने 7 नवम्बर, 1876 को रचा और 1882 में प्रकाशित ‘आनन्दमठ’ नामक प्रसिद्ध उपन्यास में इसे समाविष्ट किया। 1886 में कांग्रेस के कोलकाता अधिवेशन में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इसे गाया। 1901 के कांग्रेस अधिवेशन में श्री दक्षरंजन सेन ने सभी को वन्देमातरम् का सामूहिक अभ्यास करवाया। वाराणसी के कांग्रेस अधिवेशन (1905) में रवीन्द्रनाथ टैगोर की भतीजी श्रीमती सरलादेवी ने ब्रिाटिश सरकार की रोक के बावजूद इसे गाया। 1905 में ब्रिाटिश सरकार द्वारा बंगाल के विभाजन के प्रस्ताव के विरोध में जन आंदोलन में यह जागरण का शंखनाद बन गया। हिन्दू-मुसलमान सभी ने इसका मुक्त कंठ से गान किया। सभी के द्वारा एकजुट होकर किए प्रयासों के परिणामस्वरूप ब्रिाटिश सरकार को 1911 में बंगाल के विभाजन का प्रस्ताव निरस्त करना पड़ा। इसके पश्चात् केवल बंगाल में ही नहीं, बल्कि समग्र भारत में वन्देमातरम् स्वतंत्रता आंदोलन का युद्ध घोष और देशभक्ति का उद्घोष बन गया। 1915 से कांग्रेस के प्रत्येक राष्ट्रीय अधिवेशन में नियमित रूप से आग्रहपूर्वक वन्देमातरम् का गान होने लगा। उस समय वन्देमातरम् न इस्लाम विरोधी था और न सांप्रदायिक। हिन्दू मुसलमान सभी समान रूप से स्वतंत्रता आंदोलन में वन्देमातरम् का जयघोष करते थे। अनेक क्रांतिकारी वन्देमातरम् का उद्घोष करते-करते ब्रिाटिश शासन के अत्याचार सहन कर लेते थे तथा फांसी के फंदे पर झूल जाते थे।
सांप्रदायिक-अलगाववादी सोच
परन्तु 1921 में खिलाफत आंदोलन को कांग्रेस का समर्थन मिलने के पश्चात मुस्लिम समाज के कट्टरपंथी तत्वों का महत्व बढ़ा। इसी के साथ वन्देमातरम् को इस्लामविरोधी एवं सांप्रदायिक कहकर इसका विरोध होना आरंभ हुआ। काकीनाडा में कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन (1923) में तत्कालीन अध्यक्ष श्री मोहम्मद अली ने वन्देमातरम् का स्पष्ट तौर पर विरोध किया। मुस्लिमों के कट्टर एवं सांप्रदायिक नेतृत्व के आगे झुककर कांग्रेस ने अपने अधिवेशनों में वन्देमातरम् गान का आग्रह छोड़ दिया। कुछ कट्टरपंथी लोग प्रत्येक समाज में हर समय रहते हैं। परन्तु राष्ट्रीय नेतृत्व तथा जाग्रत समाज ऐसे तत्वों को अधिक महत्व न देते हुए हर हाल में राष्ट्रीय स्वर को मुखर बनाते रहते हैं। दुर्भाग्य से 1921 के बाद से इस अलगाववादी सांप्रदायिक स्वर को अधिक महत्व मिलता गया। इसका परिणाम यह हुआ कि कांग्रेस के सभी राष्ट्रीय नेताओं की इच्छा के विपरीत भारत के विभाजन को उन्हें स्वीकार करना पड़ा।
स्वतंत्रता के बाद भी राजनीतिक स्वार्थ के लिए ऐसी सांप्रदायिक-अलगाववादी सोच वाले लोगों को महत्व दिया जाने लगा। 1975 के आपातकाल के बाद ‘सेकुलरवाद’ के नाम पर साम्प्रदायिक-अलगाववादी तत्वों को और अधिक पुष्ट होने दिया गया। इस पृष्ठभूमि में देखा जाए तो स्वतंत्रता के बाद पहली बार इस जन आंदोलन के नेतृत्व ने तथा सम्पूर्ण समाज ने सांप्रदायिक-अलगाववादी स्वर को हाशिए पर रखते हुए राष्ट्रीय स्वर को बनाए रखा, यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण शुभ संकेत है।
सबकी भारतमाता
भारत माता के विषय को लेकर रा.स्व.संघ को विवाद में लाने का प्रयास हुआ। भ्रष्टाचार के विरुद्ध श्री अण्णा हजारे के आंदोलन के प्रथम चरण में जंतर-मंतर पर मंच की पृष्ठभूमि में भारतमाता का विशाल चित्र था। वह चित्र रा.स्व.संघ ने तो वहां नहीं रखा था, फिर भी उसे रा.स्व.संघ द्वारा प्रचलित-प्रसारित भारत माता का चित्र कहा गया। क्या भारत माता केवल संघ के स्वयंसेवकों की है? वह तो समस्त भारतवासियों की भारतमाता है। भारत में इस पवित्र धरती को पुण्यभूमि, कर्मभूमि, मातृभूमि कहकर गौरवान्वित करने की परम्परा सदियों से चली आ रही है।
1897 में अमरीका से लौटकर आने के पश्चात स्वामी विवेकानंद ने जब भारत की भूमि पर अपना कदम रखा तब हजारों स्वागतोत्सुक लोगों की उपस्थिति में उन्होंने भूमि को साष्टांग प्रणाम कर उसकी पवित्र रज अपने शरीर पर धारण की। लोगों के द्वारा ‘ऐसा क्यों?’ पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि मैं चार वर्ष (1893-1897) भारत से दूर भोगभूमि में रहकर आ रहा हूं। यदि कोई दोष मुझमें आया हो तो इस पवित्र धरती की रज के स्पर्श मात्र से वह दोष दूर हो जाएगा। बाद में एक भाषण में उन्होंने सम्पूर्ण भारतवासियों से आवाहन किया था कि आने वाले 50 वर्षों के लिए सारे भारतवासी अपने-अपने व्यक्तिगत देवी-देवताओं को एक बाजू में रखकर एक ही देवी की आराधना करें, और वह देवी है- भारतमाता। क्या विवेकानंद सांप्रदायिक थे? उन्होंने तो विभेदों में बंटे और विषमता से भरे अपने समाज को आपसी भेद भूलकर एक समान पहचान देने की दृष्टि से यह आवाहन किया था, जिससे हम सब एकजुट होकर स्वतंत्रता के लिए प्रयास कर सकें।
इतिहास से सबक लें
यह सच है कि रा.स्व.संघ ने भी सभी भारतवासियों को अपनी जाति, भाषा, प्रांत, उपासना पद्धति के भेदों से ऊपर उठकर एक भारतवासी के रूप में एक समान पहचान देने की कल्पना से, ‘यह हमारी भारत माता है और हम सभी इसकी सन्तान हैं इसलिए भाई-भाई हैं’ यह भाव निर्माण करने का सफल प्रयास किया है। इसमें संकुचितता या सांप्रदायिकता कहां है? यह तो अलगाववाद एवं सांप्रदायिकता के महा दोष का रामबाण इलाज है। श्री अण्णा हजारे के आंदोलन के दूसरे चरण में मंच पर भारत माता का चित्र नहीं था। उसके स्थान पर महात्मा गांधी जी का चित्र था। क्या दोनों चित्र नहीं रह सकते थे? मंच पर कौन से चित्र हों, यह निर्णय आंदोलन के संचालक ही करेंगे, यह सही है। और भारत माता के स्थान पर गांधी जी का चित्र लगाने से भी आंदोलन उतना ही महत्वपूर्ण होगा, यह भी सही है। परन्तु भारतमाता संघ की है या सांप्रदायिक है, ऐसा मानकर इसका विरोध करने की क्षुद्रता दिखाने वालों के आगे झुककर यदि भारतमाता का चित्र हटाया गया हो तो वह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण होगा। यह इस देश की विचार परम्परा तथा आचार परम्परा के भी विपरीत होगा और हम इतिहास से कुछ नहीं सीखे हैं, ऐसा इसका अर्थ होगा।
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पीढ़ियों में प्रवाहित सुख और दु:ख
मृदुला सिन्हा
हर परिवार का अपना इतिहास होता है। उनका इतिहास लेखन तो नहीं होता। पीढ़ी-दर-पीढ़ी कथा वाचन के माध्यम से परिवारों के सुख-दुख के प्रसंग प्रवाहित होते रहते हैं। उन कथाओं में दादा-परदादा के शौर्य की भी कहानियां होती है, वहीं उनके द्वारा किए गए कोई सामाजिक कार्य की भी कथाएं।
अकसर यह देखा जाता है कि परिवार की बड़ी-बूढ़ी औरतें अपने घर आई बहुओं को खानदान की कहानियां सुनाती हैं। उन कहानियों में पूर्वजों के गुणगान ही होते हैं। नई बहुओं को उन प्रसंगों को सुनकर अपने नये ससुराल परिवार से लगाव बढ़ता है। वे उस परिवार को उनके पूर्वजों के गुणों के साथ अपनाती हैं। उस परिवार और पूर्वजों के अवगुणों के प्रसंग तो गांव वाले स्मरण रखते हैं। अवगुणों की कथा पीढ़ी-दर-पीढ़ी गांव में भी प्रवाहमय रहती है। सुख-दु:ख के प्रसंग के साथ भी ऐसा ही होता है। अकसर बहुओं, बच्चों और दामादों को परिवार में बीते सुखद प्रसंग ही सुनाए जाते हैं। मैंने बचपन में अपनी नई-नवेली भाभियों को दादी सासों के पास बैठ कथा सुनते देखा था। भाभियां सासों के पांव दबातीं, तेल मालिश करतीं या पीठ मलमल कर नहलाती थीं। दादियां खानदान की कथा सुनाती जातीं।
शादी के बाद जब मैं भी अपनी ससुराल गई, ऐसा ही कुछ हुआ। उन कथाओं को सुन-सुनकर मुझे एहसास हुआ कि एक संस्कारयुक्त सुखद परिवार में मेरा विवाह हुआ। मानो उस परिवार पर दु:ख की छाया भी कभी नहीं पड़ी। उस परिवार को अपनाने का मन बनता गया। कुछ दिनों बाद सास ने भी प्रसंग सुनाना प्रारंभ किया। कई प्रसंगों को सुनाने के पूर्व वे कहतीं-‘क्या कहूं, दु:ख की बात।’ वे चुप हो जातीं। मेरे आग्रह पर ही सुनातीं। बात स्पष्ट हुई कि दु:ख-सुख तो हर परिवार में घटते हैं, झगड़ा-लड़ाई भी होती रही है, पर नई पीढ़ी को लोग सुखद और अनुकरणीय बातें ही सुनाते रहे हैं। दु:खद और अरुचिकर बातों को भुलाने का प्रयास चलता रहा है।
निम्नमध्यम वर्ग में गरीबी मुंह बाए खड़ी रहती है। वे दु:खद क्षण ही होते हैं। दूसरी ओर हर परिवार में निर्दयी स्त्री-पुरुष सदस्य भी रहते आए हैं जो बहुओं और बच्चों को दु:ख देते हैं। कुछ परिवारों में ऐसे कंजूस मुखिया होते आए हैं जो लक्ष्मी की कृपा से घर में सब कुछ रहते हुए भी परिवारजनों को भरपेट भोजन और अच्छे कपड़े भी नहीं देते। चार भाइयों के परिवारों के बीच दुष्टता और सह्मदयता के भी अनेक प्रसंग होते हैं।
आने वाली पीढ़ियों को सुखात्मक प्रसंग सुनाए जाते हैं। मेरे गांव में तीन रामकिशन थे। एक रामकिशन तो मेरे ही परिवार में थे। एक दिन विशेष चर्चा हो रही थी। दूसरे टोले के रामकिशन के बारे में किसी ने कहा-‘वह रामकिशन, चोरबा का पोता।’
मैंने पूछा-‘क्या मतलब?’
मतलब यह था कि उस रामकिशन के दादा ने किसी के बागीचे से आम चुराए थे। पकड़े गए। उनके परिवार की तीन पीढ़ियां बीत गई, अब तक उनके बच्चे चोरवा (चोर) के वंशज के नाम से ही पहचाने जाते हैं। मुझे विश्वास है कि उस परिवार की बुजुर्ग महिलाओं ने भी अपनी बहुओं को वंश के सुखद और उसी दादा जी के प्रेरणादायी प्रसंग ही सुनाऐ होंगे। पुरानी पीढ़ी के भाइयों के बीच आपसी मेलजोल के प्रसंग उस वक्त अधिक सुनाए जाते हैं जब उसी परिवार की तीसरी पीढ़ी के भाई लड़ते-झगड़ते हैं। उन कथाओं को सुनकर कुछ तो ह्मदय परिवर्तन होता ही है।
मेरी भाभी को मेरे खानदान के पूर्वजों के गुण-अवगुण और सुख-दु:ख वाली सभी कथाएं मालूम हो गई थीं। उनके मुंह से सुन-सुन कर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। मैंने पूछा-‘भाभी! मुझे दादी और मां ने दादा जी के ये दुर्गुण वाली कथा नहीं सुनाई। आपने कहां से सुन ली।’
भाभी ने कहा-‘मुझे अड़ोस-पड़ोस की बुजुर्ग औरतों ने सुनाई।’
प्रसंग दु:खद हो या सुखद, दादा जी गुणों से भरे रहे हों या अवगुणों से, अगली पीढ़ी को मालूम होना ही चाहिए। संयुक्त परिवारों में दादा-दादियों का काम होता था वंश की कथाएं सुनाना। जब चार-पांच से लेकर आठ-दस भाई-बहन होते थे, प्रसंग भी अधिक बनते थे। आपसी प्रेम के, लड़ाई-झगड़े के। आज उच्चमध्यमवर्गीय परिवारों में एक ही बच्चा होता है। ‘क्रेच’ या स्कूल छात्रावास में पलता है। माता-पिता कामकाजी हैं। उन्हें कथा सुनाने का समय कहां है? उन्हें भी तो नहीं मालूम। घर में दादी-नानी नहीं। कौन, कब, कहां सुनाए कथा। इसलिए तो इकलौता अधिक अकेलापन महसूस करता है। असुरक्षित। उनसे लड़ने-झगड़ने वाला कोई नहीं तो प्यार करने वाला भी तो नहीं है। अधिक तनाव है। वर्तमान में जीती नई पीढ़ी अपने वंश की गाथाओं में नहीं जीती, उनसे सुख-दु:ख में जीने की कला नहीं सिखती।
शहरों में पड़ोसी तो हैं, पर वे हमें ही नहीं जानते तो हमारे पूर्वजों को कहां से जानेंगे। हर व्यक्ति को अपनी पहचान स्वयं बनानी पड़ती है। गांवों में कई पीढ़ियों का संगसाथ होता था-तभी तो ‘चोरवा का पोता’ या फिर ‘साधु पुरुष का पोता’ जैसी भी पहचान बनती थी। शहरों की भीड़ में आदमी अकेला होता जा रहा है। दु:खी भी। अकेलेपन में दादा-परदादाओं के जीवन के सुखद प्रसंगों की स्मृतियां ही नहीं हैं तो उसे सहलाए कौन! दादा-दादी की अनुपस्थिति में भी उनकी स्मृतियां हलराती-दुलारती थीं, सुखद एहसास दिलाती थीं।
पहली पाठशाला परिवार ही है। परिवार के प्रति मन में गौरवभाव भरा हो तो राष्ट्रप्रेम भी वहां ही फूलता-फलता है। आज चिल्ला-चिल्लाकर हम नारे लगाते हैं, राष्ट्र के प्रति गौरव भाव ढूंढ़ते हैं, पर असफलता हाथ लगती है। इस असफलता की जड़ भी व्यक्ति की मानसिकता में है। व्यक्ति को अपने परिवार के इतिहास के प्रति गौरव भाव नहीं है। उसने सुना ही नहीं, उसकी क्या गलती? ऐसी स्थिति में राष्ट्रप्रेम भी नहीं पलता। दरअसल अदृश्य के बारे में प्रेम भाव का भी अभ्यास हो जाता है।
मेरे घर में मेरी बहू संगीता ब्याह कर आई थी। हमलोग उठते-बैठते सास-ससुर के बारे में सारे प्रसंग सुनाते रहे। एक दिन अपनी सास के बारे में कहते-कहते मैं रोने लगी। मेरे साथ वह भी रोई। मैंने आश्चर्य प्रगट किया। पूछा-‘तुम क्यों रोई?’
उसने कहा-‘पिछले दो महीने में आप लोगों ने दादी जी के बारे में इतना सुनाया है कि मुझे लगने लगा जैसे मैं भी उनसे मिली, उनके साथ उठी-बैठी हूं।’ अपने पूर्वजों के बारे में सुनाने का ऐसा प्रभाव पड़ता है। सुख या दु:ख का इतिहास प्रवाहित होता रहता है पीढ़ी-दर-पीढ़ी। तभी तो हमें अपने पूर्वजों पर गर्व होता है।
ऐसे बढ़ता है भाईचारा
वेंकट राघव (रघुभाई)
गत उन दिनों की है जब श्रीराम मंदिर निर्माण के लिए हनुमत शक्ति जागरण कार्यक्रमों की तैयारी चल रही थी। एक सुबह मैं सूरत के वार्ड नं.26 में कार्यकत्र्ता बैठक लेने गया था। बैठक स्थान के बाहर वार्ड प्रमुख अनिल भाई ने मुझसे कहा कि हमारे यहां बहुत सारे कार्यकत्र्ता मुस्लिम हैं, जरा उस हिसाब से बात कीजिएगा। मैंने पूछा, ‘क्या उस हिसाब से बात न करूं तो कोई दिक्कत आएगी?’ उन्होंने कहा, ‘दिक्कत तो नहीं आएगी।’ फिर वे यह कहते हुए अंदर चले गए कि एक मिनट में आया। अंदर से वे आए तो उनके साथ वार्ड मंत्री रफीक भाई शेख भी थे। मुलाकात होते ही उन्होंने कहा, ‘हम यहां अमन चाहते हैं।’ मैंने कहा, ‘तो हम कौन सा लड़ाई चाहते हैं?’ राम मंदिर बनने से सारे देश में अमन हो जाएगा। यह केवल मंदिर मस्जिद की बात नहीं है, भाईचारा कायम करने की बात है।’ इन बातों को वे दबे स्वर में अस्वीकार कर रहे थे। फिर मैंने कहा, ‘मेरे शरीर में जिस भगवान राम का खून बहता है, वही खून आपके शरीर में भी बहता है। इसलिए हम आपस में भाई-भाई हैं। अगर आपके शरीर में अरबस्तान का खून बहता तो हम भाई कैसे होते, और फिर भाईचारा कैसा? ये बातें उनके दिल में बैठ गर्इं और उन्होंने यह भी कहा कि आपकी ये बातें सही हैं। इसके बाद तो वह बैठक अपने हिसाब से चली और भाईचारा एवं अमन में सबने मंदिर निर्माण का समर्थन किया।
सद्भावना का आधार
व्यक्ति की अपनी एक पहचान होती है। कुल, परंपरा, जाति, भाषा, सम्प्रदाय आदि मामलों में समान पहचान स्नेह का भाव उत्पन्न करती है। किंतु जब स्वार्थ सिद्धि के लिए इन भावनाओं का दुरुपयोग होता है तब समाज में संघर्ष और वैमनस्य बढ़ता है। हमारे यहां ऋषियों ने कहा है-
अयं निज:परोवेत्ति गणना लघु चेतसां। उदार चरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।।
अर्थात संकुचित और स्वार्थी लोग ‘यह अपना है, वह पराया है’ कहकर आपस में ही भेद करते हैं। जबकि उदार और श्रेष्ठ लोग पूरे विश्व को एक परिवार के समान मानते हैं, स्वार्थी, भोगी और सत्ता के भूखे लोगों के लिए ऋषियों ने कहा है-
न वित्तेन तृपणीयो मनुष्य:।
सत्ता या सुख भोग से मनुष्य कभी तृप्त नहीं हो सकता। जैसे अग्नि में घी की आहुति देने से अग्नि और तेज धधकती है, उसी प्रकार सत्ता और सुख का उपभोग करने के बाद मनुष्य अशांत और अधिक अतृप्त हो जाता है। प्रथम (इश) उपनिषद के प्रथम श्लोक में भारत के महान ऋषियों ने इस समस्या का समाधान बताया है-
ईशावास्यमिदं सर्वं यत् किंचिद् जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृध:कस्यस्विद् धनम्।।
अर्थात् ‘सृष्टि के कण-कण में ईश्वर का वास है। अत: (सबका ध्यान रखते हुए) त्याग पूर्वक भोग करो। जो दूसरों का है उसे हड़पने का प्रयत्न नहीं करो।’ जगत में सर्व सद्भावनाओं का यह बीज मंत्र है।
विद्यमान विश्व और भारत
आज विश्व तीन महाशक्तियों के चंगुल में फंसा है। तीनों शक्तियों की स्वार्थ परायणता, भोगवाद और सत्ता की भूख इस हद तक पहुंच गई है कि वे विश्व को सर्वनाश की दिशा में धकेल रहे हैं। अमरीका के नेतृत्व में पश्चिमी देश आर्थिक और सामरिक शक्ति के बल पर दुनिया का शोषण कर रहे हैं। चीन एक ओर माओवादी विचारों से विश्व में वर्ग संघर्ष की स्थिति पैदा कर रहा है, वहीं दूसरी ओर अपनी आर्थिक, सैनिक और कूटनीतिक शक्ति से दुनिया के संसाधनों पर अपना शिकंजा कस रहा है। इस्लाम के नाम पर तीव्र गति से जनसंख्या वृद्धि, व्यापक मतांतरण, मजहबी कट्टरवाद और जिहाद के माध्यम से दुनिया पर अपना दबदबा जमाने में अरबस्तान व्यस्त है।
ये तीनों शक्तियां भारत में सर्वाधिक सक्रिय हैं। भारत की शक्ति उसकी विविधता में छिपी है। हर प्रकार के विचार और क्षमताओं से भारत समृद्ध है। किसी भी क्षेत्र से आने वाली चुनौतियों का सामना करने के लिए भारत समर्थ है। अभाव है तो संगठित और संकलित प्रयासों का। इन आसुरी शक्तियों से भयभीत होने की जरूरत नहीं है। भय के आधार पर स्वस्थ और शक्तिशाली संगठन संभव नहीं है।
भारत का उदय
‘भारत का उदय अवश्य होगा। वह राजा-महाराजाओं की तलवार या धनकुबेरों के भंडारों से नहीं, वरन् संन्यासी के भिक्षापात्र में से होगा। मैं देख सकता हूं कि भारत माता फिर से विश्वगुरु के सिंहासन पर विराजमान है, और सारे विश्व के कल्याण में रत है।’ स्वामी विवेकानंद के इन उद्गारों को साकार करने का समय आ गया है। भारत के यौवन को आह्वान है कि वह अपना जीवन भारत मां के चरणों में समर्पित करे। विश्व में शांति और सद्भावना स्थापित करने का यह एकमात्र मार्ग है।
नवरात्र नैसर्गिक पवित्रता का पर्व
विद्यानिवास मिश्र
वर्ष में दो नवरात्र पड़ते हैं- शारदीय और वासंती। दोनों संपातों में पड़ते हैं। संपात का अर्थ होता है-स्थूल रूप में रात-दिन का बराबर होना, पृथ्वी का सूर्य से सम दूरी पर होना। सूक्ष्म रूप से इसका अभिप्राय है- संतुलन प्राप्त करने की स्थिति। ताप और शीत के बीच संतुलन होता है। शरद् में ताप उतरते-उतरते प्रखर हो उठता है और शीत आते समय बड़ा सुखद लगता है। वसंत में शीत उतरते-उतरते ही सिहरन पैदा करता है और नए ताप का चढ़ना सुखद लगता है। इसलिए इन दोनों धातुओं के तनाव में ऊर्जा पैदा होती है। उसकी सही पहचान हो, उसका सही विनियोग हो, इसलिए दोनों के शुक्ल पक्ष की प्रारंभिक नौ तिथियों में जगदंबा की पूजा-अर्चना और उनके निमित्त व्रत का विधान है। जगदंबा की पूजा का विधान इसलिए है कि व्यक्ति की अपनी कोई ऊर्जा है, इसका अभिमान छोड़ने का अभ्यास करे। सबकी ऊर्जा का रुाोत एक है, वही आदिशक्ति है, वही मां है, वही नाना रूपों में व्यक्त होती है। फिर अदृश्य, अव्यक्त करुणा और ममता के प्रवाह में समा जाती है। वह व्यक्त दो कारणों से होती है- एक तो तब, जब आसुरी शक्ति का मद प्रबल हो जाता है, दुर्बल वेध्य बन जाता है, तब वह काली होकर अवतीर्ण होती है। वह शक्ति के मद का मद पीती है, तब वह विकराल होती है। दूसरा कारण है, उसे यूं ही लीला करनी होती है, वह छोटी सी बच्ची बन जाती है, वह बच्चों की मांग पर तरह-तरह के खिलौने बनाने वाली मां बन जाती है।
वह भुवनमोहिनी बन जाती है। वस्तुत: प्रकृति में भी सुषमा तभी होती है, जब वह सु अर्थात् अच्छी तरह समता या संतुलन प्राप्त करती होती है। यह संतुलन पाने वाले या देने वाले के बीच हो, सोखने वाले या सींचने वाले के बीच हो, आवेग और शक्ति के बीच हो, तीव्रता और स्थिरता के बीच हो, संतुलन प्राप्त करने की प्रक्रिया ही सौंदर्य बनती है। शरद् की, वसंत की प्रकृति भी इसी प्रकार की प्रकृति है। शरद् में घनघोर वर्षा के बाद आकाश निर्मल होता है, वसंत में घनघोर शीत के कुहासों के बाद आकाश निर्मल होता है। दोनों ऋतुओं में कमल खिलते हैं। दोनों ऋतुओं में तरह-तरह के पंछियों के आने-जाने का कलरव गूंजता है। सर्वत्र एक चढ़ाव-उतार, आरोह-अवरोह दिखाई-सुनाई पड़ता है। इसी सुषमा को भुवनमोहिनी की चितवन कहते हैं, खंजन की तरह ऊंची हुई आंखें शरद् की हैं और कमल की तरह धुली हुई आंखें वसंत की हैं। हम नवरात्र में व्रत इसलिए करते हैं कि अपने भीतर की शक्ति, संयम और नियम से सुरक्षित हों, उसका अनावश्यक अपव्यय न हो। पूरी सृष्टि में जो ऊर्जा का प्रवाह आ रहा है, उसे अपने भीतर रखने के लिए भी पात्र की स्वच्छता आवश्यक है। व्रत के साथ हम ऐसे पुष्पों से, ऐसी सुगंधियों से, ऐसे आमोद-प्रमोद के मनोरम उपायों से जगदंबा को रिझाने का प्रयत्न करते हैं, जो इस लोक में सबसे अधिक चटकीले हों, कमनीय हों, ह्मद्य हों, आस्वाद्य हों और संवेद्य हों। गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य का अर्पण इसी भाव से होता है कि इस संसार में जो कुछ सुंदर है, वह सब मां, तुम्हारा ही है। गंध के रूप में पृथ्वी तत्व अर्पित होता है। पुष्प के रूप में पुष्प की तरह खिला हुआ प्रसन्न आकाश अर्पित होता है। धूप के रूप में सर्वशोधक वायु तत्व अर्पित होता है। दीप के रूप में अग्नि तत्व अर्पित होता है और नैवेद्य के रूप में जल का अमृत अर्पित होता है।
इन पांचों तत्वों की समष्टि तांबूल के रूप में अर्पित होती है। यह अर्पण इस भाव से होता है कि सीमित परिधि में रहने वाला तत्व अनंत असीम में निहित तत्व को अर्पित हो जाए। इन पांच तत्वों के अर्पण के साथ-साथ गीत-वाद्य भी अर्पित होते हैं, उनके माध्यम से मन अर्पित होता है। विश्व मन को स्तुतियां अर्पित होती हैं, उनके व्याज से सीमित बुद्धि असीम बुद्धि को अर्पित होती है। जप और ध्यानयोग के द्वारा आत्मा अर्पित होती है विश्वात्मा को। इस प्रकार शक्ति के आराधन का यह नवरात्र कार्यक्रम उत्सव के रूप में मनाया जाता है। दु:ख-सुख दोनों अर्पित होते हैं ऐसी मां को, जो जागती रहती है हर बच्चे की देखरेख के लिए। वह यह देखती रहती है कि कहीं कोई बच्चा दूसरे बच्चे के साथ अन्याय तो नहीं कर रहा है। सताने वाले बच्चे को वह दंड देती है, चोट खाए हुए बच्चे को सहलाती है। वह सताने वाले को बड़ी डरावनी लगती है और सताए जाने वाले को बड़ी दयालु। पर है वह एक ही। उसी के अनेक रूप दिखाई पड़ते हैं।
इन अनेक रूपों में कोई भेद नहीं है। व्यापार में भेद है, तत्वत: कोई भेद नहीं है। दो या बहुत दिखने का द्वैत नहीं होता है। दो का अनुभव करने भर या गान करने से दो या बहुत होता है। हम व्यापार की विविधता देखते हैं, सब व्यापारों का मूल रुाोत नहीं देखते। हर व्यापार के पीछे कोई-न-कोई मंगल संकेत रहता है।
यही कारण है कि जगदंबा सबको अपनी वत्सल छाया में समेटती है- बड़े-से-बड़े ज्ञानी को, बड़े-से-बड़े विरागी तपस्वी को और अज्ञ-से-अज्ञ, अबोध-से-अबोध जन को, अधम-से अधम विषयों में फंसे जन को। मां के आगे सब कुछ भूल जाता है। बस, इतना ही याद रहता है- संतान कैसी भी हो, मां तो बस मां होती है। एक बार सब दुराव भर छोड़ दे, उनके आगे सब कुछ रख दें, अपनी दुर्बलता, अपनी क्षमता सब उन्हीं को सौंप दें, उन पर छोड़ दें। निश्चय ही मां मंगल करेंगी। वे सर्वमंगल मांगल्या हैं। ऐसी मां की अर्चना जिस सौष्ठव से, जिस भाव से की जानी चाहिए, वह हो नहीं रही है, इसीलिए इतना अमंगल है। देखने में लगता है, बड़ा उत्साह है, बड़ा भावोन्माद है- पर भीतर-भीतर कहीं-न-कहीं दूसरे से बढ़-चढ़कर दिखने का भाव रहता है। जगदंबा यह सहन नहीं करतीं और तब सृष्टि का संतुलन बिगड़ता है। नवरात्र का पर्व नैसर्गिक पवित्रता और बाल-सुभाव के आवाह्न का पर्व है। यह आह्वान जितनी सुरुचि से, जितनी सादगी से, जितनी प्रकृति के साथ संतुलन बुद्धि रखते हुए किया जाए- जितने बाल-सुलभ भाव से, सरल-निश्छल मन से किया जाए उतनी ही जगदंबा प्रसन्न होती हैं। काश, हम आज अमंगल के घेरे में घिरे हुए लोग समझते तो हमारा आह्वान कर्ण-कटु ध्वनियों का हाहाकार न होता। नवरात्र का संदेश नवसृष्टि का संदेश है, इसे हम समझ लें तो विश्व-मंगल का नया अध्याय प्रारंभ हो जाए।द
(‘भारतीय संस्कृति के आधार’ से साभार)
विजय यात्रा की पूर्णता का नाम है विजयादशमी
आचार्य गणेश शास्त्री
दानवता पर मानवता की विजय का प्रतीक पर्व है- विजयादशमी। ‘सत्यमेव जयते नानृतम्’ यह भारतीय उद्घोष भारतीय संस्कृति की उस दिव्यता का साक्षात्कार कराता है, जिसमें भारत की आध्यात्मिकता समाहित है। हमारे शास्त्रों ने परमात्मा को सत्यस्वरूप माना है और उसी रूप में उसकी उपासना की है। ‘सत्यज्ञानमनन्तं ब्राहृ’ वह परमात्मा सत्य स्वरूप है, ज्ञान स्वरूप है और शाश्वत है अर्थात् आदि मध्य और अन्त की उपाधियों से सर्वथा परे है। वही एक मात्र वह सारतत्व है, जो समस्त जीवों में प्राण के रूप में ओतप्रोत है। जो पहले भी या आज भी है और आगे भी रहेगा। समस्त चेतन और अचेतन तत्वों में उसी की सत्ता विद्यमान है। वह सर्वथा पूर्ण है, कभी भी अपूर्ण की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।
पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।
उस पूर्ण का विकास यह जगत है। इस जगत में नाना प्रकार की विषमताएं दृष्टिगोचर हो रही हैं।
जड़ चेतन गुन दोषमय विश्व कीन्ह करतार
जगत में स्पष्टत: दो प्रवृत्तियां विकसित हैं-दैवी और आसुरी। दैवी प्रवृत्ति मानव को मानवता के उच्च सोपान पर प्रतिष्ठित कर सम्पूर्ण सुखों का सृजन करती है। जबकि आसुरी प्रवृत्ति मानव को मानवता से धकेल कर विनाश के कगार पर लाकर खड़ा कर देती है। वहां असत्य का साƒााज्य फलने-फूलने लगता है। सत्य कहीं दुबक कर बैठ जाता है। फिर असत्य का परिवार विकसित होता है, जिसमें हिंसा, स्वेच्छाचारिता, कामुकता, चोरी आदि का स्वच्छन्द नग्न नृत्य होने लगता है।
त्रेतायुग में रावण के शासन में इसी प्रकार की स्थितियों का संकेत गोस्वामी जी ने किया है-
जेहि बिधि होइ धर्म निर्मूला।
सो सब करहिं बेद प्रतिकूला।।
जेहिं जेहिं देस धेनुद्विण पावहिं।
नगर गाउँ पुर आगि लगावहिं।।
बादे बहु खल चोर जुआरा।
से लम्पट पर फन परदारा।।
मानहिं मात पिता नहिं देवा।
साधुन्ह सन करवावहिं सेवा।।
रावण के राज्य में असत्य का परिवार व्यापक रूप में प्रचारित हो रहा था, दानवता पनप रही थी। मानवता त्राहि-त्राहि कर रही थी। व्याकुल मानवता की पुकार और उसके आत्र्तनाद ने परमात्मा को भू-भार हरण के लिए विवश कर दिया और वे राम के रूप में इस पीड़ित मानव प्रदेश भारत में राम बनकर आ गये। योगियों के ह्मदय में रमण करने वाला राम का ह्मदय यहां की दशा को देखकर द्रवित हो गया और उन्होंने आसुरी प्रवृत्ति के समूल उच्छेदन का संकल्प ले लिया-
निसिचरहीन करउँ महि भुज उठाइ पन कीन्ह।।
अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार राम सदल-बल रावण का संहार कर आसुरी प्रवृत्ति का समूलोच्छेदन कर डालते हैं और दैवी प्रवृत्ति के विकास के लिए राम राज्य की स्थापना करते हैं।
इस विजय यात्रा की पूर्णता का नाम विजयादशमी है, जिसमें असत्य के परिवार का समूल विनाश और सत्य की प्रतिष्ठा का भाव सन्निहित है। हम विजयादशमी पर्व पर सत्य के सन्निकट पहुंचने का प्रयास करने का दृढ़ संकल्प लें। यही इस पर्व की सार्थकता होगी। द
बाल मन
द मायाराम पतंग
बच्चों को समाज में घुलने-मिलने दें
बच्चे सदैव स्वयं कुछ करके देखना चाहते हैं। किन्तु माता-पिता प्राय: उन्हें स्वयं सोचने या करने का अवसर नहीं देना चाहते। इस संबंध में अनेक पक्ष विचारणीय हैं। कार्य कैसा है, परिस्थिति कैसी है? बच्चे का स्वभाव कैसा है? यदि कार्य तुरन्त करणीय है और उसे शीघ्र न किया तो बच्चे की बड़ी हानि हो सकती है तो आदेश देना आवश्यक है। यदि परिस्थिति ऐसी है कि बच्चा कई उलझनों से घिरा हुआ है, उसका मन-मस्तिष्क भ्रमित है। वह निर्णय लेने में असमर्थ लग रहा है। उसकी घबराहट स्पष्ट दिखाई पड़ रही है तो भी आदेश देना उचित रहता है। स्वभाव से मेरा अभिप्राय है कि यदि आपको मालूम है कि वह अपने मन से कुछ करता ही नहीं है। आदेश मानकर वह पूरे जी जान से कार्य करता है तब तो आदेश देना ही श्रेयस्कर है।
अधिकांश बच्चे अपने मस्तिष्क से स्वयं सोचना और स्वयं करना पसंद करते हैं। ऐसे बच्चे आदेश पाकर उस कार्य को रुचिपूर्वक नहीं करते। प्राय: बच्चे अपने खिलौनों को खोलकर देखना चाहते हैं। उसके अंदर की तकनीक समझना चाहते हैं अत: खिलौना टूट जाता है। माता-पिता और अभिभावक उस पर कुपित होते हैं, डांटते हैं, कभी-कभी पिटाई भी कर देते हैं। इससे बच्चे जिद्दी, चिड़चिड़े और मन से विद्रोही हो जाते हैं।
कभी-कभी हम बच्चों के मन में उठे भावों का उचित सम्मान नहीं करते। वह कुछ प्रश्न करता है तो हम उसको डांट कर चुप कर देते हैं। यह पद्धति ठीक नहीं है। बच्चों के प्रश्नों को ध्यानपूर्वक सुनें, समझें तथा समझदारी से उनको उत्तर दें। यदि आप उन प्रश्नों का सही उत्तर नहीं जानते तो झूठ या बेतुका उत्तर देकर बहकाएं नहीं। उन्हें या तो किसी अन्य अनुभवी व्यक्ति से पूछने का सुझाव या स्वयं सही उत्तर खोजकर ही बताएं। वास्तव में वह आप पर भरोसा करके पूछता है। आपके दिए हुए उत्तर को वह सही मानकर चलता है। अत: गलत या बहकावे का उत्तर उसे गलत दिशा दे सकता है।
बच्चों के मन में किसी भी वर्ग या समुदाय के प्रति घृणा का भाव नहीं पनपना चाहिए। ऐसा हुआ तो वह बड़ा होकर भी कभी अपनी धारणा नहीं बदल सकेगा, जिससे जीवन में अनेक बार गलत निर्णय लेकर हानि भी उठा सकता है। इसी प्रकार किसी व्यक्ति, वस्तु या स्थान से भय न दिखाएं। यदि बचपन से ही वह किसी वस्तु विशेष से डरने लगा तो बड़े होने पर भी वह इस भय से मुक्त नहीं हो पाएगा। प्राय: माताएं बच्चों को ‘हौव्वा आया’ कह कर डराती हैं। कभी ‘बुड्ढा बाबा पकड़ कर ले जाएगा’ कहती हैं। उदाहरण दिया जाता है कि एक पहलवान को दंगल में उतरना था। बड़े नामी पहलवान से उसका मुकाबला होना था। वह बड़े जोश में था तभी कहीं से बिल्ली आ गई तो वह डर कर अखाड़े से बाहर भागा। पूछने पर पता चला कि बचपन से ही उसे कहानी सुनाई गई थी। बिल्ली आंखें निकाल लेती है और खून पी जाती है। तभी वह बिल्ली से बहुत डरता था। कहने का अभिप्राय है कि कभी भी बच्चों के मन में किसी वस्तु विशेष का भय न बैठाएं। भय से उसका मन दुर्बल हो जाता है।
बच्चों को जीवन की वास्तविकता से सामना करने दीजिए। उन्हें अपना अनुभव और विचार बनाने दीजिए। किसी परिस्थिति में कुछ कहना आवश्यक समझें तो केवल सुझाव ही दें, आदेश नहीं। सुझाव भी यदि प्रत्यक्ष न देकर किसी घटना, कहानी या अनुभव कथन से दिए जाएं तो अधिक प्रभावी और कारगर होंगे। इसका अभिप्राय यह भी नहीं कि बच्चों को बुरी आदतों से, बुराइयों से आगाह न करें। बुराइयों से बचाना अभिभावकों का दायित्व है। अत: इस तथ्य को ठीक से समझें।
बच्चों को यह स्पष्ट समझाएं कि उक्त बुराई का परिणाम भावी जीवन में क्या निकलेगा? अपने कथन का प्रमाण प्रस्तुत करें तो वह स्वयं विचारपूर्वक निर्णय कर लेगा और वांछित सफलता प्राप्त करेगा। यदि आप केवल आदेश के स्वर में भय दिखाकर मना करेंगे तो वह जिज्ञासा वश उसी गन्दगी में जा फंसेगा जिससे आप बचाना चाहते हैं।द
संस्कार सर्वोपरि
दक्षिण भारत के परम विरक्त व ज्ञानी संत तिरुवल्लुवर उपदेशों के माध्यम से प्रतिदिन लोगों को मांस-मदिरा, बेईमानी व अन्य दुव्र्यसनों का त्याग करके अपना जीवन सरल व सात्विक बनाने की प्रेरणा दिया करते थे। समय-समय पर अनेक समस्याओं से ग्रस्त व्यक्ति उनके पास पहुंचकर उनके निराकरण का उपाय पूछा करते थे। एक दिन एक धनाढ्य व्यक्ति संत जी के पास पहुंचा। उसने कहा- ‘महाराज, मैंने कड़ा परिश्रम करके असीमित धन कमाया। कंजूसी में जीवन बिताया। किन्तु मेरा इकलौता पुत्र कुसंग में पड़कर दुव्र्यसनी बन गया है। वह मेरे द्वारा संचित धन-सम्पत्ति को व्यसनों में उड़ा रहा है। टोकता हूं- तो आंखें दिखाता है।’
संत तिरुवल्लुवर ने पूछा- ‘तुम केवल धन संचय में लगे रहे या कुछ समय कभी पुत्र को संस्कारित करने में भी लगाया। क्या कभी अपने द्वारा अजिर्त धन के कुछ अंश का धर्म, सेवा-परोपकार के कार्यों पर खर्च किया।’
सेठ ने रोते हुए कहा-‘मैं अन्धा होकर धनार्जन में लगा रहा। कंजूसी करके कौड़ी-कौड़ी जोड़ता रहा। यह सत्य है कि न कभी पुत्र को संस्कारित करने की सोची, न किसी की सेवा में कुछ खर्च किया।’ संत जी ने शास्त्र का प्रमाण देते हुए कहा- ‘सबसे बड़ा धन तो अच्छे संस्कार होते हैं। तुम्हारे पुत्र को संस्कार नहीं मिले- कुसंगियों का साथ मिला। अब वह स्वाभाविक रूप से दुव्र्यसनों में प्रवृत्त हो गया है। दूसरी बात यह है कि वही धन लक्ष्मी का रूप धारण करता है जिसका उपभोग परोपकार व सेवा में होता है। धर्मशास्त्रों की दोनों बातों की अवज्ञा के कारण तुम्हारे धन व संतान की यह दशा हो रही है।’ये शब्द सुनकर सेठ पश्चाताप करने लगा। द शिवकुमार गोयल
पाठकीय
अंक-सन्दर्भ थ्4 सितम्बर,2011
काठ की हाण्डी दुबारा नहीं चढ़ती
विचारोत्तजक सम्पादकीय ‘आन्दोलन पर सेकुलर हमला’ कांग्रेस नेतृत्व वाली संप्रग सरकार के जनविरोधी चरित्र को पूरी तरह उजागर कर देता है। आजादी के बाद से अब तक यह पहला अवसर है जब 74 वर्षीय गांधीवादी समाजसेवी अण्णा हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन में देश का प्रत्येक वर्ग जाति, मत अथवा धर्म की परवाह किए बिना एक मंच पर खड़ा दिखाई दिया। परन्तु केन्द्र की इस भ्रष्ट एवं सत्तालोलुप सरकार ने अण्णा हजारे की इस देशहितकारी मुहिम में साम्प्रदायिकता व अगड़े-पिछड़ों का भ्रम फैलाकर जनता को गुमराह करने का असफल प्रयास किया।
-आर.सी. गुप्ता
द्वितीय-ए, 201, नेहरू नगर, गाजियाबाद (उ.प्र.)
द प्रेरणादायक सम्पादकीय के लिए साधुवाद! आज हमें भेदभाव भुलाकर एक होना चाहिए और जो लोग देशहित में कार्य कर रहे हैं, उन्हें तन-मन-धन से सहयोग करना चाहिए। आज घर में बैठने का समय नहीं है, बल्कि बढ़-चढ़ कर देशहित में कार्य करने की आवश्यकता है। यदि हमारे पूर्वजों ने संघर्ष नहीं किया होता तो आज हम स्वतंत्र नहीं रहते।
-लक्ष्मी चन्द
गांव-बांध, डाक-भावगड़ी, तहसील-कसौली, जिला-सोलन-(हि.प्र.)
द कांग्रेसियों ने अण्णा हजारे के आन्दोलन की हवा निकालने के लिए क्या कुछ नहीं किया। किन्तु वे सफल नहीं रहे। पढ़े-लिखे मंत्रियों को यह आभास नहीं था कि पढ़ाई-लिखाई ही सब कुछ नहीं होती, इसमें दिमाग लगाने की भी आवश्यकता होती है। सरकार के मंत्री टकराव की नीति पर नहीं चलते तो अच्छा होता।
-वीरेन्द्र सिंह जरयाल
28-ए, शिवपुरी विस्तार, कृष्ण नगर, दिल्ली-110051
द आज आम आदमी भ्रष्टाचार से त्रस्त है और कालेधन के कारण परेशान है। इसलिए जब कभी भ्रष्टाचार और कालेधन के खिलाफ आवाज उठती है तब आम आदमी भी उठ खड़ा होता है। जनजागरण की निरन्तरता टूटे नहीं, इसका ध्यान रखना होगा।
-रामचन्द बाबानी
राम क्लाथ स्टोर, स्टेशन मार्ग नसरीराबाद, अजमेर (राजस्थान)
जीवनशैली बदलनी होगी
श्री देवेन्द्र स्वरूप का आलेख ‘मैंने इतिहास को अंगड़ाई लेते देखा’ बताता है कि अण्णा को समर्थन पूरे भारत से मिला। देश का आम आदमी भ्रष्टाचार के नासूर से त्रस्त है। भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए केवल सरकारी तंत्र और राजनेताओं की नकेल कसने से कुछ नहीं होगा, बल्कि हमें अपनी जीवनशैली बदलनी होगी।
-मनोहर मंजुल
पिपल्या-बुजुर्ग
पश्चिम निमाड़-451225 (म.प्र.)
द लोकपाल सशक्त ही नहीं, सर्वशक्तिमान चाहिए। किन्तु जो कांग्रेस इस देश को वर्षों से लूट रही है, वह भला सर्वशक्तिमान लोकपाल क्यों नियुक्त करेगी? आने वाला समय ही बताएगा कि देश को लोकपाल मिलेगा या कांग्रेसपाल।
-बी.आर. ठाकुर
सी-115, संगम नगर, इन्दौर (म.प्र.)
करारा जवाब
श्री मनमोहन शर्मा के आलेख ‘कांग्रेस की साम्प्रदायिक राजनीति’ का सार यह है कि आम मुसलमानों ने स्वयंभू मुस्लिम नेताओं की बातों को न मान कर उन्हें करारा जवाब दिया है। भ्रष्टाचार और महंगाई से तो हर वर्ग परेशान है। फिर क्यों कुछ मुस्लिम नेता भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने वालों का बहिष्कार करते हैं?
-हरेन्द्र प्रसाद साहा
नया टोला, कटिहार-854105 (बिहार)
द चर्चा सत्र में श्री राजनाथ सिंह ‘सूर्य’ ने अपने लेख ‘सुधरो या गद्दी छोड़ो’ में लिखा है कि कांग्रेस को कब यह समझ में आएगा कि काठ की हाण्डी बार-बार नहीं चढ़ती? जब कभी भ्रष्टाचार के खिलाफ आन्दोलन होता है तो कांग्रेस कहती है कि यह सब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का काम है। कांग्रेस जनभावना को नहीं देख पा रही है या जानबूझकर उसकी उपेक्षा कर रही है?
-राममोहन चंद्रवंशी
विट्ठल नगर, टिमरनी, जिला-हरदा-416228 (म.प्र.)
सत्य बाहर आए
पिछले दिनों मंथन स्तम्भ में बड़ा ही न्यायसंगत प्रश्न किया गया है कि ‘क्या भारतीय बुद्धिजीवियों का यह ऐतिहासिक दायित्व नहीं है कि वे एकात्म राष्ट्रीय समाज के निर्माण में बाधा डालने वाली प्रवृत्तियों और विचारधारा की सही कारण-मीमांसा करें?’ नेहरू युग से सोनिया युग तक तथाकथित सेकुलरवादी लेखकों द्वारा ऐतिहासिक सत्य को छिपाया जाता रहा है। इसे बाहर लाना आवश्यक है।
-क्षत्रिय देवलाल
उज्जैन कुटीर, अड्डी बंगला, झुमरी तलैया, कोडरमा (झारखण्ड)
न्यायालय का लट्ठ
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 15 अगस्त को लाल किले की प्राचीर से दिए अपने भाषण में कहा कि भ्रष्टाचार दूर करने के लिए सरकार के पास कोई जादू की छड़ी नहीं है। प्रधानमंत्री जी शायद यह भूल गए कि उनके हाथ में जादू की छड़ी नहीं कानून का डंडा है जो अगर असरदार ढंग से चलता रहे तो भ्रष्टाचार ज्यादा देर टिक नहीं सकता। लेकिन सरकार यह डंडा तभी चलाती है, जब सिर पर सर्वोच्च न्यायालय का लट्ठ पड़ता है।
-अरुण मित्र
324, राम नगर
दिल्ली-110051
द प्रधानमंत्री का भाषण बहुत ही नीरस था। भाषण में भ्रष्टाचार पर लगाम न लगाने की बात कह कर, भ्रष्टाचार के विरुद्ध बोलने वालों को ही नसीहत दी गई। बाद में इसका जवाब भी लोगों ने दे दिया।
-विष्णु प्रकाश जिंदल
4141, चौकड़ी मोहल्ला नसीराबाद (राज.)
मन्दिरों पर सरकारी कब्जा
हिन्दू धर्म से विमुख रहने वाले नेहरू की सरकार ने 1951 में एक कानून ‘द हिन्दू रिलीजियस एंड चैरिटेबल ऐण्डोमेंट एक्ट’ बनाया। इस कानून के द्वारा राज्य सरकारों को हिन्दुओं के मन्दिरों का अधिग्रहण कर उन पर और उनकी सम्पत्तियों पर पूर्ण अधिकार करने की अनुमति दी गई। इस कानून के अनुसार राज्य सरकारें मन्दिरों की चल-अचल सम्पत्तियों को बेच कर उस धन का जैसे चाहें, वैसे उपयोग कर सकती हैं। ध्यान देने योग्य बात है कि यह कानून केवल हिन्दुओं के मन्दिरों के अधिग्रहण के लिए ही बनाया गया। मुस्लिम, ईसाई आदि अन्य मतावलम्बियों के पूजा स्थलों का अधिग्रहण कोई भी सरकार नहीं कर सकती। यह आरोप किसी मन्दिर के अधिकारी ने नहीं लगाया है, बल्कि एक विदेशी लेखक स्टीफन कनाप्प ने अपनी पुस्तक ‘क्राइम्स एगेंस्ट इण्डिया एण्ड द नीड टू प्रोटेक्ट एन्सियेंट वैदिक ट्रडीशन’ (भारत के विरुद्ध अपराध और प्राचीन भारतीय संस्कृति को बचाने की आवश्यकता) में लगाया है। यह पुस्तक अमरीका में प्रकाशित हुई है। इस पुस्तक में उपलब्ध जानकारी से लोगों का मन दु:ख, आक्रोश और क्रोध से भर उठता है।
उदाहरण के लिए देखें कि उपरोक्त कानून के अधीन आन्ध्र प्रदेश में लगभग 43 हजार मन्दिर सरकार के कब्जे में आ चुके हैं और इन मन्दिरों से प्राप्त आय का केवल 18 प्रतिशत धन इन मन्दिरों के उद्देश्यों पर व्यय किया जाता है और शेष 82 प्रतिशत धन अन्य अघोषित कार्यों पर व्यय किया जाता है। इस विषय में विश्वप्रसिद्ध तिरुमाला तिरुपति मन्दिर को भी नहीं बख्शा गया है। कनाप्प के अनुसार इस मन्दिर में प्रतिवर्ष 3100 करोड़ रुपए से अधिक की राशि एकत्रित होती है और स्वयं राज्य सरकार ने इस आरोप से इनकार नहीं किया है कि इसमें से 85 प्रतिशत राशि राज्यकोष में स्थानान्तरित कर दी जाती है, जिसका अधिकतर भाग ऐसे कार्यों में व्यय किया जाता है, जिनका हिन्दू समाज से कोई संबंध नहीं है। क्या ये कार्य ऐसे हैं, जिनके लिए भक्त लोग मन्दिरों में अपनी भेंट चढ़ाते हैं? एक दूसरा आरोप यह है कि आन्ध्र सरकार ने एक गोल्फ कोर्स के निर्माण के लिए कम से कम दस मन्दिरों के ध्वंस की अनुमति दे दी थी। कनाप्प लिखते हैं कि कल्पना करें कि यदि दस मस्जिदें गिरा दी जातीं तो कैसी हायतौबा मचती? कर्नाटक में लगभग 2 लाख मन्दिरों से 79 करोड़ रुपए सरकार ने उगाहे थे, जिनमें से मन्दिरों के रख रखाव के लिए केवल सात करोड़ रुपए दिये गये तथा मुस्लिम मदरसों और हज-सहायता के लिए 59 करोड़ एवं चर्चों के लिए लगभग 13 करोड़ रुपए खर्च किये गये। वे लिखते हैं कि 2 लाख मन्दिरों में से 25 प्रतिशत अर्थात् लगभग 50 हजार मन्दिर धनाभाव के कारण बन्द हो जाएंगे। इसका एक मात्र कारण, जिससे सरकार अपनी लूट जारी रखे हुए है, यह है कि इसे रोकने के लिए हिन्दू जनता दृढ़तापूर्वक खड़ी नहीं हुई है। इसके पश्चात् वे केरल की बात करते हैं, जहां गुरुवायूर मन्दिर के कोष से 45 हिन्दू मन्दिरों के सुधार हेतु धन देने से इनकार करके उसे वहां की सरकार राज्य की दूसरी योजनाओं में व्यय करती है। अयप्पा मन्दिर की बहुत सी भूमि हड़प ली गई है और सबरीमाला के निकट वनक्षेत्र की हजारों एकड़ भूमि पर चर्च द्वारा कब्जा कर लिया गया है।
एक आरोप यह भी है कि केरल की पिछली वामपंथी सरकार एक अध्यादेश द्वारा ट्रावनकोर और कोचीन के स्वयात्तशासी देवास्म बोर्डों को समाप्त कर 1800 हिन्दू मन्दिरों की सीमित स्वतंत्र सत्ता का भी अपहरण करना चाहती थी। लेखक के अनुसार अब तो महाराष्ट्र सरकार भी राज्य के लगभग 4,50,000 मन्दिरों का अधिग्रहण कर उनसे प्राप्त भारी धनराशि से अपने राज्य के दिवालियेपन की स्थिति सुधारना चाहती है। और इन सबसे ऊपर उड़ीसा सरकार जगन्नाथ मंदिर की 70,000 एकड़ से अधिक भूमि को बेचना चाहती है। इस पर राज्य सरकार यह बहाना बनाती है कि प्राप्त भारी धनराशि से वह उड़ीसा के मन्दिरों की आर्थिक दुरावस्था को सुधार सकेगी। जबकि इन मन्दिरों की आर्थिक दुरावस्था किसी और ने नहीं, बल्कि स्वयं सरकार ने ही मन्दिरों की परिसम्पत्तियों के अपने कुप्रबंध द्वारा उत्पन्न की है। वे कहते हैं कि स्वतंत्र और प्रजातांत्रिक दुनिया में कहीं भी, कोई भी सरकार देश के लोगों की धार्मिक स्वतंत्रता का हनन करते हुए धार्मिक संस्थाओं का प्रबंधन, नियमन और शोषण नहीं करती, परन्तु भारत में यह सब कुछ हो रहा है।
-प्रो. जयदेव आर्य
249, कादम्बरी अपार्टमेंट, सेक्टर-9, रोहिणी, दिल्ली-110085
पञ्चांग
वि.सं.2068 तिथि वार ई. सन् 2011
आश्विन शुक्ल 6 रवि 2 अक्तूबर, 2011
(महात्मा गांधी जयन्ती)
” ” 7 सोम 3 ” “
” ” 8 मंगल 4 ” “
(श्री दुर्गाष्टमी)
” ” 9 बुध 5 ” “
(श्री दुर्गा नवमी)
” ” 10 गुरु 6 ” “
(विजयादशमी)
” ” 11 शुक्र 7 ” “
” ” 12 शनि 8 ” “
पेज 13
मैं अटल हिमवान जैसा
द डा.शिव शंकर जायसवाल
मैं अटल हिमवान जैसा
उदधि जैसा धीर हूं
गगन की निस्सीमता हूं,
मैं धरा की पीर हूं।
पांव में है गति पवन की,
मुट्ठियों में मंजिलें,
राह से डिगता नहीं मैं,
आंधियां जितनी चलें।
सूर्य के मैं भाल जैसा,
त्रिपथगा का नीर हूं,
मैं अटल हिमवान जैसा,
उदधि जैसा धीर हूं।
निबिड़ तम को चीरता मैं,
हर चुनौती झेलता,
मैं प्रभंजन का तनय हूं,
संकटों से खेलता।
दिव्यता का अंश हूं मैं,
मनुज की तकदीर हूं,
मैं अटल हिमवान जैसा,
उदधि जैसा धीर हूं।
जो बढ़े आगे निरंतर,
क्षितिज के उस पार तक,
सृष्टि के इस छोर से,
उस दूसरे संसार तक।
मैं पथिक ऐसा अथक हूं,
मुक्त मलय समीर हूं,
मैं अटल हिमवान जैसा,
उदधि जैसा धीर हूं।
मैं सूने घर की शहनाई हुई हूं
थ् शिवओम अम्बर
सितम्बर का महीना साहित्यिक परिवेश में हिन्दी दिवस, हिन्दी सप्ताह और हिन्दी पखवाड़े के आयोजनों के नाम रहता है। इस बार भी ऐसा ही हुआ। सबसे बड़ा मजाक उस दिन लगा जब अखबारों में हिन्दी दिवस के आयोजन में किसी साहित्यकार को राष्ट्रपति महोदया की उपस्थिति में पुरस्कृत करते उन गृहमंत्री चिदम्बरम जी का चित्र प्रकाशित हुआ जो न हिन्दी जानते हैं, न जानना चाहते हैं। इस बार एक और नई चर्चा ने भी ध्यान आकर्षित किया। कुछ साहित्यकारों ने विविध पत्रिकाओं में हिन्दी को लिपि के संदर्भ में उदारभाव अपनाने की नसीहत दी तो कुछ ने उसमें अंग्रेजी के अत्यधिक मिश्रण को भी युग की जरूरत बताने में संकोच नहीं किया। हिन्दी भाषी प्रदेशों में अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में इधर गुणात्मक वृद्धि हुई है और हिन्दी दिवस तथा हिन्दी सप्ताह भावात्मक ऊर्जा के सोपानों में नहीं अपितु खोखले कर्मकाण्डीय अनुष्ठानों में बदलते जा रहे हैं। ऐसा महसूस होता है कि हिन्दी स्वयं हमसे कह रही है-
बहुत बेकल हूं घबराई हुई हूं,
कि मैं अपनों से ठुकराई हुई हूं।
पड़ी हूं कशमकश में किससे पूछूं,
मैं जिंदा हूं कि दफनाई हुई हूं।
जिसे देखो ठिठोली कर रहा है,
कबीले भर की भौजाई हुई हूं।
हुई हूं जिस घड़ी से राजभाषा,
मैं सूने घर की शहनाई हुई हूं।
हिन्दी का राजभाषा बनना उसकी सहज प्रगति में बाधक सिद्ध हुआ है।
हिन्दी के महारथी
सितम्बर के महीने के साथ हिन्दी के कुछ बहुत बड़े नाम अनायास अनुस्यूत हैं, यह देख-सुनकर अच्छा लगता है। इस महीने की प्रारंभिक तिथि हिन्दी गजल में नवयुग के पुरोधा दुष्यंत कुमार की जन्मतिथि है। दुष्यंत की अग्निधर्मा गजलों के बारे में बहुत कुछ लिखा गया है किंतु ‘साये में धूप’ कुछ ऐसी भावतरल पंक्तियों को भी हमारे समक्ष लाती है जो उनकी सर्वमान्य आक्रोश-मुद्रा से परे उनकी एक अलग छवि प्रस्तुत करती हैं। अपने एक शेर में दुष्यंत अपने प्रेमास्पद को ऋतम्भरा की संज्ञा प्रदान करते हैं। यह गजल के आज तक के इतिहास में किसी प्रणयी के द्वारा अपने प्रेमपात्र को दिया गया अनूठा सम्बोधन है-
तुमको निहारता हूं सुबह से ऋतम्भरा,
अब शाम हो गई है मगर मन नहीं भरा।
अगर एक दीर्घकालीन दाम्पत्य जीवन की रागारुण आत्मीयता का कलात्मक अंकन इन पंक्तियों में हम अनुभव कर सकें तो चित्त को अद्भुत आनंद की सहज उपलब्धि हो जाये। यौवन की उषा वेला में जो सहधर्मिणी हमारी दृष्टि आकृष्ट करती है वह जीवन की अस्ताचल वेला में भी उतनी ही मोहक बनी रहे-ऐसी पवित्र कामना कौन नहीं करेगा? किंतु ऐसा हो तभी हो सकता है जब हमें कवि की वह दृष्टि प्राप्त हो जाये जो किसी देह में देह से पार की ज्योति को देख लेती है, उसे ऋतम्भरा कह पाती है। वस्तुत: ऋतम्भरा वह प्रज्ञा है जो परम तत्व की धारणा में समर्थ है। यही वह सुंदरता है जो कभी पुरानी नहीं पड़ती क्योंकि इसमें पार्थिव मत्र्य भाव नहीं, अमृत दिव्यता होती है। सितम्बर के प्रारंभ में दुष्यंत का स्मरण हमें अग्नि से भी जोड़ता है, अमृत से भी।
9 सितम्बर को हिन्दी साहित्य के आधुनिक युग के उद्गाता कविवर भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की जन्मतिथि है। ‘निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल’ यह बीजमंत्र देने वाले भारतेन्दु यदि आज के भारतवर्ष की परकीय भाषा के प्रति दीवानगी को देखते तो शायद स्वयं को भीष्म पितामह की तरह शरशय्या पर लेटा महसूस करते। 11 सितम्बर महीयसी महादेवी की पुण्यतिथि है, जो राजनीति के द्वारा हिन्दी के प्रति किये गये छल से आजीवन पीड़ित रहीं। उनका कहना था कि श्रीराम तो चौदह वर्ष के वनवास के बाद अयोध्या वापस आ गये थे किंतु जिस कुटिलता के साथ हिन्दी को निर्वासित किया गया है उससे उसके लौट पाने की संभावना बहुत कम है। गीत की शक्तिमत्ता के प्रति उनकी आस्था अविचल रही। अपनी अंतिम कृति ‘अग्निरेखा’ में उन्होंने युवा पीढ़ी का प्रभंजनों की राह पर चलने का आह्वान किया है, अंगारों का स्वागत करने को कहा है किंतु इस सबके साथ यह भी गाया है कि सहज मानवीय संवेदना का सम्पोषक गीत अंधेरी राह का एकमात्र सहयात्री सिद्ध होता है-
स्वर के शत बिम्बों ने एक पल अनंत किया
सातों आकाशों के शून्य को वसंत दिया
मृत्यु ने इसे न छुआ
काल ने इसे न छला
राह थी अंधेरी पर गीत संग-संग चला।
शून्य में वसंत की अवतारणा कर देने की गीत की शक्ति समस्त भारतीय चेतना की सांस्कृतिक शक्ति है। इसी शक्ति के सहारे उसने बर्बर विदेशी आक्रमणों से आहत होने पर भी अपने आत्मभाव की दीप्ति को मंद नहीं पड़ने दिया। इसी शक्ति ने उसे सदैव आश्वस्त और विश्वस्त रखा है-
दिया वो आंधियों से है मुखातिब,
उसे खुद पे बहुत विश्वास होगा।
सितम्बर के अंतिम सप्ताह में 23 तारीख को राष्ट्रकवि दिनकर का जन्म हुआ था। कुरुक्षेत्र, रश्मिरथी, परशुराम की प्रतीक्षा तथा हुंकार के कवि दिनकर उर्वशी जैसे अद्भुत ग्रंथ के प्रणेता भी हैं जो कामाध्यात्म की कलात्मक व्यंजना है। उनका गद्य लेखन भी चिंतन के अभिनव क्षितिजों का उद्घाटन करने वाला है। अपनी ‘स्मरणांजलि’ में उन्होंने हिन्दी की अस्मिता के संघर्ष में एकाकी पड़ जाने वाले राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन के संदर्भ में चित्रण करते हुए लिखा है-सांस्कृतिक कारणों से गांधी जी का टंडन जी से मतभेद हुआ और हिन्दी साहित्य सम्मेलन से वे अलग हो गये। सांस्कृतिक कारणों से ही जवाहरलाल जी टंडन जी के विरुद्ध हो गये और टंडन जी को कांग्रेस के अध्यक्ष पद से अलग हो जाना पड़ा। और जिन कारणों से टंडन जी का गांधी जी और जवाहरलाल जी से मतभेद हुआ, उन्हीं कारणों से मौलाना आजाद भी टंडन जी को नापसंद करते थे।
दिनकर जी को हमेशा यह तथ्य पीड़ा देता रहा कि जहां अन्य देशों का समग्र समाज अपनी भाषा के साहित्यकार के प्रति सौहार्द का अनुभव करता है और उसकी संरक्षा में सचेष्ट रहता है वहीं, इस देश के अभिजनवर्ग में उसके प्रति भयावह उदासीनता है। इसी पुस्तक के एक उद्धरण के साथ इस प्रकरण को विराम देता हूं-
विश्वविद्यालयों से जो सबसे अच्छे लोग निकलते हैं, वे सरकारों में लगते हैं, विश्वविद्यालयों में लगते हैं, व्यापार और कारखानों में लगते हैं। वे आज के सबसे सचेष्ट नागरिक हैं, समाज के सबसे चेतन जीव हैं। लेकिन इन लोगों का विश्वास अपनी भाषाओं में नहीं है, न वे अपनी भाषाओं के लेखकों और कवियों का आदर करते हैं। मन-ही-मन वे अपने को समाज से ऊपर समझते हैं। उन्हें भ्रम हो गया है कि जो चीजें अंग्रेजी में नहीं छपतीं, वे उनके पढ़ने योग्य नहीं हैं। उनकी मान्यता यह भी दीखती है कि सबसे अच्छे आदमी वे हैं जो अंग्रेजी में काम करते हैं। पता नहीं, यह बीमारी कब दूर होगी? द
अभिव्यक्ति मुद्राएं
कठपुतली हैं हम सभी रंगमंच संसार,
जिसको जो प्रभु ने दिया निभा रहा किरदार।
बहुमंजिली इमारतें मोबाइल संदेश,
चल कागा घर आपने बदल गया परिवेश।
-अनमोल शुक्ल
एकमुखी रुद्राक्ष सा तुमसे पाया नेह,
पल में अभिमंत्रित हुई यह कुंदन-सी देह।
-उमाश्री
सबका मालिक एक है फिर काहे का वैर,
कर लें हम मिलकर दुआ मांगे सबकी खैर।
तुलसी सूर कबीर के साथ कहें रसखान,
जिसमें जितनी सादगी उतना वही महान।
-गौरव गोयल
पेर 14
संघर्षों से घिरा अफगानिस्तान
द डा.सतीश चन्द्र मित्तल
यदि भारत के पड़ोसी देशों की ओर दृष्टि डालें तो दूर-दूर तक भारत का कोई मित्र देश दिखलाई नहीं देता है। भारत के स्वतंत्र होने के बाद एक-एक करके हमारे पड़ोसी देश शत्रु बनते जा रहे हैं। पाकिस्तान और चीन तो घोषित रूप से बैरी हैं ही, बंगलादेश, भूटान, म्यांमार (वर्मा), श्रीलंका और यहां तक कि नेपाल को भी निकट मित्र नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार उत्तर-पश्चिम सीमा पर स्थित अफगानिस्तान चिरकाल से भारत से जुड़ा रहा है। प्राचीन काल में यह भारत का उप गणराज्य था। महाभारत काल की गांधारी इसी विस्तृत क्षेत्र गंधार से आई थीं। प्राचीन काल में यह हिन्दू तथा बौद्ध धर्म का प्रमुख केन्द्र रहा है। अनेक प्राचीन खण्डहर तथा बौद्ध अवशेष इसके भारतीय सम्बंधों को दर्शाते है।
साहसी अफगान
यह भी सत्य है कि अफगानिस्तान लम्बे समय तक अनेक आक्रमण- कारियों तथा घुसपैठियों का मार्ग रहा। प्राचीनकाल में शक, हूण, कुषाण ओर से भारत आए। यहां तक कि यूनानी आक्रमणकारी सिकन्दर भी इसी मार्ग से भारत में घुसा। मध्यकाल में सभी मुस्लिम आक्रमणकारियों ने इस प्रदेश को रौंदा। महमूद गजनवी, मुहम्मद गौरी, तैमूर लंग तथा बाबर इसी मार्ग से भारत आए तथा बाद में अहमद शाह अब्दाली ने 1747 में एक स्वतंत्र अफगानिस्तान राज्य की स्थापना की तथा इसे एक मुस्लिम देश बनाया। शीघ्र ही अफगानिस्तान ब्रिाटेन, रूस तथा अमरीका की कूटनीति का शिकार हो गया। सभी अपने आधुनिक शस्त्रों से लैस होकर अफगानिस्तान आए। परन्तु सामान्य शस्त्रों से युक्त कबीलियाई युद्ध में पारंगत साहसी अफगानों से हार कर लौटे। 18वीं शताब्दी में ब्रिाटेन ने दो बार अफगानिस्तान पर आक्रमण किया पर सफलता न मिली। पहला आक्रमण 1838 में हुआ, इसमें अंग्रेजों का एक भी सैनिक जीवित वापस नहीं लौटा! दूसरा आक्रमण भारत में लार्ड लिटन के शासन काल में 1876 में किया गया, पर इस बार भी सफलता न मिली। आखिर अंग्रेजों ने अपनी सबसे बड़ी ‘कालोनी’ भारत की सुरक्षा के लिए 1893 में भारत व अफगानिस्तान के बीच एक ‘ड्यूरैण्ड लाइन’ निश्चित की, जिसे अफगानिस्तान ने कभी स्वीकार नहीं किया।
भारत का मित्र
भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन के काल में अफगानिस्तान ने भारत के लोगों को सहयोग दिया। अंग्रेजों को अफगानिस्तान के आक्रमण का सदैव भय बना रहता था। 1919 में राजा महेन्द्र प्रताप तथा बरकतुल्ला ने भारत की स्वतंत्रता के लिए काबुल में एक अस्थायी सरकार भी स्थापित की थी। खान अब्दुल गफ्फार खां, जो भारत में ‘सीमांत गांधी’ के नाम से विख्यात हैं, के प्रयत्न किसी से छिपे नहीं हैं। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस वेश बदल कर काबुल के ही रास्ते जर्मनी पहुंचे थे। पठानों से भारत के मधुर सम्बंधों को दर्शाने वाली रवीन्द्र नाथ टैगोर की कहानी ‘काबुलीवाला’ को कौन भूल सकता है। 1947 में भारत विभाजन के समय गांधी जी की उपस्थिति में कांग्रेस कमेटी की एक बैठक में खान अब्दुल गफ्फार खां ही एकमात्र ऐसे मुस्लिम नेता थे जिन्होंने भारत विभाजन का विरोध किया था तथा इसे उत्तर पश्चिमी फ्रंटियर प्रांत के साथ विश्वासघात बताया था। पाकिस्तान के निर्माण के पश्चात भी अफगानिस्तान ने ड्यूरैण्ड रेखा को स्वीकार नहीं किया। इसमें कुछ भूमि अनिश्चित, अविकसित थी जिसे फाटा (फेडरल ऐडमिनिस्ट्रेशन ट्रायबल एरिया) कहा जाता है, जो पाकिस्तान की सीमा की ओर से निश्चित नहीं है। साथ में उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत व बलूचिस्तान के लोगों को वहां की इच्छा के विपरीत अंग्रेजों ने पाकिस्तान में मिला दिया था। ‘फाटा’ में लगभग तीन लाख कबीले अर्थात बाजौर, मोड़मंड, खैबर, अस्काई, कुर्रम आदि महत्वपूर्ण क्षेत्र हैं, जिनका मनमाना दुरुपयोग आज पाकिस्तान कर रहा है।
तालिबान का उदय
सोवियत संघ ने भी अपनी साƒााज्यवादी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए 1979 में अफगानिस्तान को निशाना बनाया। भयंकर नरसंहार किया तथा यहां के लोगों को यातनाएं दीं। सोवियत संघ ने एक कठपुतली सरकार नूर मोहम्मद तैराकी के नेतृत्व में बनवाई। इसी समय तत्कालीन भारत की प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने एक भयंकर गलती यह की कि उस सरकार को मान्यता दे दी। वहां का जनमानस उस सरकार को जरा भी नहीं चाहता था। यहीं से भारत- अफगानिस्तान के सम्बंधों में टकराव तथा कड़ुवाहट का दौर प्रारंभ हुआ। आखिरकार 1988 में जेनेवा सम्मेलन के समझौते के अन्तर्गत सोवियत सैनिकों की वापसी हुई। सोवियत सेनाओं को भगाने में वहां के साहसी लोगों की प्रमुख भूमिका रही। इसमें परोक्ष रूप से अमरीका तथा सऊदी अरब ने भी सहयोग दिया। इसी काल में तालिबान का प्रभुत्व बढ़ा। 1994 में मुल्ला उमर ने अफगानिस्तान में फैली अराजकता का लाभ उठाकर शरिया (इस्लामी कानून) लागू किया, मनमाने कानून बनाये, भ्रष्टाचार बढ़ा। 1998 तक उसने लगभग 90 प्रतिशत अफगान क्षेत्रों पर नियंत्रण कर लिया। विश्व में केवल तीन देशों-सऊदी अरब, यू.ए.एफ तथा पाकिस्तान ने इसे मान्यता दी। यह नहीं भूलना चाहिए कि तालिबान पाकिस्तानी मदरसों तथा पाकिस्तान सरकार की घृणास्पद कूटनीति की ही उपज है। यह एक ऐसा भस्मासुर है जो न केवल अफगानिस्तान बल्कि अमरीका तथा पाकिस्तान सहित अन्य देशों को भी चोट पहुंचाने#े को आतुर है। आखिर में अमरीका ने 9/11 के बाद 7 अक्तूबर, 2001 को तालिबान पर आक्रमण किया तथा दिसम्बर, 2001 में अफगानिस्तान में तालिबान शासन का अन्त हुआ।
अमरीकी हस्तक्षेप
22 दिसम्बर, 2001 को हमीद करजाई को अफगानिस्तान का राष्ट्राध्यक्ष बनाया गया। काफी हद तक वे भारत से पूर्व परिचित हैं। उनकी शिक्षा शिमला (हिमाचल प्रदेश) में हुई है, उन्हें हिन्दी आती है। उनकी सरकार के कई मंत्री भारत के प्रति उदार हैं। उन्होंने अफगानिस्तान का नया संविधान बनाने में भारत की मदद ली। उन्होंने यह भी कहा कि भविष्य में पाकिस्तान का हस्तक्षेप बर्दाश्त नहीं करेंगे। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने उनकी सहायता की। भारत का उद्देश्य अफगानिस्तान के निकट पाकिस्तानी सैनिक अड्डे तथा अफगानिस्तान में भारत विरोधी प्रचार को रोकना था।
अमरीका ने अपने सैन्य बल भेजकर तालिबान के क्रूर शासन को समाप्त किया था। इसलिए अफगानिस्तान के लोगों ने अमरीका को ‘तारणहार’ के रूप में लिया। परन्तु 2005 से पुन: तालिबान का प्रभाव बढ़ा। अन्तरराष्ट्रीय सुरक्षा सहायता सेना (नाटो) के अन्तर्गत जून, 2009 तक 41 देशों की 75,000 सेना यहां लगाई गई। इनमें अमरीका तथा ब्रिाटेन प्रमुख हैं। इसके अलावा अमरीका ने 3600 सैनिक ‘आपरेशन ड्यूरिंग फ्रीडम’ के रूप में भेजे। अमरीका ने अफगान सेना की संख्या 22,000 तथा अफगान पुलिस की संख्या 82,000 करनी चाही। साथ ही अमरीका भी स्वयं अपनी सेना अफगानिस्तान में बढ़ाने की सोचता रहा। इस प्रसंग में यह जानना महत्वपूर्ण है कि भारत भी अनेक योजनाओं द्वारा अफगानिस्तान के जनजीवन को सुव्यवस्थित करने में सहायता कर रहा है। इसमें विभिन्न विद्युत परियोजनाएं, हाइड्रो इलैक्ट्रिक प्रोजेक्ट तथा सिंचाई परियोजनाएं हैं। स्वास्थ्य एवं विभिन्न प्रकार की बीमारियों के इलाज की भी वहां कोई व्यवस्था नहीं थी। इन विकास कार्यों में डेलरम से जारंज तक की सड़क निर्माण योजना उल्लेखनीय है, जो अफगानिस्तान को ईरान के बन्दरगाह तक जोड़ती है। इसी भांति भारत द्वारा काबुल में संसद भवन का निर्माण कार्य किया जा रहा है। भारत ने इन सुधार व सहायता कार्यों में लगभग 1.5 लाख डालर खर्च किए हैं। मई, 2011 में प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह पुन: 500 लाख डालर की सहायता का वचन देकर आए हैं।
स्थिति जस की तस
ओसामा बिन लादेन के बाद अमरीका ने अपनी नीति में परिवर्तन लाने का आभास दिया है। अमरीका के राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा के अनुसार अफगानिस्तान से शीघ्र ही अमरीकी सैनिकों की वापसी होगी। 10,000 अमरीकी सैनिक वर्ष के अन्त तक तथा 5000 अगली गर्मियों तक लौटेंगे। ओबामा अगली गर्मी तक लगभग 30,000 सैनिकों की वापसी की बात कह रहे हैं। 2014 तक वे अधिकतर सैनिकों की वापसी का वचन दे रहे हैं। विचारणीय प्रश्न है कि क्या अफगानिस्तान की स्थिति सामान्य हो गई? क्या अमरीका की नीति से पाकिस्तान अपनी शरारती तथा षड्यंत्रकारी नीति से दूर हो गया है? क्या पाकिस्तान का रुख अफगानिस्तान के सन्दर्भ में शांति की स्थापना का है? वस्तुत: पाकिस्तान की गतिविधियों पर कोई अकुंश नहीं लगा है। पाकिस्तान अब भी आई.एस.आई. की सहायता से तालिबानियों को प्रशिक्षण देने तथा हथियार देकर भारत और अफगानिस्तान विरोधी अभियान में शामिल है। कुछ समय पूर्व एक ही वर्ष में काबुल में भारतीय दूतावास पर दो बार बड़े हमले हुए हैं। क्या काबुल में राष्ट्रपति के भाई तथा अन्य प्रमुख व्यक्तियों की हत्या इस बात का प्रमाण नहीं है कि अफगानिस्तान में अभी सब कुछ ठीक नहीं है।
सोचना तो भारत को है कि वह कब तक अमरीका की बैसाखियों के सहारे अपनी विदेश नीति का निर्धारण करता रहेगा? कब तक पाकिस्तान तथा चीन से दोस्ती, बातचीत, व्यापारिक समझौता आदि शब्दावली के कल्पना लोक में घूमता रहेगा? वस्तुत: चीन तथा पाकिस्तान से काबुल की सुरक्षा भारत की सुरक्षा से जुड़ी बात है। क्या केवल निर्माण कार्यों तथा आर्थिक सहायता से अफगानिस्तान सुरक्षित रहेगा? भारत को चाहिए कि बदलते परिप्रेक्ष्य में विदेश नीति में आवश्यक परिवर्तन करे। यह न भूले कि अफगानिस्तान सदैव से हमारा मित्र रहा है जबकि पाकिस्तान घृणा से निर्मित भारत का ही एक टुकड़ा। भारत को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि अफगानिस्तान के सम्बंध चिरकाल से हैं। 1935 के एक सर्वेक्षण के अनुसार वहां 5000 ऐसे स्थान हैं जो हिन्दू तथा बौद्ध धर्म से जुड़े हैं। अत: अपनी विदेश नीति को सबल, सार्थक तथा संकल्प के साथ अफगानिस्तान से अच्छे सम्बंध बनाएं ताकि भविष्य में अफगानिस्तान युद्ध का अखाड़ा न बने। अफगानिस्तान से सम्बंध जोड़ें, तोड़ें नहीं। द
उत्तर प्रदेश/ शशि सिंह
अब मुस्लिम आरक्षण का लालच
उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव नजदीक आ रहे हैं। इन चुनावों के मद्देनजर मुख्यमंत्री सुश्री मायावती ने प्रदेश के मुसलमानों के सामने अब आरक्षण का चुग्गा फेंका है। मायावती की सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की इस राजनीति में यहां का मुसलमान कितना फंसता है यह तो समय ही बताएगा, पर इतना जरूर है कि मायावती ने केन्द्र में सत्तारूढ़ और उत्तर प्रदेश में अपना राजनीतिक वजूद खोज रही कांग्रेस को बैठे-बिठाये एक मुद्दा थमा दिया है। इसीलिए जैसे ही मायावती ने मुसलमानों को आरक्षण देने की वकालत करते हुए केन्द्र सरकार को पत्र लिखा, कांग्रेस ने उसे लपक लिया और कहा- हां, मुसलमानों को आरक्षण देने के हम भी हिमायती हैं, भले ही उसके लिए संविधान में संशोधन ही क्यों न करना पड़े।
मायावती का पत्र
उ.प्र. की मुख्यमंत्री मायावती ने प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह को पत्र भेजकर कहा है कि देश में हर तरह से पिछड़े मुसलमानों को नौकरियों समेत अन्य क्षेत्रों में आरक्षण दिया जाए, चाहे इसके लिए संविधान में संशोधन ही क्यों न करना पड़े। उन्होंने कहा कि संविधान संशोधन के मामले में वह केन्द्र सरकार का साथ देंगी। मुख्यमंत्री ने लिखा कि मुसलमानों की आर्थिक स्थिति में यदि परिवर्तन लाना है तो शिक्षा, सेवा और जीवन के अन्य सभी क्षेत्रों में उन्हें आगे बढ़ाने के लिए अधिक से अधिक अवसर उपलब्ध कराने की आवश्यकता है। उन्होंने सच्चर कमेटी के सुझावों को लागू करने के साथ ही साम्प्रदायिक हिंसा की रोकथाम और उस पर नियंत्रण की आवश्यकता पर बल दिया।
केन्द्र ने लपका मुद्दा
इधर मायावती का पत्र लिखना था कि उधर केन्द्र ने इस मुद्दे को लपक लिया। मानो केन्द्र सरकार को इस मुद्दे पर किसी के सहयोग की पहले से ही दरकार थी। यह वही केन्द्र सरकार है जिसके प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने कुछ साल पहले कहा था कि इस देश के संसाधनों पर सबसे पहला हक अल्पसंख्यकों का है। अल्पसंख्यक से उनका मतलब मुसलमानों से ही था। तब उनकी काफी तीखी आलोचना हुई थी। उसी केन्द्र सरकार ने हाल ही में सांप्रदायिक व लक्षित हिंसा निरोधी विधेयक का मसौदा भी राष्ट्रीय एकता परिषद में पेश किया, जिसका चौतरफा विरोध हुआ और वह औंधे मुंह गिर पड़ा। यही केन्द्र सरकार अपने द्वारा गठित सच्चर कमेटी की रपट लागू करने के लिए बेताब है। इसीलिए केन्द्रीय कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने कहा कि केन्द्र सरकार मुसलमानों के लिए आंध्र प्रदेश की तर्ज पर देशभर में आरक्षण के बारे में सोच रही है। यहां यह बताते चलें कि आंध्र प्रदेश की कांग्रेस सरकार राज्य की नौकरियों में पांच प्रतिशत आरक्षण मुसलमानों को दे चुकी है।
वोट बैंक के मारे ये बेचारे
चाहे केन्द्र सरकार हो या उ.प्र. की मायावती सरकार, सभी को एकमुश्त मुस्लिम वोटों की दरकार है। उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव अप्रैल-मई (2012) में संभावित हैं। यहां एक तरफ मायावती को दूसरी बार सत्ता की चाहत है तो 1990 से प्रदेश की राजनीतिक जमीन से बेदखल कांग्रेस 20 साल बाद पुन: पांव जमाने की कोशिश कर रही है। देश में सर्वाधिक मुस्लिम जनसंख्या वाले जिलों में से 20 जिले उत्तर प्रदेश में ही हैं। यहां की करीब 100 विधानसभा सीटें तथा 15 से अधिक लोकसभा सीटें ऐसी हैं जहां एकजुट मुस्लिम वोट जीत-हार में निर्णायक भूमिका निभाते हैं। बहराइच, श्रावस्ती, बलरामपुर, गाजियाबाद, मुरादाबाद, मेरठ, शाहजहांपुर, बागपत, मुजफ्फरनगर, बिजनौर, बरेली, बाराबंकी, जेपीनगर, बुलंदशहर आदि जिलों में यह समुदाय निर्णायक स्थिति में है। इधर मुसलमानों के मसीहा कहे जाने वाले मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी मुसलमानों को पार्टी की ओर मोड़ने की मुहिम में जुट गई है। सपा में वापसी के बाद मोहम्मद आजम खां लगातार इसी कोशिश में जुटे हैं।
सच तो यह है
मुसलमानों की हिमायत करने वाली मायावती वस्तुत: मुसलमानों की हितैषी नहीं हैं। उन्होंने तो तत्कालीन मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह की सरकार (2002) द्वारा बनाए गए उस कानून को ही पलट दिया था जो अति पिछड़े मुसलमानों को आरक्षण दिए जाने का पक्षधर था। जब राजनाथ सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे तो उन्होंने आरक्षण के भीतर आरक्षण की नीति बनाई थी। उसमें अन्य पिछड़े वर्गों को मिलने वाले आरक्षण में अति पिछड़े तथा आरक्षण का समुचित लाभ न उठा सकने वाली जातियों के लिए अलग से आरक्षण की व्यवस्था थी। भाजपा के प्रदेश प्रवक्ता ह्मदय नारायण दीक्षित कहते हैं कि भाजपा की सरकार ने पिछड़े वर्गों की तीन सूचियां बनवाई थीं। इसमें से तीसरी सूची वालों को सबसे ज्यादा आरक्षण देने की बात कही गई थी। इस तीसरी सूची में 35 अति पिछड़ी मुस्लिम जातियों को शामिल किया गया था। उसमें पिछड़े मुसलमानों को आरक्षण की गारंटी थी।
उत्तर प्रदेश के अल्पसंख्यकबहुल 21 जिलों में केन्द्र सरकार ने सड़क, पेयजल, स्कूल व औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान (आईटीआई) की व्यवस्था करवाने के लिए 356 करोड़ रु. दिए लेकिन मायावती सरकार ने उस धन का इस्तेमाल ही नहीं किया। यह धन बीते तीन साल में दिया गया था। मायावती करीब साढ़े चार साल से सत्ता में हैं। भाजपा के वरिष्ठ नेता मुख्तार अब्बास नकवी कहते हैं कि मायावती राज में 40 हजार से अधिक अल्पसंख्यकों पर एससी-एसटी कानून के तहत मुकदमे दर्ज कराए गए हैं। अगर वह मुसलमानों की हितचिंतक हैं तो इस ओर ध्यान क्यों नहीं दिया? अपने का मुसलमानों का रहनुमा बताने वाली सपा का कहना है कि मायावती की मुसलमानों को रिझाने की कोशिश विफल रहेगी। सपा नेता और विधान परिषद में विपक्ष के नेता अहमद हसन तो यहां तक कहते हैं कि मायावती शासन में 33 हजार सिपाहियों की भर्ती हुई, इनमें केवल 650 मुसलमान सिपाहियों की ही भर्ती की गई, जबकि सपा के शासनकाल में पुलिस भर्ती में मुसलमानों की संख्या 14 प्रतिशत थी।द
केरल/ प्रदीप कृष्णन
जीत कर भी हारे पड़े हैं कांग्रेसी
मुस्लिम लीग के सहयोग से सोनिया पार्टी (यानी कांग्रेस) ने केरल में सत्ता तो हथिया ली, पर इन दिनों यह पार्टी इस प्रदेश में इतिहास के अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। आपसी गुटबाजी, संगठनात्मक कार्यों के लिए प्रत्येक स्तर के नेताओं-कार्यकर्ताओं में उत्साह का अभाव तथा पद पाने की होड़ ने पार्टी को इस स्तर पर ला दिया है कि अनेक वरिष्ठ नेता भी यह स्वीकारने लगे हैं कि संभावित विनाश को देखते हुए और इस प्रदेश में पार्टी के डूबते जहाज को उबारने के लिए त्वरित और कड़ी कार्रवाई आवश्यक है। पार्टी के ही एक वरिष्ठ नेता ए.सी. जोश ने भी सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया है कि, ‘ऊपर से नीचे तक कांग्रेस का संगठनात्मक ढांचा बेढंगी चाल से चल रहा है।’ जोश उस तीन सदस्यीय समिति के सदस्य हैं जो विधानसभा चुनावों में अपेक्षित सफलता न मिलने की समीक्षा कर रही है। उनके अनुसार 14 में से 8 जिलों की समीक्षा के बाद हमें यही अनुभव आ रहा है कि केरल में कांग्रेस का संगठनात्मक ढांचा लचर स्थिति में है।
केरल में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता स्व. के. कुरुणाकरण के पुत्र व वर्तमान विधायक के. मुरलीधरन भी मानते हैं कि एकता के झूठे दावों के बावजूद पार्टी में गुटबाजी अनियंत्रित हो चली है। उनके अनुसार केरल में कांग्रेस के कुछ गिने-चुने ही नेता और कार्यकर्ता ऐसे हैं जो किसी गुट में शामिल नहीं हैं। केरल में कांग्रेस की गुटबाजी का आलम यह है कि इसके सबसे मजबूत गढ़ कहे जाने वाले त्रिशूर जिले में हाल ही में कांग्रेस के दो धड़ों में हाथापाई और मारपीट तक की नौबत आ गई। राज्य के पूर्व वन मंत्री के.पी. विश्वनाथन के नेतृत्व में कांग्रेस के एक गुट के लोगों ने त्रिशूर के कांग्रेसी जिला सचिव के घर पर धावा बोलकर उसे तहस-नहस कर दिया। ये लोग आरोप लगा रहे थे कि विधानसभा चुनावों में जिला सचिव ने विश्वनाथन के साथ धोखा किया। प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष वी. पुरुषोत्तमन के नेतृत्व में गठित चुनाव समीक्षा समिति के सदस्य ए.सी. जोश ने स्वीकार किया है कि जिन लोगों की चुनावों में हार हुई है उनकी शिकायत है कि सहयोगियों और पार्टी के प्रमुख कार्यकर्ताओं ने ही पीछे से टांग खींची और उन्हें हराने का काम किया। उनका कहना है कि समिति ने अपनी रपट प्रदेश कांग्रेस कमेटी को दे दी है, अब उसे ही किसी भी तरह की कार्रवाई करने का अधिकार है। उल्लेखनीय है कि अप्रैल, 2011 में हुए विधानसभा चुनावों में 140 सदस्यीय केरल विधानसभा में कांग्रेस नेतृत्व वाले संयुक्त लोकतांत्रिक मोर्चा (यू.डी.एफ.) को 72 सीटें मिलीं थीं, बहुमत से सिर्फ 1 ज्यादा। व्यापक विरोध होने के बावजूद सत्तारूढ़ वाम लोकतांत्रिक मोर्चा (एल.डी.एफ.) 68 सीटें झटक ले गया और बस सत्ता उससे मामूली अंतर से छिटक गई। यदि कांग्रेस का अकेले का प्रदर्शन देखें तो उसके आधे से ज्यादा प्रत्याशी पराजित हुए। कांग्रेस ने अपने 81 उम्मीदवार मैदान में उतारे थे, जिनमें से 38 ही जीत सके। वहीं उसके सहयोगी दल मुस्लिम लीग ने 24 स्थानों से चुनाव लड़ा और 20 में जीत हासिल की। त्रिशूर के एक वरिष्ठ कांग्रेसी नेता का कहना है कि अगर कांग्रेस को मुस्लिम लीग का सहयोग न मिलता तो वह अपने दम पर 10 सीटें भी नहीं जीत सकती थी।
कांग्रेस की सबसे बड़ी परेशानी यह है कि मुख्यमंत्री ओमेन चांडी और प्रदेश अध्यक्ष रमेश चेनीथल्ला के बीच किसी भी प्रकार का संवाद तक नहीं होता। चेनीथल्ला भी मुख्यमंत्री बनना चाहते थे पर बन गए चांडी, और तब से दोनों में बोलचाल तक बंद है। चेनीथल्ला ने चुनावों के दौरान आसानी से जीती जाने वाली विधानसभा सीटों पर अपने चहेतों का प्रत्याशी घोषित कर दिया। हालांकि उनमें से अधिकांश असफल रहे और बाजी ओमेन चांडी के हाथ लगी। और तभी से पार्टी और सरकार अलग-अलग रास्ते पर चल रही है। इस सबकी जानकारी पाने के बाद कांग्रेस के केन्द्रीय नेतृत्व ने मन बनाया था कि वह गुटबाजी समाप्त करने के लिए हस्तक्षेप करेगा। पर केन्द्र स्वयं कमजोर है। प्रदेश कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता का कहना है, ‘कांग्रेस का केन्द्रीय नेतृत्व भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन और आपसी मतभेदों से पहले ही जूझ रहा है। सरकार और पार्टी में तालमेल पहले जैसा नहीं है। ऐसे में उसके पास केरल जैसे सुदूर राज्य में पार्टी की दशा सुधारने के लिए समय ही कहां है।’द
विविध
‘उत्तर पूर्व भारत के वर्तमान मुद्दे’ पर भाजपा पूर्वोत्तर भारत संपर्क प्रकोष्ठ का कार्यक्रम
घुसपैठियों से निपटने के लिए गंभीर नहीं है सरकार
‘उत्तर पूर्व राज्यों में घुसपैठ की समस्या से निपटने के संबंध में केन्द्र और असम सरकार वोट बैंक की राजनीति कर रही हैं। मेरा व्यक्तिगत मत है कि दोनों ही सरकारें घुसपैठियों का पता लगाने और उन्हें वापस भेजने के मामले में गंभीर नहीं हैं।’ उक्त बातें राज्यसभा में विपक्ष के नेता श्री अरुण जेटली ने गत 20 सितम्बर को नई दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी पूर्वोत्तर भारत सम्पर्क प्रकोष्ठ द्वारा आयोजित ‘उत्तर पूर्व भारत के वर्तमान मुद्दे’ कार्यक्रम को संबोधित करते हुए कहीं।
श्री जेटली ने कहा कि अवैध घुसपैठ के चलते इन राज्यों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। संस्कृति से लेकर जनसांख्यिकी तक सबकुछ बदल गया है। उन्होंने कहा कि इस समस्या के समाधान के लिए छिद्रित सीमा को बंद करने के साथ-साथ सख्त कानूनी तंत्र तथा अलग न्यायाधिकरण बनाने की जरूरत है। इन राज्यों की समस्याओं को जम्मू-कश्मीर की समस्या की तरह ही देखना चाहिए। उन्होंने कहा कि यह राज्य बहुत क्षमता वाले हैं, यदि यहां तक पहुंच के साधन अच्छे हो जाएं तो अनेक निवेशक यहां आ सकते हैं। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से पी.एच.डी. कर रहे उत्तर पूर्व के छात्र द्वारा आतंकवाद के संबंध में पूछे गए प्रश्न के जवाब में उन्होंने कहा कि आतंकवाद के सफाए लिए सरकार गंभीर नहीं है। हमें सोचने की जरूरत है कि आखिर क्यों 9/11 के बाद अमरीका में कोई बड़ा आतंकी हमला नहीं हुआ।
प्रकोष्ठ के राष्ट्रीय संयोजक श्री सुनील देवधर ने कहा कि राजधानी दिल्ली में उत्तर पूर्व राज्यों की 5 लाख से अधिक आबादी रहती है। लेकिन यहां उनके चेहरे के अलगाव के कारण भेदभाव किया जाता है। इन राज्यों के छात्र-छात्राओं के साथ उत्पीड़न की अनेक घटनाएं हमारे समाने आ चुकी हैं। मंच पर श्री अरुण जेटली एवं श्री सुनील देवधर के अलावा भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता श्री प्रकाश जावड़ेकर, राष्ट्रीय मंत्री श्री महेन्द्र पांडे तथा दिल्ली भाजपा के अध्यक्ष श्री विजेन्द्र गुप्ता भी आसीन थे।
कार्यक्रम के प्रारम्भ में विगत दिनों दिल्ली उच्च न्यायालय में हुए बम धमाके एवं उत्तर पूर्व में आए भूकंप में मारे गए लोगों को श्रद्धांजलि भी दी गई। इसके बाद वंदेमातरम् का गान हुआ। इस अवसर पर भाजपा के पदाधिकारी एवं उत्तर पूर्व राज्यों के छात्र बड़ी संख्या में उपस्थित थे। धन्यवाद ज्ञापन प्रकोष्ठ के दिल्ली प्रदेश संयोजक श्री निर्मल मिश्रा ने किया। द प्रतिनिधि
11 दिवसीय संस्कृत महोत्सव
हजारों ने लिया संस्कृत का प्रशिक्षण
संस्कृत भारती, जयपुर प्रान्त के तत्वावधान में गत दिनों 11 दिवसीय ‘संस्कृत महोत्सव’ सम्पन्न हुआ। 1-11 सितम्बर तक चले इस महोत्सव में करीब 2000 लोगों ने संस्कृत का प्रशिक्षण प्राप्त किया। महोत्सव के दौरान जयपुर में कुल 51 स्थानों पर संस्कृत सम्भाषण शिविर लगाए गए। इनमें समाज के हर वर्ग के लोगों ने सहभागिता की। महोत्सव के समापन समारोह में संस्कृत मेले का आयोजन हुआ। साथ ही विभिन्न प्रकार की संस्कृत स्पर्धाएं भी हुर्इं।
समापन समारोह को संबोधित करते हुए मुख्य वक्ता के रूप में उपस्थित संस्कृत भारती के अखिल भारतीय महामन्त्री श्री चमू कृष्ण शास्त्री ने कहा कि संस्कृत सेवा व समाज सेवा के माध्यम से जीवन को उन्नत बनाया जा सकता है। आने वाला समय संस्कृत भाषा का समय है इसलिए अभी से संस्कृत सीख कर अपने आपको भविष्य के अनुकूल बनाएं।
कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि परिष्कार महाविद्यालय के निदेशक श्रीराघव प्रकाश तथा मुख्य अतिथि श्री बृज किशोर थे, जबकि अध्यक्षता जगद्गुरु रामानन्दाचार्य राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. रामानुज देवनाथन ने की। इस अवसर पर राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान, जयपुर के प्राचार्य प्रो. अर्कनाथ सहित बड़ी संख्या में गण्यमान्य नागरिक उपस्थित थे। द प्रतिनिधि
सरस्वती विद्या प्रतिष्ठान के रजत जयंती वर्ष का शुभारम्भ
शिक्षा को जन-जन तक पहुंचाने का प्रण
सरस्वती शिशु/विद्या मंदिर, भितरवार (ग्वालियर) के तत्वावधान में गत दिनों सरस्वती विद्या प्रतिष्ठान के रजत जयंती वर्ष कार्यक्रम का शुभारम्भ समारोह सम्पन्न हुआ। समारोह से पूर्व विद्यालय के विद्यार्थियों द्वारा शहर में एक विशाल शोभायात्रा निकाली गई, जिसका हर जगह भव्य स्वागत हुआ।
कार्यक्रम का शुभारम्भ विशिष्ट अतिथि श्री धीरेन्द्र भदौरिया, अध्यक्षता कर रहे श्री राम भरोसे लाल शर्मा तथा मुख्य वक्ता श्री आर.वी.एस. तोमर द्वारा संयुक्त रूप से दीप प्रज्ज्वलित कर किया गया। तत्पश्चात् श्री तोमर ने अपने सम्बोधन में कहा कि आज छात्रों को देशभक्ति की शिक्षा देना बहुत आवश्यक है। उन्होंने कहा कि शिशु/विद्या मंदिर के छात्र पढ़ाई में तो अव्वल हैं ही, सेवा, संस्कार एवं समर्पण में भी पीछे नहीं हैं। श्री धीरेन्द्र भदौरिया ने कहा कि रजत जयंती वर्ष के दौरान हम शिक्षा के प्रकाश को उन क्षेत्रों में ले जाने का प्रयास करेंगे, जहां यह अभी तक नहीं पहुंचा है। अतिथियों का परिचय श्री संतोष यादव ने कराया, तथा आभार व्यक्त किया विद्यालय के प्रधानाचार्य श्री राधा वल्लभ ने। द प्रतिनिधि
30 सितम्बर को सामूहिक
हनुमान चालीसा पाठ
श्रीराम जन्मभूमि पर भव्य मंदिर निर्माण में आने वाली न्यायिक बाधाओं को दूर करने के लिए देशभर के साधु-संत व रामभक्त 30 सितम्बर को सामूहिक हनुमान चालीसा का पाठ करेंगे। हनुमान चालीसा का पाठ मठ-मंदिरों, मोहल्लों तथा ग्रामों के किसी सार्वजनिक स्थल पर होगा। यह निर्णय गत 19 सितम्बर को दिल्ली में ज्योतिर्मठ के शंकराचार्य जगदगुरू स्वामी वासुदेवानन्द सरस्वती, श्रीराम जन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष व श्री मणिरामदास छावनी के महन्त नृत्यगोपाल दास तथा महन्त नवल किशोर दास ने संयुक्त रूप से लिया।
पूज्य संतों ने कहा कि आगामी 30 सितम्बर को देशभर में हनुमान चालीसा का 11 बार पाठ कर श्रीराम जन्मभूमि पर भव्य मंदिर निर्माण हेतु हनुमत शक्ति का जागरण किया जाएगा। उल्लेखनीय है कि गत वर्ष इसी दिन इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खण्डपीठ ने अयोध्या में विराजमान भगवान रामलला की जन्मभूमि को स्वीकार करते हुए फैसला सुनाया था। द प्रतिनिधि
कल्याण आश्रम के सेवा कार्यों का उल्लेख
वनवासी विकास समिति, बिलासपुर के तत्वावधान में गत दिनों वनवासी क्षेत्रों में वनवासी कल्याण आश्रम द्वारा किए जा रहे सेवा कार्यों की जानकारी देने के उद्देश्य से एक व्याख्यान का आयोजन किया गया। कार्यक्रम का शुभारम्भ पूर्वांचल क्षेत्र के संगठन मंत्री श्री अतुल जोग, विशिष्ट अतिथि डा. संतोष गेमनानी तथा अध्यक्षता कर रहे श्री हीरामणि शुक्ल ने भारतमाता, संत गुरु घासीदास तथा शहीद वीरनारायण सिंह के चित्रों के समक्ष दीप प्रज्ज्वलित कर किया। तत्पश्चात् श्री अतुल जोग ने अपने संबोधन में कहा कि देश के उत्तर पूर्व राज्यों की जनजातियों को उनकी मूल संस्कृति से जोड़ने, उनमें सामाजिक समरसता, प्रेम और बंधुत्व के माध्यम से भारतभूमि के प्रति समर्पण बनाए रखने के प्रयास में अनेक कार्यकर्ताओं को बलिदान देना पड़ा है। उन्होंने कम्प्यूटर पर ‘पावर प्वाइंट’ के जरिए पूर्वांचल में प्राचीन भारतीय संस्कृति का प्रभाव, पूर्वांचल के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, समाज सुधारक तथा वहां के संकट एवं उनके समाधान के लिए चल रहे प्रयत्नों की जानकारी भी दी। द प्रतिनिधि
‘मातृभाषा में शिक्षा’ पर संगोष्ठी
मातृभाषा के बिना समग्र विकास संभव नहीं
-अतुल कोठारी
सचिव, शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास
धनबाद (झारखंड) में गत दिनों ‘मातृभाषा में शिक्षा’ विषय पर संगोष्ठी का आयोजन किया गया। शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास, झारखंड के तत्वावधान में सम्पन्न हुई संगोष्ठी में शिक्षाविद् एवं प्रतिष्ठित गण्यमान्य नागरिक बड़ी संख्या में उपस्थित थे।
संगोष्ठी का शुभारम्भ कार्यक्रम के मुख्य वक्ता शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास के राष्ट्रीय सचिव श्री अतुल कोठारी, स्थानीय सांसद श्री पशुपति नाथ सिंह तथा मंचस्थ अतिथियों द्वारा दीप प्रज्ज्वलित कर किया गया। तत्पश्चात कार्यक्रम को संबोधित करते हुए श्री अतुल कोठारी ने कहा कि मां, मातृभाषा एवं मातृभूमि का कोई विकल्प नहीं हो सकता। उन्होंने कहा कि देश में स्वतंत्रता के बाद जो माहौल बना है, वह बेहद चिंताजनक है। देश की व्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिए यह जरूरी है कि उच्च शिक्षा, प्रशासनिक व्यवस्था एवं प्रारम्भिक शिक्षा में अंग्रेजी को समाप्त किया जाए। इसके लिए एक बड़ा आंदोलन करने की जरूरत है। श्री कोठारी ने कहा कि भाषा संस्कृति की वाहक होती है, इसलिए समग्र विकास मातृभाषा के बिना संभव नहीं है। द प्रतिनिधि
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अखिल भारतीय साहित्य परिषद की दो दिवसीय कार्यकारिणी बैठक
संगठन, साहित्य एवं समाज पर विमर्श
अखिल भारतीय साहित्य परिषद की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की दो दिवसीय बैठक गत 10-11 सितम्बर को लखनऊ में सम्पन्न हुई। इसमें परिषद की साहित्यिक त्रैमासिक पत्रिका के ‘गुजराती साहित्य विशेषांक’ का लोकार्पण, वरिष्ठ साहित्यकारों का सम्मान तथा ‘साहित्यकार का सामाजिक दायित्व’ विषय पर संगोष्ठी भी हुई।
बैठक में 13 राज्यों से आए कुल 29 प्रतिनिधियों ने दो दिन तक साहित्य और संगठन से संबंधित विषयों पर गहन मन्त्रणा की तथा कई प्रस्ताव भी पारित किये। 10 सितम्बर की प्रात: सरस्वती वन्दना से प्रारम्भ बैठक में देशभर से आए प्रदेश प्रमुखों ने अपने-अपने प्रदेश की कार्यस्थिति की जानकारी दी। भोपाल में सम्पन्न हुए महिला साहित्यकार सम्मेलन की विषद चर्चा जहां श्री विनय राजाराम ने की, वहीं ग्वालियर में आयोजित बाल साहित्यकार सम्मेलन की उपलब्धियों से श्री जगदीश गुप्त ने अवगत कराया। राष्ट्रीय अध्यक्ष डा. बलवन्त जानी ने गत जनवरी मास में भुज में सम्पन्न हुए राष्ट्रीय अधिवेशन की सार्थकता एवं उससे देशभर की इकाइयों को प्राप्त प्रेरणा से अवगत कराया। इनके अतिरिक्त सर्वश्री जयसिंह आर्य (दिल्ली), जगदीश गुप्त (म.प्र.), रवीन्द्र शाहाबादी (बिहार), ऋषि कुमार मिश्र (महाराष्ट्र), प्रभाकर कर्पे (विदर्भ), डा. मथुरेश नन्दन कुलश्रेष्ठ (राजस्थान), डा. रीता सिंह (हिमाचल प्रदेश), डा. नारायण नायक (उड़ीसा), डा. विजय गोपाल (आन्ध्र प्रदेश), विनय दीक्षित (उत्तर प्रदेश), डा. रमेश चन्द्र शर्मा (हरियाणा), अश्विनी गुप्ता (पंजाब) ने भी अपने-अपने प्रदेश की गतिविधियों की विस्तार से चर्चा की।
प्रदेश प्रमुखों द्वारा कार्य की जानकारी दिए जाने के पश्चात् परिषद के संगठन मन्त्री श्री श्रीधर पराड़कर ने सम्बोधित करते हुए कहा कि साम्यवाद धीरे-धीरे समाप्त हो रहा है। हमें इसके खण्डन-मण्डन के चक्कर में न पड़कर रचनात्मक सोच के साथ साहित्य सृजन और संगठन को दृढ़तर बनाना होगा। साथ ही निर्धारित कार्यक्रमों को इकाई स्तर तक आयोजित करने की योजना करनी होगी, तभी सही अर्थों में परिषद के कार्य को विस्तार मिल सकेगा।
बैठक में वरिष्ठ साहित्यकार श्री विनोद चन्द्र पाण्डेय ‘विनोद’, प्रख्यात साहित्यकार डा. सूर्य प्रसाद दीक्षित, लोक साहित्य सर्जक डा. विद्या बिन्दु सिंह, वरिष्ठ रचनाकार श्री विष्णु गुप्त ‘विजिगीषु’, राष्ट्रधर्म के सम्पादक श्री आनन्द मिश्र ‘अभय’ तथा स्तम्भ लेखक श्री ह्मदयनारायण दीक्षित को परिषद द्वारा अंगवस्त्र, सम्मान पत्र व स्मृति चिह्न प्रदान कर सम्मानित किया गया।
‘साहित्यकार का सामाजिक दायित्व’ विषय पर हुई परिचर्चा में बोलते हुए परिषद के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष डा. यतीन्द्र तिवारी ने कहा कि साहित्यकार को अपनी रचना में समाज के उत्थान को स्थान देना चाहिए। राष्ट्रीय अध्यक्ष डा. बलवन्त जानी ने भारत की सनातन परम्परा और पाश्चात्य दर्शन का तुलनात्मक विवेचन प्रस्तुत करते हुए साहित्यकारों के सामाजिक दायित्व को रेखांकित किया। उन्होंने कहा कि कोई भी रचनाकार अपने समाज की स्थिति परिस्थिति की उपेक्षा नहीं कर सकता, क्योंकि उसे वहीं से प्राणवायु प्राप्त होती है। परिचर्चा में श्री रवीन्द्र शुक्ल, डा. रामस्वरूप खरे, श्रीमती मृदुला सिन्हा, डा. मोपिदेवि विजय गोपाल, डा. अशोक कुमार, श्री रमेश चन्द्र शर्मा, डा. कृष्ण चन्द्र गोस्वामी, श्री रवीन्द्र जुगरान, श्री प्रवीण आर्य, डा. विनय राजाराम एवं डा. नागपाल नाविक विशेष रूप से उपस्थित रहे।
बैठक में कुछ महत्वपूर्ण निर्णय भी लिए गए। इनमें प्रमुख हैं- राष्ट्रीय स्तर के भाषाई साहित्यकारों का सम्मान, भारतीय भाषाओं में राम के स्वरूप पर राष्ट्रीय संगोष्ठी, कार्यकर्ताओं को शिक्षित प्रशिक्षित करने के लिए कार्यकर्ता अभ्यास वर्ग तथा राष्ट्रीय एवं प्रान्तीय स्तर पर लेखक सम्मेलन। साथ ही भ्रष्टाचार के विरुद्ध एक प्रस्ताव भी पारित किया गया। इसके अलावा गत वर्ष दिवंगत हुए साहित्यकारों को श्रद्धाञ्जलि भी दी गई। बैठक का संचालन परिषद के महामन्त्री श्री रामनारायण त्रिपाठी ने किया। द प्रतिनिधि
पाक्षिकभविष्यफल
द ज्योतिष महामहोपाध्याय सौ. नीलिमा प्रधान
25सितम्बर-8 अक्तूबर, 2011 तक
मेष:(चू,चे,चो,ला,ली,लू,ले,लो,आ)शुक्र सप्तम् स्थान में प्रवेश कर रहा है तथा सूर्य गुरु का षडष्टक योग हो रहा है। इस पक्ष में नौकरी एवं राजनीतिक क्षेत्र में चौकन्ने रहें। गुप्त शत्रु का भय रहेगा। प्रतिष्ठा में कमी महसूस होगी। शारीरिक सुख धन की प्राप्ति की संभावना है। व्यवसाय में वृद्धि होगी। प्रेम जीवन में सुख व कष्ट की संभावना है।27 व 28 सितम्बर को सभी क्षेत्रों में चौकन्ने रहें। 1 व 2 अक्तूबर को धन प्राप्ति की संभावना। स्वास्थ्य कुछ ढीला रह सकता है।
वृष: (इ,उ,ए,ओ,वा,वू,वी,वे,वो) शुक्र का शत्रु स्थान में प्रवेश तथा बुध गुरु का षडष्टक योग हो रहा है। धन की कमी से कष्ट, कहीं ज्यादा नुकसान भी हो सकता है। भाई, बहन को कष्ट, शारीरिक कमजोरी, यात्रा करने का अवसर तथा खर्च बढ़ने की संभावना है। 29 व 30 सितम्बर को व्यवसाय में चौकन्ने रहें। 3 व 4 अक्तूबर को मानसिक व शारीरिक कष्ट की संभावना। अध्ययन में अच्छा मौका मिलने की संभावना है। प्रेम जीवन में तनाव संभव है।
मिथुन:(का,की,कू,के,को,की,घ,ड़,छा,हा) शुक्र का पंचम स्थान में प्रवेश तथा बुध प्लूटो का केन्द्र योग व शुक्र शनि की युति हो रही है। सुख साधनों की प्राप्ति तथा विद्या से भाग्योन्नति संभव। संतान से लाभ मिलेगा। संतान को प्रगति का अवसर मिलेगा। यात्रा से व्यवसाय में लाभ हो सकता है। 27 व 28 सितम्बर को असमंजस की स्थिति रहेगी। 5 व 6 अक्तूबर को खान-पान में रुची बढ़ेगी। स्वास्थ्य कुछ ढीला रहेगा। यात्रा को चौकन्ने रहें।
कर्क: (ही,हू,हे,हो,डा,डे,डी,डू,डो) शुक्र का सुख स्थान में प्रवेश तथा चंद्र बुध का त्रिकोण योग हो रहा है। अब नौकरी-व्यवसाय, राजनीति आदि सभी क्षेत्रों में प्रगति की स्थिति है। 3 व 4 अक्तूबर को गुस्से पर काबू रखें। 7 व 8 अक्तूबर को यात्रा में चौकन्ने रहें। वाहन से कष्ट की संभावना। कानून के विरुद्ध में काम नहीं करें। बड़े-बुजुर्ग मदद करेंगे। चुनाव के लिए समय-सारिणी बनाकर कार्य तय करें।
सिंह: (मा,मी,मू,मे,मो,ट,टा,टी,टे,टु) शुक्र पराक्रम स्थान में प्रवेश कर रहा है तथा चंद्र मंगल का केन्द्र योग हो रहा है। सभी क्षेत्रों में शांति से काम निपटा लें। वाहन से 4 व 6 अक्तूबर को कष्ट, तनाव और असमंजस की स्थिति रह सकती है। श्रीभगवती जगतजननी की उपासना फलदाई रहेगी। राजनीतिक क्षेत्र में शांति से कार्य करें। व्यवसाय में वृद्धि होगी। वृद्ध व्यक्तियों की सेवा करनी पड़ेगी। पारिवारिक जीवन में मामूली तनाव की संभावना।
कन्या:(टो,पा,पी,पु,पे,पो,षा,णा,ठा) शुक्र धन स्थान में प्रवेश कर रहा है। 25 व 26 सितम्बर को व्यवसाय में नुकसान की संभावना। 7 व 8 अक्तूबर को कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। उद्योग-व्यवसाय में सुधार व वृद्धि। प्रेम जीवन में आशा बंधेगी। कलाक्षेत्र में प्रगति की स्थिति रहेगी। नई-नौकरी का प्रयत्न करें। इस पक्ष में अच्छा समाचार मिलने की संभावना। जगत जननी माताजी की आराधना करने से मन की शांति मिलेगी।
तुला: (रा,री,रू,रे,रो,ता,ती,तू,ते) शुक्र का स्वराशि में प्रवेश तथा सूर्य गुरु का षडष्टक योग हो रहा है। 27 व 28 सितम्बर को विरोधी दिक्कत पैदा कर सकते हैं। प्रतिष्ठा में कमी महसूस होगी। श्रीजगतजननी की आराधना फलदाई होगी। प्रेमजीवन में चौकन्ने रहें। गलत लगने वाला काम किसी के भी आग्रह पर इस पक्ष में नहीं करें। मित्र परिवार से नुकसान की संभावना। रिश्ता आगे बढ़ाने से पहले पूरी जांच करें।
वृश्चिक:(तो,ना,नी,नू,ने,नो,या,यी,यू) शुक्र का हानि स्थान में प्रवेश तथा बुध और प्लूटो का केन्द्र योग हो रहा है। पारिवारिक खर्च बढ़ेगा। गृह का वातावरण अशान्त रहने की संभावना। निरन्तर परिश्रम, प्रयास से रुकावट के पश्चात् कार्य सफल होंगे, फिर भी विलम्ब, रुकावट और परेशानी का सामना करना पड़ सकता है। बड़े-बुजुर्ग मदद करेंगे आशा बंधेगी। 28 व 30 सितम्बर को चौकन्ने रहें। 7 व 8 अक्तूबर को असमंजस की स्थिति रहेगी। श्रीमाताजी की पूजा से लाभ होगा।
धनु: (ये,यो,भा,भी,भू,धा,फा,ढा,भे) शुक्र लाभ स्थान में प्रवेश कर रहा है। राशि स्वामी का सूर्य के साथ अंशात्मक षडष्टक योग हो रहा है। इस पक्ष में बड़े-बुजुर्ग मदद करेंगे। किसी के सामने घुटने टेकने की जरूरत नहीं। लेकिन 1 व 2 अक्तूबर को तनाव की संभावना है। शारीरिक तथा मानसिक कष्ट की भी संभावना है। राजनीतिक तथा सामाजिक क्षेत्र में मान और प्रतिष्ठा की वृद्धि होगी।
मकर:(भो,जा,जी,खी,खू,खे,खो,गा,गी) शुक्र व्यवसाय के स्थान में प्रवेश कर रहा है। मंगल के साथ बुध का अंशात्मक लाभ योग हो रहा है। नए कारोबार की रूपरेखा बनेगी। घर में कोई शुभ कार्य संभव है। श्रं#ृगारिक जीवन का आनंद मिलने की संभावना है। पक्ष के अंत में नौकरी-व्यवसाय तथा पारिवारिक जीवन में तनाव की संभावना है।
कुंभ: (गू,गे,गो,सा,सी,सू,से,सो,दा) शुक्र भाग्य स्थान में प्रवेश कर रहा है तथा शुक्र के साथ राशि स्वामी का अंशात्मक युति हो रही है। 26, 27 व 28 सितम्बर को पुरानी देनदारियां वसूल करने का यत्न करें। नवरातरंभ में सामाजिक, राजनीतिक क्षेत्र में मान और प्रतिष्ठा में वृद्धि होगी। व्यवहार तथा यात्रा में चौकन्ने रहें। महिलाओं के साथ मैत्री बढ़ेगी। श्रृंगारिक जीवन का आनंद मिल सकता है।
मीन: (दी,दू,झा,ञा,था,दे,दो,चा,ची) शुक्र अष्टम् स्थान में प्रवेश कर रहा है तथा बुध के साथ राशि स्वामी का अंशात्मक षडष्टक योग हो रहा है। नवरात्रारंभ में शांति से काम निपटा लें। विरोधी दिक्कत पैदा कर सकते हैं। कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है। लेकिन अंत में विजयश्री आपके गले में ही माला डाल देगी। नए सम्पर्क बनेंगे। श्रृंगारिक जीवन की आनंद मिलने की संभावना है।
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भ्रष्टाचार के खिलाफ जरूरी है व्यापक लड़ाई
द सुनील आंबेकर
गत कुछ महीनों से भारत के लोग विशेषकर छात्र-युवा अपनी नागरिक जिम्मेदारी को लगातार निभाते हुए भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवश्यक संघर्ष को सफलतापूर्वक आगे बढ़ा रहे हैं।
मुझे याद है कि गत दिसम्बर (2010) में बंगलूरु में विद्यार्थी परिषद के राष्ट्रीय अधिवेशन में देशभर के लगभग सभी जिलों के विभिन्न परिसरों से छात्र आये थे। वे खुलकर कह रहे थे कि सभी परिसरों में भ्रष्टाचार की घटनाओं को लेकर काफी गुस्सा है। सभी ने कहा उनके शहरों एवं गांवों में लोग अब भ्रष्टाचार से केवल व्यथित होने की जगह इसे मिटाने हेतु कुछ करना चाहते हैं। मैं आपातकाल के कुछ आंदोलनकारियों से मिला। उन्होंने भी कहा यह गुस्से की लहर आपातकाल के पूर्व चली लहर से भी अधिक तीव्र है। वैसे भ्रष्टाचार से लोग तंग तो काफी समय से थे। परंतु राष्ट्रमण्डल खेल घोटाला, 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाला, आदर्श घोटाला जैसे घोटालों से लोगों का आक्रोश सतह पर आ गया। इन घोटालों को दबाने का प्रयास प्रधानमंत्री सहित पूरी सरकार ने बेशर्मी से किया। इससे लोगों का गुस्सा कई गुना बढ़ गया।, तब से ही सामान्य लोगों ने भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन की मशाल अपने हाथ में ले ली है।
विपक्ष द्वारा संसद में उठाई गयी आवाज व उच्चतम न्यायालय के कड़े रवैये के परिणामस्वरूप लगातार भ्रष्टाचारियों पर लगाम कसना प्रारंभ हो गया। उसके पश्चात ए. राजा, सुरेश कलमाड़ी तथा कई अन्य का तिहाड़ जेल पहुंचना प्रारंभ हो गया। प्रधानमंत्री के प्रत्यक्ष सहभाग से मुख्य सतर्कता आयुक्त के रूप में हुई भ्रष्टाचारी की नियुक्ति तथा भ्रष्ट तरीके से हुआ एस-बैण्ड सौदा अंतत: रद्द कर दिया गया। इन घटनाओं ने आम आदमी का यह विश्वास बढ़ा दिया कि भ्रष्टाचारियों पर लगाम कसना संभव है। सितंबर 2010 में राष्ट्रमण्डल खेलों की अव्यवस्था को उजागर करने से लेकर सामान्यत: समाचार माध्यमों ने भ्रष्टाचार के प्रकरणों को जनता में उजागर करने का काफी ठोस कार्य लगातार जारी रखा है। यह भी आंदोलन को आगे बढ़ाने में काफी उपयोगी सिद्ध हुआ।
दबाव में सरकार
परिणामस्वरूप जनवरी 2011 से लगातार सभी भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों में जनता का सहभाग बढ़ने लगा। विद्यार्थी परिषद के फरवरी में हुए देशव्यापी अनशन या संसद मार्च (04 मार्च) को छात्रों ने काफी समर्थन दिया। विद्यार्थी परिषद ने पहले ही कहा है कि इस भ्रष्टाचार के लिए सीधे तौर पर प्रधानमंत्री एवं सोनिया गांधी जिम्मेदार हैं। बाद में बाबा रामदेव ने विदेशी बैंकों में सड़ रहे भारतीयों के कालेधन को वापस लाने का मुद्दा उठाया। उनके समर्थन में बढ़ते जनसहभाग से सरकार काफी दबाव में आयी। दूसरी तरफ अण्णा हजारे द्वारा उठाये गये जनलोकपाल के मुद्दे पर भारी जन समर्थन उमड़ने लगा। लोगों को यह विश्वास हो गया कि कड़े लोकपाल कानून से भ्रष्टाचारियों को सजा मिलेगी तथा रोजमरर्#ा के जीवन में काफी हद तक भ्रष्टाचार से छुटकारा मिलेगा। लेकिन प्रधानमंत्री, सोनिया गांधी सहित पूरी सरकार ईमानदारी से बेईमानों की अपनी फौज को बचाने हेतु सभी तरह के हथकंडे अपनाने पर अभी भी उतारू है। अप्रैल में हुए अण्णा हजारे के अनशन के पश्चात लोकपाल हेतु संयुक्त ड्राफ्ट समिति बनायी गयी। परंतु निष्कर्ष कुछ निकल नहीं पाया। बाबा रामदेव ने 4 जून से कालेधन पर रामलीला मैदान में अनशन प्रारंभ किया, लेकिन सरकार ने पुलिस द्वारा उसे तानाशाहों की तरह कुचलने का घिनौना प्रयास किया। इस पृष्ठभूमि में जब दुबारा अण्णा हजारे जन लोकपाल कानून को लेकर अनशन पर बैठने निकले तो उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया गया। परंतु लोगों ने पुराने अनुभवों को देखते हुए सरकार की चाल को नाकाम करने का निश्चय कर लिया व लोग स्वत: सड़कों पर निकले। परिणामस्वरूप दबाव बढ़ता गया। अब स्थायी समिति में सरकारी लोकपाल के साथ जन लोकपाल सहित सभी सुझावों पर विचार करने का निश्चय सभी दलों द्वारा संसद में व्यक्त होने के पश्चात ही उनका अनशन टूटा। पूरे देश में उत्साह की लहर उठी। हजारों लोगों के सतत् तेरह दिन देशव्यापी सक्रिय सहभाग के कारण श्री अण्णा हजारे का रामलीला मैदान का यह अनशन (16-28 अगस्त) ऐतिहासिक बन गया।
वस्तुनिष्ठ विश्लेषण
अब इसका वस्तुनिष्ठ विश्लेषण सभी आंदोलनकारी संस्थाएं, सामान्य जनता, सरकार, मीडिया एवं बुद्धिजीवियों सभी के लिए नितांत आवश्यक है।
आजादी का आंदोलन काफी व्यापक एवं लंबा था। उसमें देश की स्वतंत्रता जैसी मूलभूत भावना जुड़ी थी एवं स्वयं महात्मा गांधी उसका नेतृत्व कर रहे थे। परंतु स्वतंत्र भारत में वे अपेक्षित व्यवस्थाओं को लागू करने की स्थिति में नहीं थे। यही बात आपातकाल के पश्चात जेपी जैसे व्यक्तित्व के साथ अनुभव में आयी। इसलिए अब यह मान लेना स्वप्नदर्शिता होगी कि जल्द ही सब कुछ बदल जायेगा। यह बदलना संभव होगा जन आंदोलनों से ही, लेकिन पुराने अनुभवों से कुछ सबक लेकर।
जैसे आजकल कुछ लोग भारत के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों की तुलना अरब देशों में हुई क्रांति से करते हैं। लेकिन उन देशों में 25-30 वर्षों से चल रही तानाशाही से मुकाबला था, जहां लोगों के सारे लोकतांत्रिक अधिकार समाप्त होकर, उन्हें दमन तथा बंदूकों का सामना करना पड़ रहा था। वहां की कुंठाएं हमसे अलग थीं, जरूरतें भी अलग, उपाय भी अलग थे।
हमें अपने लोकतंत्र को, कानूनों को जन दबावों से ठीक रास्ते पर लाना है। इसलिए लोगों में जागृति, फिर उनकी सतर्कता एवं सक्रियता और उस आधार पर खड़ा जन-आंदोलन हमारी आवश्यकता है। बीते दिनों के आंदोलन एवं लगभग एक वर्ष से संसद में तथा मीडिया में चल रही बहस यह सभी अपेक्षित परिवर्तन के वाहक बने हैं।
भ्रष्टाचार का मायावी रूप
भ्रष्टाचार के कई स्वरूप हैं तथा वह कई मायावी रूपों में हर जगह फैला है। इसलिए सक्षम लोकपाल महत्वपूर्ण होने पर भी भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई कई मोर्चों पर लड़नी पड़ेगी। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (अभाविप) तथा उसकी पहल पर गठित यूथ अगेंस्ट करप्शन (भ्रष्टाचार के विरुद्ध युवा) ने 14 मुद्दों का (पहले 13 मुद्दे थे) जनादेश ही तैयार किया है। महत्वपूर्ण मुद्दा है काला धन। विदेशी बैंकों में कई लाख करोड़ रुपए भारतीयों के गुप्त खातों में जमा है, तो दूसरी तरफ देश में भी लगभग 13 अरब रुपये बैंकों में 10 वर्ष से लावारिस पड़े हैं। फिर बड़ी-बड़ी कम्पनियों, सरकारी अफसरों एवं राजनेताओं के बीच घूम रहा कालाधन भी विशालकाय है। यह सब इस देश के आम लोगों के विकास हेतु वसूल करना भी राष्ट्रीय कर्तव्य है तथा इस लड़ाई का महत्वपूर्ण हिस्सा है। चुनाव सुधारों को 2014 के आम चुनावों के पहले लागू कराना होगा। सामान्य व्यक्ति का पुलिस, न्यायालय, शैक्षिक संस्थान, अस्पताल तथा किसी भी सरकारी कार्यालय से जब भी संबंध आता है, उसे भारी भ्रष्टाचार का सामना करना पड़ता है। उसे इस झंझट से छुटकारा देने हेतु इस तंत्र में कई सुधार तथा आधुनिकीकरण आवश्यक है। यह व्यवस्था परिवर्तन हमारी भारत की आत्मा एवं आवश्यकता के अनुरूप करने हेतु जन दबाव समय की मांग है।
प्रस्तुत जनलोकपाल में भी कुछ बातें जरूर विचारणीय हैं। जैसे सक्षम लोकपाल में प्रधानमंत्री शामिल हो, लेकिन उन्हें मुक्त रूप से सकारात्मक कार्य करने हेतु उनके पर्याप्त अधिकारों की रक्षा भी हो। वैसे ही न्याय व्यवस्था को इस कानून के दायरे से बाहर ही रखा जाए ताकि उसकी स्वतंत्रता बनी रहे। अर्थात उसे भ्रष्टाचार मुक्त रखने हेतु स्वतंत्र कठोर कानून जरूरी है। जनलोकपाल में गैर सरकारी संगठनों, सरकारी अनुदान लेने वाली संस्थाओं तथा निजी क्षेत्र के भ्रष्टाचार को भी मुक्त रखा गया है। यह सरासर गलत होगा। आजकल भ्रष्टाचार से सरकारी तंत्र की कई नीतियां प्रभावित करने का कार्य इन दोनों द्वारा भारी मात्रा में हो रहा है। इस हेतु निजी क्षेत्र (कापोर्रेट कंपनियां) एवं वे गैर सरकारी संगठन, जो सरकारी अनुदान अथवा विदेशों से दान लेते है, उन्हें भी इस दायरें में शामिल करते हुए घूस संबंधी कानून में भी संशोधन किया जाए।
वैचारिक छुआछूत त्यागो
भ्रष्टाचार की व्यापकता एवं भयावहता देखते हुए भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को व्यापक मुद्दों पर चलाते हुए भ्रष्टाचारियों को चारों तरफ से घेरना पड़ेगा। इसलिए आंदोलन के सभी नेताओं एवं संगठनों को व्यापक एवं खुला दृष्टिकोण रखना होगा। सबसे पहली बात आंदोलन तभी प्रभावी होगा जब इसमें समाज के हर वर्ग के लोगों की भागीदारी होगी। इसलिए वैचारिक छुआछूत को छोड़कर चलना होगा। जनता अण्णा हजारे, बाबा रामदेव या विद्यार्थी परिषद तथा यूथ अंगेस्ट करप्शन जैसे सभी को एक साथ देखना चाहती है। दूसरी बात यह कि सभी राजनेताओं को आरोपित करना आजकल फैशन बन गया है, या हम किसी के विरुद्ध नहीं हैं यह दूसरा फैशन है। लेकिन अगर सत्तारूढ़ दल में चोर है, तो उसे चोर कहना पड़ेगा। आंदोलन से विपक्षी दलों का भी शुद्धिकरण होगा लेकिन उन्हें नकार कर हम भ्रष्ट सत्ता को ही मदद करेंगे। यह भी ध्यान में रखना होगा।
केन्द्र स्तर का भ्रष्टाचार भी अंतत: हमारे सामान्य लोगों के जीवन में काफी प्रभाव डालता है, यह हमें समझना होगा तथा आन्दोलन के नेताओं को भी सामान्य लोगों के रोजमरर्#ा के भ्रष्टाचार के संकट को समझना होगा। इसलिए भविष्य में यह आंदोलन दोनों स्तर पर बराबरी से चलाना होगा।
महात्मा गांधी ने 1909 में इंडिया हाउस में विजयादशमी के उत्सव में कहा था कि भारत में श्रीराम, सीता, भरत, लक्ष्मण की उदात्त प्रवृत्तियों वाले व्यक्ति उत्पन्न हो जाएं तो देश पुन: समृद्ध होगा एवं उसे सच्ची स्वतंत्रता प्राप्त होगी। आज भी भ्रष्टाचार मुक्त भारत का सपना साकार करने हेतु अपने व्यक्तित्व को हमें उपरोक्त अपेक्षानुसार ढालना होगा। द
(लेखक अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के राष्ट्रीय संगठन मंत्री है)
महिला समन्वय की तीन दिवसीय बैठक एवं कार्यशाला
पर्यावरण की रक्षा से ही सृष्टि बचेगी
दत्तात्रेय होसबले, सह-सरकार्यवाह, रा.स्व.संघ
‘पर्यावरण की रक्षा करने से ही सृष्टि बचेगी तथा हमारी भावी पीढ़ियां इस धरती पर रह पाएंगी’। उक्त उद्गार रा.स्व.संघ के सह-सरकार्यवाह श्री दत्तात्रेय होसबले ने गत दिनों रायपुर में सम्पन्न हुई महिला समन्वय की तीन दिवसीय अ.भा. बैठक एवं कार्यशाला के उद्घाटन समारोह को संबोधित करते हुए व्यक्त किए। इस अवसर पर राष्ट्र सेविका समिति की अ.भा. प्रमुख संचालिका सुश्री प्रमिला ताई मेढ़े, अ.भा. महिला समन्य की अ.भा. संयोजक सुश्री गीता ताई गुंडे एवं रा.स्व.संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्री श्रीकांत जोशी भी मंचासीन थे। ‘महिला एवं पर्यावरण’ विषय पर केन्द्रित इस बैठक में 26 संस्थाओं के 170 कार्यकर्ताओं ने भाग लिया। इनमें 147 महिला तथा 23 पुरुष थे।
श्री होसबले ने आगे कहा कि पर्यावरण संरक्षण हमारे भविष्य से जुड़ा चर्चित विषय है। इसकी रक्षा के लिए हमें और देर नहीं करनी चाहिए। उन्होंने कहा कि अत्यधिक अपभोग की कामना एवं संयमरहित जीवन पद्धति ही संकट का कारण है। संस्कृति और समृद्धि परस्पर संघर्षवादी नहीं हैं। लेकिन यदि संस्कृति की कीमत पर समृद्धि होगी तो यह ज्यादा दिन तक टिक नहीं सकेगी। इससे हमारा भविष्य खतरे में पड़ जाएगा। उन्होंने ब्राहृाण्ड में उपस्थित लयबद्धता के संरक्षण एवं संवर्धन को भी पर्यावरण की रक्षा के लिए जरूरी बताया। श्री होसबले ने कृषि आधारित ग्राम जीवन को आगे बढ़ाने पर भी बल दिया।
सुश्री प्रमिला ताई मेढ़े ने अपने उद्बोधन में कहा कि परिवर्तन लाने के लिए हमें स्वयं से प्रारम्भ करना होगा। पृथ्वी को घर एवं भारत को देवालय की संज्ञा देते हुए उन्होंने कहा कि आज विश्व के सभी देश पर्यावरण की रक्षा के लिए भारतीय जीवन दृष्टि को ही श्रेष्ठ मान रहे हैं।
सुश्री गीता ताई गुंडे ने चिपको आंदोलन एवं राजस्थान की 250 साल पुरानी पर्यावरण संरक्षण में महिलाओं की भूमिका का उल्लेख करते हुए कहा कि परम्पराओं को अगली पीढ़ी तक हस्तांतरित करने का महत्वपूर्ण दायित्व महिलाओं ने ठीक प्रकार से निभाया है। कार्यक्रम को भारतीय प्रज्ञा परिषद् की राष्ट्रीय मंत्री सुश्री इन्दुमति काटकरे, कार्यशाला की संयोजक श्रीमती शैलजा, पंजाब प्रांत की महिला समन्वय संयोजक डा. अमिता ऋषि ने भी संबोधित किया।
तीन दिन चली इस बैठक में प्रतिनिधियों ने पर्यावरण संरक्षण एवं महिलाओं से जुड़े विभिन्न विषयों पर विस्तार से चर्चा की। बैठक में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह एवं उनकी पत्नी श्रीमती वीणा सिंह का भी आगमन हुआ। यहां सौर उपकरण, औषधियां तथा जूट व लकड़ी की कलाकृतियों की चित्र सहित प्रदर्शनी भी लगाई गई। 13 सितम्बर को बैठक में आए विशिष्ट प्रतिनिधियों ने भाजपा सांसद श्रीमती सुमित्रा महाजन के साथ भेंट की। इस दौरान श्रीमती सुमित्रा महाजन एवं प्रतिनिधियों ने ‘साम्प्रदायिक एवं लक्षित हिंसा रोकथाम विधेयक’ पर चर्चा की तथा इसे देश के लिए खतरनाक बताया। द संगीता सचदेव
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