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पांच महीने से अधिक का समय बीत चुका है लेकिन अब तक मध्य-पूर्व के मुस्लिम देशों में बगावत की आग नहीं बुझी है। मिस्र में हुसनी मुबारक पर देशद्रोह का मुकदमा चल रहा है। बहुत शीघ्र उन्हें फांसी पर चढ़ा देने की तैयारी हो रही है। लीबिया के गद्दाफी परिवार का पतन हो चुका है। उनके निकटवर्ती सूत्रों का कहना है कि वे अल्जीरिया में शरण ले चुके हैं। लीबिया छोड़ते समय उनकी महिला ब्रिगेड और कुछ वफादार अधिकारी भी उनके साथ थे। सीरिया के हाफिज असद और यमन के अब्दुल्ला सालेह किसी कीमत पर अपना पद त्यागने के लिए तैयार नहीं हैं। नाटो के देशों की वे कोई शर्त स्वीकारना नहीं चाहते। लेकिन अमरीका जिस तरह से दबाव बनाए हुए है उससे लगता है कि उनका अंजाम भी अब बहुत निकट है। ट्यूनेशिया, मोरक्को, अल्जीरिया, और बहरीन यानी आसपास के अनेक देशों की जनता क्रांति के पक्ष में है। इसलिए बहुत शीघ्र इन देशों में या तो सेना सत्ता संभाल लेगी अथवा वहां जो भी छोटे-बड़े राजनीतिक दल हैं वे नेतृत्व के लिए आगे आ जाएंगे। इन देशों की शोकांतिका यह है कि वहां ऐसे राजनीतिक दल नहीं हैं, जो इन सैनिक जनरलों और तानाशाहों का स्थान ले सकें। इस आंदोलन का एक नकारात्मक प्रभाव यह पड़ रहा है कि इनके आसपास वाले देशों में भी इसकी सुगबुगाहट प्रारंभ हो गई है।
चौकन्ना इस्रायल
इसी क्षेत्र में इस्रायल बसा हुआ है। उसके चारों ओर वही देश हैं, जहां इस समय उनके सत्ताधीशों के विरुद्ध आंदोलन चल रहे हैं। अल अरबिया टीवी के अनुसार क्रांति की एक ऐसी ही लहर इस्रायल में भी देखी जा सकती है। टीवी रपट में कहा गया इस्रायल में आंदोलन की जो लहर उठी है, वह राजनीतिक न होकर आर्थिक है। इस्रायल में भिन्न-भिन्न मजदूर यूनियन और आर्थिक क्षेत्र के अन्य दबे और कुचले वर्ग के संगठनों ने सड़कों पर निकलकर अपनी सरकार के विरुद्ध विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिये हैं। चूंकि इस्रायल एक लोकतांत्रिक देश है। वहां राजनीतिक दल हैं और वे अपने कार्यक्रमों के अनुसार सरकार के सम्मुख अपनी मांगें रखकर उन्हें मनवाने का प्रयास करते हैं। यही नहीं वहां हड़ताल, अनशन और बंद के भी आयोजन होते हैं। इसलिए कोई यदि यह समझता है कि इससे इस्रायल का राजनीतिक ढांचा चरमरा जाएगा तो यह बड़ी भूल होगी। इस्रायल में समय पर चुनाव होते हैं। वहां की संसद, जो 'केन्सेट' कहलाती है, उसके समय-समय पर अधिवेशन होते हैं। अनेक राजनीतिक मुद्दों पर वहां की सरकारों ने समय से पहले इस्तीफे दिये हैं और बाद में नए चुनाव करवाए हैं। इसलिए यहां यह नहीं कहा जा सकता है कि इस्राइल का राजनीतिक अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। यहां की संसद और सेना में भी अच्छा तालमेल है। 1949 से लेकर अब तक वहां कभी भी सैनिक शासन स्थापित नहीं हुआ है। इसलिए वहां के विरोधी दल सरकार के विरुद्ध अविश्वास का प्रस्ताव जरूर रख सकते हैं। सरकार भंग हो, इसकी मांग कर सकते हैं। लेकिन वहां सेना का राज कायम हो जाए, ऐसा कोई भी राजनीतिक दल नहीं कहता है। कोई प्रधानमंत्री कितना ही महत्वाकांक्षी हो, लेकिन उसकी हिम्मत नहीं कि वह संसद को भंग कर सके। अपनी सुरक्षा के लिए इस्रायल के पास मोसाद जैसी गुप्तचर संस्था है। इसलिए उसके आसपास बसे अरब देशों की दाल नहीं गलती। इस्रायल के जन्म से आज तक वहां अरब देशों ने मिलकर तीन बार उस पर हमला किया, लेकिन वह किसी हमले में परास्त नहीं हो सका। इसलिए इस्रायल सरकार और विशेषतया मोसाद को इस बात का अंदेशा है कि उसके आसपास बसे अरब देश कहीं उसके विरुद्ध कोई षड्यंत्र तो नहीं कर रहे हैं? आज तो इस्रायल 32 दांतों के बीच एक जीभ समान है। भूमध्य सागर का तट हो या फिर सिनाई का रेगिस्तान वह चारों ओर अरब देशों से घिरा हुआ है। सीरिया, लेबनान और जोर्डन से उसकी सीमाएं मिलती हैं। भूमध्य सागर जो इस्रायल के लिए सबसे बड़ा जलमार्ग है, वह सभी मुस्लिम राष्ट्रों से घिरा है। मुस्लिम राष्ट्रों की सीमाएं उससे मिलती हैं। इसलिए हर दम वह चौकन्ना रहता है।
सरकार के लिए सिरदर्द
इस्रायल में भिन्न-भिन्न उद्योग-धंधों से संबंधित मजदूर संगठनों ने पिछले दिनों तेल अबीब, जहां संसद है, उसके बाहर एवं यरूशलम में प्रधानमंत्री बेंजामिन नेत्नयाहू के कार्यालय के समीप प्रदर्शन किया है। ये मजदूर संगठन घर, स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्रों में जो कमी है, उसके विरुद्ध नारे लगा रहे हैं। सड़कों पर बड़ी रैलियां निकाली जा रही हैं। विरोध प्रदर्शन के साथ-साथ वेबसाइट, फेसबुक, और ट्वीटर के माध्यम से जनता को जाग्रत किया जा रहा है। सरकार के विरुद्ध सबसे बड़ा जुलूस पिछले जून में निकाला गया, जिसमें उनकी मांग थी कि सरकार मकानों के किराए सस्ते करे। इस्रायल की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि उनके पास केवल जगह की ही कमी नहीं है, बल्कि उतने मकान भी नहीं हैं जिनमें वहां की जनता अपना साधारण जीवन व्यतीत कर सके। इस्रायल में जिस प्रकार रहने के मकान कम हैं, उसी प्रकार पढ़ाई के लिए स्कूल और सफाई के लिए कर्मचारियों का भी बड़ा टोटा है। पिछले हफ्तों में वहां की जनता ने सबसे बड़ा आंदोलन मकानों की कीमत बढ़ने के संबंध में किया था। यहां के सामाजिक संगठनों का कहना है कि इस्रायल में सामाजिक समानता और सामाजिक न्याय सबसे बड़ी समस्या है। इस्रायल दुनिया में एकमात्र यहूदी देश है। इसलिए वह सर्वाधिक यहूदियों के सामाजिक उत्थान पर बल देता है। इस्राइल में सबसे बड़ा अल्पसंख्यक मुस्लिम वर्ग है, जो अरबी है। इन अरब नागरिकों का कहना है कि हमारे वंशज तो इस धरती पर उस समय से रह रहे हैं जब इस्रायल नामक देश का पता भी नहीं था। दुनिया जानती है कि दूसरे महायुद्ध के पश्चात फलस्तीन को विभाजित करके इस्रायल बनाया गया। इस्रायल और फलस्तीन की जहां सीमाएं हैं वह सबसे संवेदनशील भाग है। इसी प्रकार मिस्र के सिनाई रेगिस्तान से भी उसकी सीमाएं मिलती हैं, जहां मिस्री लोग अब भी रहते हैं।
इन दोनों सीमाओं पर बसे लोग इस्रायल के अल्पसंख्यकों में शुमार किये जाते हैं। इस भूभाग के असंख्य लोगों को इस्रायल की नागरिकता नहीं दी गई है। इसलिए इस्रायल सरकार उस ओर ध्यान नहीं देती है। आसपास के देशों के अरबी मुस्लिम कुछ भी कहें लेकिन इस्रायल में रहने वाले अरबों को इस्रायल की सरकार से कोई गिला-शिकवा नहीं है। इस्राइल के लिए अरब और अन्य मुसलमान सिरदर्द हैं। इस्रायल में जो अरब नागरिक अल्पसंख्यक हैं, उनका प्रतिशत लगभग 15 है। इस्रायल में रहने वाले अरबी मुस्लिमों को अपने देश की सरकार से कोई शिकायत नहीं है। इस्रायल में गोलान की पहाड़ियों के सीरियन नागरिक और सिनाई के मिस्री नागरिक सरकार के लिए सिरदर्द हैं। जबसे लेबनान में हमास ताकतवर हुआ है वहां भी इस्रायल को सतर्क रहना पड़ता है।
असंतोष की चिंगारी
इस विरोध और प्रदर्शन को 'खेमा इंकलाब' नाम दिया गया है। खेमा इंकलाब के दस बड़े कैम्प यरूशलम, तेल अबीब, हैफा, नसीरात और हरसबअ नामक नगर में देखे गए हैं। पिछले 13 वर्षों में यहां सबसे बड़ा विरोध देखा जा रहा है। तम्बुओं के बाहर लगे होर्डिंग और पोस्टर से उनकी मांगों के संबंध में जानकारी मिलती है। इनकी मांगें हैं इस्राइल को कल्याणकारी राज्य बनाया जाए, सस्ते मकान उण्लब्ध कराओ, बेरोजगारी और महंगाई का अंत हो। वहां के मीडिया में प्रकाशित रपट के अनुसार प्रदर्शनकारियों की संख्या 50 हजार से सवा लाख तक थी। सरकार इससे प्रभावित हो रही है। इसलिए प्रधानमंत्री बेंजमिन ने प्रत्यक्ष रूप से लगाए कई 'करों' को समाप्त कर दिया है। इस्राइल की संसद इससे चिंतित है। सरकार से यह अपील की गई है कि ग्रीष्म की छुट्टियों को समाप्त कर संसद का अधिवेशन शीघ्र बुलाया जाए।
इस्रायल में उठे इस असंतोष से वहां के राष्ट्रपति शमऊन पेरेज भी परेशान हैं। लम्बे समय से वहां चल रही डाक्टरों की हड़ताल को समाप्त करने के लिए राष्ट्रपति ने डाक्टरों की यूनियन के प्रतिनिधियों को अपने कार्यालय में बातचीत के लिए बुलाया है। राष्ट्रपति को इस मामले में हस्तक्षेप तब करना पड़ा जब 23 जुलाई को यरूशलम में प्रधानमंत्री कार्यालय के बाहर डाक्टरों ने जोरदार प्रदर्शन किया। उसी समय डाक्टरों ने यह भी धमकी दी थी कि उनकी मांगें स्वीकार न होने पर उनके पास अब भूख हड़ताल के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं रहा है। दुनिया जानती है कि इस्रायल के पड़ोसी मुस्लिम राष्ट्र उसे कभी चैन से नहीं बैठने देंगे। विरोध और प्रदर्शन की आड़ में मुस्लिम देश अपने आतंकवादियों की घुसपैठ में लगे हुए हैं। इस्रायल को सबसे बड़ा खतरा जोर्डन की सीमा पर है, क्योंकि वहां से प्रतिदिन आठ हजार जोर्डनवासी सीमा पार कर इस्रायल के कारखानों में काम करने के लिए आते हैं। इस्रायलियों की एक मांग यह भी है कि बाहर से आने वाले मजदूरों पर रोक लगाई जाए, क्योंकि इससे इस्रायल में काम करने वालों को काम नहीं मिलता है। वे भूमिपुत्रों को न्याय दिलाने के हिमायती हैं। लेकिन इस्रायल और जोर्डन के बीच जो जोर्डन नदी है उसके दूसरी ओर रहने वालों को काम देने संबंधी एक समझौता है। इस्रायल के जिस मार्ग से खनिज तेल की पूर्ति करने वाली पाइप लाइन गुजरती है उसके संबंध में भी एक समझौता है। इस्रायल को भय है कि मुस्लिम आतंकवादी इस पाइप लाइन को बम से उड़ा कर उसे भी नुकसान पहुंचा सकते हैं। इस्रायल इस बात को भली प्रकार जानता है कि जब पड़ोस में आग लगती है तो उसके घर तक उसकी लपटें पहुंचने में बहुत अधिक समय नहीं लगता है।द
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