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तुम लाशें गिनो, आंसू बहाओ, ये वोट बैंक रिझाएं!

by
Sep 15, 2011, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 15 Sep 2011 15:07:59

कल प्रात: टेलीफोन पर एक मित्र से वार्तालाप चल रहा था कि उनका दूसरा फोन टनटना उठा। उन्होंने घबरायी आवाज में मुझे बताया कि उन्हें खबर आयी है कि कुछ देर पहले ही दिल्ली हाईकोर्ट में बम विस्फोट हो गया है। मैं तुरंत फोन पटककर टेलीविजन की ओर भागा। सब खबरिया चैनलों पर विस्फोट के दृश्य छाये हुए थे। दौड़ धूप, रोते बिलखते, घबराये चेहरे, घायलों को उठाते- ले जाते स्ट्रेचर, पुलिस बल और गाड़ियों की भीड़, जमीन सूंघते पुलिस के खोजी कुत्ते, राममनोहर लोहिया अस्पताल में भर्ती घायलों को अपनी शक्ल दिखाते राजनेताओं का तांता, अपने घायल रिश्तेदारों को देखने के लिए छटपटाते रिश्तेदारों को प्रवेश न मिलने से उभरा जनाक्रोश, राहुल गांधी के विरुद्ध लगते नारे, लोकसभा में गृहमंत्री चिदम्बरम का वक्तव्य कि दिल्ली पुलिस को गुप्तचर विभाग से चेतावनी मिल जाने पर भी यह आतंकी हमला नहीं रोका जा सका, दिल्ली के उपराज्यपाल तेजेन्दर खन्ना द्वारा गृहमंत्री का खंडन कि ऐसी कोई ठोस चेतावनी नहीं मिली थी, अटकलों का दौर कि इस हमले के पीछे कौन-सा आतंकवादी संगठन हो सकता है, क्या वह बंगलादेशी हिज्बुल मुजाहिदीन है? क्या वह पाकिस्तान स्थित जैशे-मुहम्मद या लश्कर-ए-तोएबा है? क्या वह भारत स्थित इंडियन मुजाहिद्दीन या सिमी नामक संस्थाएं हैं? क्या इस आतंकवादी हमले के पीछे पाकिस्तान का हाथ है या उसकी जड़ें भारत में ही हैं? जांच एजेंसियों को इस उलझन से बाहर निकालने या गुमराह करने के लिए हरकत उल जिहादी नाम से किसी संगठन ने इस विस्फोट की जिम्मेदारी ले ली और संसद भवन पर हमले के अपराधी मोहम्मद अफजल को तुरंत छोड़ने की मांग उठा दी। पुलिस ने बड़ी फुर्ती के साथ आतंकवादियों के 'स्कैच' जारी कर दिये, बिना इस शर्मिंदगी के कि हर जिहादी हमले के बाद वह चेहरों के स्कैच जारी करती आयी है और उन 'स्कैचों' के सहारे कोई भी जिहादी आज तक पकड़ा नहीं जा सका है। दिल्ली बम धमाके जिहादियों को पकड़ने के लिए पांच लाख रुपये के इनाम की भी घोषणा की गई है।

जड़ को खोजें

दरअसल प्रत्येक आतंकवादी हमले के बाद सरकार, राजनेता वर्ग, सुरक्षा एवं जांच एजेंसियों, मीडिया और बुद्धिजीवियों ने एक घिसा-पिटा कर्मकांड अपना लिया है। बस उसी को हर बार दोहराया जाता है। भारत 1989-90 से ही लगातार जिहादी हमलों के घाव झेलता आ रहा है, हम केवल लाशों और घायलों की संख्या गिनते रह जाते हैं। सरकारें हर बार घोषणा कर देती हैं कि हम आतंकवाद को नेस्तनाबूद करके रहेंगे। राजनेता वर्ग, मीडिया और बुद्धिजीवी वर्ग प्रत्येक नये आतंकी हमले के लिए गुप्तचर एजेंसियों की विफलता, पुलिस बल के चौकस न होने, और कड़े कानून के अभाव को दोषी ठहरा देता है। जैसे मानो कानून स्वयं दौड़कर आतंकी की पहचान कर लेगा, उसे पकड़ लेगा। पिछले 20-25 वर्षों से हम इसी खोखले शब्दाचार को दोहराते आ रहे हैं। इसका मुख्य कारण आतंकवाद के स्वरूप एवं उसकी प्रेरणा के बारे में जाने या अनजाने अपनाया गया हमारा घोर अज्ञान है।

जिस जिहादी आतंकवाद के हम शिकार हैं, उससे अब लगभग पूरा विश्व त्रस्त है। परंतु उन्हें हमारी तरह आतंकवाद की प्रेरणा और विचारधारा के बारे में कोई भ्रम नहीं है। और इसीलिए अमरीका ने 11 सितम्बर, 2001 को अपनी भूमि पर आतंकवाद के पहले हमले के बाद से जो सुरक्षात्मक उपाय अपनाये उसके कारण पूरे विश्व में फैले जिहादी तंत्र की घोर घृणा और गुस्से का केन्द्र होते हुए भी उसने अपनी भूमि पर दूसरा हमला नहीं होने दिया है। जिहादी विचारधारा के मन में भय पैदा करने के लिए उसने इराक और अफगानिस्तान पर सैनिक हमला करने तक से परहेज नहीं किया। जिहाद को धन और प्रशिक्षण की सहायता देने वाले अरब देशों के तानाशाहों के विरुद्ध अमरीका ने स्थानीय विद्रोहों को भड़का दिया है। अमरीका में प्रवेश करने वाले प्रत्येक मुस्लिम यात्री की सिर से पैर तक छानबीन की जाती है, भले ही वह भारत के पूर्व राष्ट्रपति डा.अब्दुल कलाम हों या अभिनेता शाहरुख खान। कल ही एक समाचार पढ़ा कि अमरीकी गुप्तचर विभाग ने न्यूयार्क क्षेत्र में स्थित 250 मस्जिदों की पूरी छानबीन करके सब प्रकार की जानकारी एकत्र कर ली है। ब्रिटेन अपने विश्वविद्यालयों में पढ़ रहे मुस्लिम युवाओं की गतिविधियों एवं मानसिक रुझानों का गहरा अध्ययन कर रहा है। उसने अपनी गुप्तचर संस्था एम-15 को चरमपंथी रुझान के तत्वों पर निगाह रखने का आदेश दिया है। फ्रांस, जर्मनी, बेल्जियम आदि देश मुस्लिम आब्रजकों के सांस्कृतिक आत्मसातीकरण के लिए मुस्लिम महिलाओं के बुकर्ा धारण पर तरह- तरह के प्रतिबंध लगा रहे हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि यदि मुस्लिम समाज इन बंधनों को स्वीकार करेगा तो उसे अपनी मजहबी संकीर्णता से बाहर निकलना पड़ेगा। और यदि नहीं करेगा तो उसे वह देश छोड़ने को तैयार होना होगा जिससे उसके आर्थिक हित प्रभावित होंगे। 9/11 के बाद से यूरोप और अमरीका में जिहादी आतंकवाद की कारण-मीमांसा पर जो विशाल साहित्य सृजन हुआ है उसका निष्कर्ष है कि इस्लामी विचारधारा वैश्विक है, जिहादी आतंकवाद की जड़ें इस विचारधारा और इस्लाम के जन्म से अब तक उसके विस्तारवादी इतिहास में विद्यमान है। जिहादी आतंकवाद को जड़-मूल से समाप्त करने के लिए इस्लामी विचारधारा और उसके इतिहास की पुनर्व्याख्या आवश्यक है। उसके उदारवादी पक्ष को सुदृढ़ करने की आवश्यकता है।

भारत की समृद्ध विचारधारा

विश्व में चल रहे इस वैचारिक आलोड़न में भारत सर्वाधिक योगदान कर सकता है, क्योंकि इस्लाम के साथ उसके सह -अस्तित्व का इतिहास 12-13 सौ वर्ष पुराना है। भारत अकेला ऐसा देश है जहां इस्लामी विस्तारवाद को विशाल गैरइस्लामी बहुसंख्या के बीच अपनी पृथक पहचान की रक्षा की समस्या का सामना करना पड़ा। भारत अकेला ऐसा देश है जहां इस्लाम का सामना ऐसी सांस्कृतिक धारा से हुआ जिसने किसी विशिष्ट उपासना पद्धति को अपनी सामूहिक पहचान का आधार नहीं माना बल्कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी रुचि की उपासना पद्धति अपनाने की छूट दी, और सब उपासना पद्धतियों के एक ही अंतिम सत्य तक पहुंचने के विभिन्न मार्गों के रूप में समान मान्यता का सम्मान दिया। जबकि पश्चिम एशिया, उत्तरी अफ्रीका और यूरोप में इस्लाम का सामना ईसाई और यहूदी विचारधाराओं से हुआ जो अपनी उपासना पद्धति के प्रति उतनी ही कट्टर थी, उसे ही अपनी सामूहिक पहचान का आधार मानती है और ईसाई चर्च तो मजहबी विस्तारवाद में विश्वास करता था। इस प्रकार यह दो मजहबी विस्तारवादों का टकराव था जबकि भारत में इस्लाम का मुकाबला एक सर्वसमावेशी उदार विचारधारा से था। इस्लामी विस्तारवाद और एकछत्रवाद के विरुद्ध अपने हजारों वर्ष लम्बे संघर्ष में भारत ने 1947 में मातृभूमि के विभाजन का मूल्य देना तो स्वीकार किया किन्तु अपनी सर्वपंथ समादर भाव की विचारधारा का परित्याग नहीं किया। पंथनिरपेक्षता के अपने आदर्श को बनाए रखा।

ऐतिहासिक भूल

किन्तु यही भारत के नेतृत्व ने ऐतिहासिक भूल की। पंथनिरपेक्षता के आदर्श पर अडिग रहते हुए भी उसने भारत विभाजन की सही कारण-मीमांसा नहीं की, इस्लामी विचारधारा का गहन वस्तुनिष्ठ अध्ययन नहीं किया। वह भारतीय राष्ट्रवाद की बात तो करता रहा पर उसने इतिहास की गहराइयों में प्रवेश करके यह जानने की कोशिश नहीं की कि राष्ट्रवाद के मूल तत्वों का बीजारोपण और विकास में भारत में कब हुआ, कैसे आगे बढ़ा और राष्ट्रवाद के उस ऐतिहासिक प्रवाह का उत्तराधिकारी कौन-सा समाज है? इतिहास बोध से शून्य यह नेतृत्व भारतीय मुसलमानों के पंथान्तरण के सत्य को स्वीकार कर यह तो कहता रहा कि दोनों समाजों की धमनियों में एक ही रक्त बह रहा है, हमारी एकता को ब्रिटिश कूटनीति ने तोड़ा है, अत: उनके भारत से जाने के बाद हम पुन: एकता के सूत्र में बंध जाएंगे। पर हमने यह नहीं जाना कि भारत में मुस्लिम पृथकतावाद की जड़ें ब्रिटिश कूटनीति में नहीं, इस्लामी विचारधारा के भीतर विद्यमान हैं। अत: भारत में एकात्म राष्ट्रीय समाज जीवन खड़ा करने के लिए इस्लामी विचारधारा में उदारवादी प्रवृत्तियों को बलवती बनाने का प्रबल प्रयास करना होगा, उदारवादी मुस्लिम नेतृत्व को ऊपर लाना होगा, स्थापित करना होगा।

इस विकृत इतिहासबोध के साथ ही हमने खंडित भारत के लिए उस ब्रिटिश संसदीय प्रणाली को अपना लिया, जिसको भारत में आरोपित करने के पीछे ब्रिटिश साम्राज्यवादियों का एकमात्र उद्देश्य भारतीय राष्ट्रवाद को विखंडित व दुर्बल करना तथा मुस्लिम पृथकतावाद को एकजुट कर अपने साथ खड़ा करना था। वह ब्रिटिश संवैधानिक प्रणाली उसी दिशा में आगे बढ़ रही है। राष्ट्रीय समाज को जाति, क्षेत्र, भाषा और वंशवाद के आधार पर विखंडित कर रही है तो मुस्लिम समाज को संगठित कर सबसे बड़ा वोट बैंक बनाने में सफल रही है। इस वोट बैंक राजनीति के कारण सोनिया पार्टी से लेकर सभी छोटे-छोटे दल मुस्लिम वोट बैंक को रिझाने में लग गये हैं और उसे रिझाने हेतु हिन्दू बहुसंख्यकवाद का हौवा खड़ा करने में जुट गए हैं। इस वोट बैंक राजनीति के कारण ही हमने एक मिथक निर्माण किया कि आतंकवादी की कोई विचारधारा या मजहब नहीं होता, वह केवल हिंसक आतंकवादी होता है, जबकि हम रोज देखते हैं कि प्रत्येक आतंकवादी आंदोलन के पीछे कोई न कोई विचारधारा विद्यमान है। राजीव गांधी के हत्यारों के पीछे तमिल नस्लवाद है तो भुल्लर के पीछे खालिस्तानी विचारधारा, और मोहम्मद अफजल के पीछे मुस्लिम भावनाएं खड़ी हैं।

सोनिया पार्टी का अपराध

इससे भी बड़ा अपराध यह हुआ है कि जो हिन्दू समाज 20 वर्षों से इस्लामी आतंकवाद के हमलों से क्षत-विक्षत हो गया है, उस विशाल हिन्दू समाज के 20 से भी कम युवकों को छिटपुट आतंकवादी घटनाओं से जोड़कर 'हिन्दू आतंकवाद' का शोर मचाया जा रहा है, और इस अपप्रचार के मूल स्रोत सत्तारूढ़ सोनिया पार्टी के महासचिव दिग्विजय सिंह हैं। विकिलीक्स ने उद्घाटन किया है कि दिग्विजय ने सोनिया पार्टी को सत्ता में आने के लिए यह गुरुमंत्र दिया, दिग्विजय ने स्वयं भी माना है कि 'हिन्दू आतंकवाद' की लाइन अपनाने के लिए अपनी पार्टी को राजी करने में उन्हें चार वर्ष का समय लगा।' दिग्विजय पर हिन्दू आतंकवाद का भूत सवार हो गया है। दिन रात यह राग अलापकर वह जिहादी आतंकवाद पर से देशवासियों की दृष्टि को हटा रहे हैं और अपनी पार्टी का मुस्लिम वोट बैंक जुटाने का सपना पाल रहे हैं। अभी 30 अगस्त को टाइम्स आफ इंडिया में उन्होंने एक लेख लिखकर पुन:इस भूत को जिंदा करने की कोशिश की है।

जिहादी आतंकवाद के विरुद्ध भारत की अब तक की विफलता का एक महत्वपूर्ण कारण आतंकवाद के स्वरूप को न समझना है। आतंकवाद ऐसा छद्म मुद्दा है जिसमें आक्रमणकारी आतंकवादी अदृश्य और अज्ञात है जबकि उसका शिकार ज्ञात और दृश्यमान है। जिहादी आतंकवादी का शत्रु कोई व्यक्ति विशेष न होकर पूरा समाज होता है। भारत में फैले हुए इस हिन्दू समाज पर कहीं भी हमला करके वह अपने शत्रु को कमजोर करता है। इसलिए वह तय करता है कि वह कब और कहां, किस तरह से अपने शत्रु समाज पर हमला करे। हमले की पहल उसके पास होती है उसके शिकार के पास नहीं, बल्कि वह तो पूरी तरह असावधान और बेफ्रिक होकर अपने रोजमरर्ा के काम में लगा होता है। आतंकवादी हमले की सफलता उसकी आकस्मिकता में होती है। वह ऐसा समय और स्थान चुनता है जहां शत्रु समाज के अधिक से अधिक लोगों को मारा जा सके। अक्षरधाम मंदिर, वाराणसी का संकट मोचन मंदिर, जम्मू का रघुनाथ मंदिर, दिल्ली के सरोजिनी नगर, पहाड़गंज, करोलबाग आदि भीड़ भरे बाजार, मुम्बई में झावेरी बाजार, ओपेरा हाउस और अब दिल्ली उच्च न्यायालय के गेट नं.5 का चयन इसी दृष्टि से किया गया। समय भी 10 बजकर 15 मिनट रखा गया क्योंकि उस समय उच्च न्यायालय में अपने मुकदमों की सुनवाई के लिए आने वालों और कर्मचारियों की भीड़ गेट नं.5 पर स्थित प्रवेश पत्र काउंटर पर इकट्ठा होती है। आतंकवादी अपने अगले हमले के लिए सूक्ष्म योजना बनाता है, स्थान, दिन और समय का चयन करता है। सीसीटीवी कैमरा हमले के दृश्य तो ले सकता है पर उसे रोक नहीं सकता। पुलिस दल इस विशाल देश में हर सार्वजनिक प्रतिष्ठान, मेले, मंदिर और बाजार आदि के चप्पे-चप्पे पर चौबीसों घंटे निगरानी नहीं रख सकता। गुप्तचर एजेंसियों की सीमाओं को भी हमें समझना चाहिए। जिहादी आतंकवादी छोटे-छोटे गुटों या 'मोड्यूल्स' में काम करते हैं। प्रत्येक 'मोड्यूल' अपनी गुप्तता की रक्षा करती है, मोड्यूल का मुखिया सब तैयारी पूरी हो जाने के बाद ही दिन, समय और स्थान की घोषणा करता है, तब तक मोड्यूल बेखबर होता है। ऐसे मोड्यूल में प्रवेश करने की कठिनाइयों को हमें समझना चाहिए।

दो विचारधाराओं का संघर्ष

यह लड़ाई विचारधाराओं की लड़ाई है, दो मानसिकताओं और समाजों की लड़ाई है। एक ओर अहिंसा को आदर्श मानने वाला विकेन्द्रित समाज है, दूसरी ओर हिंसक विस्तारवाद है, मजहबी जुनून है। यह मजहबी जुनून ही पढ़े-लिखे मुस्लिम युवकों को मुजाहिदीन और फिदायीन बनाता है। यह लड़ाई केवल सरकार के बूते नहीं लड़ी जा सकती, विशेषकर तब जबकि सरकार को चलाने वाला राजनीतिक दल जिहादी विचारधारा और मानसिकता को जन्म देने वाले समाज को ही अपना मुख्य वोट बैंक मान बैठा हो। हर समय चिंतित रहता हो कि उसके किसी वचन या कदम से वह वोट बैंक नाराज न हो जाए। बाटला हाउस मुठभेेड़  में पुलिस अधिकारी मोहन चंद शर्मा के बलिदान को झूठा कहने और आतंकवाद के गढ़ आजमगढ़ में दिग्विजय सिंह की यात्रा इसके उदाहरण हैं। अभी भी दिल्ली उच्च न्यायालय के बम विस्फोट में 13 लोगों की हत्या और 75 लोगों के घायल होने के बाद भी उ.प्र.के समाजवादी नेता मुलायम सिंह की मुख्य चिंता यह थी कि इस हत्याकांड के लिए मुस्लिम समाज का उत्पीड़न न किया जाए। यदि दिग्विजय और मुलायम सिंह वोट बैंक राजनीति के ऊपर उठ सके होते तो मुट्ठी भर युवकों की जिन छिटपुट घटनाओं को उन्होंने 'हिन्दू आतंकवाद' का रंग दे दिया, उन्हें वे जिहादी हिंसा के शिकार हिन्दू समाज की आत्मरक्षात्मक प्रतिक्रिया के रूप में देखते। क्या आतंकवादी आक्रमण और आत्मरक्षार्थ उसकी प्रतिक्रिया में कोई अंतर उन्हें नहीं दिखायी देता? यदि जिहादी आतंकवादी इस्लाम के प्रति प्रेम के कारण गैरमुस्लिम समाज पर बिना किसी व्यक्तिगत शत्रुता के हमला करता है और यदि उसके अपने समाज पर जवाबी हमला होगा तो उसे अपनी आक्रामकता के बारे में पुनर्विचार अवश्य करना पड़ेगा। दिग्विजय सिंह 'हिन्दू आतंकवाद' के अन्तर्गत जिन घटनाओं को गिनाते हैं, वे सब 2006 के बाद शुरू हुई थीं। उनके पीछे 16-17 वर्ष लम्बा जिहादी हमलों का इतिहास है।

स्वामी असीमानंद की गवाही में बार-बार यह आया है कि जिहादी हमलों को रोकने के लिए उन्हें यह करना पड़ रहा है। किन्तु दिग्विजय पार्टी हित में गृहमंत्री चिदम्बरम को अपनी लाइन बेचने में सफल हो गए। और चिदम्बरम ने अपनी पूरी शक्ति तथाकथित 'हिन्दू आतंकवाद' को कुचलने में लगा दी। दिल्ली पुलिस का दुरुपयोग बाबा रामदेव और गांधीवादी अण्णा हजारे के विरुद्ध किया गया, 'नोट के बदले वोट' कांड में सोनिया पार्टी के नेताओं को बचाने में किया गया, जिस सरकार के गृहमंत्री की दृष्टि इतनी दूषित है उसके माध्यम से आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई की सफलता की आशा करना व्यर्थ है। इसके लिए समाज को स्वयं खड़ा होना होगा। व्यक्तियों के स्कैच जारी करने के बजाए आतंकवादी विचारधारा का स्कैच बनाना होगा।द

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