तारीख और सबकतारीख और सबक
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26 नवम्बर 6, 13 दिसम्बर, 16 दिसम्बर
जितेन्द्र तिवारी
'अगर आतंकवाद का मुंहतोड़ जवाब देना है तो उस आतंकवादी को उसी तारीख को फांसी पर लटका दो, जिस तारीख को उसने आतंकवादी हमला किया था।'
अमरीका के लिए एक 9/11 ही काफी, हम कितनी तारीखें याद रखें?
अभी 26 नवम्बर (शनिवार) को दिल्ली के जंतर मंतर पर तीन साल पहले, 2008 में मुम्बई पर हुए आतंकवादी हमले की बरसी पर अनेक संगठन अलग-अलग, अपने-अपने तरीके से प्रदर्शन कर रहे थे, धरना दे रहे थे। पर उन सब धरने-प्रदर्शनों का मूल स्वर एक ही था-उस हमले में शामिल एकमात्र जिंदा पकड़े गए आतंकवादी अजमल कसाब को फांसी दो, पाकिस्तान की नकेल कसो ताकि वह भारत में आतंकवादी गतिविधियों का संचालन बंद करे। उधर महाराष्ट्र की राजधानी मुम्बई के उसी ताज होटल में भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान महेन्द्र सिंह धोनी और मास्टर ब्लास्टर सचिन तेंदुलकर ने जाकर लोगों की हौसला अफजाई की, जिस पर हमला बोलकर समुद्री रास्ते से आए 10 पाकिस्तानी आतंकवादियों ने 170 से अधिक निर्दोष लोगों को मौत के घाट उतार दिया था। उस ताज होटल और नरीमन प्वाइंट के एक घर को ही नहीं, 56 घंटे तक विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश को बंधक बना लिया था। तब राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड (एन.एस.जी.) और अन्य भारतीय सुरक्षा बलों ने अपनी जान की बाजी लगाकर, अभूतपूर्ण शौर्य और सूझबूझ का प्रदर्शन करके कायरों की तरह छुपकर हमला करने वाले आतंकवादियों को मार गिराया था। एक बार फिर सुरक्षाबलों ने सिद्ध कर दिया कि वे किसी भी परिस्थिति में आतंकवाद का मुकाबला कर सकते हैं।
पर इस 26/11 की याद संसद को इसलिए नहीं आयी क्योंकि उस दिन शनिवार था और संसद नहीं चल रही थी। और जब सोमवार को सदन लगा तो खुदरा बाजार में प्रत्यक्ष पूंजी निवेश के मुद्दे ने हंगामा खड़ा कर दिया। पर यही संसद और उसका सदन कुछ दिन बाद ही 13 दिसम्बर को आतंकवाद पर बहस करेगा, उसे जड़ से उखाड़ फेंकने के संकल्प को दोहराएगा। क्यों, क्योंकि 13 दिसम्बर को, आज से 10 साल पहले आतंकवादियों ने संसद भवन पर हमला बोला था, वे संसद भवन परिसर के भीतर तक घुस गए थे, तब भी सुरक्षा बलों और संसद भवन के कर्मचारियों ने अपनी जान पर खेलकर अपने 'माननीयों' की रक्षा की थी। पर उस आतंकवादी हमले में शहीद हुए कर्मचारियों के परिजनों द्वारा उन्हें 'सम्मानस्वरूप' प्रदान किए गए पदक 'विरोधस्वरूप' लौटा दिए जाने के बावजूद आज 10 साल बाद भी सरकार इसका जवाब देने को तैयार नहीं कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा फांसी की सजा सुनाए जाने के बाद भी संसद भवन पर हमले का अपराधी अब तक जीवित क्यों है? क्या हम हर 13 दिसंबर को उस आतंकवादी हमले को यादकर सिर्फ शर्मसार होंगे, करेंगे कुछ नहीं?
इसका उत्तर कुछ तीखे स्वर में उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस प्रमुख श्री प्रकाश सिंह ने कुछ यूं दिया-'हमारे देश की मानसिकता ऐसी बना दी गई है कि कोई कोई हमारे पीछे एक लात मारकर गिरा दे तो हम धूल झाड़कर फिर बेशर्मों की तरह खड़े हो जाते हैं। इंतजार करते हैं अगली लात का, और वह लात भी पड़ गई तो फिर कुछ हल्ला मचाकर शांत हो जाते हैं, तीसरी लात खाने के लिए। आतंकवाद के मोर्चे पर यह हमारी बेशर्मी, बेहयाई और नपुंसकता-सभी कुछ है। यहां तो आतंकवादी हमलों की तारीखों पर उपजने वाले जनाक्रोश को भी राजनीतिक चश्मे से देखा जाता है और बताने की कोशिश की जाती है कि हमारे शासनकाल से अधिक आतंकवादी हमले दूसरे दल के शासनकाल में हुए। उधर अखबार बताते हैं कि अजमल कसाब की को जिन्दा रखने के लिए 50 लाख रुपये खर्च हुए (यह उसके लिए अलग से जेल कक्ष बनाने, जे.जे. हास्पिटल में कमरा बनाने तथा न्यायिक खर्च से अलग है। महाराष्ट्र के गृहमंत्री के अनुसार सब मिलाकर 16 करोड़ खर्च हुए) और मोहम्मद अफजल को माफी दिए जाने के लिए जम्मू कश्मीर विधानसभा में प्रस्ताव आया, क्या अर्थ है इस सबका? अगर आतंकवाद का मुंहतोड़ जवाब देना है तो उस आतंकवादी को उसी तारीख को फांसी पर लटका दो जिस तारीख को उसने आतंकवादी हमला किया था।'
दिसम्बर में सिर्फ एक 13 तारीख ही नहीं है जो आक्रोश पैदा करती है, बल्कि 6 दिसंबर और 16 दिसंबर ऐसी तारीखें हैं जो भारतीयों के मन में शौर्य और स्वाभिमान का भाव पैदा करती हैं। 40 साल पहले, 16 दिसम्बर, 1971 को भारतीय सेना ने विश्व सैन्य इतिहास का अभूतपूर्व और अविस्मरणीय पृष्ठ लिखा जब 93 हजार से अधिक पाकिस्तानी सैनिकों ने भारतीय सेना के सामने आत्मसमर्पण किया। विश्व इतिहास में किसी सेना के समक्ष दुश्मन सेना के इतनी बड़ी संख्या में आत्मसमर्पण का कोई दूसरा उदाहरण नहीं है। और इसके 20 साल बाद, 6 दिसम्बर, 1992 को हिन्दू समाज ने अपना शौर्य प्रकट करते हुए मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के जन्मस्थान पर 400 वर्ष पूर्व जबरन बनाए गए बाबरी ढांचे को ध्वस्त कर दिया। 6 दिसम्बर और 16 दिसम्बर की शौर्य गाथा बताती है कि देश की सेना और सुरक्षा बल सन्नद्ध हैं और समाज भी शक्तिशाली है। आवश्यकता पड़ने पर वह बड़ी से बड़ी चुनौती का सामना कर सकता है। फिर भी आम आदमी निराश और हताश क्यों रहता है? क्यों उसे लगता है कि कुछ नहीं हो रहा? कुछ नहीं हो सकता? क्यों उसे लगता है कि हम तो बस मार खाने और घाव सहलाने के लिए ही बने हैं?
इसका विश्लेषण करते हुए वरिष्ठ पत्रकार श्री वरिन्दर कपूर कहते हैं, 'वस्तुत: नेतृत्वकर्ता पर बहुत कुछ निर्भर करता है कि वह जनमानस की भावनाओं को किस मार्ग पर किस रूप में आंदोलित करता है। इस दृष्टि से देखें तो हमारा वर्तमान नेतृत्व पूरी तरह से नाकारा और दब्बू है। वर्तमान नेतृत्वकर्ताओं ने विश्व मंच पर कभी भारतीय स्वाभिमान के अनुरूप प्रदर्शन नहीं किया। हर मुद्दे पर वे अंतरराष्ट्रीय दवाब के सामने घुटने टेकते नजर आए। भारत में आतंकवाद फैलाने में लगे पाकिस्तान को मुंहतोड़ जवाब देने की बजाय उससे दोस्ती का नाटक करते दिखे, सिर्फ इसलिए कि इससे भारतीय मुसलमान खुश होगा, उनका वोट बैंक मजबूत होगा। मोहम्मद अफजल की फांसी भी इसलिए लटकी पड़ी है और आगे भी टलती जाएगी क्योंकि राजनीतिज्ञों के लिए संसद पर हमला 'राष्ट्रीय अपमान' से बढ़कर वोट बैंक राजनीति का एक मुद्दा बन गया है। यह सोचने की बात है कि इंदिरा, राजीव और नेहरू के जन्म और मृत्यु दिवसों पर पूरे-पूरे पृष्ठ का विज्ञापन देने वाली सरकारों ने मुम्बई हमले में शहीद हुए जवानों की याद में कितने विज्ञापन दिए? क्यों नहीं इन हमलों की तारीखों को आतंकवाद के विरुद्ध संकल्प दिवस के रूप में याद रखते हैं? अमरीका ने 11 सितम्बर (9/11) को वर्ल्ड ट्रेंड सेंटर पर हुए हमले से ही सबक सीख लिया और अपने देश में दूसरा आतंकवादी हमला नहीं होने दिया, जबकि इराक और अफगानिस्तान में उसकी भूमिका के कारण पूरा वैश्विक मुस्लिम जगत उसे अपना दुश्मन मानता है। पर हमारे यहां आतंकवादी हमले की तारीखें सिर्फ औपचारिकता हैं, इससे अधिक महत्वपूर्ण हैं गांधी परिवार की जन्म-मृत्यु की तारीखें।'
सुप्रसिद्ध इतिहासकार एवं साहित्यकार श्री नरेन्द्र कोहली इतिहास में दर्ज इन तारीखों का महत्व रेखांकित करते हुए कहते हैं कि किसी देश या समाज के विकास में उसके इतिहास में दर्ज तारीखें बहुत प्रभावी भूमिका निभाती हैं। क्योंकि इतिहास में दर्ज तारीखों के पीछे का जो कारण होता है, उस घटना का जो इतिहास होता है, वह भविष्य का मार्गदर्शक बनता है। पौराणिक काल से ही हम दीपावली, दशहरा और जन्माष्टमी उत्सव के रूप में मनाते हैं। पर इन पर्वों को मनाने का कारण यदि हमने याद नहीं किया, उस इतिहास को यादकर कोई संकल्प नहीं लिया, तो फिर उस उत्सव पर दीप जलाने या पटाखे फोड़ने की औपचारिकता का क्या अर्थ? विजयादशमी को रावण मारा गया तभी राम अयोध्या लौटे और दीपावली मनी। देवकी और वासुदेव ने अपने 6 पुत्रों का बलिदान देकर श्री कृष्ण को बचाया ताकि अत्याचारी कंस का नाश हो और समाज सुखी हो। इन उत्सवों पर जैसे उस घटना, उसके इतिहास को याद रखना चाहिए, जैसे 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस मनाते समय उस उल्लास को याद रखना चाहिए कि हम स्वतंत्र हुए, तो सोचना यह भी चाहिए कि हम परतंत्र थे, परतंत्र क्यों हुए, ऐसा क्या करें कि फिर से परतंत्र न हों। ऐसे ही शौर्य दिवस पर अपना तेज जगाएं और आतंकवादी घटनाओं के दिवसों पर अपनी सुरक्षा चाक-चौबंद करने, सुरक्षाबलों को चुस्त-दुरुस्त व अत्याधुनिक शस्त्रास्त्रों से युक्त करने का कार्य करें, ताकि इन पीड़ा देने वाली तारीखों का इतिहास लम्बा न हो।'
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