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स्वदेशी बाजार में नहीं चलेगी विदेशी दुकान

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Dec 6, 2011, 12:00 am IST
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आवरण कथा-2 स्वदेशी बाजार में नहीं चलेगी विदेशी दुकान

दिंनाक: 06 Dec 2011 17:10:23

    अरुण कुमार सिंह

भारतीय खुदरा बाजार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को लेकर देशभर में कोहराम 

1 दिसम्बर को व्यापारिक प्रतिष्ठानों के देशव्यापी बंद ने सरकार को चेतावनी दे दी है कि खुदरा बाजार में विदेशी पूंजी निवेश को जनता कतई स्वीकार नहीं करेगी। यह दुर्भाग्यजनक ही है कि देश की आजादी के लिए जिन गांधी जी ने विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया था, अपने को उन्हीं का अनुयायी बताने वालों ने भारतीय बाजार के दरवाजे विदेशी कंपनियों के लिए खोल दिए हैं। यानी विदेशी कंपनियां सुई से लेकर कार तक भारतीय बाजारों में बेचेंगी। ये कंपनियां दुनिया भर में निर्मित वस्तुएं थोक भाव में खरीदेंगी और उन्हें भारत स्थित अपनी दुकानों के माध्यम से बेचेंगी। इसे ही प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) का नाम दिया गया है और कहा जा रहा है कि इससे करोड़ों लोगों को रोजगार मिलेगा और महंगाई कम होगी। बाजार के जानकार सोनिया-मनमोहन सरकार की इस दलील को 'धोखाधड़ी' मानते हैं। उनका कहना है कि जो भारतीय बाजार पहले से ही चीन निर्मित वस्तुओं से भरा पड़ा है, और भारतीय उद्योग बंदी के कगार पर पहुंच रहे हैं, उनके ताबूत में एफडीआई रूपी अंतिम कील ठोंकी जा रही है। इसके विरोध में देशभर में संसद से लेकर सड़क तक कोहराम मचा है, लेकिन मनमोहन सिंह सरकार है कि विदेशी कंपनियों के दबाव में अपनी जिद के चलते भारत के आम आदमी की अर्थव्यवस्था को तहस-नहस करने पर तो तुली ही हुई है, देश के आर्थिक स्वावलम्बन के आधार को भी खत्म कर देना चाहती है। इस षड्‌यंत्र के विरुद्ध कांग्रेस-नीत संप्रग सरकार के सहयोगी भी खड़े हो गए हैं। यहां तक कि कांग्रेस के ही कई सांसद इसका खुलेआम विरोध कर रहे हैं।

चौतरफा विरोध

इतने बड़े फैसले के लिए सरकार ने न तो विपक्षी दलों से चर्चा की और न ही राज्य सरकारों से सलाह ली। स्वाभाविक रूप से विपक्षी दलों ने इस फैसले का विरोध किया। इसी मुद्दे पर संसद कई दिनों तक ठप्प रही। विरोध की यह धार तब और तेज हो गई जब खुद कांग्रेस के भीतर से ही विरोध के स्वर फूटे। कहा जा रहा है कि रक्षामंत्री ए.के. एंटोनी ने मंत्रिमण्डल की बैठक में ही इसका विरोध किया था। बाद में केरल कांग्रेस के अध्यक्ष रमेश चेलिथला ने एफ.डी.आई. के विरोध में प्रधानमंत्री को पत्र लिखा। फिर सुल्तानपुर (उ.प्र.) के कांग्रेसी सांसद संजय सिंह और बरेली के सांसद प्रवीण ऐरन तथा कुछ अन्य पार्टी सांसदों ने भी इसका विरोध किया। संप्रग सरकार में शामिल तृणमूल कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, मुस्लिम लीग, द्रविड़ मुनेत्र कषगम ने सरकार को चेताया। सरकार को बाहर से समर्थन देने वाली बहुजन समाज पार्टी ने तो यहां तक कहा कि राहुल गांधी के विदेशी दोस्तों को फायदा पहुंचाने के लिए यह फैसला लिया गया है।

लगातार सात साल से सरकार की अगुआई करने वाले डा.मनमोहन सिंह के सामने शायद पहली बार ऐसा अवसर आया है जब उनकी सरकार के किसी निर्णय का खुद उन्हीं की पार्टी के कुछ प्रभावी लोग और उनके सहयोगी दल खुलकर विरोध कर रहे हों। इसके बावजूद प्रधानमंत्री अपनी जिद पर डटे हैं। सरकार की इसी जिद के कारण 29 नवम्बर को आयोजित सर्वदलीय बैठक बेनतीजा रही। इसके बाद शाम को युवा कांग्रेस के अधिवेशन में प्रधानमंत्री ने फिर वही जिद दिखाते हुए कहा, 'विपक्ष अपने फायदे के लिए एफडीआई का विरोध कर रहा है।' जिस फैसले के विरुद्ध 1 दिसम्बर को सैकड़ों व्यापारिक संगठनों के आह्वान पर पूरे देश की व्यापारिक  गतिविधियां बन्द रहीं, उसे बनाए रखने के लिए प्रधानमंत्री जिद क्यों कर रहे हैं? ऐसी ही जिद उन्होंने 2008 में परमाणु क्षतिपूर्ति विधेयक को संसद से पारित कराने के लिए की थी। इसी जिद के कारण 'वोट फॉर नोट' कांड हुआ। बड़ी संख्या में सांसद खरीदे गए और परमाणु विधेयक को पारित करा लिया गया। उस समय लोगों ने कहा था कि अमरीकी दबाव के कारण परमाणु विधेयक को पारित कराया गया। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए भी ऐसी ही बातें की जा रही हैं।

सिफारिश दरकिनार

अमरीकी दबाव के कारण इस सरकार ने वाणिज्य मंत्रालय से संबंधित संसदीय स्थाई समिति की उस रपट को भी नहीं माना, जिसमें साफ-साफ कहा गया है कि खुदरा व्यापार में विदेशी कंपनियों को ही नहीं, बल्कि घरेलू बड़े घरानों को भी प्रवेश की अनुमति नहीं देनी चाहिए। यदि ऐसा होता है तो छोटे कारोबारी मुश्किल में पड़ जाएंगे। यह समिति वरिष्ठ भाजपा नेता डा. मुरली मनोहर जोशी की अध्यक्षता में 2007 में बनी थी। इसमें सभी दलों के कुल 42 सांसद शामिल थे। इस समिति ने 18 महीने तक अध्ययन किया और 8 जून, 2009 को संसद के दोनों सदनों के पटल पर अपनी रपट रखी थी। उस रपट पर कभी सरकार ने गौर नहीं किया और इस मुद्दे पर विचार करने के लिए सचिवों की एक समिति बना दी गई। उस समिति ने 22 जुलाई, 2011 को खुदरा बाजार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सिफारिश की। यहां यह कहना गलत नहीं होगा कि जब संसदीय समिति ने प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सिफारिश नहीं की तो सरकार ने नौकरशाहों के माध्यम से इसकी सिफारिश करवा दी। अब उसी आधार पर विदेशी कंपनियों को कुछ शर्तों के आधार पर 24 नवम्बर 2011 को भारत में खुदरा बाजार में काम करने की इजाजत का प्रस्ताव केन्द्रीय मंत्रिमंडल से पारित करवा लिया। सरकार को उम्मीद है कि वह इसे चालू सत्र में संसद के पटल पर रखकर कानून बनवा लेगी। सरकार पर अमरीकी दबाव इतना है कि एक बार फिर 'नोट फॉर वोट' कोड की पुनरावृत्ति कराकर एफडीआई पर मुहर लगवाई जा सकती है।

अमरीकी दबाव

अब सवाल उठता है कि एफडीआई के लिए अमरीका भारत सरकार पर इतना दबाव क्यों डाल रहा है? इसका उत्तर है अमरीकी कंपनी वालमॉर्ट। वालमॉर्ट खुदरा क्षेत्र में काम करने वाली दुनिया की सबसे बड़ी कंपनी है। यह कंपनी 16 देशों में काम करती है और इसकी कुल पूंजी 404 अरब डालर की है। इन दिनों अपने घर अमरीका में ही इस कंपनी पर प्रतिबंध लगा हुआ है। अमरीका में वालमॉर्ट जैसी अनेक कंपनियां हैं। वे दुनिया भर में जो कुछ भी कमाती हैं उसका 35 प्रतिशत हिस्सा अमरीकी सरकार को 'कर' के रूप में देती हैं। चूंकि वालमॉर्ट की कमाई अमरीका में बंद है, इसलिए अमरीकी सरकार भारत सरकार पर दबाव डाल रही है कि वह अपने यहां वालमॉर्ट और अन्य विदेशी कंपनियों को काम करने की इजाजत दे। जबकि इन कंपनियों ने दुनिया के जिन देशों में काम किया है, वहां की आर्थिक स्थिति खराब हो गई है। खुदरा व्यापार पूरी तरह खत्म हो गया है। इस कारण बेरोजगारी बढ़ी है और मंदी छाई हुई है। दुकान के नाम पर बड़े-बड़े मॉल हैं, जहां शुरू-शुरू में कम कीमत पर सामान बेचा जाता था। पर अब वहां सब कुछ महंगा मिलता है। किसी भी देश में ये कंपनियां खुदरा बाजार के नाम पर प्रवेश करती हैं, किंतु वहां के थोक व्यापारियों और उद्योग-धंधों को भी बंद कर देती हैं। पहले ये कंपनियां ग्राहकों को लागत मूल्य से भी कम दर पर सामान बेचती हैं। इस वजह से अन्य कारोबारी इनके सामने टिक नहीं पाते हैं। इसके बाद ये कंपनियां लोगों से जबरदस्त मुनाफा वसूलती हैं। भारतीय उद्योग व्यापार मंडल के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं पूर्व सांसद श्याम बिहारी मिश्र कहते हैं, 'भारत में इन कंपनियों को काम करने की इजाजत देने से पूर्व इन पर श्वेतपत्र जारी किया जाए ताकि इनकी करतूतों से आम लोग परिचित हो सकें।' श्री मिश्र ने एफडीआई को भारत के लिए खतरनाक बताते हुए कहा, 'जिस देश में व्यापारियों के लिए कभी कोई योजना नहीं बनी, उस देश की सरकार को व्यापारियों को बर्बाद करने का अधिकार किसने दिया? सरकार को यह समझ में क्यों नहीं आता कि ये विदेशी कंपनियां धोखाधड़ी के आधार पर काम करती हैं। शर्त के अनुसार ये कंपनियां 70 प्रतिशत माल विदेशों से लाएंगी। तो देशी कंपनियों द्वारा उत्पादित सामान को कौन खरीदेगा? इस प्रकार यहां के उद्योग बंद ही हो जाएंगे। जबकि ये कंपनियां कह रही हैं कि वे केवल खुदरा बाजार में काम करेंगी। यह धोखा नहीं तो क्या है? सरकार कहती है कि 10 लाख से अधिक आबादी वाले शहरों में ही ये कंपनियां काम करेंगी। क्या गारंटी है कि आने वाले समय में ये कंपनियां 5 लाख आबादी वाले शहरों में नहीं जाएंगी? धीरे–धीरे ये कंपनियां छोटे–छोटे बाजार तक पहुंच जाएंगी। इन कंपनियों के कारण लगभग 5 करोड़ थोक विक्रेता, करीब 8 करोड़ खुदरा व्यापारी और साप्ताहिक बाजारों से गुजर–बसर करने वाले लगभग 5 करोड़ लोग बर्बाद हो जाएंगे। इसलिए सरकार के इस फैसले का हर स्तर पर कड़ा और निर्णायक विरोध होना चाहिए।'

कंफेडरेशन आफ आल इंडिया ट्रेडर्स के महासचिव प्रवीण खंडेलवाल कहते हैं, 'एफडीआई से बेरोजगारी और महंगाई दोनों बढ़ेंगी। सरकार कहती है विदेशी कंपनियों के आने से उपभोक्ताओं को फायदा होगा, क्योंकि ये कंपनियां सीधे उत्पादकों से सामान खरीदेंगी और बेचेंगी। बिचौलिए खत्म होने से सामान सस्ता मिलेगा। यह निहायत ही घटिया तर्क है। सरकार को व्यापारियों और उत्पादकों के बीच के बिचौलिए दिखते हैं, पर उसे बड़ी-बड़ी कंपनियों का विज्ञापन करने वाली वे हस्तियां क्यों नहीं दिखती हैं, जो एक विज्ञापन के लिए करोड़ों रुपए लेती हैं। क्या कंपनियां इन्हें अपनी जेब से पैसा देती हैं? बिल्कुल नहीं। यह पूरा पैसा ग्राहकों को 10 रु. की चीज 100 रु. में बेचकर इकट्ठा किया जाता है। जबकि बिचौलिए तो बहुत ही कम मुनाफे पर काम करते हैं।'

 

जो भारतीय बाजार पहले से ही चीन निर्मित वस्तुओं से भरा पड़ा है, और भारतीय उद्योग बंदी के कगार पर पहुंच रहे हैं, उनके ताबूत में एफडीआई रूपी अंतिम कील ठोंकी जा रही है।

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