स्वामी विवेकानंद अमरीका क्यों गए?
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स्वामी विवेकानंद अमरीका क्यों गए?

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Dec 31, 2011, 12:00 am IST
in Archive
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मंथन

दिंनाक: 31 Dec 2011 15:36:58

 देवेन्द्र स्वरूप

स्वामी विवेकानंद की 150वीं जयंती-3

कभी-कभी यह सोचकर विचित्र लगता है कि स्वामी विवेकानन्द ने सन् 1897 में केवल 34 वर्ष की अल्पायु से ही अपने प्रत्येक पत्र में यह घोषणा करनी शुरू कर दी थी कि उनका जीवन कार्य पूर्ण हो चुका है और उनकी आयु के केवल 4-5 वर्ष ही शेष बचे हैं। 1890 से मृत्युपर्यन्त प्रत्येक पत्र में उन्होंने स्मरण दिलाया कि वे अपने गुरुदेव श्री रामकृष्ण देव के उपकरण मात्र हैं और उनके द्वारा निर्धारित किया गया कार्य ही मेरा जीवन-कार्य है, जिसे पूरा करने के लिए उन्होंने मुझे अमरीका भेज दिया। 28 मार्च, 1900 को सान फ्रांसिस्को से भगिनी निवेदिता को उन्होंने लिखा कि मेरे जीवन की दो ही उल्लेखनीय घटनाएं हैं- एक वह जब मैं श्री रामकृष्ण देव की ओर आकृष्ट हुआ और दूसरी वह जिसने मुझे संयुक्त राज्य अमरीका भेज दिया। निश्चय ही दोनों घटनाएं एक-दूसरे की पूरक हैं। एक ने विवेकानन्द को उनके जीवन-कार्य के लिए तैयार किया और दूसरी ने उस जीवन-कार्य को पूरा करने का अवसर दिया। दोनों में गुरुदेव रामकृष्ण परमहंस ही प्रेरक शक्ति थे। इस सत्य को स्वामी विवेकानन्द के गुरुभाई स्वामी अखण्डानन्द ने 7 अप्रैल, 1926 को रामकृष्ण मिशन व मठ के पहले सम्मेलन में समापन भाषण करते समय इन शब्दों में रखा, “वस्तुत:, गुरुदेव और स्वामी जी एक और अभिन्न हैं। उनके व्यक्तित्व अलग-अलग दीखने पर भी उनके भीतर एक ही प्राणशक्ति प्रतिबिम्बित हो रही है। गुरुदेव में यदि वह बीज रूप में हैं तो स्वामी जी में उसका पूर्ण विकास हुआ है। श्री रामकृष्ण के लिए स्वामी जी का वही स्थान है जो वेदान्त-सूत्रों के लिए उनके भाष्यों का है। वे एक- दूसरे के पूरक हैं। वस्तुत: वे अभिन्न हैं- एक ही सिक्के के दो पक्षों की तरह।”

जीवन कार्य पूर्ति की घोषणा

अगस्त, 1900 में फ्रांस से अपने गुरुभाई स्वामी तुरीयानन्द को विवेकानन्द जी ने लिखा, “मेरा कार्य मैं समाप्त कर चुका हूं। गुरु महाराज का मैं ऋणी था- प्राणों की बाजी लगाकर मैंने उस ऋण को चुकाया है। यह बात तुम्हें कहां तक बतलाऊं?… मैंने हस्ताक्षर कर दिये हैं। अब जो कुछ मैं करूंगा, वह मेरा निजी कार्य होगा… अब मैं अपना कार्य करने जा रहा हूं। गुरु महाराज के ऋण को अपने प्राणों की बाजी लगाकर मैंने चुकाया है। अब मेरे लिए उनका कोई कर्ज चुकाना शेष नहीं है और न उनका ही मुझ पर कोई दावा है। … तुम लोग जो कर रहे हो, वह गुरु महाराज का कार्य है, उसे करते रहो। मुझे जो करने का था, मैं कर चुका, बस!”

इसी बात को और अधिक स्पष्ट करते हुए स्वामी जी ने 25 अगस्त, 1900 को पेरिस से भगिनी निवेदिता को एक पत्र में लिखा, “ब्रिटिश काउंसिल आफिस जाकर मैंने ट्रस्ट के दस्तावेजों पर हस्ताक्षर कर दिये हैं… अब मैं स्वतंत्र हूं, किसी बंधन में नहीं हूं, क्यांकि रामकृष्ण मिशन के कार्यों में अब मेरा कोई अधिकार, कर्तृत्व या किसी पद का दायित्व नहीं है। मैं उसके सभापति पद को भी त्याग चुका हूं। अब यह आदि का सब  उत्तरदायित्व श्री रामकृष्ण देव के अन्य साक्षात शिष्यों पर है, मुझ पर नहीं।… अब यह सोचकर मुझे बहुत आनन्द हो रहा है कि मेरे मस्तक से एक भारी बोझ दूर हो गया है। मैं अब अपने को विशेष सुखी अनुभव कर रहा हूं। लगातार बीस वर्ष तक मैंने श्री रामकृष्ण देव की सेवा की- चाहे उसमें कुछ भूलें हुई हों या कुछ सफलता मिली हो। अब मैंने कार्य से छुट्टी ले ली है।” अपनी दीक्षित शिष्या भगिनी निवेदिता के मार्गदर्शन का दायित्व भी श्री रामकृष्ण को सौंपते हुए 12 फरवरी, 1902 को वाराणसी से निवेदिता को लिखा, “यदि श्रीरामकृष्ण देव सत्य हों तो उन्होंने जिस प्रकार मेरे जीवन में मार्गदर्शन किया है, ठीक उसी प्रकार अथवा उससे भी हजार गुना स्पष्ट रूप से वे तुम्हें भी मार्ग दिखाकर अग्रसर करते रहें।”

स्वामी जी के उपरोक्त उद्गारों के प्रकाश में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि श्री रामकृष्ण देव के अवतारी जीवन का मूल संदेश क्या था? वेदान्त के जिस व्यावहारिक रूप को उन्होंने अपनी जीवन-साधना में प्रगट किया, वह क्या है? स्वामी विवेकानन्द ने उनके द्वारा निर्धारित जीवन कार्य के कितने अंश को 1886 में गुरुदेव की महासमाधि से लेकर 1897 में कार्य पूर्ति की घोषणाओं तक के 9 वर्ष के कालखंड में पूरा किया और कौन- सा अंश  अपने गुरुभाईयों और देशवासियों को सौंपकर वे अपने महाप्रयाण की शान्तिपूर्वक प्रतीक्षा करने लगे? इन प्रश्नों का उत्तर पाने के लिए हमें रामकृष्णदेव की महासमाधि से लेकर जनवरी, 1897 में भारत वापसी तक स्वामी जी की गतिविधियों का विहंगम अवलोकन करना होगा।

परिव्राजक संन्यासियों के मार्गदर्शक

श्री रामकृष्ण देव की प्रत्यक्ष छत्रछाया से वंचित होने के बाद, उनकी अंतिम इच्छा की पूर्ति के लिए उनके द्वारा एकत्रित युवा ब्रह्मचारी मंडली को जोड़े रखना, उसे कठोर बौद्धिक-आध्यात्मिक साधना के द्वारा संन्यास-व्रत के लिए तैयार करना, इसके लिए एक मठ की स्थापना करना उनके भरण-पोषण की व्यवस्था करना, इसके लिए श्री रामकृष्ण के गृहस्थ शिष्यों के साथ मठ का संबंध बनायें रखना। जनवरी, 1887 में विराज होम में सब युवा ब्रह्मचारियों को संन्यासी नाम देकर नरेन्द्र ने गुरुदेव के प्रति अपना यह पहला दायित्व पूरा किया। फिर संन्यासी मंडली के सभी सदस्य भारत-दर्शन के लिए अकेले या दुकेले देश के विभिन्न भागों में अधिकांशत: पैदल ही यात्रा पर निकले। स्वामी अखण्डानन्द तिब्बत तक पहुंच गये। बिना पैसे, बिना परिचय, बिना ऊनीवस्त्रों के, केवल भिक्षा पर निर्भर रह कर वे केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री, यमनोत्री जैसे दुर्गम, हिंस्र पशुओं से भरे हुए घने जंगलों को पार करते रहे। रामकृष्ण देव की इस शिष्य मंडली के अनुभवों की यह रोमांचकारी गाथा उनकी आत्मकथाओं में वर्णित है। अद्वैत आश्रम द्वारा प्रकाशित “गॉड लिव्ड विद दैम” (ईश्वर उनके साथ रहे)  शीर्षक पुस्तक में इन सोलह संन्यासियों के संक्षिप्त जीवन-वृत्त में उसकी कुछ झलक मिल जाती है। इस प्रारंभिक तीर्थयात्रा के बहाने इन संन्यासियों को भारतीय समाज के यथार्थ को कुछ मात्रा में देखने-जानने का अवसर मिला।

इन यात्राओं में कुछ दूर तक नरेन्द्र भी, जिन्होंने अपना संन्यासी नाम उन दिनों विविधीशानन्द धारण किया हुआ था, अपने गुरुभाईयों के साथ भ्रमण-भेंट करते रहे। किन्तु 1891 के जनवरी अंत में वे अकेले ही परिव्राजक वेष में भारत की पैदल यात्रा पर निकल पड़े। इस यात्रा के दौरान वे राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, मैसूर व मद्रास प्रान्तों में रामनद और कन्याकुमारी तक गए। इस यात्रा के दौरान उन्होंने अलवर, खेतड़ी, लिमड़ी, मैसूर, रामनद आदि अनेक रियासतों के नरेशों, उनके दीवानों को अपने तेजस्वी व्यक्तित्व से प्रभावित किया। मद्रास में आलासिंगा पेरूमल, जी.जी. नरसिंहाचारी, सुब्रह्मण्यम अय्यर, डा. नान्जुन्दाराव जैसे संवेदनशील, बुद्धिमान शिष्यों का संच खड़ा किया। उन दिनों पूरे भारत के शहरों में उच्च प्रशासकीय, न्यायिक एवं शैक्षणिक पदों पर उच्च शिक्षा प्राप्त बंगाली अधिकारी नियुक्त थे। सहज ही, इन अधिकारियों का आश्रय व सहयोग परिव्राजक विविधीशानन्द को प्राप्त हुआ। इससे भी बड़ा लाभ यह हुआ कि उत्तर से दक्षिणी छोर पूरे भारत की पैदल यात्रा से इस परिव्राजक संत को भारतीय समाज में व्याप्त गरीबी, अशिक्षा, अन्धविश्वास, कर्मकांड, छुआछूत, बाल विवाह, कठोर जाति-प्रथा, नारी दुर्दशा जैसी अनेक विध कुरीतियों को अपनी आंखों से देखने का अवसर मिला। इन सब अनुभवों ने उनके संवेदनशील अन्त:करण में गहरी वेदना उत्पन्न की, जिससे रामकृष्ण परमहंस की वेदान्त साधना के व्यावहारिक रूप का उन्हें साक्षात्कार हुआ और इन सब व्याधियों से भारत को मुक्त करने का संकल्प उनके अन्त:करण में दृढ़तर होता गया।

विविधीशानंद से विवेकानंद

पर इतना बड़ा और दुष्कर संकल्प पूरा कैसे होगा? उसके लिये मानवी और भौतिक साधन कहां से प्राप्त होंगे? यह द्वन्द्व उनके मन में चलता रहा। इसी बीच मद्रास की जागरूक शिष्य मंडली ने स्वामी जी के अमरीका के शहर शिकागो में होने वाली विश्व धर्म संसद  में हिन्दू धर्म का प्रतिनिधित्व करने का आग्रह किया। उसके लिये आर्थिक साधन कहां से जुटेंगे, प्रतिनिधित्व का परिचय पत्र कौन देगा? आदि प्रश्न उनके सामने खड़े हो गए। मद्रासी शिष्यों ने आर्थिक साधन जुटाने की कोशिश की किन्तु उन दिनों तो स्वामी जी का नाम भी कोई नहीं जानता था, उनके त्याग, वक्तृत्व, पाण्डित्य की कोई छाप देश पर नहीं पड़ी थी। किन्तु कोई अदृश्य शक्ति उन्हें अमरीका जाने के लिए धकेलती रही और अन्तत: खेतड़ी नरेश राजा अजीत सिंह ने उनकी अमरीका यात्रा की व्यवस्था कर दी और वे 31 मई, 1893 को बम्बई बन्दरगाह से अमरीका के लिए रवाना हो गए। राजा अजीत सिंह की प्रार्थना पर ही उन्होंने विविधीशानन्द जैसे लम्बे नाम की जगह विवेकानन्द नाम को धारण किया। इस नाम परिवर्तन के कारण ही कलकत्ता के उनके गुरुभाईयों को भी कई महीने तक यह पता नहीं चल पाया कि शिकागो धर्म सम्मेलन में जिस युवा संन्यासी के ओजस्वी प्रबोधनों ने धूम मचा दी है वह और कोई नहीं उनका गुरुभाई नरेन्द्र या विविधीशानन्द ही है, और अब उसे पूरा अमरीका व अमरीका के माध्यम से भारतवर्ष विवेकानन्द के रूप में पहचानता है।

पर मुख्य प्रश्न यह है कि अमरीका जाने के पीछे विवेकानन्द का उद्देश्य क्या था? उनकी मनोवेदना क्या थी? उनकी कार्य योजना क्या थी? अमरीका यात्रा का निश्चय मन में कर लेने के बाद स्वामी जी ने 20 सितम्बर, 1892 को बम्बई से खेतड़ी निवासी पं. शंकरलाल को लिखा कि “हम लोगों को विदेशों की यात्रा करनी चाहिए। यदि हम अपने को एक सुसंगठित राष्ट्र के रूप में देखना चाहते हैं तो हमें यह जानना चाहिए कि दूसरे देशों में किस प्रकार की सामाजिक व्यवस्था चल रही है। साथ ही हमें मुक्त हृदय से दूसरे राष्ट्रों से विचार-विनिमय करते रहना चाहिए। सबसे बड़ी बात तो यह है कि हमें गरीबों पर अत्याचार करना एकदम बन्द कर देना चाहिए। किस हास्यास्पद दशा में हम पहुंच गये हैं। यदि कोई भंगी हमारे पास भंगी के रूप में आता है तो हम उसके स्पर्श से छूत ही बीमारी की तरह दूर भागते हैं। परन्तु जब उसके सिर पर एक कटोरा पानी डालकर कोई पादरी कोई प्रार्थना गुनगुना देता है और उसे पहनने को एक कोट मिल जाता है- भले वह कितना ही फटा पुराना क्यों न हो, तब कट्टर से कट्टर हिन्दू के कमरे में उसे प्रवेश मिल जाता है। उसके लिए कहीं कोई रोक-टोक नहीं। कोई नहीं जो उसे सप्रेम हाथ मिलाकर उसे बैठने के लिए कुर्सी न दे, इससे अधिक विडम्बना की बात और क्या हो सकती है? आईये, देखिये तो सही, दक्षिण भारत के पादरी लोग क्या गजब कर रहे हैं। ये लोग नीची जाति के लोगों को लाखों की संख्या में ईसाई बना रहे हैं।”

नवयुवकों से खरी-खरी

अमरीका यात्रा के लिए जहाज में बैठने के बाद जापान के याकोहामा शहर से 10 जुलाई, 1893 को स्वामी जी ने मद्रास के आलासिंगा और अन्य शिष्यों को लिखा- “चीनी और भारतीयों को नितान्त दरिद्रता ने ही उनकी संस्कृतियों को निर्जीव बना रखा है। साधारण हिन्दू या चीनी के लिए उसका अभावग्रस्त दैनिक जीवन इतना भयंकर लगता है कि उसे और कुछ सोचने की फुर्सत ही नहीं। वे आगे लिखते हैं, “जापानी लोगों के लिए आज भारतवर्ष सर्वोच्च और सर्वश्रेष्ठ वस्तुओं का स्वप्न राज्य है। और तुम लोग क्या कर रहे हो?… आओ और इन लोगों को देखो और उसके बाद जाकर लज्जा से मुंह छिपा लो। सठियाई बुद्धि वालो, तुम्हारी तो देश से बाहर निकलते ही जाति चली जाएगी। अपनी खोपड़ी में सैकड़ों वर्षों के अन्धविश्वास का कूड़ा-करकट भरे बैठे, सैकड़ों वर्षों से केवल आहार के शुद्ध-अशुद्ध के झगड़े से अपनी शक्ति नष्ट करने वाले, सैकड़ों युगों के सामाजिक अत्याचार से जिनकी सारी मानवता का नाश हो चुका है, भला बताओ तो सही तुम कौन हो और कर क्या रहे हो? मूर्खों, किताब हाथ में लिए तुम केवल समुद्र के किनारे रह रहे हो, यूरोपियों के मस्तिष्क से निकली हुई बातों को बेसमझे दोहरा रहे हो। बीस रुपये की मुंशीगिरि के लिए और बहुत हुआ तो वकील बनने के लिए जी-जान से तड़प रहे हो। यही है भारतवर्ष के नवयुवकों की सबसे बड़ी महत्वाकांक्षा? …क्या समुद्र में इतना पानी भी न रहा कि तुम उसमें विश्वविद्यालय के डिप्लोमा, गाउन और पुस्तकों  के समेत डूब मरो। आओ, मनुष्य बनो। उन पाखण्डी पुरोहितों को, जो प्रगति के मार्ग में सदैव बाधक रहे हैं, बाहर निकाल दो, क्योंकि उनका सुधार कभी न होगा। उनके हृदय कभी  विशाल न होंगे। क्या तुम्हें मनुष्य से प्यार है? क्या तुम्हें अपने देश से प्रेम है? यदि “हां”, तो आओ। हम लोग श्रेष्ठता और उन्नति के मार्ग में प्रयत्नशील हों। पीछे मुड़कर मत देखो। अत्यन्त निकट और प्रिय संबंधी रोते हों तो रोने दो, पीछे देखो ही मत। केवल आगे बढ़ते जाओ। भारत माता कम से कम एक हजार युवकों का बलिदान चाहती है- मेधावी युवकों का-जड़-बुद्धियों का नहीं।… मद्रास ऐसे कितने नि:स्वार्थी और सच्चे युवक देने को तैयार है जो गरीबों के लिए सहानुभूति रखकर, भूखों को अन्न देने के लिए और सर्वसाधारण में नवजागृति का प्रचार करने के लिए प्राणों की बाजी लगाने को तैयार हैं।”

गरीबों-पिछड़ों-उत्पीड़ितों के लिए दर्द

अमरीका पहुंचकर विश्व धर्म सम्मेलन में ख्याति अर्जित करने के तुरन्त बाद 20 अगस्त, 1893 को मैसाचुएट्स नामक स्थान से स्वामी जी ने आलासिंगा को लिखा कि यहां आकर जब मैंने अपने देश की दशा पर सोचा तो मेरे प्राण बेचैन हो गए। भारतवर्ष में हम लोग गरीबों को, साधारण जन को, पतितों को कैसे देखते हैं? उनके लिए न कोई उपाय है, न बचने की राह, और न उन्नति का कोई मार्ग, भारत के दरिद्रो का, भारत के पतितों का, भारत के पापियों का कोई साथी नहीं है, उन्हें सहायता देने वाला कोई नहीं है … वे दिन पर दिन डूबते जा रहे हैं, राक्षस जैसा नृशंस समाज उन पर लगातार जो चोटें कर रहा है, उसका अनुभव तो वे खूब कर रहे हैं पर वे यह नहीं जानते कि ये चोटें कहां से आ रही है, वे भूल गए हैं कि वे भी मनुष्य हैं, इसका फल हुआ है दास भाव और पशुवृत्ति। कुछ चिन्तनशील, कुछ समय से समाज की यह दुर्दशा समझने लगे हैं। परन्तु दुर्भाग्यवश वे हिन्दू घर्म के माथे ये सारे दोष मढ़ रहे हैं। वे सोचते हैं कि जगत के इस सर्वश्रेष्ठ धर्म का नाश ही समाज की उन्नति का एकमात्र उपाय है। सुनो मित्र, प्रभु की कृपा से मुझे इसका रहस्य पता चल गया है। शेष धर्म का नहीं है। इसके विपरीत तुम्हारा धर्म तो तुम्हें सिखाता है कि संसार के सभी प्राणी तुम्हारी आत्मा के ही विविध रूप हैं। समाज की वर्तमान हीनावस्था का कारण है इस तत्व को व्यावहारिक आचरण में लाने का अभाव, सहानुभूति का अभाव- हृदय का अभाव। … समाज की यह दशा दूर करनी होगी, परन्तु धर्म का नाश करके नहीं अपितु हिन्दू धर्म के महान उपदेशों का अनुसरण करके। साथ ही, हिन्दू धर्म और उसी की एक परिणति बौद्ध धर्म की अपूर्व सहृदयता को अपना कर लाखों स्त्री-पुरुषों के पवित्रता के अग्निमंत्र से दीक्षित होकर, भगवान के प्रति अटल विश्वास से शक्ति बनकर, गरीबों, पतितों तथा पददलितों के प्रति सहानुभूति लेकर, सिंह के समान साहसी बन पूरे भारत देश में उद्धार, सेवा, सामाजिक उत्थान और समानता का सन्देश घर-घर पहुंचाने के लिए विचरण करना होगा। …दु:खियों का दर्द समझने और ईश्वर से सहायता की प्रार्थना करो तो सहायता  अवश्य मिलेगी। मैं बारह वर्ष तक हृदय में यह बोझ लादे और सिर पर यह विचार लादे बहुत से तथाकथित धनिकों और अमीरों के द्वार-द्वार भटका। उन्होंने मुझे केवल कपटी समझा। हृदय का रक्त बहाते हुए मैं आधी पृथ्वी का चक्कर लगाकर इस विदेश में सहायता मांगने आया … मैं इस देश में भूख या जाड़े से भले ही मर जाऊं परन्तु मद्रासवासी युवको, मैं गरीब, पिछड़े और उत्पीड़ितों के लिए इस सहानुभूति और प्राणपण से प्रयत्न के थाती के तौर पर तुम्हें अर्पण करता हूं…।” क्रमश:

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