केशर की क्यारी
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केशर की क्यारी

by
Dec 10, 2011, 12:00 am IST
in Archive
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साहित्यिकी

दिंनाक: 10 Dec 2011 16:23:25

डा. महेन्द्रनाथ तिवारी

दूषित हवाओं की दिशा को मोड़ दीजिए,

पथ पाकपरस्ती का बन्धु छोड़ दीजिए!!

केशर की क्यारियों में जो बारूद बो रहे,

नाता उन जिहादी जालिमों से तोड़ लीजिए!!

यह भूल ही नहीं है बल्कि देशद्रोह है,

अधम-पापी गोकसों से न गठजोड़ कीजिए!!

कश्यप ऋषि के तप का परम पुण्य कश्मीर,

जो भी उठे हाथ उस हाथ को मरोड़ दीजिए!!

अक्षत, अजस्र, अविरल, अधिरथ अजेय है,

हरिओम् हिन्दुस्थान से न होड़ कीजिए!!

यक्ष प्रश्न

जब रंग हर मनुज के शोणित का लाल है!

क्यों जाति-पंथ-सम्प्रदाय का बवाल है?

अब तो न हैं अंग्रेज, न इस्लाम का कहर,

क्यों हो रही गोमाता अब भी हलाल है?

जब एक देश अपना और एक संविधान,

फिर अलग नागरिकता का क्या सवाल है?

आधी सदी गुजर चुकी हमको हुए आजाद,

क्यों भग्न पड़ा आज भी भारत का भाल है?

गैरों ने जो किया वही अपने भी कर रहे,

मां भारती को इसका हार्दिक मलाल है।।

भारत-चीन संबंध

यथार्थ के धरातल की तलाश

कोलकाता स्थित “चीनी काउंस्लेट” ने पिछले दिनों पश्चिम बंगाल सरकार को एक चिट्ठी लिखकर यह “निर्देश” दिया कि राज्य के राज्यपाल एवं मुख्यमंत्री को कोलकाता में आयोजित होने वाले उस कार्यक्रम में भाग नहीं लेना चाहिए जिसमें तिब्बत के धर्मगुरु दलाई लामा भाग ले रहे हैं। यह अलग बात है कि पश्चिम बंगाल सरकार ने चीन सरकार द्वारा दिये गये इन निर्देशों, उनके अनुसार सुझावों, पर अमल करने से इनकार कर दिया। लेकिन प्रश्न यह है कि चीन सरकार और उसके दूतावास की इस प्रकार की चिट्ठी लिखने की हिम्मत कैसे हो गई? इस हिम्मत के पीछे शायद भारत सरकार का आचरण एवं व्यवहार ही कारण हो सकते हैं, क्योंकि कोलकाता के इस घटनाक्रम से दो दिन पहले ही दिल्ली में हो रहे अन्तरराष्ट्रीय बौद्ध सम्मेलन में चीन सरकार की धमकियों के आगे घुटने टेकते हुए भारत सरकार ने दलाई लामा की प्रेस कांफ्रेंस नहीं होने दी। इतना ही नहीं, राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री ने भी इस सम्मेलन में भाग लेने से किनारा किया, क्योंकि सम्मेलन में दलाई लामा आ रहे थे। जिस सम्मेलन में दलाई लामा भाग ले रहे हों, उस सम्मेलन में किसी सरकारी महत्वपूर्ण व्यक्ति को नहीं जाना चाहिए, ऐसे निर्देश चीन सरकार समय-समय पर देता रहता है। शायद इन्हीं “निर्देशों” का पालन करते हुए भारत सरकार ने बाकायदा एक चिट्ठी लिखकर केन्द्र सरकार के सभी मंत्रियों को प्रतिबंधित कर रखा है कि जिस कार्यक्रम में दलाई लामा भाग ले रहे हों, उसमें वे भाग न लें। कुछ विश्लेषकों को लगता था कि भारत के राष्ट्रपति तथा प्रधानमंत्री शायद अपने आपको चीन के इस “प्रतिबंध” से मुक्त रखेंगे, लेकिन उन विश्लेषकों को भी निराशा ही हाथ लगी।

यह ठीक है कि भारत सरकार स्वयं अपनी पीठ थपथपा रही है कि उसने चीन की परवाह न करते हुए दलाई लामा को दिल्ली के इस बौद्ध सम्मेलन में भाग लेने से नहीं रोका। लेकिन ध्यान रखना चाहिए यदि सरकार दलाई लामा को इससे रोकती तो उसकी भारत में ही नहीं बल्कि विश्व भर में उपहासस्पद स्थिति हो जाती। यह ठीक है कि भारत सरकार चीन की परवाह न करते हुए दलाई लामा को तवांग जाने की, दिल्ली के बौद्ध सम्मेलन में भाग लेने की अनुमति दे देती है। ऐसे समय में प्रसिद्ध पत्रकार अरुण शौरी की पुस्तक “भारत-चीन संबंध” का प्रकाशन व अध्ययन समसामयिक ही नहीं, बल्कि “साउथ ब्लाक” के लिए अनिवार्य भी है। अरुण शौरी की विवेच्य पुस्तक “भारत-चीन संबंध” मूल रूप से अंग्रेजी भाषा में लिखी गई है। इसका हिन्दी अनुवाद ईशा गुप्ता ने किया है। “पुरोवाक्” पढ़ने से लगता है शौरी को पुस्तक लिखने की आवश्यकता ओलम्पिक खेलों के दौरान चीन में तिब्बितयों पर हुए अमानुषिक अत्याचार और दिल्ली में चीन को खुश करने की नीयत से विरोध प्रदर्शन कर रहे निर्वासित तिब्बितयों का दमन किये जाने से मिली। यही कारण है कि अरुण शौरी ने अपनी किताब का आधार पांचवें-छठे दशक के पंडित नेहरू के भाषणों और लेखों को ही बनाया है और उनका आलोचनात्मक विश्लेषण प्रस्तुत कर नेहरू की चीन नीति का भारत और तिब्बत के लिए होने वाले घातक परिणामों की ओर संकेत किया है। अपने महत्वपूर्ण निष्कर्षों में वे लिखते हैं-

1-याद रखें कि भारत की सुरक्षा तिब्बत के साथ जुड़ी हुई है।

2-क्या आपको लगता है कि ओलम्पिक मशाल दौड़ का आयोजन करने में जो कायरता हमने दिखाई, क्या बीजिंग में भी उसका आयोजन ऐसे ही सावधानीपूर्ण ढंग से किया गया था? इसके लिए उन्हें हमारा आभारी होना चाहिए अथवा इसे हमारा भय मानना चाहिए जिसका कि वे लाभ उठा सकते हैं? हम चीन के साथ जो भयभीत राष्ट्र जैसा व्यवहार कर रहे हैं उसमें वह हमारा आभारी होता है अथवा हमें कमजोर समझकर हमें और भी दबाता है?

इस प्रश्न का उत्तर भी शौरी स्वयं ही देते हैं। वे लिखते हैं, “चीनी दु:साहस के प्रति हमारी प्रतिक्रिया बहानों, नीति रूपी आशा तथा बार-बार कहे जाने वाले इन शब्दों पर निर्भर है जो “उचित माध्यम” द्वारा “हमारी निराशा तथा चिंता” को व्यक्त करते हैं, जिनका परिणाम हम एक बार पहले भी सन् 1962 के युद्ध के रूप में भुगत चुके हैं।”

दरअसल भारत की चीन समस्या तब उत्पन्न हो गई थी जब पंडित नेहरू ने तिब्बत के मामले में चीन के सामने आत्मसमर्पण कर दिया था। भारत और तिब्बत की सीमा को रेखांकित करने के लिए यद्यपि मैकमोहन रेखा थी, लेकिन चीन ने इसे स्वीकार ही नहीं किया था। माओ द्वारा सत्ता पर कब्जा कर लेने के बाद भी चीन अपने मानचित्रों में तिब्बत को तो चीन का हिस्सा दिखा ही रहा था, भारत के भी बहुत बड़े हिमालयी भू-भाग को भी चीन का ही हिस्सा बता रहा था। इसका स्पष्ट अर्थ था कि यदि भारत सरकार तिब्बत को चीन का हिस्सा मानती है तो नई स्थिति में जो भारत-चीन सीमा बनेगी, वह चीन की दृष्टि में विवादित ही रहेगी। आश्चर्य है कि यह सब कुछ जानते हुए भी पंडित नेहरू तिब्बत को चीन का हिस्सा मानने की जिद पर अड़े रहे। आखिर चीन के प्रति ऐसा कौन-सा आकर्षण है जिसके वशीभूत होकर देश के नीति-निर्माता चीन के आगे दब्बू ही नहीं बनते हैं बल्कि भारतीय हितों के विपरीत आचरण भी करते हैं? महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या भारत सरकार चीन की प्रकृति व व्यवहार से अब तक भी कुछ सीख पाई है या नहीं? पंडित नेहरू भी 1962 के आक्रमण के बाद चीन की नीयत को समझ गये थे। यह अलग बात है कि वे चीन द्वारा दिए गए घावों पर मरहम लगाने में स्वयं को असहाय समझने लगे थे। परंतु लगता है भारत सरकार चीन को लेकर अभी भी 1962 से पूर्व की स्थिति पर ही अटकी हुई है। उसका व्यवहार और नीति अभी भी चीन के प्रति वही है जो पं. नेहरू की 50 के दशक में रही थी।

यहां यह जानना रुचिकर होगा कि चीन के नीति-निर्माता भारत की नीति और प्रकृति के बारे में क्या सोचते हैं? एक दूसरा उदाहरण, माओ की दृष्टि में, “भारतीय दार्शनिकता सिर्फ खोखले शब्दों का भंडार हैं।” अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति निक्सन ने माओ से लम्बी बातचीत के बाद निष्कर्ष निकाला “चीनी रूसियों से अब भी नफरत करते हैं तथा उनसे भयभीत हैं। जापानियों से भी वे अब तक भयभीत हैं, परंतु उनसे नफरत नहीं करते। भारतीयों से वे घृणा करते हैं।” सम्पूर्ण ग्रंथ में अरुण शौरी द्वारा उठाया गया एक यक्ष प्रश्न गूंज रहा है, “चीन को जानते-बूझते हुए भी “साउथ ब्लाक” (भारतीय सत्ता का केन्द्र) यथार्थ के धरातल पर क्यों नहीं उतरता?”     द  प्रो.कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

पुस्तक   – भारत-चीन संबंध

लेखक –     अरुण शौरी

प्रकाशक      –     प्रभात प्रकाशन

4/19 आसफ अली रोड, नई दिल्ली-02

मूल्य  –     300 रु., पृष्ठ- 225

सम्पर्क : (011) 23289777

बिन पानी सब सून

“जल ही जीवन है” यह नारा हम सभी को जहां-तहां दिखता रहता है। इसे हर कोई जानता भी है लेकिन इसके प्रति जिस गंभीरता से सोचने और समझने की आवश्यकता है, वह कहीं नहीं नजर आती है। इसके कारण ही हमारे देश में जल संकट दिन-प्रतिदिन गहराता जा रहा है। जीवन के लिए आवश्यक इस मूलभूत तत्व से जुड़ी अनेक तरह की वैज्ञानिक जानकारियां, आने वाले समय में उत्पन्न होने वाले संकट, किए जा सकने वाले उपाय, आसन्न संकटों के कारण और जल से संबंधित हमारी समृद्ध परम्पराओं के बारे विस्तार से विश्लेषित करती पुस्तक “और पानी उतर गया” हाल ही में प्रकाशित होकर आई है। रसायन विज्ञान के व्याख्याता और सामाजिक पर्यावरणीय विषयों के प्रति चिंतनशील लेखक के.एम.तिवारी ने इस पुस्तक के माध्यम से जल संकट को बहुत व्यापक स्तर पर व्याख्यायित किया है।

“अपनी बात” में लेखक कहते हैं, “हमारी परम्पराएं, संस्कार, रीति-रिवाज और आदतें पानी से जुड़ी थीं। देशभर में प्रकृति ने नदियों का जाल बिखेरा था, वहीं कदम-कदम पर तालाब, कुएं और बाबड़ियां बनवाकर समाज में सेवा के उत्कृष्ट उदाहरण पेश किए जाते थे। दुर्भाग्य से यह उत्कृष्ट परम्परा टूटकर बिखर गई। धरती सूखती और बंजर होती गई। आज भारत पानी के लिए जूझता और तरसता देश बन गया है।” पुस्तक के पहले अध्याय “हमसे दूर जाता पानी” में लेखक ने जो विवरण और उनके आधार पर जो विश्लेषण किया है उससे स्पष्ट होता है कि अगर हम सभी जागरूक न हुए तब आने वाले कुछ वर्षों में उत्पन्न होने वाले जल संकट की हम कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। “आज के भगीरथ” शीर्षक अध्याय में लेखक ने कई ऐसे सामान्य लोगों के जल संरक्षण के प्रयासों के बारे में बताया है, जिन्होंने प्रतिकूल परिस्थितियों में भी हौसला न खोते हुए, एक मिसाल कायम की और पानी के लिए तरसते समुदाय को जीवन दिया। पंजाब के संत सींचेवाल, राजस्थान के मेधा जी, जयपुर के निकट मोम्बी गांव के निवासी, उदयपुर की दुर्गा भंडारी, धमतरी (छत्तीसगढ़) के महिपाल जैसे अनेक प्रेरक व्यक्तियों के बारे में इसमें बताया गया है, जिन्होंने अपना जीवन जल संरक्षण और उसे प्रदूषण मुक्त रखने के लिए समर्पित कर दिया। अगले अध्याय “सभी धर्मों में पूज्य पानी” में लेखक ने अनेक उद्धरणों के द्वारा यह सिद्ध किया है कि सभी मत-पंथों ने पानी को पूज्य जीवनदायिनी शक्ति माना है और इसे संरक्षित रखने की बात कही है। “पानी का सच” अध्याय में पानी की देश में और प्रकृति में मौजूदगी, बढ़ती आबादी और उसके दुरुपयोग से उपजी स्थितियों के बारे में लेखक ने विस्तृत जानकारी दी है। “पानी में घुलता जहर” में जल प्रदूषण से संबंधित आंकड़े बेहद चौंकाने वाले और गंभीर संकट को प्रदर्शित करने वाले हैं। निष्कर्ष रूप में लेखक का स्पष्ट मानना है कि अभी अगर लोगों में जागरूकता आ जाए, जल प्रबंधन की उचित व्यवस्था हो जाए तो स्थितियां विस्फोटक नहीं होंगी। अन्यथा दुष्परिणाम के लिए हम सभी जिम्मेदार होंगे। द विभूश्री

पुस्तक   – और पानी उतर गया

लेखक –     के.एम. तिवारी

प्रकाशक      –     राजकमल प्रकाशन प्रा. लि.

1 बी, नेताजी सुभाष मार्ग, नई दिल्ली-02

मूल्य  –     150 रु., पृष्ठ   – 108

वेबसाइट : www.rajkamalprakashan.com

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