मंथन
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मंथन
देवेन्द्र स्वरूप
प.बंगाल और केरल में पराजय से मुरझाये कम्युनिस्ट नेताओं और माक्र्सवादी बौद्धिकों के चेहरों पर फिर से कुछ चमक दिखायी देने लगी है। इस चमक का कारण भारत में नहीं, अमरीका और यूरोप में फैल रही जन असंतोष की लहर में है। भारतीय कम्युनिस्ट इस जन असंतोष में पूंजीवाद की पराजय देख रहे हैं और उनका विश्वास है कि पूंजीवाद की पराजय का अर्थ है माक्र्सवाद की वापसी। इस कल्पना से उत्साहित होकर उन्होंने भारत में भी अमरीका के “वाल स्ट्रीट पर कब्जा करो” आंदोलन की तर्ज पर “दलाल स्ट्रीट पर कब्जा करो” नारे के साथ 4 नवंबर से आंदोलन शुरू करने की घोषणा कर दी है। यह सच है कि अमरीका और यूरोप के देश जिस गंभीर अर्थ संकट से गुजर रहे हैं, उसकी सूक्ष्म कारण मीमांसा होनी चाहिए, किन्तु इस संकट को पूंजीवाद बनाम माक्र्सवाद के चश्मे से देखने का दु:साहस केवल भारतीय कम्युनिस्ट ही कर सकते हैं। 1883 में माक्र्स की मृत्यु के पश्चात् सृष्टि-विज्ञान की निरंतर प्रगति के कारण द्वंद्वात्मक भौतिकतावाद के दार्शनिक अधिष्ठान का क्षरण आरंभ हो गया था। 1990 में सोवियत संघ के विघटन और उसके पहले ही कम्युनिस्ट चीन के पूंजीवादी बाजार व्यवस्था को अपना लेने के साथ माक्र्स की वह भविष्यवाणी भी गलत सिद्ध हो गयी थी कि पूंजीवाद का पतन और कम्युनिज्म का उदय अवश्यंभावी है। स्वयं भारत में पहले एक, फिर दो कम्युनिस्ट पार्टियों के भारतीय संविधान के अन्तर्गत चुनाव प्रणाली का हिस्सा बन जाने पर माक्र्सवाद केवल नारों और सेमीनारों तक सिमट कर रह गया था। कम्युनिस्टों की चुनावी राजनीति भी क्षेत्रवाद और साम्प्रदायवाद की धुरी पर ही घूमती रही है। प.बंगाल के कम्युनिस्ट मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य को इस सत्योक्ति की भारी कीमत चुकानी पड़ी कि बंगाल में हमारी सरकार माक्र्सवाद नहीं, पूंजीवाद के रास्ते पर ही चल रही है। पर कम्युनिस्ट पार्टियां इस बात के लिए अपनी पीठ ठोंक सकती हैं कि भले ही पूरी दुनिया में माक्र्सवाद का किला ढह गया हो पर हमारे मुख्यालयों में अभी भी हमने माक्र्स, एंजिल्स, लेनिन और स्टालिन के आदमकद चित्र लगाकर माक्र्सवाद को जिंदा रखा हुआ है। इसी प्रकार प्रभात पटनायक, सीपी चन्द्रशेखर, जयति घोष और प्रफुल्ल बिदवई जैसे माक्र्सवादी बौद्धिक गर्वोक्ति कर सकते हैं कि वे माक्र्स की 150 साल पुरानी शब्दावली के चौखटे में अभी भी लिखते हैं और छपते हैं। कर्ज में डूबा अमरीका पर, क्या इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि इस समय अमरीका और यूरोप की अर्थव्यवस्था जिस संकट से गुजर रही है वह माक्र्सयुगीन पूंजीवाद का संकट है, और वहां की सड़कों पर जो युवा आक्रोश उमड़ रहा है वह पूंजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध सर्वहारा का कम्युनिस्ट युद्ध है? इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए हमें पश्चिमी देशों के वर्तमान युवा असंतोष के कारणों को समझना होगा। इसमें अमरीका और यूरोप की समस्या को अलग-अलग देखना होगा। अमरीका में 2007-2008 में अर्थ संकट का जो दौर आरंभ हुआ, उसकी कारण मीमांसा हम तभी इस स्तंभ में कर चुके हैं। उस संकट की जड़ में एक ओर बैंकों और वित्तीय संस्थानों की असीम लालच की प्रवृत्ति दिखायी पड़ी तो दूसरी ओर वहां के नागरिकों की ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत् (कर्जा लेकर भी घी पिओ) वाली मानसिकता रही। उस संकट के विश्लेषणों ने प्रगट किया कि एक ही मकान पर बैंकों ने दस-दस बार ऋण दिया और उधर आम नागरिकों ने “क्रेडिट कार्ड” का भरपूर उपयोग करके अपने जीवन स्तर को ऊंचा उठाया और विलासिता का जीवन जिया। कहा गया कि पूरा अमरीका कर्ज में डूबा हुआ है और अगले दस वर्ष की आय से अधिक कर्ज लेकर खा चुका है। इसके अतिरिक्त एक अन्य पक्ष सामने आया कि अमरीका का उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन में उतनी रुचि नहीं है जितनी सट्टेबाजी से वित्तीय समृद्धि को बढ़ाने में। वस्त्र, इलेक्ट्रॉनिक सामान, खिलौने आदि जीवनोपयोगी वस्तुओं का उत्पादन अमरीका स्वयं न करके चीन, भारत, जापान आदि एशियाई एवं थोड़ा-बहुत यूरोपीय देशों से आयात करता है। 2007-2008 में लेहमन और गोल्ड सैच जैसे बड़े बैंकों ने जब अपने को एकाएक दिवालिया घोषित कर दिया तो वित्तीय समृद्धि पर खड़ी अमरीकी अर्थव्यवस्था चरमरा गई। उस समय अमरीकी सरकार इन वित्तीय संस्थानों की सहायता के लिए दौड़ पड़ी। कहा जाता है कि वाल स्ट्रीट की वित्तीय कंपनियों को डूबने से बचाने के लिए सोलह खरब डालर की “राहत राशि” दी गयी। दूसरी ओर कर्ज में डूबे सामान्य नागरिकों को मकानों का और उच्च शिक्षा के लिए लिये गए कर्ज को वापस करने का दबाब डाला गया। वाल स्ट्रीट की कंपनियों ने सरकार से प्राप्त अरबों-खरबों की राहत राशि का दुरुपयोग अपने उच्च अधिकारियों को भारी बोनस देने में किया। अमरीका में राजनीति और बड़ी कंपनियों के बीच चोली-दामन का रिश्ता स्थापित हो गया। वहां के अधिकांश वित्तमंत्री किसी न किसी बड़ी कंपनी के मालिक होते रहे हैं। अमरीकी नीति निर्धारकों की दृष्टि में जनरल मोटर्स जैसी उत्पादक कंपनियों की अपेक्षा वित्तीय संस्थानों का कितना अधिक महत्व है यह उस समय गोल्ड सैच बैंक को अरबों डालर की राहत राशि देने और जनरल मोटर्स की याचिका की उपेक्षा से स्पष्ट हो गया। गलत नीति के दुष्परिणाम कुछेक हाथों में पूंजी का एकत्रीकरण तो अमरीका में बहुत पहले से चला आ रहा था, पर आम अमरीकी को इसके पहले वह कभी चुभा नहीं, क्योंकि सामान्य से सामान्य अमरीकी को भी जीवन की वे सब विलासिताएं और सुविधाएं उपलब्ध थीं जो किसी बड़ी कंपनी के मालिक के पास हो सकती हैं। अमरीका में रह रहे भारतीय प्रवासी यह देखकर आश्चर्य करते थे कि उनके घर में सफाई करने वाला व्यक्ति लम्बी कार में बैठकर महंगा सूट पहनकर आता है। अमरीका में शिक्षा और स्वास्थ्य बहुत महंगे हैं। पर कर्जे से सब काम चल रहा है। किंतु 2007 में जब “हाउसिंग बुलबुला” फूटा तब कंपनियों के मालिकों और आम आदमी के बीच का अंतर उभरकर सामने आ गया। तब अमरीकी अर्थशास्त्रियों ने आंकड़े फेंकने शुरू किये कि केवल एक प्रतिशत अमरीकियों का देश की कुल 40 प्रतिशत संपदा पर कब्जा है, वहीं 90 प्रतिशत लोगों पर अमरीका के कुल कर्ज के 73 प्रतिशत का बोझ है। नोबल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री जोसेफ सिगलिट्ज ने अमरीकी अर्थव्यवस्था को “एक प्रतिशत की एक प्रतिशत के लिए” घोषित कर दिया। इसी में से वर्तमान जनांदोलन में “एक के विरुद्ध निन्यानवे” का नारा लगाया गया है। अब जरा यूरोपीय देशों की स्थिति पर विचार करें। ब्रिटेन ने उन्नीसवीं शताब्दी में “जन कल्याणकारी राज्य” के जिस सिद्धांत को अपनाया था वह यूरोप के लगभग सभी देशों ने अपना लिया है। जनकल्याणकारी राज्य का व्यावहारिक रूप है कि समाज के जरूरतमंद लोगों का राजकोष से पेंशन एवं भत्ते के द्वारा पोषण किया जाए। इसका परिणाम यह हुआ है कि ग्रीक, स्पेन, पुर्तगाल, इटली आदि अनेक देशों में ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है जो जीविकोपार्जन के लिए कोई श्रम न करके राज्य द्वारा प्रदत्त पेंशन और भत्ते पर ही मौज-मस्ती करते हैं। इसका परिणाम हुआ है कि बेरोजगारों की संख्या बढ़ती जा रही है और राज्य पर कर्जे का बोझ बढ़ रहा है। एक अनुमान के अनुसार बेरोजगारी की दर अमरीका में 8-10 प्रतिशत, कई यूरोपीय देशों में 20-26 प्रतिशत और स्पेन में तो 40 प्रतिशत पहुंच गयी है। यह होने पर भी अमरीका और ब्रिटेन जैसे देशों ने सामान्य सेवाओं को भारत जैसे देशों में “आउटसोर्स” कर दिया है। संकट में अमरीका-यूरोप कर्ज लेकर कल्याणकारी राज्य के दायित्व को निभाने की भी सीमा होती है। इस तनाव का पहला शिकार हुआ ग्रीक। उसने यूरोपीय संघ से वित्तीय सहायता की गुहार लगाई। संघ ने सहायता देने के लिए खर्च में कटौती करने की शर्तें लगायी। ग्रीक की सरकार को “आस्टेरिटी” यानी सरकारी खर्च में कटौती का निर्णय लेना पड़ा। जिसका अर्थ हुआ कि पेंशनों और भत्तों में कटौती की जाए, नौकरियों में छंटनी की जाए। इसके लिए समाज तैयार नहीं था, तो वास्तव में जनाक्रोश का पहला विस्फोट ग्रीक में हुआ। “वाल स्ट्रीट पर कब्जा करो” आंदोलन से बहुत पहले। ग्रीक के बाद स्पेन का नम्बर आया। वहां भी आस्टेरिटी (कटौती) के विरुद्ध लोग सड़कों पर उतर आये। यूरोपीय संघ द्वारा प्रदत्त सहायता राशि की एक किश्त नाकाफी सिद्ध हुई तो ग्रीक ने दूसरी किश्त मांगी, संघ ने पुन:खर्च में कटौती की शर्त लगायी, जिससे ग्रीक सरकार घबरा गयी और राष्ट्रपति जार्ज पापेन्द्रु ने अपनी कैबिनेट की सहमति से खर्च में कटौती के प्रस्ताव पर जनमत संग्रह कराने का निश्चय किया। इस विषय पर जनमत संग्रह का परिणाम पहले से स्पष्ट है। अत: यूरोपीय संघ के दोनों धनी सदस्य फ्रांस और जर्मनी पापेन्द्रु पर दबाव डाल रहे हैं कि जनमत संग्रह न कराया जाए। वस्तुत:अमरीका और यूरोपीय देश इस समय जिस संकट से गुजर रहे हैं, उसकी जड़ में पूंजीवाद से अधिक उपभोक्तावाद को कारण कहा जा रहा है। पूंजीवाद की प्रवृत्ति मानव इतिहास में प्रारंभ से रही है। सदैव ही कुछ लोग अपनी जन्मजात प्रतिभा, क्षमता और भाग्य के कारण समृद्धि की दौड़ में अन्यों से बहुत आगे निकल जाते हैं। एक ही पिता के दो पुत्रों में भी समान साधनों और समान परिस्थितियों में यह अंतर देखा जाता है। अठारहवीं सदी में जिस मीशीनी सभ्यता का आरंभ हुआ और उसे जन्म देने वाली तकनीकी क्रांति जिस तरह “दिन दूनी रात चौगुनी” गति से दौड़ लगा रही है, उससे पूंजी पर मुट्ठीभर उद्योगपतियों के नियंत्रण की वर्तमान स्थिति पैदा हुई है। तकनीकी क्रांति ने एक ओर तो शरीर सुख और मनोरंजन के नित नये साधनों का आविष्कार किया है, श्रमविहीन जीवनशैली का विकास किया, वहीं दूसरी ओर विज्ञापन के त्वरित और प्रभावी साधनों के द्वारा उन साधनों के प्रति पूरे विश्व के मन में आकर्षण पैदा किया है। इसी को आजकल बाजारवाद कहा जा रहा है। उपभोक्तावाद से पैदा हुआ संकट बाजार तो मानव इतिहास में बहुत पहले से चला आ रहा है। हड़प्पा सभ्यता के भी पहले से भारतीय उत्पादन जहाजों द्वारा पश्चिमी एशिया, अफ्रीका और यूरोप के देशों में पहुंचता था। अठारहवीं शताब्दी के पूर्वाद्र्ध तक यूरोपीय देशों में भारत और दक्षिण पूर्वी एशिया के देशों का माल पाने की प्रतिस्पर्धा लगी रहती थी। भारतीय नगरों और कस्बों में एक धनी वर्ग होता था, जिसे श्रेष्ठि या सार्थवाह के नाम से पहचाना जाता था। किंतु उस काल में उपभोग के साधन इतने सीमित थे और नीचे से ऊपर तक अर्थव्यवस्था सीढ़ीनुमा होने के कारण जीवन स्तर और आर्थिक विषमता में आज जैसा जमीन-आसमान का अंतर नहीं था। इसके साथ ही समाज सुधारकों और आध्यात्मिक नेतृत्व का पूरा प्रयास मनुष्य की अर्थ और काम की जन्मजात एषणाओं को उद्दीपित करने की बजाय संयमित करना रहता था। दम और शम को मानव जीवन के उन्नायक संस्कारों में गिना जाता था। इसी आदर्श को सामने रखकर अशोक ने अपने शिलालेखों में धर्म के व्यावहारिक रूप का वर्णन करते हुए लिखा था “अल्पव्ययता और अल्पभांडता” अर्थात कम खर्च करना और कम संग्रह करना। सादगी और अपरिग्रह का यह व्रत ही धनी को अधिकाधिक दान देने की प्रेरणा देता है। आज भी भारत में परंपरागत अर्थव्यवस्था का जो ढांचा कृषि और व्यापार के क्षेत्र में बचा रह गया है, उसका अध्ययन करें तो ऊपर से नीचे तक अनेक स्तरों पर सीढ़ीनुमा अर्थरचना का महत्व समझा जा सकता है। बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में गांधी जी ने मशीनी सभ्यता के भावी दुष्परिणामों के बारे में चेतावनी दी थी। उन्होंने उद्योगपतियों एवं धनिकों के सामने “ट्रस्टीशिप” का आदर्श रखा था तथा सभी भारतीयों से सादगी का जीवन अपनाने का आग्रह किया था। उन्होंने स्वयं 1906 में अपरिग्रह का व्रत लेकर देशवासियों से स्वेच्छा से गरीबी का वरण करने को कहा था। उनके वचनों के एक संकलन का शीर्षक है “इंडस्ट्रिलाइज एंड पेरिश” यानी “औद्योगीकरण करो और विनाश बुलाओ”। उनकी यह भविष्यवाणी आज साकार हो रही है। अब पश्चिमी समाजशास्त्री भी “लालच” को मानव सभ्यता का शत्रु बना रहे हैं। वारेन वाफेट जैसे बड़े उद्योगपति अपने धन को परोपकार में लगाने की घोषणाएं कर रहे हैं। वर्तमान संकट का मुख्य कारण पूंजी के एकत्रीकरण से अधिक वह बाजारवाद है जिसमें बाजार समाज के लिए न होकर समाज बाजार के लिए है। इसमें समाज बाजार का पेट भर रहा है। तकनीकी विलासिता के नये-नये उपकरण कम से कम मानवी श्रम से मशीनों द्वारा बड़ी मात्रा में उत्पादन कर रहे हैं और इस उत्पादन को खपाने के लिए नये-नये बाजारों की खोज की जा रही है, विज्ञापनों द्वारा उनके प्रति आकर्षण पैदा किया जा रहा है। मोबाइल, कम्प्यूटर, टेलीविजन और शरीर सौंदर्य को ही सभ्यता की प्रगति का मापदंड मान लिया गया है। यह संकट पूंजीवाद का नहीं, वर्तमान तकनीकी सभ्यता और जीवनशैली का संकट है, उदात्त जीवनमूल्यों के अभाव का संकट है।द
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