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आंगल की तुलसी

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Nov 5, 2011, 12:00 am IST
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आंगल की तुलसी

दिंनाक: 05 Nov 2011 15:55:35

शिक्षा की आधारशिला है स्त्री

डा. प्रवेश सक्सेना

एक स्त्री “मां” के रूप में गुरु से भी उच्च-स्थान की अधिकारिणी बन जाती है। “मां” सच्चे अर्थों में संतान की प्रथम गुरु होती है। बच्चे के जन्म के तुरंत बाद से लेकर प्रारंभिक वर्षों तक यह मां ही है, जो पालन-पोषण के साथ-साथ बहुत सी बातें संतान को सिखाती है। शारीरिक स्वच्छता, खाने-पीने के तौर-तरीके तथा सामान्य शिष्टाचार के साथ-साथ “अक्षरज्ञान” भी मां ही देती रही है। यही नहीं गर्भकाल में ही बच्चे की शिक्षा-प्रक्रिया शुरू हो जाती है। यह तथ्य प्राचीनकाल में भी मान्य था तथा आज के शिक्षाशास्त्री और मनोवैज्ञानिकों का भी मानना है कि बच्चे की शिक्षा-दीक्षा उसके “गर्भ” में आते ही शुरू हो जानी चाहिए।

प्राचीनकाल में ऐसे उदाहरण मिलते हैं जहां संतान ने गर्भ में ही शिक्षा-ग्रहण की। अभिमन्यु ने चक्रव्यूह की शिक्षा मां शुभद्रा के गर्भ में ही सीख ली थी। पिता अर्जुन ने पत्नी को वह ज्ञान सुनाया और बालक ने उसे ग्रहण कर लिया। यहां पिता की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। तभी तो गर्भकाल में आसन्नप्रसवा स्त्री को सुन्दर सत्साहित्य पढ़ने की प्रेरणा दी जाती है। जो स्त्रियां इस काल में जिस प्रकार के कार्य करती रहती हैं बच्चा वैसे ही सीखता रहता है। एक और प्रसिद्ध उदाहरण मार्कण्डेय पुराण में मिलता है जहां गंधर्वराजपुत्री मदालसा के चार पुत्र थे। मदालसा विदुषी एवं दार्शनिक स्त्री थी। वह जन्म से पूर्व ही बच्चे को संबोधित करके गाती रहती थी-

शुद्धोऽसि बुद्धोऽसि निरञ्जनोऽसि

अर्थात तू शुद्धस्वरूप है, ज्ञानरूप है तथा कलुष-रहित है…। इस प्रकार के आत्म-ज्ञान द्वारा तीन पुत्र बड़े होकर तपस्वी, आत्मज्ञानी बनकर वैराग्याश्रम में चले गए। जब मदालसा चौथी बार गर्भवती हुई तो उसने फिर से वही शुद्धोऽसि… शिक्षण शुरू कर दिया। तब पति ने उससे प्रार्थना की कि भद्रे! तीन पुत्रों को तो तुमने आत्मज्ञान में दीक्षित कर दिया अब यह एक तो मुझे दो जिसे मैं “युवराज” घोषित कर सकूं। तब मदालसा ने उसे गर्भावस्था में ही राजधर्म की शिक्षा दी। स्पष्ट है प्राचीनकाल से स्त्रियां हर क्षेत्र में स्वयं शिक्षित रही हैं तथा संतानों को शिक्षित करती रही हैं।

21वीं सदी में देखें तो ज्ञान-विज्ञान के हर क्षेत्र में स्त्री आज स्वयं उच्च शिक्षित है तथा बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों एवं शिक्षा-संस्थानों में शिक्षा-प्रदान करने में भी अग्रणी है। यों भी स्त्री भले ही शिक्षा व्यवसाय से न भी जुड़ी हो तब भी बच्चे को शिक्षित तो तभी भलीभांति कर पाएगी जब वह स्वयं शिक्षित हो। कहना न होगा दोनों ही स्तरों पर “स्त्री” सक्रिय रही है। प्राचीनकाल में मंत्रद्रष्टा के रूप में ऋषियों की तरह ऋषिकाएं भी रही हैं। यही नहीं, वे यज्ञ-विद्या में पारंगत भी रही हैं। कई स्त्रियों ने तो इस संबंध में अपने पिता व पति तक का मार्गदर्शन किया था। तैत्तिरीय ब्राह्मण (14) में “इड़ा” ने अपने पिता को यज्ञ संबंधी सलाह देते हुए कहा था- “मैं तुम्हारी अग्नि का ऐसा अवधान करूंगी जिससे तुम्हें पशु, भोग, प्रतिष्ठा और स्वर्ग प्राप्त हो।”

स्त्री-शिक्षा की यह परंपरा मध्यकाल में सामाजिक, राजनीतिक परिवर्तनों के कारण विच्छिन्न हो गयी थी। पर्दे की कुप्रथा के फलस्वरूप सामान्य शिक्षा से भी वे वंचित हो गई थीं। हर्ष का विषय है अनेक समाजसुधारकों के प्रयत्नों से स्त्री शिक्षा का पुन: प्रसार शुरू हुआ ज्ञान-विज्ञान, वाणिज्य, अभियांत्रिकी, चिकित्सा सभी क्षेत्रों के द्वार उनके लिए खुल गए हैं। प्राचीनकाल में माध्वाचार्य ने “न्यायमाला विस्तार” में स्पष्ट कहा है कि “ब्राह्मण बालक का उपनयन संस्कार किया जाए व उसे पढ़ाया जाए ठीक वैसे ही कन्या को भी।” हेमाद्रि का कथन है कि “एक शिक्षित कन्या पिता व पतिकुल दोनों के लिए श्रेयस्करी होती है।”

स्त्री शिक्षिका के रूप में भी बहुधा वर्णित हुई है। पाणिनि (4.1.49) ने “आचार्या” शब्द के प्रयोग से स्पष्ट किया है कि वे शिक्षा-प्रदान करने में बहुमूल्य योगदान देती थीं। आचार्य की पत्नी आचार्याणी कहलाती थी पर स्वयं शिक्षा देने वाली “आचार्या” होती थी। “छात्रीशालाओं” का उल्लेख भी पाणिनि की अष्टाध्यायी (6.2.86) में मिलता है। महाभाष्यकार पतंजलि ने भी उपाध्याय तथा उपाध्यायानी का उल्लेख किया है। उपाध्यायानी उपाध्याय की पत्नी होती थी पर “उपाध्याया” महिला- शिक्षिका। सच बात यही है कि तब माता-पिता विदुषी कन्याओं के माता-पिता बनने में गौरव अनुभव करते थे-

“अथ य इच्छेद दुहिता मे पंडिता जायेत”

(वृहदारण्यक उपनिषद् 6.4.17)

शुभ संकेत हैं कि आज वह स्वर्णयुग लौट आया है। माता-पिता स्त्री-शिक्षा का महत्व समझने लगे हैं। एक सुक्षिक्षित स्त्री ही आदर्श माता बन सकती है। पुरुषों की अपेक्षा स्त्री ही संतान के संपर्क में अधिक समय बिताती है। यद्यपि आज “रोलमाडल्स” बदले हैं- पिता भी बच्चे के लालन-पालन में हाथ बंटाने लगे हैं परन्तु तब भी प्रकृति से स्त्री में धैर्य, सहिष्णुता अधिक होती है। स्नेहभाव से परिपूर्ण स्त्री “मां” के रूप में भूमिका निभा कर समाज को आदर्श नागरिक प्रदान करती है। दूसरी ओर वह शिक्षा को व्यवसाय रूप में अपनाकर नई पीढ़ी को विभिन्न विषयों में पारंगत करती है। विद्यार्जन स्वयं एक तप है। विद्यादान करना उससे भी बड़ा तप है। हां, दोनों के लिए एक विशिष्ट प्रकार की निष्ठा चाहिए। सौभाग्य से स्त्री में “निष्ठा” स्वभावत: अधिक होती है। सच तो यही है कि “ज्ञानार्जन” का अधिकार लिंग जाति से ऊपर है। हर मनुष्य को ज्ञान प्राप्त करने का अधिकार है। विद्याधन सब धनों से बढ़कर है इसीलिए विद्या-दान भी सबसे बढ़कर है। ज्ञान का संप्रेषण करने का कार्य यदि गुरु, आचार्य, उपाध्याय करते रहे हैं तो आचार्या, उपाध्याया भी अपनी भूमिका निबाहती रही हैं। मानव शिशु का जन्मपूर्व का काल तथा उसके प्रारंभिक वर्ष शिक्षा की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण होते हैं जिन पर उसके भविष्य की नींव टिकी होती है- क्योंकि इस महत्वपूर्ण काल में स्त्री मां के रूप में अपनी सशक्त भूमिका निबाहती है। अत: कहा जा सकता है कि शिक्षा की आधारशिला स्त्री है। वह जैसा चाहे वैसा बच्चे को बना सकती है।द

खुशियों का आधार शिशु आहार

द सुरिन्द्रा अजय जैन

आधुनिक विज्ञान व तकनीकी के द्वारा भी शिशुओं के लिए मां के दूध से बेहतर विकल्प तैयार नहीं किया जा सका है। शिशु की पोषाहारीय एवं मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं की सन्तुष्टि के लिए स्तनपान सर्वोत्तम साधन है। मां का दूध सुपाच्य एवं परिपाच्य होता है। मां के दूध में प्रोटीन अधिक पाया जाता है, जो आसानी से पचाया जा सकता है। इसी प्रकार मां के दूध में पाया जाने वाला कैल्शियम व वसा भी शिशु द्वारा आसानी से पचाया जा सकता है। मां के दूध में पायी जाने वाली शर्करा शरीर को तुरन्त ऊर्जा देती है। मां के दूध में पाये जाने वाला थायामिन, विटामिन ए और विटामिन सी जैसे सूक्ष्म तत्वों की मात्रा मां के आहार पर निर्भर करती है। यानी दूध पिलाने वाली मां का आहार सन्तुलित होना चाहिए। उसे पूरा आराम मिलना चाहिए, जिससे वह शिशु की सेहत व अपने स्वास्थ्य का पूरा ध्यान रख सके। इसकी जिम्मेदारी पति, सास-ससुर व घर के सभी अन्य सदस्यों की है।

स्तनपान की शुरुआत जन्म होने के एक घण्टे  के अन्दर-अन्दर कर देनी चाहिए जिससे शिशु को मां का आरम्भिक दूध, जिसे कोलोस्ट्रम या “खीस” कहते हैं, मिल जाता है। नवजात शिशु अपने जीवन के इस दौर में बहुत सक्रिय होता है। यदि शिशु को मां का दूध पिलाया जाए तो वह शीघ्र ही बहुत कुछ सीख जाता है। इससे दो फायदे होते हैं। शिशु को मां का पहला दूध मिल जाता है और मां द्वारा दूध बनने की प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है।

बच्चे के जन्म के उपरांत पहले कुछ दिनों तक मां के दूध को कोलोस्ट्रम कहते हैं। यह दूध पीला व गाढ़ा होता है और बहुत ही पौष्टिक होता है। इसमें संक्रमण रोधी तत्व होते हैं। इसमें विटामिन “ए” की मात्रा पायी जाती है। अधिक प्रोटीन भी होता है। कोलोस्ट्रम में संक्रमण-रोधी पदार्थ शिशु को अतिसार जैसे रोगों से बचाते हैं।

ठीक जानकारी न होने के कारण कुछ माताएं कोलोस्ट्रम को खराब व अपाच्य मानती हैं। यह धारणा गलत है। या फिर रीति-रिवाज को निभाने के लिए जैसे बुआ-फूफी आएगी “दूधी धुलाई” करेगी तो शिशु को स्तनपान करवाना शुरू होगा। यदि किसी कारणवश वह नहीं आ पाती तो स्तनपान शुरू नहीं किया जाता, यह भी एक गलत धारणा है। शिशु को जन्म के उपरान्त जल्दी से जल्दी मां का दूध पिलाना शुरू कर देना चाहिए। वैज्ञानिकों के द्वारा यह सिद्ध हो चुका है कि पहले छह माह तक शिशु को केवल मां का दूध ही देना चाहिए, यहां तक कि पानी, शहद, घुट्टी इत्यादि कुछ नहीं। यह शिशु की सेहत के लिए हानिकारक हो सकते हैं और अतिसार के कारण बन सकते हैं। स्तनपान विलम्ब से शुरुआत के कारण माताओं के स्तन अतिपूरित हो जाते हैं और दूध उतरने में कठिनाई हो जाती है।द

व्रत-त्योहार

(पाक्षिक)

गणेश चतुर्थी व्रत    सोम   14 नवम्बर, 2011

वृश्चिक संक्रांति बुध   16 ,,     ,,

महाकाल भैरवाष्टमी   शुक्र   18 ,,     ,,

प्रदोष व्रत, मास शिवरात्रि    बुध   23 ,,     ,,

श्रीराम विवाह पंचमी  मंगल  29 ,,     ,,

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