इतिहास दृष्टि
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पुण्य तिथि (30 नवम्बर) पर स्मरण
डा.सतीश चन्द्र मित्तल
जगदीश चन्द्र बसु का जीवन प्राचीन काल के एक ऋषि का सा सीधा सादा, पवित्र तथा उदात्त भावनाओं से युक्त था। उनके अनुसंधान संघर्षपूर्ण जीवन का एक उदाहरण हैं। वस्तुत: उनके अनुसंधान वेदों तथा उपनिषदों की परम्पराओं तथा शाश्वत सत्यों का ही पुन: दिग्दर्शन हैं।
भारत के प्रख्यात अन्तरराष्ट्रीय वैज्ञानिक, जिनके बारे में फ्रांस के महान दार्शनिक रोमा रोलां ने 'एक नए विश्व का आविष्कारक', ब्रिटेन के प्रसिद्ध विद्वान जार्ज बर्नाड शॉ ने अपनी प्रेमपूर्ण शैली में 'निम्नतम शरीर विज्ञान से उच्चतम शरीर विज्ञान विशेषज्ञ', महाकवि रवीन्द्र नाथ टैगोर ने वैज्ञानिक के साथ 'साहित्यिक प्रतिभा से युक्त' तथा अल्बर्ट आइंस्टीन ने अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हुए, 'इस महापुरुष की प्रतिमा संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रांगण में स्थापित होनी चाहिए' कहा– वे महान व्यक्ति थे जगदीश चंद्र बसु। ब्रिटेनिका इन्साइक्लोपीडिया (1945 संस्करण) के अनुसार, 'डा. बसु के अनुसंधान तथा अविष्कार अपने समय से इतना आगे थे कि उस समय उनका सम्यक मूल्यांकन नहीं हो सका।'
उपनिषद् के शाश्वत कथन कि, 'प्रत्येक वस्तु में जीवन तथा गति है' को डा. जगदीश चन्द्र बसु ने अपने अनुसंधानों तथा प्रयोगों से सिद्ध कर दिखाया था। पाश्चात्य जगत की दृष्टि में इस 'पूरब के जादूगर' ने अपने आविष्कारों से विश्व को चकाचौंध कर दिया। जगदीश चन्द्र बसु ने विश्व पटल पर पहली बार स्थापित किया कि पेड़–पौधों में जीवन तथा संवेदनशीलता है। उनमें जीवन का स्पंदन है तथा वे भी खाते–पीते, सोते–जागते, काम तथा विश्राम करते हैं। उनके विकास तथा गतिक्रम को जांचने के लिए उन्होंने एक यंत्र 'फ्रेस्कोग्राफ' भी बनाया। उन्होंने धातुओं में थकान तथा थोड़े विश्राम के बाद अधिक क्षमता से कार्य करने की शक्ति को सिद्ध किया। उन्होंने विद्युत किरणों के बारे में विशिष्ट जानकारी दी। वस्तुत: वे विश्व में बेतार का तार बनाने वाले प्रथम आविष्कारक थे, जिसका श्रेय उनके तेरह वर्ष बाद मारकोनी को दिया जाता है।
l संघर्षपूर्ण जीवन
जगदीश चन्द्र बसु का जन्म बंगाल (अब जन्मस्थान बंगलादेश) में 30 नवम्बर, 1858 का हुआ था। इनके पिता भगवान चन्द्र फरीदपुर के डिप्टी मजिस्ट्रेट थे। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा–दीक्षा बंगला भाषा में हुई थी। पारिवारिक वातावरण हिन्दू संस्कारों से ओत–प्रोत था। इसके पश्चात इनका अध्ययन कोलकाता के सेंट जेवियर स्कूल में हुआ। वहां के वातावरण में भारतीयों को हेय दृष्टि से देखा जाता था। जगदीश चन्द्र बसु के संघर्षपूर्ण जीवन की शुरूआत यहीं से हुई। विद्यालय का एक अंग्रेज छात्र, जो अपने आपको सर्वश्रेष्ठ मुक्केबाज बताता था और भारतीयों पर धौंस जमाता था, को प्रतियोगिता में पराजित कर जगदीश चन्द्र बसु ने छात्र नेता के रूप में अपना स्थान बना लिया। बाद में उच्च शिक्षा प्राप्ति के लिए वे इंग्लैण्ड गए। प्रारम्भ में लंदन मेडिकल कालेज में नाम लिखाया परन्तु कुछ अस्वस्थ रहने के कारण वहां अध्ययन नहीं कर सके। फिर उन्होंने विशुद्ध विज्ञान के अध्ययन के लिए कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया तथा वहां से 'नेचुरल साइंस ट्राईपस' की डिग्री प्राप्त की। 1885 में वापस भारत आगमन कर उन्होंने कोलकाता के प्रेसीडेन्सी कालेज में भौतिक विज्ञान के प्राध्यापक के रूप में नौकरी की। परन्तु उन्हें यहां का वातावरण भेदभावपूर्ण लगा। उस समय कालेज में भारतीय प्राध्यापकों को अंग्रेजों की तुलना में वेतन दो तिहाई कम दिया जाता था। अस्थायी होने के कारण बसु का वेतन और भी कम था। इस पक्षपातपूर्ण नीति के विरोध में जगदीश चन्द्र बसु ने तीन वर्षों तक वेतन ही नहीं लिया। इस कारण निष्ठावान प्राध्यापक के रूप में कालेज में उनकी प्रतिष्ठा तो बढ़ती गई परन्तु आर्थिक स्थिति खराब होती गई। अत: उन्होंने कोलकाता में हुगली नदी के पार एक सस्ता–सा मकान किराये पर लिया। इनकी पत्नी अवेला बसु, जिनके साथ इनका विवाह 1887 में ही हुआ, स्वयं नांव में बैठाकर नदी पार कालेज छोड़ने व शाम को लेने आती थीं। तीन वर्षों के संघर्ष के पश्चात कालेज ने उन्हें उनका पूरा वेतन देना प्रारम्भ किया तथा पहले का वेतन भी दिया।
l महत्वपूर्ण आविष्कार
जीवन स्थिर होने के बाद इन्होंने शुद्ध विज्ञान से जुड़े विषयों पर अनुसंधान किए। कालान्तर में ये वनस्पति विज्ञान की ओर प्रवृत्त हो गए। उन्होंने बिना किसी की सहायता के विद्युत तरंगों पर कार्य किया। 1895 में इन्होंने वायरलैस का अन्वेषण ही नहीं किया बल्कि इसका सार्वजनिक प्रदर्शन भी किया। वे पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने माइक्रोवेब, रेडियो, बेवगाइड तथा को हीरेन्ट डिवाईस बनाई। कुछ समय बाद उन्होंने पेड़–पौधों तथा धातुओं के बारे में विश्व को अचम्भे में डाल देने वाले अनुसंधान किये तथा कई यंत्र भी बनाए। उनकी इन महत्वपूर्ण खोजों के आधार पर 1896 में लंदन विश्वविद्यालय ने उन्हें 'डाक्टर आफ साइंस' की उपाधि दी।
अगस्त, 1900 में जगदीश चन्द्र बसु को अन्तरराष्ट्रीय भौतिकी परिषद् (पेरिस) में सरकार की ओर से भेजा गया। इसी सम्मेलन में स्वामी विवेकानन्द तथा भगिनी निवेदिता भी उपस्थित थे। परिषद् में इनके पत्र की बड़ी प्रशंसा और सराहना हुई। स्वामी विवेकानन्द उनके चुम्बकीय व्यक्तित्व से बड़े प्रभावित हुए। उन्हें लगा कि विश्व के वैज्ञानिकों की प्रथम श्रेणी में एक भारतीय विराजमान है। उन्होंने भावविभोर होकर जगदीश चन्द्र बसु का अभिनन्दन किया।
l बसु युद्ध
10 मई, 1901 को लन्दन के रायल सोसायटी भवन में जगदीश चन्द्र बसु ने ब्रिटेन के वैज्ञानिकों के समक्ष प्रदर्शन किया कि पौधों तथा धातुओं में संवेदना होती है। उन्होंने इस सन्दर्भ में कई प्रयोग दिखाए। उदाहरणत: एक पौधे को एक विष के बर्तन में रख दिया। पौधे की नब्ज घड़ी के पेन्डुलम की भांति तेजी से इधर–उधर होने लगी, शीघ्र ही पौधे की मृत्यु हो गई। रायल सोसायटी के वैज्ञानिक आश्चर्यचकित थे। परन्तु पराधीन भारत के इस वैज्ञानिक की खोज को पूरी तरह मानने को तैयार नहीं थे। अत: उनका यह शोध लेख छापने से मना कर दिया। इस घटना से जगदीश चन्द्र बसु जरा भी विचलित नहीं हुए, परन्तु भगिनी निवेदिता बहुत क्षुब्ध हो गईं। उन्हें लगा कि बसु को ब्रिटेन में वह सम्मान नहीं दिया जो योग्यता के आधार पर उन्हें दिया जाना चाहिए था। और तब शुरू हुआ 'बसु युद्ध'। वे तन–मन से बसु के पत्र के प्रकाशन, मुद्रण तथा अन्य व्यवस्थाओं में लग गईं। 1903 में उनका पहला ग्रन्थ 'रिस्पोन्स इन दि लीविंग एण्ड नान–लीविंग' प्रकाशित हुआ। आखिरकार रायल सोसायटी (लन्दन) को उन्हें मान्यता देनी ही पड़ी। उनके पहले लेख (जो उन्होंने 1900 में लिखा था,) को भी प्रकाशित किया गया। 1920 में उन्हें रायल सोसायटी का 'फैलो' भी बनाया गया। बाद में उनका एक अन्य ग्रन्थ 'दि नर्वस मैकेनिज्म आफ प्लांट्स' भी प्रकाशित हुआ। महाकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर जगदीश चंद्र बसु के परम मित्रों में से थे तथा दोनों का प्राय: मिलना होता था। ऐसा कहा जाता है कि टैगोर उनको नित्य अपनी लिखी एक कहानी सुनाते तथा बसु उस पर अपनी टिप्पणी देते थे। टैगोर की 'काबुली वाला' कहानी भी उन्हीं दिनों की रचना है। उनके इस परस्पर मिलन से, टैगौर के अनुसार, 'उनका अकेलापन' दूर हो जाता था।' जब बसु ने अपनी प्रथम पुस्तक राष्ट्रकवि को भेजी तो उन्होंने विज्ञान के साथ जगदीश चन्द्र बसु की साहित्यिक प्रतिभा की भी सराहना की।
l विज्ञान मन्दिर के पुजारी
30 नवम्बर, 1917 को अपने 59वें जन्मदिवस पर जगदीश चन्द्र बसु ने कलकत्ता में 'विज्ञान मन्दिर' की स्थापना की। उल्लेखनीय है कि उन्होंने इसे 'मन्दिर' कहा, प्रयोगशाला नहीं। इसके निर्माण में उन्होंने अपनी समस्त जमा पूंजी लगा दी। इसके उद्घाटन के अवसर पर अपनी भावनाएं व्यक्त करते हुए जगदीश चन्द्र बसु ने कहा कि मैं चाहता हूं कि भारत को वही विरासत दे सकूं जो इसे तक्षशिला और नालंदा के रूप में प्राप्त थी।' विज्ञान मन्दिर बनने के पश्चात् भी उनका अध्ययन तथा अनुसंधान कार्य निरन्तर चलता रहा। उन्होंने 1917 में कंपाउंड लीवर केस्कोग्राफ, 1922 में फोटो सिंथेटिक रिकार्डर तथा 1927 में 'डोइमीट्रिक कंट्रेक्शन आपरेर्ट्स' जैसे प्रमुख यंत्र बनाए। 23 नवम्बर, 1937 को इस महान सन्त वैज्ञानिक का देहावसान हुआ। जगदीश चन्द्र बसु का जीवन प्राचीन काल के एक ऋषि का सा सीधा–सादा, पवित्र तथा उदात्त भावनाओं से युक्त था। उनके अनुसंधान संघर्षपूर्ण जीवन का एक उदाहरण हैं। वस्तुत: उनके अनुसंधान वेदों तथा उपनिषदों की परम्पराओं तथा शाश्वत सत्यों का ही पुन: दिग्दर्शन हैं। उन्होंने सिद्ध कर दिया कि विज्ञान तथा आध्यात्मिकता का योग मनुष्य और उसकी आत्मा के सुन्दर संगम के बिना सम्भव ही नहीं हो सकता बल्कि यह आवश्यक है। संसार में केवल प्राणी मात्र के ही नहीं, बल्कि चर–अचर के कल्याण की सर्वोत्तम भावना भी होनी चाहिए।
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