मिट्टी का तन मस्ती का मन
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मिट्टी का तन मस्ती का मन

by
Nov 19, 2011, 12:00 am IST
in Archive
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गवाक्ष

दिंनाक: 19 Nov 2011 14:30:02

 

गवाक्ष

शिवओम अम्बर

 

क्षण भर जीवन मेरा परिचय

27 नवम्बर माधुर्य और दर्शन के लोकवंदित कवि डा.हरिवंश राय बच्चन की जन्मतिथि है। हिन्दी साहित्य में 'हालावाद' की संज्ञा उनकी तीन महत्वपूर्ण पुस्तकों के साथ संबद्ध है-मधुशाला, मधुबाला और मधु कलश। उमर खय्याम की रुबाइयों का उन्होंने हिन्दी में भावानुवाद किया। संभवत: इसी कारण उनकी मधु संबंधी रचनाओं को 'हालावाद' के कोष्ठक में रख दिया गया और उन्हें एक अरसे तक मधुपान का प्रचारक माना गया। अन्याय उमर खय्याम के साथ भी हुआ है। उनकी सूफी उद्भावनाओं में शराब जिस आध्यात्मिक मस्ती की प्रतीक है, फिटजरेल्ड के द्वारा अंग्रेजी में किये गये अनुवाद के साथ लौकिक उन्माद का संवाहक पेय मान ली गई। किंतु बच्चन प्रारंभ से ही इस संदर्भ में पर्याप्त सचेष्ट रहे हैं और जगह-जगह इस बात की उद्घोषणा करते रहे हैं कि जीवन समर के मध्य खड़े होकर रचे गये उनके मधु गीत सामान्य हाला के अभिनंदन गीत नहीं हैं। जहां भी जीवन की जलन शांत होती है, आनंद का उपहार मिलता है, वहीं मधुशाला निर्मित हो जाती है, ऐसी उनकी मन्यता है-

वह हाला कर शांत सके जो

मेरे अंतर की ज्वाला

जिसमें मैं बिम्बित प्रतिबिम्बित

प्रति पल वह मेरा प्याला

मधुशाला वह नहीं जहां पर

मदिरा बेची जाती है

भेंट जहां मस्ती की मिलती

मेरी तो वह मधुशाला।

बच्चन जी वस्तुत: अपने मधु काव्य के माध्यम से भारतीय चेतना और चिंतना में रचे बसे उपनिषदों के मधु दर्शन को ही प्रकट कर रहे हैं। 'मधुमन्मे निष्क्रमणं मधुमन्मे परायणम्' अर्थात मेरा निष्क्रमण मधुमय हो, मेरा परायण मधुमय हो कहने वाली मनीषा ही मानवीय देह को मधुपात्र का रूपक दे सकती है। और 'इस पार प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा' के अनादि प्रश्न का चिंतन करते-करते यह अनुभावन कर सकती है कि हमारा जीवन किसी विराट विभ्राट् की महत् आकांक्षा का          अवदान है-

कल कालरात्रि के अंधकार में

थी मेरी सत्ता विलीन

इस मूर्तिमान जग में महान

था मैं विलुप्त कल रूपहीन

कल मादकता की भरी नींद

थी जड़ता से ले रही होड़

किन सरस करों का परस आज

करता जाग्रत जीवन नवीन

मिट्टी से मधु का पात्र बनूं

किस कुंभकार का यह निश्चय?

मिट्टी का तन मस्ती का मन

क्षण भर जीवन मेरा परिचय।

'कस्मै देवाय हविषा विधेम' की जो दीप्ति     कविवर जयशंकर प्रसाद की अन्तरात्मा का प्रश्न बनी है-

हे अनंत रमणीय कौन तुम

यह मैं कैसे कह सकता?

कैसे हो क्या हो इसका तो

भार–विचार न सह सकता।

वही बच्चन जी को यह अनुभूति देती है कि इस माटी की देह की निर्मिति ही इसलिए की गई है कि वह परम तत्व रूपी मधु का आस्वाद ले सके। मनुष्य का जीवन चंद प्राकृतिक तत्चों का सांयोगिक संघटन नहीं है, उसके पीछे किसी परम चैतन्य की सुविचारित संयोजना है, भावपूर्ण स्वप्न है। इसी अनुभूति को जीकर कवि अपनी कविता में शाश्वत जीवन दर्शन को गा पाता है-

प्रियतम तू मेरी हाला है

मैं तेरा प्यासा प्याला

अपने को मुझमें भरकर तू

बनता है पीने वाला

मैं तुझको छक छलका करता

मस्त मुझे पी तू होता

एक–दूसरे को हम दोनों

आज परस्पर मधुशाला।

वस्तुत: बच्चन जी मधु के गायक  ही नहीं, मधु विद्या के उद्गाता कवि हैं।

 

मैं महाकाल की नगरी में रहता हूं

27 नवम्बर ही कविवर डा.शिवमंगल सिंह सुमन की अवसान तिथि भी है। उनके आत्मपरिचय की सुप्रसिद्ध पंक्तियां हैं-

मैं शिप्रा–सा ही तरल–सरल बहता हूं

मैं कालिदास की शेष कथा कहता हूं,

मुझको न मौत भी भय दिखला सकती है

मैं महाकाल की नगरी में रहता हूं।

उनकी ये पंक्तियां उनके जीवन में भी चरितार्थ हुईं, मृत्यु में भी। मुझे वैयक्तिक रूप से उनके सहज, सरल और निश्छल वत्सल व्यक्तित्व की सन्निधि प्राप्त करने का सौभाग्य मिला। वह जब उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के उपाध्यक्ष थे तब साहित्य के प्रांगण में उभरते हुए मेरे जैसे अनेकानेक स्वरों को उन्होंने सम्बल दिया था। उनके साथ कितने ही साहित्यिक आयोजनों में भाग लेने की मुझे भरपूर स्मृति है। उनका विद्वतापूर्ण वक्तव्य और प्रभावी काव्य-पाठ सहृदय श्रोताओं को भाव-समाधि की स्थिति तक ले जाता था। एक बार उनके स्वाध्याय कक्ष में जब मैं बैठा था, अचानक अनुरोध कर बैठा कि वह महाप्राण निराला की 'राम की शक्ति पूजा' का पाठ उसी भावभंगिमा के साथ करके मुझे सुनाएं जिसमें स्वयं निराला जी करते थे, और उन्होंने मेरे बालोचित प्रस्ताव को सम्मान दिया। वस्तुत: यह उनके द्वारा मुझे दिया गया पुरस्कार ही था। मैं उनके कक्ष में रखी हुई 'राम की शक्तिपूजा' के पृष्ठ पलट रहा था कि उनका ध्यान उस तरफ गया। उन्होंने कुछ प्रश्न किये और मेरे द्वारा दिये गये उत्तरों से संतुष्ट होकर बताया कि वह महाप्राण की पर्याप्त आत्मीयता पाते रहे हैं। उसी वक्त मेरे मुख से उपर्युक्त अनुरोध निकल गया था और मैंने उनके रूप में उस दिन स्वयं निराला जी को काव्य पाठ करते महसूस किया था। अक्सर अपने काव्य-पाठ को विराम देते हुए वह समस्त सुहृदों के लिए साधुवाद बन जाते थे-

सांसों पर अवलम्बित काया

जब चलते–चलते चूर हुई

दो स्नेह शब्द मिल गये

मिली नव स्फूर्ति थकावट दूर हुई,

पथ के पहचाने छूट गये

पर साथ–साथ चल रही याद

जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला

उस उस राही को धन्यवाद।

सबके लिए शुभाशंसाओं से आपूरित रहते हुए वह अवढरदानी महादेव की तरह जीते रहे, शिप्रा की ऊर्जस्वित लहरों की तरह अपने समय को तरंगायित करते रहे तथा क्रांत कविकुलगुरू कालिदास की तरह सर्वत्र कला कौमुदी प्रसृत कर अनंत में विलीन हो गये। उन्होंने जो महाप्राण निराला के लिए लिखी थीं, आज उन्हीं पंक्तियों को उद्धृत करते हुए उन्हें प्रणाम कर रहा हूं-

तुम जीवित थे तो सुनने को जी करता था

तुम चले गये तो गुनने को जी करता है,

तुम सिमटे थे तो सहमी–सहमी सांसें थीं

तुम बिखरे गये तो चुनने को जी करता ½èþ*n

 

अभिव्यक्ति मुद्राएं

ऊपर–ऊपर मुस्कानें हैं

भीतर भीतर गम

जैसे शोक पत्र के ऊपर शादी का अलबम

–डा. कुंअर बेचैन

हम ऐसे सांपों के बीच में रहे

बीन वाद्य पर भी जो झूमते नहीं

लोग जिन्हें कैक्टस से प्यार हो गया

फुनगी पर का गुलाब चूमते नहीं।

–डा.रोहिताश्व अस्थाना

झूठ–मूठ ही गीत सुहाने गाते रहते हैं

इसी तरह हम लोगों को भरमाते रहते हैं

नये कसीदों के उन्नायक मुल्ला सादी हम–

सच को झूठ झूठ को सच कहने के आदी हम।

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