साहित्यिकी
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कभी तो राह दिखलाओ
राकेश भ्रमर
हमारी आंख से आंंसू नहीं निकले तो क्या निकले,
समन्दर से अगर मोती नहीं निकले तो क्या निकले।
किसी को दे किया कुछ तो इसे एहसान मत मानो,
जुबां से बोल दो मीठे नहीं निकले तो क्या निकले।
हमेशा राह चलते हो, कभी तो राह दिखलाओ,
अगर तुम भीड़ से आगे नहीं निकले तो क्या निकले।
नसीहत के सिवा इस देश में हर चीज महंगी है,
हमारे हाथ जेबों से नहीं निकले तो क्या निकले।
किसी की जान लेकर भी उन्हें खुशियां नहीं मिलतीं,
अगर ये बात समझाने नहीं निकले तो क्या निकले।
मुकाबिल में खड़े हैं सब, कोई पीछे नहीं हटता,
अभी तक तीर तरकश से नहीं निकले तो क्या निकले।
डा. देवेन्द्र दीपक को पं. दीनदयाल उपाध्याय साहित्य सम्मान
मध्य प्रदेश भाजपा के सांस्कृतिक प्रकोष्ठ ने पं. दीनदयाल उपाध्याय जयंती के उपलक्ष्य में भोपाल के रवीन्द्र भवन में आयोजित एक समारोह में सुप्रसिद्ध साहित्यकार और राष्ट्रवादी चिन्तक डा. देवेन्द्र दीपक को पं. दीनदयाल उपाध्याय साहित्य सम्मान-2011 से सम्मानित किया। सम्मानस्वरूप उन्हें श्रीफल, मानपत्र के साथ 11,000 रु. की राशि भेंट की गई। इस अवसर पर पत्रकार श्री प्रमोद भारद्वाज को भी पत्रकार सम्मान-2011 से सम्मानित किया गया। समारोह के मुख्य अतिथि थे म.प्र. के पूर्व मुख्यमंत्री श्री कैलाश जोशी, समारोह की अध्यक्षता की माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति श्री ब्रजकिशोर कुठियाला ने। इस अवसर पर रवीन्द्रनाथ टैगोर की कहानी का प्रभावी मंचन भी हुआ।
ग्रामीण जीवन का यथार्थ चित्रण
विगत 15 वर्षों से अमरीका के बोस्टन में रहने वाले भारतीय मूल के इंजीनियर कुलदीप मोहन शर्मा के मन में अभी भी अपने देश की स्मृतियां और यहां की सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था के प्रति बहुत चिंता है। न केवल चिंता बल्कि बेहतर जीवन जीने का यहां के निवासियों का सपना भी उनके मन में ज्यों का त्यों है। चिंता और सुनहरे भविष्य की कामना को उनके भीतर के रचनाकार ने औपन्यासिक क्रांति में रूपांतरित कर दिया, जो हाल ही में “रामपुर का प्रधान” शीर्षक से प्रकाशित होकर सामने आया। इस कृति के माध्यम से लेखक ने भारतीय ग्रामीण समाज की रुग्ण सच्चाइयों को सीधे-सरल ढंग से सामने लाने का प्रयास किया है। इसके साथ ही गांवों में रहने वाले उच्च धनाढ्य वर्ग के द्वारा किए जाने वाले अत्याचारों, तानाशाही और मनमानियों का भी ब्यौरा इस उपन्यास में मिलता है। किस तरह से गंदी राजनीति का दुष्प्रभाव ग्रामीण समाज की सरल-सहज और साफ-सुधरी जीवनशैली को प्रदूषित कर रहा है, इस बात को भी यह उपन्यास मजबूती से रखता है।
कुल अठारह अध्यायों में विभाजित इस उपन्यास का कथानक रामपुर नामक एक गांव के इर्द-गिर्द बुना गया है। देवराज उर्फ नंबरदार उस गांव का सबसे पैसे वाला और ताकतवर आदमी है जो हर तरह के अनैतिक काम करता है, ताकि गांव में उसका दबदबा बना रहे। गरीबों को कर्ज देकर उनसे ब्याज वसूलना, सरकारी पैसे का दुरुपयोग करना, गांव की राजनीति में अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए वंचित वर्ग के गंगू को प्यादे की तरह इस्तेमाल करना आदि उसका चरित्र है। हालांकि गांव वाले उसके इन सारे कृत्यों को थोड़ा-बहुत समझते भी हैं, लेकिन खुलकर विरोध नहीं कर पाते। स्वार्थ और पैसे कमाने की अनंत इच्छा में वह इतना अंधा हो जाता है कि अपने बड़े भाई और भतीजे को भी मोहरे की तरह इस्तेमाल करने में परहेज नहीं करता है। उसके चरित्र में आज के दौर के कुछ तथाकथित समाजसेवक और राजनीतिकों का व्यक्तित्व उजागर होता है।
उसकी कुत्सित मंशा इस वक्तव्य से उजागर होती है, “हमारा फायदा इसी में है कि गांव के सारे लोग अनपढ़, जाहिल और गंवार रहें, तो ही हम इन पै राज कर सकेंगे। इसलिए तो मैंने कह रखा है गांव के स्कूल में, कोई भी मास्टर पढ़ावै ना बच्चों को। खेलने-कूदने दो बच्चों को, बच्चे भी खुस और मास्टर भी खुस। बच्चे अगर पढ़-लिख गए तो हमारे खेतों में गेहूं कौन काटैगा।(पृष्ठ 53)
उसके भीतर का आततायी इतना संवेदनशून्य हो जाता है कि रिश्ते-नातों की भावुकता भी उसके लिए अर्थहीन हो जाती है। वह कहता है, “मेरा प्लान यू है कि जिस किसी पार्टी की भी सरकार बनैगी उसमें ही घुसवा दूंगा भाईसाहब कू, सगला काम हम अपना निकलवाएंगे उनसे और पब्लिक दल-बदलू कहेगी तौ भाईसाहब कू कहेगी, मेरी बला से।” (पृष्ठ 55)
उपन्यास में गंगू, मुस्कान और कुसुम जैसे चरित्र भी हैं जो सच्चे मन से अपने गांव-समाज की बेहतरी के लिए काम करना चाहते हैं। हालांकि गंगू तो देवराज के राजनीतिक दांव-पेच के चलते गांव का प्रधान भी बन जाता है, उसकी सरलता, सहजता और गांव के विकास के लिए काम करने की उसकी सद् इच्छा एक उम्मीद जगाती है। एक जगह पर वह अपनी पढ़ी-लिखी बिटिया कुसुम से पूछता है, “बेटा अगर इन्टरनेट पर सारी जानकारी मिल जावै है तो ये पता कर कै हिन्दुस्थान के जो गरीब लोग हैं इनकी गरीबी कब दूर होगी? कब किसान आत्महत्या करनी बंद करेंगे? कब यू छूआछूत की बीमारी हिन्दुस्थान से विदा होगी? कब अमीर-गरीब का भेदभाव मिटेगा? कब हर आदमी को भरपेट खाना मिलेगा, कब….?” (पृष्ठ 58)
वास्तव में यह उपन्यास भारतीय गांवों के ही नहीं बल्कि अधिकांश समाज में होते असंतुलित विकास को सामने लाता है। साथ ही उसे समस्या पर गहराई से विचार करने को भी बाध्य करता है। हालांकि उपन्यास का अंत लेखक ने सकारात्मक रूप में किया है, जिसके तहत देवराज का आत्म-परिवर्तन हो जाता है, उसे अपने कुकर्मों का पश्चाताप होता है। लेकिन वास्तविकता के धरातल पर प्राय: ऐसा होता नहीं है। अर्थात् यह उपन्यास अंत तक आते-आते यथार्थ से दूर हट जाता है। उपन्यास की भाषा में भी लेखक ने अनावश्यक रूप से हिन्दी के शुद्ध शब्दों का प्रयोग किया है, जो असहज लगता है। बावजूद इसके यह उपन्यास रोचक और पठनीय है।
पुस्तक – रामपुर का प्रधान
लेखक – कुलदीप मोहन शर्मा
प्रकाशक – विजडम विलेज
(पब्लिकेशन डिवीजन)
649, ओ 4 यू, उद्योग विहार,
फेस-5, गुड़गांव,
हरियाणा-122001
मूल्य – 195 रु., पृष्ठ – 215
अंटार्कटिका पृथ्वी का ऐसा भू-भाग है जहां सिर्फ बर्फ का साम्राज्य है और हमेशा अत्यधिक ठण्ड रहती है। यहां छह महीने का दिन और छह महीने की रात होती है। यहां न किसी का आधिपत्य है और न ही किसी की सरकार। इस अनूठी जगह की हर जानकारी हाल ही में प्रकाशित पुस्तक “अंटार्कटिका अभियान” देती है। इसके लेखक हैं हृदयनाथ दत्ता एवं जसवन्त सिंह, जबकि पुस्तक का सम्पादन किया है पत्रकार विज्ञान भूषण ने। उल्लेखनीय है कि अंटार्कटिका की विशालता को वैज्ञानिक तरीके से समझने के लिए 1958-59 में पहली बार 12 देशों ने अंटार्कटिका का अध्ययन किया। इसके बाद अंटार्कटिका से जुड़े कार्यों को सुचारू रूप से चलाने के लिए 1 दिसम्बर, 1959 को “अंटार्कटिका संधि” हुई। यह संधि 23 जून, 1961 से लागू है। इस संधि के अन्तर्गत कोई भी देश बिना किसी रुकावट के अंटार्कटिका में कहीं भी प्रकृति का वैज्ञानिक अध्ययन कर सकता है, और इस अध्ययन की जानकारी को अन्य देशों तक पहुंचाना अति आवश्यक है। इस समय दुनिया के 26 देशों के वैज्ञानिक अंटार्कटिका का अध्ययन कर रहे हैं। यह प्रसन्नता की बात है कि उन 26 देशों में भारत भी शामिल है। भारत ने वहां अपना “स्टेशन” भी स्थापित किया है। इन “स्टेशन” का नाम “मैत्री” है और इसकी स्थापना 1988-89 में की गई थी।
1981 में पहली बार भारतीय दल ने अंटार्कटिका में कदम रखा। समय-समय पर भारतीय वैज्ञानिक अंटार्कटिका जाते है और नई-नई जानकारियां एकत्रित करते हैं। इस पुस्तक के दोनों लेखक भी अंटार्कटिका जाने वाले भारतीय वैज्ञानिक दल के सदस्य रहे हैं। लेखकीय अनुभवों से पगी यह पुस्तक पाठकों को अंटार्कटिका ले जाती है, वहां के प्राकृतिक सौन्दर्य का अहसास कराती और यह भी बताती है कि एक समय ऐसा भी आएगा जब दुनिया प्राकृतिक संसाधनों के लिए अंटार्कटिका की शरण में जाएगी। अंटार्कटिका तेल और खनिज पदार्थों का भी एक बड़ा भण्डार है। अंटार्कटिका विश्व की 90 प्रतिशत बर्फ को समेटे हुए है जिसके कारण वह समुद्र के पानी की सतह की ऊंचाई, समुद्री लहरें तथा हवा का तापक्रम, बारिश इत्यादि प्राकृतिक मापों को संभालता है, ताकि पृथ्वी का स्वरूप बना रहे। पुस्तक में दी गई रोचक, उत्साहवर्धक एवं रोमांचक जानकारी न केवल आम पाठकों बल्कि शोधार्थियों के लिए भी उपयोगी सिद्ध होगी। द अरुण कुमार सिंह
पुस्तक – अंटार्कटिका अभियान
लेखक – हृदयनाथ दत्ता व जसंवत सिंह
सम्पादन – विज्ञान भूषण
प्रकाशक – सुहानी बुक्स,
सी-37, ग्राउंड, फ्लोर
(ब्लॉक सी), गणेश नगर, पाण्डव नगर काम्पलेक्स,
नई दिल्ली-110092
मूल्य – 425 रु. पृष्ठ – 260
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