पाकिस्तान में शियाओं का नरसंहार
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4 अक्तूबर को पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत के क्वेटा शहर के बाहर लश्कर ए जंगवी के आतंकवादियों ने बस में सफर कर रहे 13 शिया यात्रियों की गोली मारकर हत्या कर दी और 7 को घायल कर दिया। इसके बाद हमेशा की तरह लश्कर ए जंगवी के नेताओं ने इस हत्याकांड की जिम्मेदारी ली। पाकिस्तान में शियाओं का इस तरह से नरसंहार इन दिनों आम बात होती जा रही है। पिछले ही महीने (सितंबर में) पाकिस्तान से ईरान की यात्रा पर जा रहे शिया तीर्थयात्रियों की बस को आतंकवादियों ने बलूचिस्तान के मास्तुंग में रोका, यात्रियों को बाहर निकाल कर उन पर गोलियां बरसाईं। इस गोलीबारी में 26 शिया तीर्थयात्री मारे गए और 8 जख्मी हो गए। इसके बाद उन्होंने उन तीन लोगों को भी मौत के घाट उतार दिया जो घायलों को अस्पताल ले जा रहे थे। ये सभी यात्री बलूचिस्तान के हाजरा शिया समुदाय के बताए जाते हैं।
कभी-कभी इतिहास बहुत क्रूर मजाक करता है। शियाओं के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ है। भारत में जब स्वतंत्रता आंदोलन चल रहा था तब शिया भी सुन्नियों के साथ मिलकर पाकिस्तान के रूप में अलग मुस्लिम राष्ट्र बनाने की मांग को लेकर लड़ाई लड़ रहे थे। पाकिस्तान के लिए शुरू हुए संघर्ष के प्रणेता मोहम्मद अली जिन्ना थे, जो शियाओं के तहत आने वाले खोजा समुदाय के थे। जिस समुदाय ने पाकिस्तान को मूसा खान, याह्या खान, जुल्फिकार अली भुट्टो, बेनजीर भुट्टो, आसिफ अली जरदारी जैसे नेता दिए, वही समाज अब पाकिस्तान में काफिर समझा जाने लगा है। उसे अहमदियाओं की तरह ही गैरमुस्लिम घोषित करने की मांग जोर पकड़ने लगी है। कुछ राजनीतिक विश्लेषक यह मानते हैं कि शियाओं और सुन्नियों का यह संघर्ष पाकिस्तान को गृहयुद्ध की आग में झोंक सकता है।
इस्लाम में शिया और सुन्नियों के बीच झगड़ा उतना ही पुराना है जितना पुराना इस्लाम, लेकिन भारत में इस संघर्ष ने बहुत हिंसक रूप नहीं लिया। चूंकि पाकिस्तान की लड़ाई शिया और सुन्नियों ने मिलकर लड़ी थी, इसलिए पाकिस्तान के पहले दो दशकों में शिया और सुन्नियों के रिश्ते सौहार्दपूर्ण रहे। पाकिस्तान के एक सुन्नी-बहुल राष्ट्र होने के बावजूद शिया सरकार और सेना के उच्च पदों पर नियुक्त होते रहे। पाकिस्तान वह देश है जहां दुनिया की दूसरी सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी है। इसमें से 75 प्रतिशत सुन्नी और 20 प्रतिशत शिया हैं, शेष 5 प्रतिशत में हिन्दू, ईसाई और अहमदिया आदि हैं। 1974 में शियाओं ने भी सुन्नियों के साथ मिलकर अहमदिया विरोधी आंदोलन में हिस्सा लिया था, जिसका मकसद अहमदियों को गैरमुस्लिम घोषित करवाना था, इस मकसद में वह आंदोलन सफल भी हुआ। अब सुन्नी शियाओं के खिलाफ उसी हथियार का प्रयोग कर रहे हैं।
विवाद का नया दौर
पाकिस्तान के सैनिक तानाशाह जनरल जिया उल हक के शासन ने शिया-सुन्नी संघर्ष की आग में घी डालने का काम किया था। जिया ने हमेशा राजनीतिक उद्देश्यों के लिए मजहब के इस्तेमाल की नीति अपनाई और इस सिलसिले में इस्लामीकरण की प्रक्रिया शुरू की, जिससे शिया और सुन्नियों के बीच की दरार बढ़ी। कई राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि जिया के लिए इस्लामीकरण का एक ही मतलब था, और वह यह कि सुन्नी सांप्रदायिकता को बढ़ावा देना। दूसरी तरफ ईरान में शिया मुल्लाओं द्वारा शुरू की गई इस्लामी क्रांति ने पाकिस्तान में शिया सांप्रदायिकता को खूब हवा दी। 1979 की ईरानी क्रांति के बाद “तहरीक-ए-निफज ए-फिकह- ए-फाफेरिया (टीएनएफ) स्थापित हुआ, जिसका उद्देश्य शियाओं के अधिकारों की रक्षा करना था। इसकी प्रतिक्रिया में आठवें दशक में सिपह-ए-सहाबा (एसएसपी) नामक सुन्नी संगठन की स्थापना हुई और सऊदी अरब और सद्दाम के इराक और अन्य सुन्नी देशों के पैसे के कारण वह तेजी से फला-फूला। यह संगठन मांग करने लगा कि शियाओं को भी अल्पसंख्यक यानी अहमदियों की तरह गैरमुस्लिम घोषित किया जाए। सिपह-ए-सहाबा के ही एक गुट ने एक आतंकी संगठन लश्कर-ए-जंगवी की स्थापना की, जिसका एकमात्र मकसद शियाओं को काफिर या गैरमुस्लिम बताकर उनकी हत्या करना था। इसके जवाब में शियाओं ने भी एक नया संगठन बनाया “सिपह- ए- मोहम्मद”। इसी दौरान जिया के शासनकाल में इस्लामाबाद में इस्लामीकरण के नाम पर शियाओं पर “सुन्नी पर्सनल ला” थोपे जाने के विरोध में शियाओं ने विशाल प्रदर्शन किया। तब तो जिया ने उनकी मांगें मान लीं लेकिन सेना और आईएसआई ने तय कर लिया कि शियाओं के प्रभाव को खत्म करना जरूरी है। इसलिए कई तरीकों से उनके दमन की कोशिशें शुरू हो गईं।
थमती नहीं हिंसा
हालांकि शुरूआत में हिंसा दोनों ही तरफ से हुई लेकिन सुन्नियों की संख्या शियाओं के मुकाबले कई गुना अधिक होने के कारण वे और उनकी बंदूकें शियाओं पर भारी पड़ीं और बाद में तो केवल सुन्नियों की तरफ से ही एकतरफा हिंसा होने लगी, जो आज तक जारी है। 1990 के मध्य तक हिंसा शिया और सुन्नियों के नेताओं के बीच तक ही सीमित थी लेकिन बाद में शिया पस्त हो गए और सुन्नी आतंकवादी संगठनों ने शियाओं का सामूहिक हत्याकांड करना शुरू कर दिया। सुन्नी उग्रवादी शियाओं के इमामबाड़ों में घुस जाते और गोलीबारी शुरू कर देते। सुन्नी उग्रवादियों के हौसले तब और भी बढ़ गए जब पड़ोसी देश अफगानिस्तान में सुन्नी तालिबान सत्ता में आ गए। इसके बाद तो अक्सर सुन्नी उग्रवादी शियाओं की हत्या कर अफगानिस्तान भाग जाने लगे। 2001 में तालिबान राज की समाप्ति के बाद शिया विरोधी हिंसा में थोड़ी कमी तो आई लेकिन 2005 के आस-पास तालिबान के फिर ताकतवर होने के साथ शिया विरोधी हिंसा फिर भड़क उठी और इस बार वह ज्यादा विकराल थी। पहले बंदूकधारी शिया मस्जिदों में घुसकर गोलीबारी करते थे, अब आत्मघाती हमलों के द्वारा यह काम किया जाने लगा, जिससे मरने वालों की संख्या काफी बढ़ गई। लश्कर-ए-जंगवी के पास अपने आत्मघाती दस्ते नहीं थे इसलिए उसने तालिबान से मदद हासिल की। लश्कर-ए-जंगवी के तालिबान और अल कायदा के साथ बहुत नजदीकी रिश्ते हैं। यह कहना अनुचित नहीं होगा कि ये सब एक ही परिवार के घटक हैं। इसलिए 2008 में शियाओं ने कराची में कुर्रम और डेरा इस्माइल खान के शियाओं पर हमलों के विरोध में एक विशाल प्रदर्शन किया और धमकी दी कि यदि लश्कर ए जंगवी, तालिबान और अल कायदा द्वारा शियाओं पर किए जा रहे हमलों को रोका नहीं गया तो वे कराची से इन क्षेत्रों तक “लांग मार्च” करेंगे। इस धमकी ने सुन्नी उग्रवादियों को और ज्यादा उकसाया। इसके बाद तो पूरे पाकिस्तान और खासकर पख्तून क्षेत्र में 2009 के लगभग हर महीने शियाओं के खिलाफ बड़े हमले हुए। भारत से पाकिस्तान गए (मुहाजिर) शिया सिंध के कराची या हैदराबाद में रहते हैं और उनके नेता अल्ताफ हुसैन हैं। आठवें और नौवें दशक में जब आईएसआई ने अल्ताफ हुसैन के प्रभाव को कम करने कोशिश की तो उसने सुन्नी उग्रवादी संगठनों को शिया उग्रवादी संगठनों पर हमले करने के लिए उकसाया।
इस्लाम की त्रासदी
शियाओं का नरसंहार करने वाले इन सुन्नी उग्रवादी संगठनों को सरकार और उसमें बड़े पदों पर बैठे लोगों का वरदहस्त प्राप्त है। हाल ही में एशियन ह्यूमन राइट्स कमीशन ने इन हमलों की निंदा करते हुए कहा कि बलूचिस्तान, कुर्रम एजेंसी और एफएटीए वे स्थान हैं जहां पाकिस्तानी सेना, अद्र्ध सैनिक बल और फ्रंटियर काप्र्स तैनात हैं । सारे रास्तों पर उनका नियंत्रण है। सभी शहरों की प्रमुख जांच चौकियों (चैक पोस्ट) की वे निगरानी करते हैं। इसलिए प्रतिबंधित इस्लामी उग्रवादी संगठन यह महसूस करते हैं कि कानून लागू करने वाली इन एजेंसियों के संरक्षण में उन्हें अपनी गतिविधियां चलाने की खुली छूट है। गौरतलब है कि लश्कर ए जंगवी के प्रमुख मलिक इशाक के चौदह साल बाद जेल से छूटने के बाद से ये शिया विरोधी हमले और तेज हो गए हैं। पाकिस्तान मामलों के विशेषज्ञों का कहना है कि पाकिस्तान में सुन्नियों द्वारा शियाओं पर कई दशकों से हो रहे सुनियोजित हमले देश की एकता के लिए खतरा साबित हो सकते हैं। यह असहिष्णुता पाकिस्तान को ले डूबेगी। यह इस्लाम को बदनाम करने वाली है क्योंकि इस्लामी लोग इसे भाई चारे का मजहब होने का पुरजोर दावा करते हैं। लेकिन पाकिस्तान में तो मुसलमान ही मुसलमान के खून का प्यासा हो उठा है। इस्लाम के नाम पर अलग देश बनाने वाले पाकिस्तान की इससे बड़ी त्रासदी और क्या हो सकती है?
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