हक्कानी अमरीका के गले की फांस
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गले की फांस
लगातार दस वर्ष तक कड़ी मेहनत करने के पश्चात् अमरीका ने इस शताब्दी के अपने सबसे बड़े दुश्मन ओसामा बिन लादेन को समाप्त कर राहत की सांस ली। ओसामा वास्तव में अमरीका और ओबामा के लिए एक चुनौती बन गया था। अंतत: उसने उसका काम तमाम करके यह सिद्ध कर दिया कि अमरीका को जो छेड़ता है उसे वह कभी नहीं छोड़ता है। अमरीका ने अपनी खुशी का जश्न मनाया ही था कि उसके सम्मुख एक और चुनौती आकर खड़ी हो गई। यह चुनौती कोई और नहीं है, बल्कि उसका पाला-पोसा व्यक्ति ही है जिसका नाम है मौलवी सिराजुद्दीन हक्कानी। उसका पिता कमांडर जलालुद्दीन अमरीका की आंखों का तारा था। लेकिन उसका बेटा सिराजुद्दीन हक्कानी उसकी आंखों की किरकिरी है। इस समय तो यह कहा जा रहा है कि सिराजुद्दीन हक्कानी अमरीका के लिए दूसरा ओसामा बन गया है। एक समय था कि अमरीका सिराजुद्दीन के बाप को अपना सबसे निकट का व्यक्ति मानता था। बाप ने अमरीका को अफगानिस्तान पर विजय दिलवाई, लेकिन बेटा अमरीका को परास्त करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा है। बाप के कारण रूस अफगानिस्तान से चला गया। लेकिन बेटा अब अमरीका की नींद हराम किये हुए है। बाप ने अमरीका के अरमान पूरे किये लेकिन उसी का बेटा अब अमरीका की एक नहीं सुन रहा है।
आर-पार की लड़ाई
अमरीका चाहता है कि 2014 में जब उसकी सेना लौट जाए उसके पश्चात् अफगानिस्तान स्वतंत्र रूप से राज करे। लेकिन सिराजुद्दीन की इच्छा है कि अफगानिस्तान पर पाकिस्तान का कब्जा हो जाए। पाकिस्तान इस क्षेत्र में मजबूत बनकर अमरीका और हिन्दुस्थान दोनों को यहां से बाहर निकाल दे। एक समय जलालुद्दीन हक्कानी को अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने राष्ट्रपति भवन में बुलाकर उसका सम्मान किया था। जलालुद्दीन के कारण ही रूस अफगानिस्तान छोड़ने पर मजबूर हुआ था। लेकिन अब उसी के पुत्र सिराजुद्दीन से अमरीका आर-पार की लड़ाई लड़ लेना चाहता है। सिराजुद्दीन हक्कानी अब पूर्व और पश्चिम के बीच बहस का मुद्दा बना हुआ है। तालिबान ने ओसामा को अफगानिस्तान में सरकारी मेहमान बनाया था। अब पाकिस्तान ने सिराजुद्दीन हक्कानी को सरकारी मेहमान बनाया है। यही हक्कानी अफगानिस्तान में शांति और अमरीकी सेना के लौट जाने के संबंध में सबसे बड़ा रोड़ा बना हुआ है। सिराजुद्दीन हक्कानी अमरीका के लिए हर दिन एक नई मुसीबत खड़ी कर रहा है। कभी अमरीकी दूतावास पर, तो कभी राष्ट्र संघ के दफ्तर पर वह हमला बोलने से पीछे नहीं हटता है। अफगानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति की हत्या हो अथवा उनके भाई का खून, सभी घटनाओं में सिराजुद्दीन हक्कानी का कहीं न कहीं हाथ है। इसलिए अब अमरीका को यह महसूस होने लगा है कि जब तक सिराजुद्दीन हक्कानी को रास्ते से नहीं हटा दिया जाता है तब तक अमरीका अफगानिस्तान से बाहर नहीं निकल सकता है। यही कारण है कि हक्कानी को लेकर पाकिस्तान और अमरीका के बीच तलवारें खिंच गई हैं। इस समय पाकिस्तान में सबसे बड़ी ताकत हक्कानी गुट की है। पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई कल भी हक्कानी पर मेहरबान थी और आज भी मेहरबान है। हद तो यह है कि पाकिस्तानी सेना हक्कानी के विरुद्ध किसी भी तरह की कार्रवाई के लिए तैयार नहीं होती है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि हक्कानी और पाकिस्तान के बीच मजबूत गठबंधन है।
हक्कानी और आई.एस.आई.
जब सोवियत संघ ने अफगानिस्तान पर कब्जा कर लिया था उस समय मुजाहिद्दीन के जितने भी गुट रूस से लड़ने के लिए मैदान में कूदे थे उनमें एक हक्कानी गुट भी था। उस समय आईएसआई ने हक्कानी गुट की पैसे, हथियार और प्रशिक्षण से पूरी तरह सहायता की थी। पाकिस्तान सरकार इन दिनों स्वयं अपने ही तालिबान से दुखी है क्योंकि वे पाकिस्तान के नागरिकों को ही निशाना बना रहे हैं। लेकिन हक्कानी गुट की गतिविधियां केवल सरहदी क्षेत्र तक ही सीमित नहीं हैं, वह उत्तरी वजीरिस्तान में भी सक्रिय है। इसका इस समय मुख्य काम सरहद पर नाटो की फौजों का निशाना बनाना है। जिसको पाकिस्तान में अच्छे तालिबान का दर्जा प्राप्त है। कुछ वर्ष पूर्व अमरीकी मीडिया ने इस बात की ओर इशारा कर दिया था कि उसके अफगानिस्तान से निकल जाने के पश्चात् हक्कानी गुट पाकिस्तान के हितों का सबसे बड़ा संरक्षक होगा। इतना ही नहीं वह अफगानिस्तान में भारत, रूस और ईरान के बढ़ते वर्चस्व का सामना करेगा। यही कारण है कि हक्कानी गुट को पाकिस्तान हर तरह की सहायता प्रदान कर रहा है और बढ़-चढ़ कर समर्थन दे रहा है। यहां तक कि 2010 में पाकिस्तानी सेना के अध्यक्ष जनरल परवेज कयानी और आईएसआई के अध्यक्ष जनरल अहमद शुजा पाशा ने अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अहमद करजई से बातचीत की थी और हक्कानी गुट की सत्ता में हिस्सेदारी पर वार्ता हुई थी। अमरीका ने इस पर कड़ी आपत्ति प्रकट की थी। ओबामा ने इस कदम को शांति के लिए भयजनक कदम माना था। इसके पश्चात् अमरीका का दबाव इस हद तक बढ़ा कि उत्तरी वजीरिस्तान में पाकिस्तानी सेना को कार्रवाई करनी पड़ी थी। 2010 में ही टेलीफोन पर दिये गए एक साक्षात्कार में हक्कानी ने कहा था कि अब उनके सैनिक पाकिस्तान में नहीं, बल्कि अफगानिस्तान की भूमि पर हैं। उसने कहा था कि वे दिन गए जब हम अफगानिस्तान और पाकिस्तान की सरहदों पर पहाड़ों में शरण लिए हुए थे। अब हम अफगानिस्तान में सुरक्षित हैं। हक्कानी के इस दावे ने हर किसी को दंग कर दिया था। पाकिस्तान के वरिष्ठ सैनिक अधिकारी उनके समर्थक हैं। यहां तक कि अफगान सरकार में शामिल अनेक अधिकारी तालिबान के पक्षधर मुल्ला उमर को अपना नेता मानते हैं।
फंस गया पाकिस्तान
अमरीकी सेना के कमांडर इन चीफ एडमिरल माइक मूलन ने अमरीकी सीनेट के सम्मुख इस बात को स्वीकार किया है कि हक्कानी गुट को आईएसआई की हिमायत हासिल है। इस कारण पाकिस्तानी सेना क्रोधित हो गई है। अब पाकिस्तान ने अमरीका को स्पष्ट रूप से कह दिया है कि अमरीका के इशारे पर हक्कानी गुट को निशाना नहीं बनाया जाएगा। पाकिस्तान अब बुरी तरह से फंसा हुआ है। भला वह हक्कानी गुट के विरुद्ध कार्रवाई किस प्रकार कर सकता है? पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने अमरीका के भारी दबाव के बावजूद यह कह दिया है कि पाकिस्तान तालिबान समर्थक लड़ाकों से दो-दो हाथ नहीं कर सकता है। क्योंकि पाकिस्तान ने हमेशा इसकी भारी कीमत चुकाई है। इससे पहले पूर्व राष्ट्रपति बुश बड़ी हैरानी से ये सारी बातें सुनकर चले गए थे। गिलानी का कहना है कि अच्छे तालिबान और बुरे तालिबान की बातें हमने नहीं की थीं, बल्कि यह पहचान तो अमरीका की थी। उनके मतानुसार इस प्रकार के समझौते सफल नहीं हुए हैं। स्वात में मौलवी फजलुल्लाह से ऐसा समझौता हुआ था। मगर स्वात की जनता ने सरकार का साथ दिया था। ओसामा बिन लादेन की मौत के पश्चात् अब पाकिस्तान सरकार यह नहीं चाहती है कि उसकी जनता यह महसूस करे कि वह अब भी अमरीका के इशारों पर नाच रही है। पाकिस्तान सरकार अब पाकिस्तानी तालिबान के टकराव के बाद हक्कानी से दुश्मनी मोल लेने का जोखिम नहीं उठाना चाहती है। उसके कथनानुसार बेनजीर की हत्या हुई और पाकिस्तान के फौजी मुख्यालय सहित अनेक ठिकानों पर उन्होंने बड़ी निर्दयता से हमले किये। पाकिस्तान मानव बम धमाकों का केन्द्र बना। इसलिए पाक सरकार अब अपनी साख बचाने के लिए हक्कानी से अपना नाता नहीं तोड़ सकती।
बदले की आग
सिराजुद्दीन हक्कानी को अमरीका अब तक नहीं मार सका है। सिराजुद्दीन बदले की आग में जल रहा है। 2008 में उसका भाई उमर हक्कानी नाटो फौज के हाथों मारा गया था। सितम्बर 2008 में हक्कानी के घर पर 6 मिसाइलें दागी गई थीं। महिलाएं और बच्चे मौत के घाट उतार दिये गए थे। हक्कानी की दो पत्नियां, एक बहन और आठ बच्चे मारे गए थे। मार्च 2009 में हक्कानी पर 50 लाख डालर का इनाम रखा गया था। लेकिन अमरीका हक्कानी परिवार का बाल बांका नहीं कर सका। बंगलादेश की सरहद पर भी हक्कानी अपने जिहादियों को प्रशिक्षण देने के लिए शिविर चलाता है। विशेषज्ञों का मानना है कि हक्कानी गुट अमरीकी योजनाओं पर पानी फेर देगा। अमरीका ने पाकिस्तान को चेतावनी दे दी है कि उसे हर हाल में हक्कानी गुट से अपने संबंध तोड़ने होंगे। हक्कानी हमेशा नाटो फौज पर हमले करता है। काबुल में अमरीकी दूतावास पर हमला किया। अमरीका को अफगानिस्तान से विदा होना है, लेकिन एक शर्त पर कि हक्कानी गुट का सफाया होना चाहिए। अमरीका के लिए हक्कानी दूसरा ओसामा है। जब तक हक्कानी मौत के घाट नहीं उतारा जाता है वह अफगानिस्तान नहीं छोड़ेगा। यदि हक्कानी और अमरीका के बीच पाकिस्तान आता है तो वह उसे भी किसी कीमत पर क्षमा नहीं करेगा। पाकिस्तान हक्कानी को मरने नहीं देगा और अमरीका हक्कानी को जीने नहीं देगा। इस स्थिति में नतीजा क्या होगा फिलहाल तो यह कहना कठिन है।
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