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समाज को तोड़ने के सत्ता स्वार्थों को परास्त करती

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Oct 24, 2011, 12:00 am IST
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भारतीय समाज की आधारभूत एकता

दिंनाक: 24 Oct 2011 17:28:47

भारतीय समाज की आधारभूत एकता

*प्रो कुलदीप चंद अग्निहोत्री

भारतीय समाज की आंतरिक संरचना, उसके स्वभाव और उसकी प्रकृति को लेकर लंबे अर्से से बहस चल रही है। यूरोपीय जातियों के संपर्क में आने के बाद ही एक प्रकार से यह बहस प्रारंभ हुई थी। इस बहस को तीखा और धारदार बनाने के लिए गोरे शासकों ने देश के नवस्थापित विश्वविद्यालयों में जनजाति विज्ञान विभागों की स्थापना की थी। इन विभागों का कार्य वैज्ञानिक दृष्टि से अपने विषय को समझना तो था ही, लेकिन इसके साथ ही भारतीय समाज की समरसता में दरारें डालकर उसको आंतरिक और बाह्य रूप से पुन: विभाजित करना था, ताकि विभाजित भारतीय समाज पर विदेशी शासक आसानी से राज्य कर सकें। इस विषय पर चर्चा करने से पहले डा. बाबा साहब अम्बेडकर को उद्धृत करना समीचीन रहेगा, क्योंकि इस पूरे चिंतन में बाबा साहेब का यह कथन हमारे विश्लेषण का आधार बनेगा। 09 मई सन् 1916 को अमरीका के कोलंबिया विश्वविद्यालय में भारत में जाति प्रथा के विषय पर अपने शोध पत्र प्रस्तुत करते हुए डा. अम्बेडकर ने कहा था, “भारत को छोड़कर संसार का कोई ऐसा देश नहीं है जिसमें इतनी सांस्कृतिक समरसता हो। हम केवल भौगोलिक दृष्टि से ही सुगठित नहीं हैं, बल्कि हमारी सुनिश्चित सांस्कृतिक एकता भी अविच्छिन्न और अटूट है, जो पूरे देश में और चारों दिशाओं में व्याप्त है।” बाबा साहब अंबेडकर ने जिस सांस्कृतिक एकता की बात कही थी वह एक प्रकार से हमारी सबसे बड़ी ताकत है। गोरे शासकों को इसी ताकत से डर लगता था। इसलिए उन्होंने भारतीय समाज में काल्पनिक विभाजनों के अध्ययन प्रस्तुत किये और कालांतर में उनको यथार्थ में बदलने का कुप्रयास भी किया।

काल्पनिक विभाजन

भारत की यह सांस्कृतिक और राष्ट्रीय एकता केवल भारतीय पंथों और संप्रदायों के बीच ही व्याप्त नहीं है, बल्कि इसका प्रसार मुस्लिम समाज को भी अपने साथ जोड़ता है। इतिहास में हिन्दू और मुसलमान के बीच उस प्रकार का वैमनस्य कभी नहीं था जिसकी चर्चा अंग्रेज विद्वानों ने जगह-जगह की है और आज भी ब्रिटिश शासकों की परंपरा में ही देश का शासन संभालने वाली सत्ता हिन्दू-मुस्लिम काल्पनिक विभाजन को मन में धारण करके उन्हें अलग-थलग करने का प्रयास करती रहती है। लेकिन मुख्य प्रश्न है कि अंग्रेजों के आने से पूर्व के विदेशी आक्रांताओं, जिनका मजहब इस्लाम था, के हममजहबों का भारतीय समाज के साथ तारतम्य भला कैसे बैठ सकता था? ऊपर से देखने पर यह प्रश्न कठिन लगता है लेकिन थोड़ी गहराई में झांकने पर इस प्रश्न का उत्तर आसान दिखाई देता है। विदेशी आक्रांता भारत के नगरों और सत्ता केन्द्रों तक सीमित थे। सात-आठ सौ साल के इतने लंबे पराधीनता काल के बाद भी भारतीय समाज जीवंत था और राज्य की दखलंदाजी समाज के कुछ ही क्षेत्रों तक सीमित थी। जो विदेशी भारत में आये थे वे राजधानियों अथवा बड़े नगरों तक सीमित थे। इस्लाम के जुनून में उन्होंने भारत के लोगों को अपने मजहब में मतांतरित करने के बहुत प्रयास किये। इन प्रयासों में ज्यादातर निर्मम अत्याचारों का ही प्रयोग होता था, लेकिन एक बात ध्यान रखनी चाहिए कि इन पूरे प्रयासों के बावजूद ये शासक बड़े स्तर पर भारत को मतांतरित करने में सफल नहीं हुए। कथित निम्न जातियों के लोग तो बहुत कम मतांतरित हुए। आज चाहे “इरफान हबीब एण्ड कंपनी”  जितनी मर्जी चिल्लाती रहे कि तथाकथित छोटी जातियों के लोग हिन्दू समाज में घुटन अनुभव कर रहे थे इसलिए वे अपनी इच्छा से इस्लाम मजहब में चले गये। इसके विपरीत इन तथाकथित छोटी जातियों ने सात-आठ सौ साल के इस लंबे कालखंड में विदेशी आक्रांताओं के साथ निरंतर संघर्ष किया। उच्च जातियों में गिनेे जाने वाले अन्य लोग जो इस्लाम में मतांतरित किए गए, स्वाभाविक ही उन लोगों ने अपनी मूल परंपराओं को नहीं छोड़ा। सारांश यह कि भारत में जो लोग इस्लाम पंथ में चले भी गये वे अपनी परंपराओं और विरासत से नहीं टूटे। इसलिए हिन्दू समाज का उनके साथ कोई बड़ा टकराव होने का खतरा नहीं था। अंतर केवल इतना ही हुआ कि भारत के अनेक संप्रदायों में एक और संप्रदाय जुड़ गया, ईश्वर की पूजा का एक और तरीका जुड़ गया। केवल इतने मात्र से भारतीय समाज में दरार पड़ जाती ऐसा संभव नहीं था। वैसे भी भारतीय संप्रदायों के प्रभाव में इस्लाम का जो रूप नीचे तक पहुंचा वह हिन्दू स्वभाव और आदत से ज्यादा मिलता जुलता था इसलिए दोनों में टकराव की संभावना कहां बचती थी? यहां तक कि जब इन विदेशी आक्रांताओं से टक्कर लेने की बात आती थी तो ये मतांतरित भारतीय मुसलमान संघर्ष कर रहे जन नायकों के साथ खड़े दिखाई देते थे, न कि विदेशी हमलावरों के साथ। शिवाजी महाराज और महाराजा रणजीत सिंह की फौज में बहुत से मतांतरित भारतीय मुसलमान       भी थे।

भारत में अंग्रेजों के आने के बाद स्थिति बदली। दरअसल मिशन के तौर पर अंग्रेजों ने भारतीय समाज को विभाजित करने का कार्य 1857 के बाद ही तेजी से प्रारंभ किया। भारत के इतिहास में 1857 में हुई आजादी की पहली लड़ाई अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रखती है। इस लड़ाई ने यह सिद्ध कर दिया कि देश का हिन्दू और मुसलमान अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट हो रहा है। ध्यान रहे मेरठ से विद्रोह करके चले हुए भारतीय सैनिकों ने हिन्दुस्थान का बादशाह बहादुर शाह जफर को घोषित किया। जफर मुसलमान थे लेकिन उनका भारतीयकरण हो चुका था। हिन्दू विद्रोहियों ने नये नायक की तलाश किसी हिन्दू पर जाकर समाप्त नहीं की, बल्कि यह लालकिले में जफर पर जाकर ही समाप्त हुई। जफर ने भी पूरी तरह इस विश्वास का हक अदा किया और कहा –

बागियों में बू रहेगी जबतलक ईमान की

तख्ते लंदल तक चलेगी तेग हिन्दुस्थान की।

जफर शायद यह अर्ज अपने हममजहब लोगों से ज्यादा कर रहे थे कि जबतक वे ईमानदारी से भारतीयता और हिन्दुस्थान के पक्ष में खड़े रहेंगे तबतक हिन्दुस्थान जीतेगा लेकिन यदि उन्होंने हिन्दुस्थान की बजाय इस्लाम को वरीयता दी तो मामला गड़बड़ हो जायेगा। जफर यदि इस्लाम के आधार पर अपने हममजहबों को ही इकट्ठा करना चाहते तो वे “बू रहेगी इस्लाम की” लिखते, न कि “बू रहेगी ईमान की” लिखते। इतिहास के इस मोड़ पर हिन्दुस्थान ने सभी मजहबों की अभूतपूर्व एकता का प्रदर्शन किया। गोरी शक्तियों का षड्यंत्र यहीं से प्ररंभ हुआ।

द्विराष्ट्रवाद की शुरुआत

अंग्रेजों ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापना कराके मतांतरित भारतीय मुसलमानों को शेष भारतीय समाज से तोड़ना शुरू कर दिया। यहीं से द्विराष्ट्रवाद की शुरुआत हुई। जो स्थिति भारत में नहीं थी, सबसे पहले गोरे शासकों ने उसकी कल्पना की और उसके बाद उसे मूत्र्त रूप देने के लिए अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का प्रयोग किया। दुर्भाग्य से इसी ब्रिटिश शिक्षा प्रणाली से शिक्षित हुए शेष भारतीयों ने भी अंग्रेजों की इस “थीसिस” को स्वीकार कर लिया। कांग्रेस के लिए यह समस्या थी कि अंग्रेजों के षड्यंत्र का उत्तर कैसे दिया जाये। इसका सही उत्तर तो एक ही हो सकता था कि अंग्रेजों की “थीसिस” को ही अमान्य कर दिया जाये क्योंकि आम भारतीय के स्तर पर यह “थीसिस” पहले ही अमान्य थी। किन्तु कांग्रेस इस “थीसिस”  को मान्य करके इसका तोड़ तलाशना चाहती थी। ऐसी स्थिति में तो इसका एक ही तोड़ हो सकता था कि मतांतरित भारतीय मुसलमानों को अपने साथ रखने के लिए उनका तुष्टीकरण किया जाये। यह तोड़ अपने आप में घातक था और अंग्रेजी शासक भी यही चाहते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि कांग्रेस ज्यों-ज्यों इस रास्ते पर आगे बढ़ेगी त्यों-त्यों भारतीयों और मतांतरित भारतीय मुसलमानों में खाई और भी चौड़ी होती जायेगी। महात्मा गांधी, जो द्विराष्ट्रवाद के इस सिद्धांत को सिरे ही नकारते थे, वे भी उत्तर देने की तत्परता में इतनी दूर तक गये कि उन्होंने भारत में ही खिलाफत आन्दोलन खड़ा कर दिया। एक अन्य अवधारणा जो गोरे शासकों ने मतांतरित भारतीय मुसलमानों को लेकर प्रचारित की वह यह थी कि ये मतांरित मुसलमान गोमांस का प्रयोग करते हैं और गोकशी से अन्य भारतीयों की भावनाएं आहत होती हैं। जबकि यथार्थ में मतांतरित भारतीय मुसलमान गोमांस का प्रयोग प्राय: नहीं करते थे। ये मुसलमान तो भारतीय समुदाय का ही अंग थे और गो का मांस उनकी भोजन संस्कृति में शामिल नहीं था। उनकी खान-पान की आदतें तो वही थीं जो उनके मूल समाज में प्रचलित थीं। मूल समाज से उनका नाता केवल परमात्मा की पूजा के तरीके को लेकर बदला था बाकी बहुत ज्यादा बदलाव नहीं हुआ था। इसके विपरीत अंग्रेजों की भोजन संस्कृति में गोमांस प्रमुखता से शामिल था। इसलिए गोहत्या का ज्यादा प्रचलन हिन्दुस्थान में गोरे शासकों के आने के बाद हुआ। गोमांस जिनके खान-पान का प्रमुख हिस्सा है उनमें इंग्लैंड, फ्रांस, इटली, जर्मनी इत्यादि यूरोप के देश प्रमुख हैं। अरब देशों में भी गोमांस खाया जाता है लेकिन भारत के मतांतरित मुसलमान अरबी नहीं हैं, न ही तुर्की हैं, बल्कि वे तो मूल भारतीय समाज का ही हिस्सा हैं। अंग्रेजों ने गोकशी की अपनी परंपरा भारत में मतांतरित भारतीय मुसलमानों के गले में आसानी से डाल दी और कालांतर में मुसलमानों के कुछ समूहों ने इसे स्वीकार भी कर लिया।

साम्राज्यवादी अवधारणा

इसी प्रकार अंग्रेजों ने भारत में आर्य – द्रविड़, जनजाति या कबीला, अनुसूचित जाति, आदिवासी इत्यादि अवधारणाएं प्रचलित कीं और उन अवधारणाओं के आधार पर भारतीय समाज को खंड-खंड करने के लिए समाजशास्त्रीय सिद्धांत गढ़े। जनजाति और कबीला या ट्राइब की परिभाषा को लेकर यूरोप में अभी भी कोई स्पष्ट धारणा विकसित नहीं हो पायी है। बहुत से गोरे विद्वान भी अब इन अवधारणाओं को काल्पनिक ज्यादा मानने लगे हैं। आर्य और द्रविड़ का जो सिद्धांत अंग्रेजों के वक्त में बहुत चतुराई से रोपित किया गया था और जिसके आधार पर मोहनजोदड़ो सभ्यता को यहां की वर्तमान परंपरा से काट दिया गया था अब यूरोप में ही नकारा जा चुका है। यूरोपीय विद्वानों की अपनी परिभाषा के अनुसार ही आर्य कोई जनजाति नहीं है। लेकिन दुर्भाग्य से भारतवर्ष में इक्कीसवीं शताब्दी में भी उन्हीं अवधारणाओं को पाला-पोसा जा रहा है जिनकी रचना अंग्रजों ने अपने साम्राज्यवादी हितों के लिए की थी। बाबा साहेब अंबेडकर ने भी आर्य और द्रविड़ के अंग्रेजों द्वारा पैदा किये गये विवाद पर चोट करते हुए डा. केतकर को सराहा था, जिनके अनुसार- “भारत में सभी राजा चाहे वे तथाकथित आर्य थे अथवा द्रविड़, आर्य कहलाते थे। जब तक इन विदेशियों ने नहीं कहा, भारत के लोगों को इससे कोई सरोकार नहीं रहा कि कोई कबीला या कुटुंब आर्य है या द्रविड़। चमड़ी का रंग इस देश में जाति का मानदंड नहीं रहा।” ध्यान रहे अंबेडकर ने “तथाकथित आर्य अथवा द्रविड़” शब्द का प्रयोग किया है। इन गलत अवधारणाओं को आधार बनाकर समस्याओं के हल निकाले जा रहे हैं। जाहिर है कि उससे समस्याएं तो क्या सुलझेंगी भारतीय समाज में विभाजन की दीवारें बढ़ेंगी। ताज्जुब है कि जिस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इन साम्राज्यवादी अवधारणाओं को नकार कर भारतीय समाज में समरसता के लिए राष्ट्रीय आंदोलन शुरू किया उसको मुसलमानों का शत्रु बताया जा रहा है जबकि सही अर्थों में उनके शत्रु वे हैं जो उन्हें शेष भारतीय समाज से काटकर, उनकी सुरक्षा के नाम पर उन्हें अलग-थलग करने में जुटे हुए हैं।

जिन्ना और गोरी शक्तियां

अपने राजनीतिक हितों के लिए कुछ दल मतांतरित भारतीय मुसलमानों एवं ईसाइयों को उनके मूल भारतीय समाज से काटकर जड़विहीन कर देना चाहते हैं। सोनिया कांग्रेस नीत संप्रग सरकार द्वारा इस उद्देश्य के लिए स्थापित किये गये राजेन्द्र सच्चर समिति, रंगनाथ मिश्र आयोग, समान अवसर अधिनियम और अब साम्प्रदायिक व लक्षित हिंसा निरोधक विधेयक सरकार की इसी सोच की ओर संकेत करते हैं। साम्प्रदायिक व लक्षित हिंसा निरोधक विधेयक तो मानो भारत के पुन: विभाजन का षड्यंत्र ही है। सोनिया कांग्रेस धीरे-धीरे अपने गुप्त एजेंडे को लागू करने की दिशा में सक्रिय हो रही है । अरसा पहले यह षड्यंत्र ब्रिटिश साम्राज्यवाद के अंतर्गत यूरोप की गोरी शक्तियों ने भारत में किया था। इसके लिए उन्होंने मुहम्मद अली जिन्ना का प्रयोग किया था। गोरी शक्तियों के षड्यंत्र के तहत जिन्ना ने भारत के मजहब के आधार पर दो समूहों में बंटा होने की दुहाई देनी शुरू कर दी और उसे “द्विराष्ट्र सिद्धांत” के नाम से प्रचलित करना शुरू किया। जिन्ना के अनुसार भारत में स्पष्ट ही दो वर्ग थे- एक हिन्दू और दूसरा मुस्लिम। उनका कहना था कि ये दोनों वर्ग एक साथ नहीं रह सकते। इसलिए मजहब को आधार बनाकर भारत को दोनोंे वर्गों में विभाजित कर दिया जाना चाहिए। जिन्ना की इस परिकल्पना को गोरे ब्रिटिश शासकों की शह थी, अत: उन्होंने 1947 में भारत का विभाजन कर दिया और पाकिस्तान का जन्म हुआ। यह अलग बात है कि  जिन्ना की यह परिकल्पना मूल रूप में ही गलत थी और गोरी साम्राज्यवादी शक्तियों के इस देश में आने से पहले मजहब के आधार पर भारतीयों में वह वैमनस्य नहीं था जिसकी दुहाई जिन्ना और अंग्रेज दे रहे थे। उस समय भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने इस परिकल्पना को स्वीकारने में जिन्ना और गोरी यूरोपीय शक्तियों का साथ नहीं दिया, बल्कि इसका जीजान से विरोध किया। लेकिन दुर्भाग्य से निर्णायक घड़ी आने पर उसने अनेक ज्ञात-अज्ञात कारणों से द्विराष्ट्र  सिद्धांत वालों के आगे घुटने टेक दिए और इस प्रकार भारत का विभाजन हो गया ।

लगता है इतिहास अपने आपको फिर दुहराने की स्थिति में पहुंच गया है। इस बार रंगमंच पर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस नहीं है , क्योंकि उसकी तो 1998 में एक षड्यंत्र के तहत हत्या कर दी गयी थी। लेकिन उस तांत्रिक हत्या से उपजी सोनिया कांग्रेस रंगमंच पर आरूढ़ हो गयी है। भारत के दुर्भाग्य से सोनिया कांग्रेस मजहब के आधार पर भारत के दो वर्गों में बंटे होने के जिन्ना के झूठ को हवा ही नहीं दे रही, बल्कि बहुत ही चालाकी से प्रस्तावित साम्प्रदायिक एवं लक्षित हिंसा निरोधक विधेयक के माध्यम से भारत को बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक तथा विभिन्न जाति समूहों के बीच विभाजित करने का षड्यंत्र कर      रही है।

मजहबी विभाजन

इस विधेयक का प्रारूप किसी संविधान सम्मत अभिकरण अथवा भारत के विधि मंत्रालय ने तैयार नहीं किया है, बल्कि इसका मसौदा राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् नाम की एक ऐसी संस्था ने तैयार किया है, जिसका संविधान में कहीं उल्लेख नहीं है। इस परिषद् की अध्यक्षा सोनिया गांधी हैं। और परिषद के सदस्यों में कई तो भारत की राष्ट्रीय अवधारणा को ही नकारने वाले हैं।

इस विधेयक को बनाने वाले यह मानकर चलते हैं कि भारत का मजहबी विभाजन बहुत ही स्पष्ट है। एक भारत बहुसंख्यकों का और दूसरा भारत अल्पसंख्यकों का है। इस वर्ग की दूसरी अवधारणा यह है कि बहुसंख्यक समाज मजहबी अल्पसंख्यक समाज पर अत्याचार करता है, उन्हें प्रताड़ित करता है , हर स्तर पर उनसे भेदभाव करता है। विधेयक बनाने वालों की सोच में मजहबी अल्पसंख्यकों की बहुसंख्यक भारतीयों से तभी रक्षा हो सकती है , यदि उनके लिए अलग से फौजदारी कानून बना दिए जाएं। भारत में मजहबी अल्पसंख्यक समुदाय अपने लिए अलग “सिविल कोड” की व्यवस्था तो किए हुए ही है। यद्यपि सर्वोच्च न्यायालय यह सिफारिश कर चुका है कि सिविल विधि का आधार मजहब नहीं हो सकता। इसके लिए पूरे देश में सभी के लिए समान नागरिक संहिता लागू की जानी चाहिए।

लेकिन सोनिया कांग्रेस की सोच आम भारतीयों की सोच से अलग है। उसका मानना है कि “सिविल लॉ” के बाद मजहबी अल्पसंख्यकों, जिसका अर्थ आमतौर पर मुसलमानों एवं ईसाइयों से ही लिया जाता है , के लिए “क्रिमिनल लॉ” यानी आपराधिक विधि भी अलग होनी चाहिए। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए उपरोक्त विधेयक लाया गया है।

राज्य का कर्तव्य बिना जाति, मजहब और रंगरूप के सभी भारतीय नागरिकों से समान भाव से व्यवहार करना होना चाहिए। लेकिन उपरोक्त विधेयक मजहब के आधार पर भारतीय समाज की समरसता को खण्डित करने का प्रयास कर रहा है। यह भारत में मजहबी अल्पसंख्यक समुदाय को एक अलग टापू पर खड़ा करना चाहता है , जो भारत की मुख्यधारा से अलग हो, ताकि कालांतर में उसे किसी हल्के से अभियान से भी भारत से अलग किया जा सके। दरअसल, यह प्रस्तावित विधेयक जिन्ना और गोरी यूरोपीय जातियों के मजहब के आधार पर भारत विभाजन के प्रयोग को, इक्कीसवीं शताब्दी में एक बार फिर दुहराना चाहता है। इस विधेयक से पहले सोनिया कांग्रेस की सरकार द्वारा गठित राजेंद्र सच्चर समिति और रंगनाथ मिश्रा आयोग की भूमिका को भी इसी परिप्रेक्ष्य में देखना होगा । इनको यह काम सौंपा गया था कि वे सरकार का करोड़ों रुपया हलाल करके यह सिद्ध करें कि भारत में मुसलमान एवं ईसाइयों के अल्पसंख्यक समुदाय के साथ बहुत ही ज्यादा भेदभाव किया जाता है और उन्हें समान अवसर नहीं मिल रहे। इन दोनों आयोगों ने सत्ता की इच्छा को ध्यान में रखते हुए यह काम पूरी निष्ठा से निपटा दिया।

कब्र से निकला द्विराष्ट्रवाद

आखिर सोनिया कांग्रेस की भारत को इस प्रकार दो विरोधी खेमों में बांटने के पीछे मंशा क्या है? सोनिया कांग्रेस क्यों उस रास्ते को तैयार करने में जुटी है जो अंतत: विभाजन की ओर जाता है? सोनिया कांग्रेस जिन्ना के द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत को कब्र से निकालकर क्यों भारत को मजहबी आग की तपती भट्टी में झोंकना चाहती है? ये ऐसे प्रश्न हैं जिनका उत्तर देने की जिम्मेदारी सोनिया कांग्रेस की अध्यक्षा सोनिया गांधी पर है। यदि सोनिया गांधी इन तीखे प्रश्नों के उत्तर देने से बचती हैं तो निश्चय ही भारतीयों को स्वयं, परदे के पीछे हो रहे इन षड्यंत्रों में भागीदार देशी-विदेशी शक्तियों को बेनकाब करना होगा। सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली परिषद् द्वारा बनाया यह विधेयक इस बात की तरफ तो निश्चय ही संकेत करता है कि अब भारत सोया नहीं रह सकता, अब सोने का अर्थ होगा एक और विभाजन की सुप्त स्वीकृति। लेकिन सोनिया कांग्रेस को भी जान लेना चाहिए कि इक्कीसवीं शताब्दी 1947 नहीं है।

यही स्थिति वर्तमान में जम्मू -कश्मीर राज्य में दिखाई देती है। सोनिया कांग्रेस यह अवधारणा लेकर चल रही है कि कश्मीर के सभी लोग भारत के खिलाफ हैं और पाकिस्तान के समर्थक हैं। इसी अवधारणा के आधार पर समस्या का समाधान ढूंढ़ा जा रहा है। स्वाभाविक ही यह समाधान तो यही हो सकता है कि अफजल को फांसी न दी जाये। जबकि धरातल पर स्थिति इसके विपरीत है। कश्मीर के गुज्जर, बक्करवाल, पहाड़ी, जनजाति, हिन्दू, सिख, शिया सभी पाकिस्तान के खिलाफ हैं। कश्मीर घाटी के सुन्नी मुसलमान पाकिस्तान का झंडा लहराते हैं लेकिन वे सभी लोग पाकिस्तान के समर्थक नहीं हो सकते। गलत अवधारणा के कारण कश्मीर में मुट्ठीभर सुन्नी मुसलमानों के हाथों में भारत सरकार ने वहां का नेतृत्व जबरर्दस्ती दे रखा है और उन्हीं के तुष्टीकरण से समस्या का हल निकालने के प्रयास हो रहे हैं। स्वाभाविक ही इससे समस्या उलझती है और आम कश्मीरी में रोष पैदा होता है। वस्तुत: सत्ता  स्वार्थों के इन षड्यंत्रों को विफल करने के लिए भारतीय समाज की आधारभूत राष्ट्रीय व सांस्कृतिक एकता के मानदण्डों को मजबूत करने की आवश्यकता है। ताकि समरस समाज जीवन में से राष्ट्रीय एकात्मता का ऐसा प्रवाह निकले कि हमारे देश व मसाज को तोड़ने की सभी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं उसमें बह जाएं और  भारत एक अखण्ड सशक्त राष्ट्र-समाज के रूप में खड़ा रहे।

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