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जीवन – उजास

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Oct 24, 2011, 12:00 am IST
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कहानी

दिंनाक: 24 Oct 2011 17:57:58

कहानी

मृदुला सिन्हा

बस बड़े पुत्र डा. मनहर की प्रतीक्षा थी। दूरभाष पर उनकी राय ली जा रही थी। उन्होंने कहा था- “अब तो घर को ही अस्पताल का कमरा बना दिया जाता है। अस्पताल ले जाने की जहमत क्यों उठाना। जरूरत अनुसार सारे उपकरण घर में ही लग जाएंगे।”

रीना-आकाश, ममता और मनोज के साथ-साथ जीवन साथी शिवानी को भी बड़े बेटे का सुझाव समझ में नहीं आया था। घर, घर होता है। अस्पताल, अस्पताल। चौबीस घंटे वहां नर्स और डाक्टर रहते हैं। गहन चिकित्सा कक्ष भी है। घर में कहां मिलेंगी ये सुविधाएं? शिवानी की सोच मुखर हुई थी- “मनहर को आने दो। अपने सामने वह पिता को घर ले आएगा तो मैं नहीं रोकूंगी। पर अभी तो इन्हें अस्पताल ले चलो। इनका कष्ट मुझसे देखा नहीं जाता। इन्हें अब योग्य डाक्टरों की जरूरत है। घरवालों की सेवा की नहीं।”

आकाश और रीना ने भी मां का समर्थन किया। पिता शिवरत्न को शहर के सबसे नामी निजी अस्पताल में भर्ती करवा ही दिया गया। चिकित्सकों ने भी मरीज के प्रति अपनी पूरी ईमानदारी के सबूत, बड़े-छोटे उपकरण और उनकी पाइपों से शिवरत्न जी की नाक, और मुंह को सजा दिया। घर से चलते समय जो सांसें और सज्ञानता बची थीं, वे अस्पताल पहुंचकर दवा, पानी और पाइपों के सहारे हो गईं। घरवालों का कोई काम भी नहीं बचा था, सिवाय सघन चिकित्सा कक्ष से बाहर निकलने वाले चिकित्सकों और नर्स को घेर कर शिवरत्न जी के स्वास्थ्य के बारे में उनके मुंह से कुछ उगलवाना। बड़ी मुश्किल से चिकित्सक को घरवालों के घेराव से बाहर निकलवाने में सफल नर्स आकाश के हाथ में एक चिट थमा देती। पांच सौ से हजार रुपए तक की दवा होती थी। आकाश के हाथ से उसका पी.ए. या चपरासी ले लेता । दवा मिनटों में आ जाती। दरअसल दवा खरीदने की जहमत उठाते हुए रोगियों के घरवालों को कहीं बाहर नहीं जाना होता था। अस्पताल में ही व्यवस्था कर दी गई थी। संभवत: रोगी के सघन चिकित्सा कक्ष के किराए में ही शामिल थी उस सुविधा की फीस भी। मात्र रोगियों के लिए नहीं, अस्पताल परिसर में ही ऐसी बहुत सी सुविधाएं घरवालों के लिए भी की गई थीं। अस्पताल द्वारा बार-बार दी गईं हिदायतों के बाद भी रोगियों के हालचाल पूछने आने वाले मित्रों और रिश्तेदारों की संख्या में कमी नहीं होती थी। एक रोगी को दो ही पास मिलते थे। मिलने आने वालों की संख्या पास की संख्या से कहीं अधिक होती थी। अस्पताल की व्यवस्था को धता बताते हुए सब अपनी व्यवस्था कर ही लेते थे।

शिवानी का आवागमन नहीं होता था। उन्होंने स्थायी रूप से सघन चिकित्सा कक्ष के बाहर रखी बेंच पर अपना स्थान सुरक्षित कर लिया था। पांच दिन बीत गए। उनकी बगल में बैठी महिला तो पन्द्रह दिनों से बैठी थी। उसके बेटे रात्रि को उसे जबरदस्ती घर भेज देते। वहां बैठे-बैठे शिवानी को घरवालों के लिए सघन चिकित्सा कक्ष की भयावहता का ज्ञान हो गया था। शिवरत्न जी तो कृत्रिम सांस पर चल रहे थे। सारी दुनियावी जद्दोजहद से निर्लिप्त। शिवानी को पिछले साठ वर्षों में पति द्वारा जबरदस्ती सुनाई, मन और बेमन से सुनी सारी बातें एक-एक कर स्मरण हो आ रही थीं। इतना तो स्मरण था कि पढ़े -लिखे और अपनी पीढ़ी के नामवर वैज्ञानिक शिवरत्न जी को आधुनिक चिकित्सा प्रणाली से भी ढेर सारी शिकायतें थीं। डाक्टर बन रहे बड़े बेटे मनहर की जिद को फटकारते हुए वे सरकारी नौकरी से छुट्टी लेकर पिता को बनारस ले गए थे। उनकी बीमारी की गहनता को देखते हुए भी गहन चिकित्सा कक्ष में नहीं ले गए। बनारस में गंगा किनारे ही मकान ले लिया था। गंगा की आरती के स्वर कानों में गूंजते रहे। उनके पिता ने कार्तिक पूर्णिमा की मध्य रात्रि को प्राण त्याग दिए थे। उनकी आत्मा की शान्ति के लिए पूजा-पाठ, श्राद्ध सब कुछ किया शिवरत्न जी ने। सच बात तो यह थी कि उनकी स्वयं की जीवंत आत्मा को शांति मिली थी।

अपने दफ्तर के बड़े अधिकारी थे, इसलिए मुंह पर किसी ने कुछ नहीं कहा, पर एक वैज्ञानिक द्वारा अपने पिता की उचित चिकित्सा न करवाकर मरने के लिए बनारस ले जाना, सबको आश्चर्य में डाल गया था। अपने साहब के पिता की आत्मा की शान्ति के लिए कामना संदेश देने आए दफ्तर के एक-एक कर्मचारी और अधिकारी के मुख के भाव से शिवरत्न जी ने भांप लिया था, अपने बॉस के प्रति उनकी खंडित भावना ही थी। शिवरत्न जी को दुनिया वालों की इतनी परवाह भी नहीं थी।

मनहर की नाराजगी दूर करते हुए उन्होंने कहा था- “बेटा! अभी डाक्टरी की पढ़ाई पढ़ रहे हो। जिन्दगी की किताबों में कुछ अलग पाठ्यक्रम है। बाद में पढ़ना।”

बेटा बड़ा होकर हू-ब-हू तो नहीं, पर बहुत कुछ पिता की भांति सोचने लगा था। इंग्लैड जाकर तो उसने भारतीय जीवन शास्त्र को ही पढ़ लिया। प्रभावित हुआ। जीवन के बहुमूल्य आठ वर्ष तक पढ़ाए गए चिकित्सा विज्ञान में जीवन और मरण का पाठ तो नहीं पढ़ा था। रोग, मृत्यु और नये जीवन का पाठ था। अपने हाथ आए मरीजों की ईमानदार चिकित्सा के बावजूद उन्हें नहीं बचा पाने का उत्तर तो भारतीय शास्त्रों में मिला था। फिर तो पिता-पुत्र की खूब जमती। घंटों दूरभाष पर ही वार्तालाप होता। प्रसन्न थे शिवरत्न जी। मनहर की सोच में आए परिवर्तन उन्हें उल्लास से भर देते। अपने विचारों के समर्थन में शिवरत्न जी ने वेद, पुराण, गीता, रामचरितमानस ही नहीं रहीम, कबीर और अनेक संतों की वाणी कंठाग्र कर रखी थी। या यों कहे कि उन्हें कंठाग्र करते हुए ही उनके विचार बने थे। उनके द्वारा बार-बार दुहराने से मनहर और आकाश क्या, घर में पन्द्रह वर्ष से कार्यरत सेवक को भी स्मरण हो गए थे।

पिता को अस्पताल भेजकर आकाश चिंतित था। पता नहीं भैया उसे माफ करेंगे कि नहीं। दूरभाष पर सूचना मिलने पर मनहर ने इतना ही कहा था- “कोई बात नहीं। रहने दो उन्हें वहीं। मैं आ रहा हूं। देख लूंगा।”

आकाश ने पिता की चिकित्सा कर रहे चिकित्सक से भी डा. मनहर की बात करवा दी थी। जितनी देर डा. चौहान, इंग्लैंड के नामी-गिरामी डा. मनहर से मोबाइल पर बात करते रहे, आकाश उनके चेहरे पर आते-जाते भाव पढ़ते रहे। अधिकतर चिकित्सा जगत की तकनीकी बातें थीं।

अंत में डा. चौहान ने कहा था- “आप जैसा कहें, मैं अभी भी आपकी सलाह मान सकता हूं। पर जब आप दो दिन बाद आ ही रहे हैं तो आपके सामने ही ठीक रहेगा।”

आकाश “सलाह” का आशय नहीं जान पाए थे। डाक्टर चौहान जल्दबाजी में थे। कोई आपातकालीन मामला आ गया था। दो दिनों बाद ही डा. मनहर सपरिवार आ गए थे। उनकी पत्नी तान्या भी एनेस्थीसिया विधा में दक्ष थीं। दोनों ने मिलकर पिता का परीक्षण किया। डा. चौहान से लंबी बातचीत हुई।

आकाश भाई के आ जाने से थोड़े निशिं्चत अवश्य हुए थे, आश्वस्त भी। सायंकाल घर  पर सबके साथ भोजन करते हुए डा. मनहर ने सूचना दी थी- “हम कल प्रात:काल पिताजी को घर ले आएंगे। मां भी वही हैं। दोनों के बिना घर बहुत सूना लग रहा है। कल दोनों आ जाएंगे।”

प्रश्न तो साथ बैठे 10 वर्षीय सत्यम के साथ उसकी मां और बुआ की आंखों में भी उतर आए थे। उन्हें एक माला में गंूथ करके भाषा दी थी आकाश ने- “भैया!  पिताजी कैसे ….।” डा. मनहर ने हाथ से इशारा किया था-“चुप रहो। डाक्टर मैं हूं, तुम नहीं।” और पिताजी का प्रथम पुत्र भी। उन्हें पहली बार “पापा” कहने वाला।” दोनों भाइयों में दस वर्ष का अंतराल था। आकाश शांत रहा। डा. मनहर की सूचना सुनकर शिवानी भी चिंतित हो गईं। सारे पाइप और ऑक्सीजन सिलेंडर हटा देने पर क्या उसके पति जिन्दा रहेंगे? पर उन्होंने बेटे से कोई सवाल नहीं किया। विश्वास तो था ही।

पति ने बार-बार कहा था- “तुम्हारा बेटा दुनिया में नाम करेगा। ज्ञानी तो है ही, अपने काम के प्रति ईमानदारी में भी अव्वल है।” चुप रहीं शिवानी। पति के साथ एम्बुलेंस में बैठकर घर आ गईं। उनका दाम्पत्य कक्ष “सघन उपचार कक्ष” में परिवर्तित हो गया। आक्सीजन सिलेंडर और कुछ पाइप तो अब भी शिवरत्न जी के आभूषण बने हुए थे।

आकाश को भाई का निर्णय बिल्कुल पसंद नहीं आया था। उसके मनोभाव की कड़वाहट यदाकदा मुंह पर भी आ जाती। मनहर ने कारण न पूछा, न आकाश बोला, तान्या ने घर वालों के तनावग्रस्त चेहरे देखकर अवश्य कहा था- “आप लोग हम दोनों पर तो विश्वास कीजिए। हम हैं न!”

डा. मनहर ने पिता के मित्रों को दूरभाष पर आग्रह करके बुलाना प्रारंभ किया। अपनी बुआ के तीनों बेटों, मामा के बच्चों और बहन के घरवालों को भी परिवार सहित आमंत्रित कर लिया। बात घरवालों की समझ में नहीं आई। आखिर मेहमानों को क्यों बुलाया जा रहा है? मेहमान आने भी लगे। डा. मनहर कुछ मिनटों के लिए ही पिता से विलग होते। पिता के पास बैठकर ही देश दुनिया की बातें, अपने खानदान के लोगों की स्मृतियां और शिवरत्न जी द्वारा सुनाई सभी बातों का उल्लेख करते रहते। उनका झक्कीपन, उनकी गंभीरता, उनका हास्य-विनोद, जिसने जिस रूप में स्मरण रखा था, सुनाता रहा। शिवरत्न जी के चेहरे पर कभी मुस्कान, कभी गंभीरता कभी चिंतन तो कभी चिंता पसर जाती। इतना तय था कि शिवरत्न जी अपनों से घिरे निश्ंिचत हो रहे थे।

कुछ लोगों ने अंदाज लगाना प्रारंभ किया-“परसों तक ठीक हो जाएंगे।”

शिवरत्न जी के छोटे साले ने कहा- “दीदी! देखना जीजा जी कल तक उठ खड़े होंगे। पांच, सात साल और जीएंगे।”

शिवानी को विश्वास नहीं होता। आकाश को भी नहीं। दोनों की नजर में डा. मनहर ने भूल की थी।

उस शाम घर के सब लोग प्रसन्न मुद्रा में भोजन की मेज पर बैठे थे। छोटे मामा जी ने ही कहा- “मनहर, जीजा जी को घर लाकर तुमने बड़ा अच्छा किया। आज तो वे बहुत ठीक लग रहे हैं। कल तक ऑक्सीजन का पाइप भी निकल जाना चाहिए।”

डा. मनहर कुछ नहीं बोले। पिताजी को छोड़ देश-दुनिया की बातें करते रहे। शिवरत्न जी के पास तान्या बैठी थी। थोड़ी ही देर में वह पति के पास भटकती हुई आई। कुछ कहना चाहती थी। पति ने चुप रहने का इशारा किया। भोजनोपरांत दोनों बाहर लॉन में चले गए। पति-पत्नी के बीच थोड़ी देर बातें हुईं। चार दिन बाद ही दीवाली थी। शहर में पटाखे फूटने की आवाज सुनाई पड़ने लगी थी। हर दीपावली पर डा. मनहर भारत आ जाते थे। तान्या ने कहा- “पिताजी पिछली दीपावली पर कितने खुश थे।” मनहर ने कहा-“इस दीपावली पर भी प्रसन्न होंगे, तुम चिंता मत करो। तुम मां को दूसरे कमरे में सुलाओ। पिताजी के पास हम दोनों रहेंगे।”

अंदर आकर तान्या ने सास से कहा- “मां, आज रात हम दोनों पिताजी के कमरे में रहेंगे। आप दूसरे कमरे में आराम कर लीजिए।”

आधी रात को तान्या ने ही आकर सास को जगाया- “मां! पिताजी नहीं रहे।” शिवानी बिफर पड़ीं-” मैं कहती थी न, मुझे अलग मत करो। तुम लोगों ने नहीं माना।” आकाश भी दौड़ता हुआ पिता के कमरे में गया। मनहर ने मां के मन की बात समझ ली। चुप रहे। पिता का दाह संस्कार हो गया। उन्होंने ही मुखाग्नि दी। चौथे दिन दीवाली थी। पिताजी का चौथा भी। पंडित जी के प्रवचन के बाद उन्होंने कहा- “मैं चाहता हूं कि आज हमारे घर में खूब धूमधाम से दीवाली मने। हमारे पिता के लिए शुभ दिन आया है। वे असत्य से सत्य की ओर, मृत्युलोक से अमृतलोक के लिए तथा अंधकार से प्रकाश की ओर चले गए हैं।”

लोगों ने सुन तो लिया। मां  के मन की शंकाएं समझते हुए मनहर ने कहा- “आकाश, लो यह पत्र जोर से पढ़ो, ताकि सब सुन लें। और धूमधाम से दीपावली मनाने की तैयारी शुरू करें।”

आकाश के हाथों में पिता की लिखी चिठ्ठी थी, जो उन्होंने दो महीने पूर्व ही अपने बेटे मनहर को लिखी थी। आकाश पढ़ने लगे-

“प्रिय बेटा मनहर! ढेर सारा आशीष!

तुमसे और केवल तुमसे मन की इच्छा प्रगट करनी है। मेरी आयु अब 80 वर्ष की हो गई है। मृत्यु का भय भी यदाकदा ग्रसित करता है। मैं मन को समझाने में लगा हूं- मृृत्यु ही सत्य है। जगत तो मिथ्या है।

यह ज्ञान तो मैंने जवानी में प्राप्त कर लिया था। मनन भी किया। तुम्हें भी सिखाया था। पर पता नहीं क्यों, इस उम्र में सब भूला-भूला सा लग रहा है। संसार में आसक्ति बढ़ गई है। मेरी चिंता छोड़ दो। मैं अपने मन को ठीक कर लूंगा।

तुमसे एक ही उम्मीद है। जब कभी मैं बीमार पड़ जाऊं, कभी भी कृत्रिम साधनों पर अस्पताल में मेरी सांसें चालू रखने का प्रयास मत करना। तुम डाक्टर हो। मुझे शान्ति से शांत होने देना। अंधकार से प्रकाश की ओर जाने देना। ऐसा करने पर मेरी आत्मा तुम्हें आशीष देती रहेगी। तुम्हारे भाई-बंधुओं को भी। इसे मेरी अंतिम इच्छा समझना।”

आकाश रुक-रुक कर पढ़ रहे थे। अंतिम वाक्य किसी को सुनाई नहीं दिया था। अस्पताल से घर लाकर पिता की अंतिम इच्छा का पालन ही किया था डा. मनहर ने। उपस्थितजन की आंखें गीली हुईं। उस शाम शिवरत्न जी की कोठी में दीवाली जमकर पसरी थी। आतिशबाजियां भी हुईं। मां का शक-शुबहा उड़ गया था। दीवाली ही दीवाली थी। दूर कहीं मंदिर से मंत्र ध्वनि आ रही थी- “तमसो मा ज्योतिर्गमय……।”

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