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प्रो. राकेश सिन्हाराजनीतिक दांवपेंच और वोट परस्ती का सबसे अधिक नुकसान पंथनिरपेक्षता को हो रहा है। ऐसा लग रहा है कि “तुष्टीकरण” के प्रति मानो राजनीतिक स्तर पर एक “आम सहमति” बन गयी हो। राजनीतिक दलों के बीच वोट बैंक की प्रतिस्पर्धा इतना घिनौना रूप ले चुकी है कि वे इस प्रश्न पर सोचने, बोलने या कुछ करने के लिए तैयार नहीं हैं। तभी तो सच्चर कमेटी की रपट की असलियत खुलने के बाद भी किसी भी दल ने दमदार ढंग से उस पर प्रश्न नहीं खड़ा किया। यह किसी से छिपा नहीं है कि यह रपट सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक जीवन में साम्प्रदायिक मनोवृत्ति को बढ़ाने वाली है। रपट में आंकड़ों का गलत इस्तेमाल, त्रुटिपूर्ण एवं पक्षपातपूर्ण व्याख्या और पूर्वाग्रहपूर्ण निष्कर्ष निकाले गए। पर जब विरोध का स्वर उठा ही नहीं तो यह एक ऐसा दस्तावेज बन गया जो तुष्टीकरण की सभी नीतियों को “नैतिक” बना देता है। अल्पसंख्यकवादी राजनीति स्वतंत्र भारत में इतनी निरंकुश, उत्साहित और प्रबल पहले कभी नहीं थी।अल्पसंख्यक यानी मुसलमानसच्चर रपट औपनिवेशिक काल की हंटर रपट (1870) की तरह एक “आदर्श” मापदंड और संदर्भ- बिन्दु बन गयी है। लिहाजा अल्पसंख्यक शब्द सभी व्यावहारिक कारणों से मुसलमानों का पर्यायवाची बन चुका है। इसलिए अल्पसंख्यकों के नाम पर केन्द्र एवं राज्यों में गठित मंत्रालय एवं संस्थाएं एक समुदाय विशेष के लिए समर्पित हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो बिहार की नीतिश कुमार की सरकार मैट्रिक परीक्षा में उत्तीर्ण मुस्लिम छात्रों को दस हजार रुपए की प्रोत्साहन राशि देकर गौरवान्वित महसूस नहीं करती। केन्द्र सरकार को रोकने वाले तो दूर, उस पर तार्किक और तीखे सवाल करने वालों के भी लाले पड़ गए हैं।किसी लोकतांत्रिक एवं पंथनिरपेक्ष राज्य का पहला दायित्व होता है बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक चेतना को समाप्त करना। औपनिवेशिक काल में साम्राज्यवादियों ने “पिछड़ेपन”, “अशिक्षा”, “भेदभाव” के नाम पर इसी अल्पसंख्यक चेतना को बढ़ाने का काम किया था, जिसकी परिणति अंतत: पंथनिरपेक्ष राजनीति के नियंत्रण से बाहर हो जाने के रूप में सामने आई। शिक्षा और रोजगार दो ऐसे क्षेत्र हैं जिनमें भेदभाव, तुष्टीकरण, साम्प्रदायिक मनोवृत्ति आदि पृथकता के भाव को न सिर्फ बढ़ाती हैं बल्कि उग्र भी करती है।सच्चर कमेटी की रपट आने के बाद से देश की संस्थाओं एवं संरचनाओं का साम्प्रदायिक नीतियों को प्रश्रय देने, वैधानिकता देने के लिए दुरुपयोग जिस सीमा तक हो रहा है वह सिर्फ चिंताजनक ही नहीं, झकझोरने वाला भी है। भारत सरकार का अल्पसंख्यक मामलों का मंत्रालय देश की संस्थाओं एवं समाज विज्ञानियों को मोटी रकम देकर उन्हें सच्चर रपट के आईने और परिधि में काम करने के लिए प्रोत्साहित कर रहा है। सरकार नियंत्रित प्राय: सभी संस्थाओं, जिनको सार्वजनिक एवं शैक्षणिक जगत में आदर के साथ देखा जाता है, के द्वारा रपट तैयार करवा कर मुस्लिम राजनीति एवं महत्वाकांक्षा को मजबूत बनाया जा रहा है। ऐसी ही एक संस्था है भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद। इसे 90 मुस्लिम बहुल जिलों के सर्वेक्षण का काम सौंपा गया और इसके लिए इसे 2.6 करोड़ रुपये का अनुदान दिया गया। इसके अध्यक्ष जावेद आलम हैं। इसकी रपट में कुछ भी नया नहीं है। सच्चर रपट के दूसरे अध्याय में जिन अफवाहों, अपवादों, मनगढ़ंत एवं काल्पनिक बातों को लिखा गया है, परिषद् की रपट में उसी का “औचित्य” सिद्ध किया गया है। यह अकेला उदाहरण नहीं है।सर्वेक्षण के बहानेदिल्ली की दूसरी महत्वपूर्ण संस्था भारतीय लोक प्रशासनिक संस्थान को तीन लाख रुपये का एक “पायलट प्रोजेक्ट” दिया गया है। इसका उद्देश्य यह जानना है कि जयपुर और इलाहाबाद में रेलवे में कितने मुसलमान कार्यरत हैं। अल्पसंख्यक मामलों का मंत्रालय इसके बाद पूरे देश की रेलवे सेवा में यह अध्ययन कराने का विचार कर रहा है। सुरक्षा एजेंसियों, पुलिस, बैंकों, सार्वजनिक उद्यमों और यहां तक कि निजी उद्योगों पर यह दबाव बनाया जा रहा है कि वे नियुक्तियों में समुदाय विशेष के लोगों का खास ध्यान रखें। किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में इस प्रकार का अनौपचारिक दबाव एवं औपचारिक क्रियान्वयन पृथक नागरिकता, अलग सोच एवं साम्प्रदायिक द्वेष को बढ़ाने का काम करता है। केन्द्र में अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री सलमान खुर्शीद “कार्पोरेट” मामलों के भी मंत्री हैं। अत: अनौपचारिक दबाव के वजन का अनुमान लगाया जा सकता है। सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि उनके द्वारा लगातार इस प्रकार के बयान भी आ रहे हैं कि नियुक्तियों में मुसलमानों का विशेष ध्यान रखा जाये। हर चौथे दिन इस प्रकार की रपट हिन्दी, उर्दू, अंग्रेजी अखबारों में छप रही है। भारतीय राजनीति में पंथनिरपेक्षता का पक्ष इतना कमजोर हो गया है कि एक बार भी, किसी भी कोने से, किसी ने आपत्ति तक दर्ज नहीं की है।अल्पसंख्यकवाद के अश्वमेध का परिणाम दिखाई पड़ रहा है। सार्वजनिक उद्यमों में सन् 2009 में मुस्लिमों की 12,450 नियुक्तियां हुई हैं। पहले यह आंकड़ा 6311 था। अद्र्धसैनिक बलों में नियुक्तियां 2700 से बढ़कर सन् 2009 में 3879 हो गयीं। अल्पसंख्यक मंत्रालय 16 योजनाओं पर करोड़ों रुपये खर्च कर रहा है। अल्पसंख्यक समुदाय के छात्रों को बस एक प्रतिशत ब्याज पर शैक्षणिक ऋण दिया जा रहा है और इस वित्त वर्ष में उन्हें विदेशों में शिक्षा प्राप्त करने के लिए 11 करोड़ रुपए आवंटित किए गए हैं। इसी तरह, अल्पसंख्यक महिलाओं में नेतृत्व विकास कार्यक्रम नामक एक नयी परियोजना शुरू की गयी है। जाहिर है इसका उद्देश्य महिला आरक्षण में अल्पसंख्यक महिलाओं के लिए आरक्षण के भीतर आरक्षण की पृष्ठभूमि तैयार करना है।किस पांथिक आस्था के कितने लोग नौकरशाही, सेना या पुलिस में हैं, यह स्थापित करना लोकतांत्रिक-पंथनिरपेक्ष राज्य के लिए घातक है। यह वृत्ति नौकरशाही, बैंक, सुरक्षा एजेंसियों को साम्प्रदायिकता की परिधि में दबोचने का काम करती है। साम्प्रदायिक आधार पर छात्रावृत्ति, नियुक्तियां, सुविधाएं, अनुदान आदि साम्प्रदायिक चेतना को बढ़ाने एवं पहचान की राजनीति को सम्मानित, नैतिक और जिद्दी बनाने का काम करते हैं। पंथनिरपेक्ष शिक्षण संस्थाओं में आर्थिक विपन्नता या हाशियेपन के कारण 13 प्रतिशत आबादी वाले मुसलमानों को यदि 26 प्रतिशत भी छात्रावृत्ति या अनुदान मिलता तो यह प्रश्न विमर्श या चिंता का विषय न होता, न होना चाहिए। हाशिये पर बैठे लोगों की मदद करना राज्य का दायित्व होता है। परंतु वर्तमान व्यवस्था में जो कुछ हो रहा है उसका मार्ग घोर साम्प्रदायिक है। इसलिए यह विमर्श और चिंता का विषय है।राष्ट्रीय संकल्प का तिरस्कारभारतीय गणतंत्र की स्थापना के समय जो कसम खायी गयी थी, जो संकल्प किया गया था उन सबका ऐसा तिरस्कार हो रहा है जैसे वे अपराध-बोध की चीज हैं। संविधान सभा में तजम्मुल हुसैन, जो बिहार मुस्लिम लीग के प्रतिनिधि थे, ने कहा था कि “बहुसंख्यक समुदाय के उपस्थित सदस्यों से मैं पूछना चाहता हूं, आप हमें अपने पांव पर खड़े होने देंगे या नहीं? आप हमें भारतीय जाति का अंग बने रहने देंगे या नहीं? आप हमें बराबर साझीदार मानते हैं या नहीं? आप हमें कंधे से कंधा मिलाकर आगे बढ़ने देंगे या नहीं? आप अपने सुख-दुख में हिस्सा बंटाने देंगे या नहीं? अगर आपका जवाब हां में है तो फिर मुसलमानों के लिए आरक्षण देने की व्यवस्था को अपने दिमाग से निकाल दीजिए। हम अपने पांव पर खड़े होना चाहते हैं।… हममें और आपमें कोई फर्क नहीं है। हम अल्पसंख्यक नहीं हैं।” हुसैन आज सलमान खुर्शीद से लेकर नीतिश कुमार तक के लिए एक अवांछित व्यक्ति बन गए हैं। यदि नहीं होते तो बिहार में उनके नाम पर विश्वविद्यालय खुलता। ऐसा नहीं हुआ, क्योंकि वे अल्पसंख्यकवादी राजनीति के विरोध को प्रतिबिम्बित करते हैं। जबकि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के एक नहीं, देश भर में मलप्पुरम से लेकर किशनगंज तक, पांच परिसर खोल दिये गये हैं।अलग शिक्षण संस्थायें, बैंकों से लेकर छात्रवृत्ति तक रियायतें, नियुक्तियों में प्रश्रय जैसी नीतियां भारतीय राजनीति को “40 के दशक में ले जा रही हैं। ऐसी विघटनकारी राजनीति एवं सामाजिक दर्शन पर तटस्थता भी भारतीय गणतंत्र और पंथनिरपेक्षता के प्रति उतना ही बड़ा अपराध है जितना इसका ताना-बाना बुनने वालों का है।8
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