|
देवेन्द्र स्वरूपएक अहिंसक समाज की त्रासदी-5कश्मीर प्रश्न ही पंथनिरपेक्षता की कुंजी हैखंडित भारत की इससे बड़ी त्रासदी क्या हो सकती है कि जिस मुस्लिम प्रश्न से छुटकारा पाने के लिए उसने मातृभूमि के विभाजन का महंगा मूल्य चुकाया था, वही मुस्लिम प्रश्न उसकी 63 वर्ष लम्बी यात्रा का केन्द्रीय प्रश्न बना हुआ है। 15 अगस्त 1947 से आज तक के समाचार पत्रों, रेडियो और टेलीविजन के खबरिया चैनलों का सर्वाधिक स्थान और समय मुस्लिम समस्या से जूझने में ही खर्च होता है। खंडित भारत की यात्रा का श्रीगणेश ही कश्मीर पर पाकिस्तानी आक्रमण के साथ हुआ। तब से आज तक कश्मीर प्रश्न ही भारत की रक्षा नीति, विदेश नीति और गृह नीति की धुरी बना हुआ है। एक वाक्य में कहना हो तो कश्मीर प्रश्न मात्र इतना है कि मुस्लिम बहुल कश्मीर घाटी पंथनिरपेक्ष भारत का अंग रहे या इस्लामी देश पाकिस्तान का। मुस्लिम बहुसंख्या के कारण पाकिस्तान उस पर अपना अधिकार जताता है जबकि जवाहरलाल नेहरू से आज तक, भारतीय नेतृत्व कश्मीर को भारत के पंथनिरपेक्ष चरित्र की रक्षा की कसौटी के रूप में देखता रहा है। पाकिस्तान कश्मीर को पाने के लिए भारत से चार-चार युद्ध लड़ और हार चुका है। 1987 से उसने कश्मीर घाटी में आतंकवाद का सहारा लिया, चुन-चुनकर हिन्दू नेताओं की हत्या की गई और धर्मस्थलों का ध्वंस किया गया। फलस्वरूप कश्मीर घाटी से कई लाख हिन्दुओं को अपना सब कुछ छोड़कर भागना पड़ा और वे आज भी स्वाधीन भारत में शरणार्थी रूप में जी रहे हैं। कश्मीर घाटी के इस्लामीकरण की प्रक्रिया पूरी हो चुकी है। भारत का अंग बनाए रखने के लिए भारत की विशाल सेना और अपार धनराशि को वहां लगाना पड़ रहा है। कश्मीर घाटी में वहां की सरकार का नहीं, पृथकतावादियों का हुक्म चलता है। पृथकतावादी चाहे जब, प्रधानमंत्री के आगमन के विरोध में भी, बाजार बंद करा देते हैं, भारत के सुरक्षा बलों को बदनाम करने के लिए मजहबी जुनून भड़काकर उन पर हमले करवा देते हैं और भारत के तथाकथित पंथनिरपेक्षतावादी पत्रकार नागरिकों पर सशस्त्र सुरक्षा बलों के अत्याचारों का अतिरंजित और मनगढ़ंत वर्णन करके अपने देश को बदनाम करने में बहादुरी समझते हैं। पिछले एक सप्ताह से अखबारों और टेलीविजन चैनलों पर यही तमाशा छाया हुआ है। सुविधाभोगी बुद्धिजीवी, पत्रकार और नेता भारत को संयम और पृथकतावादियों से वार्ता की सलाह दे रहे हैं। क्या सचमुच वे नहीं जानते कि पृथकतावादियों की पहले दिन से एक ही मांग रही है कि “मुस्लिम कश्मीर घाटी” हिन्दू भारत का अंग बनने को तैयार नहीं है, वह या तो स्वतंत्र रहेगी या पाकिस्तान का अंग बनेगी? पर, भारत का अन्तद्र्वंद्व यह है कि यदि कश्मीर के मुसलमान हिन्दू भारत के साथ रहने को तैयार नहीं हैं तो शेष भारत के मुसलमानों का क्या होगा? क्या उन्हें विभाजन की मांग का समर्थन करने के बाद भी खंडित भारत में बसे रहने का अधिकार रह जाता है? संक्षेप में, कश्मीर प्रांत समूचे भारत की मुस्लिम समस्या से जुड़ा हुआ है। कश्मीर समस्या का दूसरा महत्वपूर्ण पहलू यह है कि जम्मू-कश्मीर राज्य के अंतर्गत मुस्लिम बहुल कश्मीर घाटी, हिन्दू बहुल जम्मू व बौद्ध बहुल लद्दाख आते हैं। किंतु भारत और विश्व का ध्यान केवल कश्मीर घाटी पर केन्द्रित है। लद्दाख और जम्मू पूरी तरह उपेक्षित हैं। और इस उपेक्षाभाव का लाभ उठाकर इस्लामी विस्तारवाद जम्मू और लद्दाख क्षेत्रों में भी अपने पैर तेजी से फैला रहा है। इस मजहबी विस्तारवाद से भयभीत जम्मू और लद्दाख केन्द्र शासित प्रदेश बनना चाहते हैं, पर मुस्लिम पृथकतावाद को रिझाने के लोभ में इन दोनों क्षेत्रों की रक्षा के हित में यह कदम उठाने का साहस भी भारत का नेतृत्व नहीं बटोर पा रहा, बड़े-बड़े सिद्धांतों के शब्दाडम्बर में अपनी भीरुता को ढंकने की कोशिश कर रहा है।कश्मीर पर चुप्पी क्यों?आश्चर्य तो यह है कि शेष भारत के मुस्लिम नेतृत्व ने कश्मीर प्रश्न पर लगभग चुप्पी साध ली है, जबकि अपेक्षा यह थी कि मुस्लिम समाज के भीतर से पूरे भारत में कश्मीर में पाकिस्तानी हस्तक्षेप और पृथकतावादी प्रवृत्तियों के विरुद्ध एक जबर्दस्त आंदोलन खड़ा होगा। पर, उसके कोई प्रत्यक्ष लक्षण हमारे सामने नहीं हैं। यह विश्वास करना कठिन है कि राजनीतिक दृष्टि से अत्यंत जागरूक एवं सक्रिय मुस्लिम समाज के भीतर इस प्रश्न पर कोई विचार-मंथन न हुआ हो। वस्तुत: मुस्लिम समाज के भीतर चल रहे विचार-मंथन को गहराई में प्रवेश कराने की कोई प्रलेखन प्रक्रिया ही हमारे देश में विकसित नहीं हुई। हम नहीं जानते कि विभाजन के समय मुस्लिम समाज के भीतर क्या विचार-मंथन चल रहा था, उसने हिन्दू भारत के भीतर अपनी मजहबी पहचान की रक्षा के लिए क्या रणनीति बनायी थी? जिस कांग्रेस को उसने 1885 से 1947 तक कभी समर्थन नहीं दिया, उसी कांग्रेस को 1952 के पहले आम चुनाव में अपना पूर्ण समर्थन देने का निर्णय उसने क्यों और कैसे लिया? 1959 में केरल की कम्युनिस्ट सरकार को गिराने के लिए केरल मुस्लिम लीग ने तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष इंदिरा गांधी के साथ खुला गठबंधन क्यों किया? 1967 के चुनावों में लखनऊ के डा.फरीदी के नेतृत्व में उसने कांग्रेस से दूरी बनाने का मन क्यों बनाया? और 1969 में कांग्रेस के विभाजन व जातिवादी राजनीति के उभार के बाद उसने अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग क्षेत्रीय दलों के समर्थन देने की रणनीति क्यों अपनायी? अभी कुछ महीने पहले मैंने जमाते इस्लामी के मुखपत्र “रेडियेंस” में पढ़ा कि “मरकाजी इत्तेहादुल मुसलमीन” (केन्द्रीय मुस्लिम फ्रंट) की केन्द्रीय समिति ने 12-13 दिसंबर 2009 की अपनी बैठक में इस आशय का एक प्रस्ताव पारित किया कि क्षेत्रीय दलों को अपनी राजनीतिक गतिविधियां अपने क्षेत्र तक ही सीमित करनी चाहिए, अन्य क्षेत्रों में पैर फैलाने से विभिन्न दलों के बीच टकराव पैदा होगा, जिससे दुश्मन की ताकत बढ़ेगी। यह दुश्मन कौन है, जिसके विरुद्ध समस्त क्षेत्रीय दलों का मोर्चा तैयार किया जा रहा है? कई वर्ष पहले हम पाञ्चजन्य में आम चुनाव के पूर्व मिल्ली काउंसिल द्वारा प्रसारित दिशा-निर्देशों को प्रकाशित कर चुके हैं। इन दिशा-निर्देशों के अनुसार, “मुस्लिम मतदाताओं का मुख्य लक्ष्य भाजपा को हराना है, अत: प्रत्येक चुनाव क्षेत्र में उनकी पहली वरीयता किसी मुस्लिम उम्मीदवार को जिताने की होनी चाहिए। यदि मुस्लिम उम्मीदवार जीतने की स्थिति में न हो तो जो भी उम्मीदवार भाजपा को हरा सके, वह चाहे जिस दल का हो, उसे अपना समर्थन देना चाहिए।” जिस प्रकार स्वाधीनता के पूर्व मुस्लिम नेतृत्व ने भारतीय राष्ट्रवाद की प्रतिनिधि होने के कारण गांधी और नेहरू की कांग्रेस को अपना मुख्य शत्रु माना था, उसी प्रकार खंडित भारत में उसने पहले भारतीय जनसंघ और अब भाजपा को अपना मुख्य शत्रु माना हुआ है। 1967 तक उसने कांग्रेस को ढाल बनाया और 1967 के बाद में क्षेत्रवादी व जातिवादी दलों को अपनी राष्ट्रवाद विरोधी राजनीति का हथियार बनाया हुआ है।सूत्र संचालक मुस्लिम नेतृत्वभारत में अपनी भेदनीति को क्रियान्वित करने के लिए अंग्रेजों ने भारतीय समाज को जाति, पंथ और क्षेत्र के आधार पर विखंडित करने वाली जिस तथाकथित संविधान सुधार प्रक्रिया का 1935 के भारत एक्ट तक आरोपण किया उसी के आधार पर स्वाधीन भारत ने दल और वोट की चुनावी राजनीति की धुरी पर घूमने वाली संवैधानिक रचना को अपना लिया। इस संवैधानिक रचना में चुनावी राजनीति ने एक ओर तो राष्ट्रीय समाज को व्यक्ति या वंश केन्द्रित छोटे-छोटे अनेक जातिवादी क्षेत्रीय दलों में विभाजित कर दिया है, दूसरी ओर मजहबी आधार पर मुस्लिम समाज को सबसे बड़े वोट बैंक के रूप में संगठित कर दिया है। वस्तुस्थिति यह है कि चुनावी राजनीति का संचालन सूत्र लालू-मुलायम-पासवान-अजीत सिंह-ममता बनर्जी या बुद्धदेव भट्टाचार्य के हाथों से खिसक कर बंद पर्दे के पीछे मुस्लिम नेतृत्व के हाथों में पहुंच गया है। कम्युनिस्ट अब तक केरल और प. बंगाल में मुस्लिम समर्थन के बल पर जीतते रहे पर अब वे प. बंगाल में ममता बनर्जी पर मुस्लिम साम्प्रदायिकता को उभाड़ने का आरोप लगा रहे हैं, केरल में भी मुस्लिम समर्थन खिसकने का भय उन्हें सता रहा है। प. बंगाल और केरल की चुनावी राजनीति में मुस्लिम वोट बैंक की निर्णायक भूमिका है। इधर बिहार में भी मुस्लिम वोट बैंक को रिझाने के लिए लालू, पासवान, नितीश और कांग्रेस में होड़ लगी हुई है। पिछले दिनों नितीश द्वारा नरेन्द्र मोदी के विरोध प्रदर्शन के पीछे मुस्लिम वोट बैंक को रिझाने की रणनीति ही बतायी जा रही है। वहां सोनिया पार्टी ने बाहृण को धकियाकर एक मुसलमान को बिहार कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर बैठाया है। पर्दे के पीछे रहकर मुस्लिम नेतृत्व व्यक्तिवादी सत्तालोलुपता में से उभरे इस राजनीतिक विखंडन का बड़ी कुशलतापूर्वक लाभ उठा रहा है। कई बार विचार मंथन करके उसने पृथक मुस्लिम राजनीतिक दल बनाने का इरादा छोड़ दिया, क्योंकि उसे खतरा लगा कि स्वतंत्र मुस्लिम दल के नाम से चुनावी राजनीति में कूदने से कहीं हिन्दू वोटों का ध्रुवीकरण न हो जाए इसलिए यह भ्रम बनाए रखना आवश्यक है कि मुस्लिम मतदाता भी हिन्दू मतदाताओं की तरह अनेक दलों में बिखरे हुए हैं और चुनावी राजनीति के रंगमंच पर वास्तविक अभिनेता हिन्दू नेता ही है, मुस्लिम नेता उसमें कहीं नहीं है। ऐसे विश्लेषक भूल जाते हैं कि हिन्दू समाज की अन्तर्रचना मुस्लिम समाज से बहुत भिन्न है। इस्लाम जैसी कोई सशक्त मजहबी विचारधारा हिन्दुओं को एकसूत्र में पिरोने का काम नहीं करती। वैविध्यपूर्ण हिन्दू समाज की एकमात्र प्रेरणा राष्ट्रीयता की भावना ही हो सकती है, किंतु राजनीतिज्ञों की व्यक्तिगत सत्ता लालसा ने राष्ट्रीयता की भावना को जाति, क्षेत्र और पंथ की संकुचित चेतनाओं में बिखेर दिया है। चुनाव के अखाड़े में अलग-अलग पहलवानों की पीठ ठोकता दिखाई देने के बाद भी मुस्लिम वोट बैंक किसी केन्द्रीय रणनीति से संचालित है, इसका सूक्ष्म अध्ययन आवश्यक है।रणनीति के मोहरे1998 में भारतीय जनता पार्टी नीत गठबंधन के केन्द्र में सत्तारूढ़ होने और अनेक राज्यों में भाजपा सरकारों के बनने के बाद कट्टरवादी मुस्लिम नेतृत्व बहुत सशंकित हो गया है। भाजपा के अखिल भारतीय प्रतिद्वंद्वी के रूप में वह सोनिया कांग्रेस का समर्थन करने की रणनीति बना रहा है। सोनिया की पूरी रणनीति भी अब मुस्लिम वोट बैंक को रिझाने पर केन्द्रित है। केन्द्र में अल्पसंख्यक मंत्रालय का गठन, सच्चर कमेटी, रंगनाथ मिश्र रपट, समान अवसर आयोग, नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध तीस्ता जावेद सीतलवाड़, शबनम हाशमी, हर्षमंदर आदि का इस्तेमाल इसी रणनीति के अंग हैं।तो क्या हम यह मान लें कि मुस्लिम समाज के भीतर इस्लामी विचारधारा के बारे में पुनर्चिंतन और राष्ट्रीयता की उदार चेतना का कोई अस्तित्व नहीं है? यह कहना ठीक नहीं होगा। जनसंघ के दिनों से ही सिकंदर बख्त, आरिफ बेग, आरिफ मोहम्मद खान, मुख्तार अब्बास नकवी व शाहनवाज हुसैन जैसे अनेक मुस्लिम नेता और मौ. वहीदुद्दीन खान, मुजफ्फर हुसैन, एम.जे. अकबर, साजिद रशीद जैसे बुद्धिजीवी- पत्रकार प्रखर राष्ट्रवाद के साथ खड़े रहे हैं। परंतु कट्टरवादी मुस्लिम नेतृत्व उन्हें “हिन्दुओं का एजेंट” कह कर लांछित करता है। 1975-77 के आपातकाल में जेलों के भीतर संघ परिवार और मुस्लिम नेताओं के बीच घनिष्ठ आत्मीय संबंध स्थापित हुए। जेलों से बाहर आकर भी सौहार्द का वह अध्याय आगे बढ़ा। किंतु जनता पार्टी के भीतर जनसंघ विरोधी सत्ता-स्पर्धा ने इस अध्याय को आगे नहीं बढ़ने दिया। पिछले कुछ वर्षों में रा.स्व. संघ और मुस्लिम नेताओं के बीच वैचारिक संवाद और सम्पर्क काफी आगे बढ़ा है। इन प्रयत्नों में से “राष्ट्रीय मुस्लिम मंच” का प्रादुर्भाव हुआ है। किंतु राष्ट्रीय एकता का कोई भी प्रयास आरंभ होते ही पृथकतावादियों के कान खड़े हो जाते हैं और वे अपनी कुटिल भेदनीति आरंभ कर देते हैं।लगभग दो दशाब्दियों से पूरा देश जिहादी आतंकवाद से त्रस्त है। संसद भवन से लेकर जम्मू के असेम्बली भवन तक, अक्षरधाम मंदिर, वाराणसी के संकटमोचन मंदिर, अयोध्या के श्रीराम जन्मभूमि मंदिर तक, मुम्बई, कोयम्बतूर, बंगलूरू, हैदराबाद, जयपुर, अमदाबाद, दिल्ली, कानपुर आदि अनेक नगरों में बम विस्फोटों में हजारों निरपराध जानें जा चुकी हैं। बम विस्फोटकत्र्ताओं ने खुल्लमखुल्ला अपने को जिहादी घोषित किया है, दारुल इस्लाम की स्थापना को अपना लक्ष्य बताया है। कुरान और हदीस को अपना प्रेरणा रुाोत बनाया है। आशा की जाती थी कि मुस्लिम समाज स्वयं आगे बढ़कर इन उग्रवादी युवकों को कानून के हवाले करेगा, उन्हें इस्लाम द्रोही घोषित करेगा और इस्लामी रुाोतों के उन अंशों को, जहां से उन्होंने निरपराधों का खून बहाने की प्रेरणा ली, संशोधित करेगा। पर देखने में इसके उलट आ रहा है। पुलिस की मदद करने के बजाय उस पर “निर्दोषों के उत्पीड़न” का आरोप लगाया जा रहा है। ये जिहादी कहां से आते हैं, कहां गायब हो जाते हैं, इसका कोई जवाब नहीं।विकृत सोचमुस्लिम समाज की सोच को विकृत दिशा में धकेलने का एक उदाहरण देना पर्याप्त होगा। महाराष्ट्र के इंस्पेक्टर जनरल आफ पुलिस जैसे महत्वपूर्ण पद से सेवानिवृत्त एस.एम.मुशरिफ ने मुम्बई पर 26 नवम्बर 2008 के आतंकी हमले के बाद एक किताब लिखी, “हू किल्ड करकरे?” (करकरे की हत्या किसने की?) उसमें उनकी मुख्य प्रस्थापना है कि महाराष्ट्र में ज्योतिबा फुले आदि के सुधार आंदोलनों से घबराए बाहृणवादियों ने 1893 से हिन्दू-मुस्लिम दंगे भड़का कर हिन्दू-मुस्लिम भेद पैदा किया, हिन्दू समाज पर अपनी पकड़ मजबूत करने की कोशिश की। ब्रााहृणवादियों की इस रणनीति के तहत 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना हुई। ब्रााहृणवादियों ने मीडिया और भारत सरकार के गुप्तचर विभाग (आईबी) पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित कर लिया और इन दोनों की सहायता से उन्होंने मुस्लिम समाज पर दंगे भड़काने और आतंकवादी गतिविधियों का आरोप मढ़ डाला। आई.जी.पी. जैसे बड़े पद पर पहुंचने वाले इस उच्च शिक्षा प्राप्त मुस्लिम बुद्धिजीवी ने आई.बी. पर झूठी अफवाहें फैलाने और प्रधानमंत्री कार्यालय व गृह मंत्रालय को गुमराह करने के गंभीर आरोप लगाए हैं। मुशरिफ लिखते हैं, “ब्रााहृणवादियों ने दंगे करवाने की अपनी पुरानी नीति को त्यागकर मुस्लिम आतंकवाद का हौव्वा खड़ा करने की नीति अपनाई और आई.बी. व मीडिया की सहायता से उसकी जमीन तैयार की (पृष्ठ 31)। वह पूछते हैं, “क्या भारत में तथाकथित मुस्लिम आतंकवाद सचमुच इतना भयावह है? उसका अस्तित्व है भी कि नहीं? पूरे विश्व में आतंकवाद की मानसिकता, कार्यविधि और इतिहास का अध्ययन करें तो उत्तर होगा कि “नहीं” (पृ.40)। सच यह है कि इस राक्षस का अस्तित्व ही नहीं है। भारत में मुस्लिम आतंकवाद का कोई इतिहास ही नहीं है।” (पृ.42) 1993 के बम्बई श्रृंखलाबद्ध विस्फोटों और 1998 के कोयम्बतूर बम विस्फोटों की भी वह वकालत करते हुए लिखते हैं कि “कोयम्बतूर के विस्फोट संघ परिवार के मुस्लिम विरोधी प्रचार की प्रतिक्रिया मात्र थे” यह पुलिस अधिकारी 11 जुलाई 2006 को मुम्बई की लोकल ट्रेनों में बम विस्फोटों से मारे गये 187 यात्रियों, 26 जुलाई 2008 को अमदाबाद, 13 सितम्बर 2008 को दिल्ली, 23 सितम्बर 2007 को उत्तर प्रदेश के तीन शहरों के न्यायालय परिसरों और 13 मई 2008 को जयपुर के बम विस्फोटों के बारे में निष्कर्ष निकालता है कि “यह ब्रााहृणवादियों के बचाव और मुसलमानों को फंसाने के आई.बी. के अनावश्यक एवं सुनियोजित हस्तक्षेप का परिणाम है।” पूरी पुस्तक हिन्दू समाज में ब्रााहृण-अब्रााहृण दरार पैदा करने और संघ परिवार को आतंकवाद व दंगों के लिए दोषी ठहराने का प्रयास करती है। क्या मुशरिफ मानते हैं कि पूरा विश्व आज जिस मुस्लिम आतंकवाद से त्रस्त है उसके पीछे भारत के ब्रााहृणवादियों और संघ परिवार का हाथ है? आत्मवंचना किस सीमा तक की जा सकती है! ऐसी गैर जिम्मेदार पुस्तक को छापा है भारत के सबसे प्रभावशाली मुस्लिम संगठन मिल्ली काउंसिल के अधिकृत प्रकाशन गृह फरोस मीडिया, जामिया नगर, नई दिल्ली ने। इससे ध्वनित होता है कि यह सोच किसी एक व्यक्ति की नहीं, प्रभावशाली मुस्लिम संगठनों की भी है। जामिया नगर के बटला हाउस की मुठभेड़ में इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा की शहादत पर मुस्लिम संगठनों एवं वोट लोलुप राजनीतिज्ञों ने जो विवाद खड़ा किया है, वह इसी मानसिकता का परिचायक है। सवाल है कि इस मानसिकता के रहते भारत में एकात्म राष्ट्रजीवन का निर्माण कैसे संभव है? इस दिशा में मुस्लिम समाज के भीतर आत्मालोचन प्रक्रिया कैसे आगे बढ़े? जारी (1 जुलाई, 2010)11
टिप्पणियाँ