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द ह्मदयनारायण दीक्षितअवसाद, विषाद और प्रसाद तीन शब्द परस्पर पड़ोसी लगते हैं पर तीनों के बीच बहुत लम्बा फासला है।अवसाद आधुनिक प्रतिस्पर्धी पीढ़ी का रोग है लेकिन “विषाद” संशयग्रस्त बुद्धिमान का द्वन्द्व है। अर्जुन को विषाद हुआ था। वह महाभारतकालीन ऐतिहासिक कालखण्ड का प्रमुख योद्धा था। युद्ध उसके स्वभाव में था। अर्जुन की समस्या आधुनिक नकली शांतिवादियों से भिन्न है। कथित शांतिवादी युद्ध को हिंसक और सर्वनाशक बताते हैं। राष्ट्रवादी राष्ट्रहित में युद्ध को अपरिहार्य सिद्ध करते हैं। ऐसे में युद्ध के औचित्य बनाम अनौचित्य पर बहस चलती है। लेकिन अर्जुन युद्ध विरोधी नहीं है। वह अनेक युद्ध कर चुका है। समस्या परिजनों को मारकर राज्य पाने की है। वह राज्य की खातिर परिजन वध को तैयार नहीं है। प्रत्यक्ष रूप में उसका मत ठीक भी है। अपनों की हत्या कर राज्य पाने से बिना राज्य के रहना अच्छा है। लेकिन बातगीताकार ने इस विवरण वाले अध्याय (प्रथम अध्याय) को “विषाद योग” की संज्ञा दी है। दिलचस्प बात है कि गीता में विषाद भी एक तरह का योग है। इससे गीता के रचनाकार की दृष्टि में योग का असली तात्पर्य सहज ही समझा जा सकता है। यहां किसी तत्व विशेष का मानव व्यक्तित्व के परिपूर्ण आतंरिक तल से जुड़ जाना ही योग है। विषाद मानव व्यक्तित्व की एक खास चित्त दशा है। तब व्यक्तित्व और विषाद एक हो जाते हैं। महाभारत काल में राष्ट्ररक्षा, सम्पत्तिरक्षा, पत्नी परिजनरक्षा, विद्वान और गोवंश की रक्षा के साथ ही आत्मरक्षा को लेकर किये जाने वाले युद्ध राष्ट्रधर्म थे। सामने खड़े कौरव ऐसी ही चुनौती थे। लेकिन परिजन थे। अर्जुन सब कुछ जानता था। इसीलिए विषादग्रस्त हुआ। विषाद अर्जुन जैसों को ही होता है। विषादग्रस्त होने की भी एक पात्रता है। इसके लिए एक उच्च मानसिक बौद्धिक तल चाहिए। इसी तरह अवसादग्रस्त होने की भी एक पात्रता है। इसके लिए निहायत अहंकारी, स्वयं पर ही भरोसा करने वाला, प्रकृति (या परमात्मा) के प्रभावों से नासमझ या जानकर भी न मानने वाला अहमन्य चित्त चाहिए।गीता में विषाद के साथ प्रसाद भी है। गीता अर्जुन के विषाद से शुरू होती है और श्री कृष्ण के प्रसाद पर समाप्त होती है। भारत में सभी कथा प्रवचनों के अंत में प्रसाद वितरण की परम्परा है। यह प्रसाद कोई वस्तु, मिठाई, दूध या कोई फल आदि मधुर पदार्थ होता है। भारत के चिरन्तन राष्ट्रजीवन में ही मधु अभीप्सा है। ऋग्वेद से लेकर समूचे उपनिषद साहित्य में मधु और मधु विद्या की चर्चा है। लेकिन गीता के अन्त का प्रसाद अनूठा है। श्रीकृष्ण और अर्जुन का सम्वाद गीता के 18वें अध्याय के 73वें श्लोक में समाप्त होता है। कृष्ण पूछते हैं “क्या तुमने एकाग्र चित्त होकर उसे (उपदेश) सुना है। क्या अब तुम्हारा “अज्ञान और मोह” दूर हो गया है? (वही 72) यहां कृष्ण अपनी बात पूरी कर चुके हैं। योग्य गुरू या आचार्य की तरह वे यहां अंतिम प्रश्न पूछते हैं “क्या अज्ञान और मोह” दूर हो गया है? गीता की शुरूआ#ात (अध्याय 2) में अर्जुन नेगीता अर्जुन के उत्तर पर समाप्त होती है। अब विषाद की जगह प्रसाद आ गया। अर्जुन ने कहा “नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत- हे अच्युत, आपके प्रसाद से मोह नष्ट हो गया, स्मृति मिली। संशय गये। स्थितोऽस्मि – मैं अब स्थिर हूं, दृढ़ हूं। (अ0 18.73) विषाद से प्रसाद की यात्रा पूरी हो गई। कई विद्वानों ने प्रसाद का अर्थ अनुकम्पा किया है। यहां प्रसाद का अर्थ प्रबोधन/उपदेश भी निकलता है। निस्संदेह कृष्ण की अनुकम्पा या उपदेश से अर्जुन का अज्ञान और मोह दूर हो गया। लेकिन प्रसाद केवल अनुकम्पा या उपदेश ही नहीं है। “प्रसाद” परिपूर्ण आनंद का पर्याय है। अवसाद रुग्णता है। विषाद द्वन्द्व है और प्रसाद यानी परिपूर्ण तृप्ति। भारत का मन सनातन काल से प्रसाद अभीप्सु है। प्रसाद अमृत जो है।12
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