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चुनाव आयोग की निष्पक्षता खतरे मेंदेवेन्द्र स्वरूपभारत के राजनेता वर्ग पर लोकसभा का चुनाव उन्माद इस समय पूरे शबाब पर है। वोटरों को रिझाने के लिए वे सिनेमा स्टारों के कंधों पर सवार होकर रोड शो कर रहे हैं, नोटों की गड्डियां खुल रही हैं, मुफ्त की शराब बह रही है, अपने प्रतिस्पर्धी के विरुद्ध जहर उगला जा रहा है, चरित्र हनन, विश्वासघात किया जा रहा है, धमकाया जा रहा है, आदर्शवाद और विचारधारा को रद्दी की टोकरी में फेंक दिया गया है, सब मंत्री चुनाव मैदान में हैं तो सरकार कैसे काम करे, क्यों करे? किसी को किसी का डर नहीं है। सब कुछ छुट्टा है, मानो अराजकता का राज है। इस समय तो केवल एक ही डंडा है, वह है चुनाव आयोग का। 16 अप्रैल से 16 मई तक पांच चरणों में मतदान की घोषणा के साथ ही चुनाव आयोग का एकछत्र साम्राज्य आरंभ हो गया। आचार संहिता की तलवार प्रधानमंत्री से लेकर अनजान निर्दलीय प्रत्याशी तक, सबके सिरों पर लटकने लगी। रोज अखबारों में पढ़ने को मिलता है कि आज चुनाव आयोग ने अमुक प्रत्याशी को, अमुक मंत्री को, अमुक मुख्यमंत्री को, यहां तक कि, प्रधानमंत्री को भी कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया है। फलाने राज्य के मुख्य सचिव जैसे वरिष्ठ अधिकारी को उसके वर्तमान पद से हटा दिया है। इस समय चुनाव आयोग का शासन है, वह काले को सफेद, सफेद को स्याह कर सकता है, उसके आदेश को चुनौती देने का साहस किसी में नहीं है, न्यायालय का दरवाजा खुला होने पर भी सुनवाई का रास्ता बहुत लम्बा और पेचीदा है इसलिए कोई राजनेता उस भंवर में फंसना नहीं चाहता।ताक पर कायदेचुनाव आयोग की शक्ति और भय इतना अधिक है कि चुनाव आयोग के भीतर जो कुछ घट रहा है, उसे चुनाव की निष्पक्षता के लिए खतरनाक जानने के बाद भी राजनेता वर्ग ने चुप्पी साध रखी है। प्रत्येक को एक ही चिंता है कि कहीं मेरा अपना चुनाव अड़ंगे में न फंस जाए। यह पहली बार हुआ है कि पांच चरणीय मतदान कार्यक्रम को बीच मझदार में छोड़कर 16 अप्रैल के पहले चरण के बाद ही मुख्य चुनाव आयुक्त को सेवा निवृत्त होने दिया गया है। 23 अप्रैल को दूसरे चरण के मतदान के केवल तीन दिन पहले 20 अप्रैल को श्री एन.गोपालास्वामी मुख्य चुनाव आयुक्त के पद से सेवानिवृत्त हो गये। भारत सरकार ने चुनाव प्रक्रिया के पूर्ण होने तक उनसे पद पर बने रहने का कोई अनुरोध नहीं किया, उल्टे एक सप्ताह पूर्व उनकी जगह आंध्र प्रदेश कैडर के आई.ए.एस.अधिकारी वी.एस.सम्पत की चुनाव आयुक्त पद पर नियुक्ति की सार्वजनिक घोषणा करके श्री गोपालास्वामी के लिए एक महीने रुकने का रास्ता बंद कर दिया। 21 अप्रैल को उनकी जगह मुख्य चुनाव आयुक्त के पद पर नवीन चावला का अभिषेक कर दिया गया।गोपालास्वामी आध्यात्मिक प्रवृत्ति के बहुत ही योग्य एवं आदर्शवादी अधिकारी रहे हैं। उन्होंने चुनाव आयोग के राजनीतिक दुरुपयोग को रोकने का भरसक ईमानदार प्रयास किया। उन्होंने 13 मार्च 2009 को राष्ट्रपति को लिखित प्रतिवेदन दिया कि भविष्य में चुनाव आयुक्त का चयन सत्तारूढ़ दल की मनमर्जी से न होकर एक पूर्वगठित चयन समिति के द्वारा किया जाए जिसमें विपक्ष के नेता एवं स्वतंत्र विधिवेत्ता सम्मिलित हों। पर वर्तमान कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज ने गोपालास्वामी की इस उचित सलाह की उपेक्षा कर मनमाने ढंग से सम्पत की नियुक्ति की घोषणा कर दी। गोपालास्वामी सोनिया सरकार की आंखों की किरकिरी बन गये हैं, क्योंकि उन्होंने जून 2005 में चुनाव आयुक्त पद पर नवीन चावला की नियुक्ति के विरुद्ध 205 सांसदों के हस्ताक्षरों सहित तत्कालीन राष्ट्रपति ए.पी.जे.अब्दुल कलाम को लिखित शिकायत एवं मुख्य विपक्षी दल भाजपा के लिखित प्रतिवेदन पर पूरी जांच-पड़ताल के बाद 12 मार्च, 2009 को राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल को संविधान की धारा 324 (5) के तहत नवीन चावला को चुनाव आयुक्त पद से हटाने की अनुशंसा की थी। अगले ही दिन उन्होंने दूसरे लिखित प्रतिवेदन में अनुशंसा की थी कि भविष्य में चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति को पारदर्शी बनाने के लिए उनका चयन पूर्वगठित चयन समिति प्रणाली से किया जाए और संवैधानिक पद से निवृत्त होने के बाद कम से कम दस वर्ष के लिए चुनाव आयुक्त के किसी भी राजनीतिक दल का सदस्य बनने पर रोक लगा दी जाए।नीयत में खोटयदि सरकार की नीयत साफ होती तो मुख्य चुनाव आयुक्त के इन रचनात्मक सुझावों का वह ह्मदय से स्वागत करती। किंतु हुआ उल्टा, कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज ने पहले तो मुख्य चुनाव आयुक्त की राष्ट्रपति के नाम गोपनीय अनुशंसा को एक समाचार पत्र, द हिन्दू को लीक करवाया, और फिर संविधान को ताक पर रखकर एकपक्षीय घोषणा कर दी कि मुख्य चुनाव आयुक्त को ऐसी अनुशंसा करने का कोई अधिकार नहीं है। उन्होंने अपने अधिकार का अतिक्रमण किया है। साथ ही उन्होंने नवीन चावला की मुख्य चुनाव आयुक्त पद पर नियुक्ति की सार्वजनिक घोषणा भी कर दी। मुख्य विपक्षी दल भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव अरुण जेटली ने 13 मार्च, 2009 को भारत सरकार के कानून एवं न्याय मंत्रालय के विधि विभाग से सूचना अधिकार अधिनियम-2005 के अन्तर्गत लिखित प्रार्थना की कि इस विषय पर मुख्य चुनाव आयुक्त, प्रधानमंत्री कार्यालय, कानून एवं न्याय मंत्रालय तथा राष्ट्रपति के बीच जो भी पत्राचार हुआ है उसकी प्रतियां सार्वजनिक हित में उपलब्ध करायी जाएं। किंतु अरुण जेटली को प्रधानमंत्री कार्यालय, न्याय मंत्रालय एवं राष्ट्रपति भवन से एक ही उत्तर दिया गया कि यह पत्राचार अति गोपनीय होने के कारण सार्वजनिक नहीं किया जा सकता। जिस सूचना के अधिकार को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि बताते हैं उसकी वास्तविकता का यह जीता-जागता प्रमाण है। सोनिया सरकार की कार्यशैली से परिचित लोगों को यह उत्तर अपेक्षित था। सोनिया ने इंदिरा गांधी से केवल एक ही गुर सीखा है कि अयोग्य किंतु वफादार लोगों को महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त करो ताकि वे वफादार बने रहें। कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज को यह स्वीकार करने में कोई झिझक भी नहीं है। अभी 18 अप्रैल को उन्होंने राजधानी में एक समारोह में पत्रकारों से खुली बात में स्वीकार किया कि मैं हमेशा से गांधी परिवार का भक्त रहा हूं। अब मैं सोनिया गांधी का भक्त हूं, क्योंकि वे इस परिवार की मुखिया हैं। उसके एक दिन पहले महाराष्ट्र के लातूर नामक स्थान पर पार्टी कार्यकत्र्ताओं की एक रैली को सम्बोधित करते हुए केन्द्रीय ऊर्जा मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने कहा, “मैं जी-हुजूर आदमी हूं।” उन्होंने कहा कि विलासराव देशमुख को भी पार्टी में इतना महत्व केवल इसलिए प्राप्त है क्योंकि वे भी जी-हुजूर आदमी हैं। प्रधानमंत्री पद पर आसीन मनमोहन सिंह तो खुलेआम सोनिया को “अभिभावक फरिश्ते” की पंक्ति में बैठा चुके हैं। (मेल टुडे 19 अप्रैल, 2009)नवीन चावला इस कसौटी पर पूरी तरह खरे उतरते हैं। इमरजेंसी के समय वे दिल्ली के राज्यपाल कृष्णचन्द्र के मुख्य सचिव थे। इस पद का उन्होंने आपात्कालीन सत्ता के दौरान जनता के उत्पीड़न के लिए जितनी निर्ममता से उपयोग किया वह शाह कमीशन की रिपोर्ट में दर्ज है। स्मरणीय है कि तत्कालीन उपराज्यपाल कृष्णचन्द्र ने रहस्यमय परिस्थितियों में आत्महत्या की थी। नवीन चावला और उनकी पत्नी की नजदीकी सप्रमाण चर्चित रही है। इस वफादारी के कारण ही जून, 2005 में उनको चुनाव आयुक्त नियुक्त किया गया होगा। अगर उनमें थोड़ी भी शालीनता या श्रेष्ठ भावना होती तो 205 सांसदों की लिखित आपत्ति के बाद कोई भी स्वाभिमानी व्यक्ति चुनाव आयुक्त बनना स्वीकार नहीं करता। किंतु सितम्बर, 2008 में जब गोपालास्वामी की जांच काफी आगे बढ़ चुकी थी और उनके रुख की चावला को भनक लग गयी थी तब उन्होंने सोनिया दरबार में “लाबिंग” की कि मुख्य चुनाव आयुक्त के पद पर उनकी नियुक्ति की घोषणा अभी से कर दी जाए।संदिग्ध निष्ठाएंवफादारी का यह सिद्धांत केवल चावला के चयन तक सीमित नहीं है, दूसरे चुनाव आयुक्त एस.वाई. कुरैशी पर भी वह पूरी तरह लागू होता है। कैसा विचित्र संयोग है कि 21 अप्रैल को जब नवीन चावला दिल्ली में मुख्य चुनाव आयुक्त की कुर्सी पर बैठ रहे थे तभी लखनऊ में उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती एक प्रेस कांफ्रेंस में चावला और कुरैशी को सोनिया कांग्रेस का एजेंट घोषित कर रही थीं। मायावती ने बताया कि “कुरैशी लखनऊ के रहने वाले हैं, समाजवादी पार्टी के किसी बड़े नेता के करीबी रिश्तेदार हैं। सोनिया पार्टी और समाजवादी पार्टी, दोनों मेरे विरुद्ध षड्यंत्र कर रहे हैं। कुरैशी झारखंड, आंध्र प्रदेश और बिहार के अशांत क्षेत्रों में जाने के बजाए उ.प्र. का ही बार-बार क्यों चक्कर लगाते हैं? उत्तर प्रदेश के कुछ सरकारी अफसरों से उनकी व्यक्तिगत कटुता है। वे यहां की राजनीति में रुचि रखते हैं। नवीन चावला के लिए उन्होंने कहा कि अगर उनमें थोड़ा भी स्वाभिमान और हया होती तो वे खुद ही मुख्य चुनाव आयुक्त गोपालास्वामी की प्रतिकूल अनुशंसा के बाद अपने पद से त्यागपत्र दे देते।” मायावती ने आरोप लगाया कि “ये दोनों उत्तर प्रदेश के प्रशासन में हस्तक्षेप कर रहे हैं। राज्य सरकार से परामर्श लिए बिना ही उन्होंने पहले हमारे मुख्य सचिव को हटा दिया, अब जौनपुर में इंडियन जस्टिस पार्टी के प्रत्याशी बहादुर सोनकर की रहस्यपूर्ण आत्महत्या के बाद जौनपुर के तीन वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों का राज्य सरकार से पूछे बिना स्थानांतरण कर दिया।”चावला और कुरैशी पर राजनीतिक पक्षपात के मायावती के आरोप का प्रमाण कुछ दिनों पूर्व सोनिया गांधी को नवम्बर, 2006 का बेल्जियम देश के दूसरे सर्वोच्च सम्मान “आर्डर आफ लियोपोल्ड” मिलने की शिकायत पर चुनाव आयोग की बैठक में मिल गया, जब चावला और कुरैशी ने सोनिया के पक्ष में मत देकर मुख्य चुनाव आयुक्त गोपालास्वामी को अल्पमत में धकेल दिया। चुनाव आयोग के अन्तर्संकट का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है कि सोनिया गांधी के विरुद्ध तीन शिकायतों पर मुख्य चुनाव आयुक्त ने अपने सहयोगियों को सोनिया के पक्ष में खड़ा पाया। अब तो गोपालास्वामी रूपी बाधा भी हट गई। चुनाव आयोग को एकपक्षीय निर्णय लेने का रास्ता साफ हो गया। गोपालास्वामी अपने आदर्श पर अटल हैं। उन्होंने घोषणा कर दी है कि वे किसी राजनीतिक दल में नहीं जाएंगे और राजनीति से अलग रहेंगे। उन्होंने बताया कि वे भगवद्गीता, महाभारत और उपनिषदों का अध्ययन करेंगे और भारतीय जीवन दृष्टि पर पुस्तक लिखेंगे। इसके पूर्व भी 1991 में उन्होंने विवाह में प्रयुक्त होने वाले वैदिक मंत्रों की व्याख्या करते हुए पुस्तक प्रकाशित की थी।खतरे के संकेतगोपालास्वामी तो आध्यात्मिक-बौद्धिक साधना में लग जाएंगे, किंतु चुनाव आयोग का क्या होगा? यदि आयोग की निष्पक्षता ही सवालों के घेरे में है तो भारत में पहले से डगमगा रहे, विखंडित, भ्रष्ट, लोकतंत्र का क्या भविष्य रह जाएगा? क्या 21 अप्रैल को लोकतंत्र के अवसान का आरंभ बिन्दु माना जाए? पीड़ा की बात यह है कि यह विवाद ऐसे समय प्रकाश में आया जब राजनीतिक नेतृत्व की मुख्य चिंता चुनाव बन गयी है। किंतु क्या वे इस चुनाव को ही अंतिम मानकर चल रहे हैं, क्या चुनाव आयोग की निष्पक्षता उनके अपने राजनीतिक हित में आवश्यक नहीं है? मुख्य विपक्षी दल के नाते भाजपा का निष्पक्ष चुनाव में अपना स्वार्थ निहित है। निष्पक्ष चुनाव आयोग ही निष्पक्ष चुनाव की गारंटी हो सकता है और निष्पक्ष चुनाव ही लोकतंत्र को जीवनदान दे सकता है। पता नहीं क्यों भाजपा को इस समय चुनाव आयोग को बचाने के लिए जो पहल करनी चाहिए थी, वह उसने नहीं की। उड़ीसा से कंधमाल के भाजपा प्रत्याशी अशोक साहू ने चुनाव आयोग पर भेदभाव का आरोप लगाया है। भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष यशवंत सिन्हा ने भी झारखंड के प्रथम चरण के मतदान में सुरक्षा बलों की कमी के आधार पर झारखंड के राज्यपाल सिब्ते रजी को नीम तो चुनाव आयुक्त चावला को करेला बताया है। पर इन शब्दबाणों का मोटी खाल पर कोई असर नहीं होने वाला। यदि भाजपा जैसे बड़े दल ने मतदान प्रक्रिया के पूरा होने तक चुनाव आयोग में यथास्थिति बनाए रखने का दबाव बनाया होता तो राष्ट्र अपने को वर्तमान त्रासदी में फंसा हुआ न पाता।द 23.4.200911
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