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मंथन

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Apr 5, 2008, 12:00 am IST
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दिंनाक: 05 Apr 2008 00:00:00

नकली गांधी, नकली कांग्रेस, असली वंशवाददेवेन्द्र स्वरूपइटली पुत्री सोनिया के “युवराज” राहुल ने ठीक ही कहा कि उनके नाम में “गांधी” जुड़ने का उन्हें बहुत लाभ मिलता है। प्रत्येक शब्द अपनी छवि पैदा करता है। गांधी कहते ही प्रत्येक भारतीय की आंखों में महात्मा गांधी का चित्र उभरता है। शायद इसीलिए इन्दिरा जी ने अपने पारसी पति फिरोज से लगभग सम्बंध-विच्छेद करके भी उनके वंशनाम को, जो गांधी शब्द से मिलता-जुलता था अपनाए रखना आवश्यक समझा था। यद्यपि वे बहुत पहले ही फिरोज से अलग होकर अपने पिता जवाहरलाल नेहरू के यहां रहने लगी थीं और वस्तुत: वे नेहरू जी की विरासत की ही उत्तराधिकारी बनीं। किन्तु उन्होंने स्वयं को “इन्दिरा नेहरू” प्रचारित करने के बजाए इन्दिरा गांधी नाम से प्रचारित करना आवश्यक समझा, क्योंकि इससे गांधी भक्त भारतीय मानस को प्रभावित करना अधिक सरल हो गया।शब्दों का महत्व कितना अधिक होता है इसके कई उदाहरण आपको भारतीय कम्युनिस्टों की प्रचार शैली में मिल जाएंगे। जिस समय पर जो शब्द जनमानस में घृणा, भय और आक्रोश पैदा करते हैं, उन शब्दों को वे अपने विरोधियों पर चिपका देते हैं, जैसे- पहले वे संघ-परिवार को “फासिस्ट” कहा करते थे अब “तालिबानी” या “जिहादी” कहना पसंद करते हैं। क्योंकि उन्हें लगता है कि “फासिस्ट” शब्द का इतिहास पुराना होने के कारण लोगों को भूल चुका है, जबकि “तालिबान” और “जिहाद” का खूनी चेहरा पूरे विश्व के सामने मौजूद है, भय और घृणा की भावना जगा रहा है। यूरोपीय राजनीति से उधार लिए ऐसे अनेक शब्द या गालियां भारतीय कम्युनिस्टों के शब्दकोश में भरी पड़ी हैं, यथा-संशोधनवादी, ट्राटस्कीवादी, केरेंस्कीवादी, मेनशेविक, प्रतिक्रियावादी, सामन्तवादी, साम्राज्यवादी, पूंजीवादी आदि-आदि। पार्टी के भीतर हो या बाहर अपने विरोधियों को बदनाम करने के लिए वे वंशवादी राजनीति का यह बाहरी दृश्य है पर महल के भीतर क्या चल रहा था। राजीव की भला हो, पी.वी. नरसिंहराव का कि उन्होंने राजीव हत्या से उत्पन्न सहानुभूति के वातावरण में भी बहुमत पाने में असमर्थ वंशवादी पार्टी को अल्पमत में होते हुए भी पांच वर्ष तक सत्ता का स्वाद चखवा दिया। कैसी विडम्बना है कि उस समय जो उनकी टांग खींच रहे थे, उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी से हटाने के षडंत्र रच रहे थे, वही दोनों अर्जुन सिंह और शरद पवार इस समय राहुल को प्रधानमंत्री पद के योग्य बता रहे हैं, दोनों ही सोनिया के बगलगीर हैं। नरसिंहराव के प्रधानमंत्री काल में सोनिया प्रत्यक्ष राजनीति से अलग रहीं, उन्होंने पूरा ध्यान नेहरू-इन्दिरा की अरबों खरबों रुपए की अकूत विरासत पर अपना वर्चस्व स्थापित करने में लगाया। पर उनकी निगाहें सत्ता पर जमी रहीं। 1996 के चुनाव में कांग्रेस और नीचे गई। भाजपा सबसे बड़े दल के रूप में उभर आयी। विखण्डित राजनीतिक परिदृश्य में वामपंथी केन्द्र की सत्ता पर काबिज होने के सपने देखने लगे। एक क्षण के लिए उनके ज्योति बसु प्रधानमंत्री की कुर्सी के नजदीक पहुंच गए। पर वह मौका उनके हाथ से निकल गया। उन्होंने सोनिया की वंशवाद सत्ताकांक्षा को मोहरा बनाने का निर्णय लिया। भाजपा को सत्ता से दूर रखने को अपनी राजनीति का एकमात्र लक्ष्य घोषित किया। पर्दे के पीछे ज्योति बसु और हरकिशन सिंह सुरजीत ने सोनिया के साथ गठबंधन किया। जिसका पहला प्रगटीकरण 1999 में भाजपानीत गठबंधन सरकार को एक वोट से गिरा कर सोनिया को प्रधानमंत्री बनाने की कोशिशों के रूप में हुआ। वामपंथी राष्ट्रपति के.आर. नारायणन से उन दिनों हरकिशन सिंह सुरजीत की गुप्त भेंट का भांडा फूट चुका है। राष्ट्रपति भवन जाकर सोनिया के बहुमत के झूठे दावे की पोल भी खुल चुकी है। 2004 में सोनिया को प्रधानमंत्री बनने की पूरी उम्मीद हो गई। वे अपनी पार्टी के संसदीय दल के नेता के नाते वाम मोर्चे के बाहरी समर्थन का सहारा लेकर पहली शाम राष्ट्रपति भवन गयीं। वंशवादी पार्टी ने खुशी के गुब्बारे उड़ाना शुरू कर दिया। सुषमा स्वराज और गोविंदाचार्य जैसे राष्ट्रभक्तों ने विदेशी मूल के प्रधानमंत्री को स्वीकार करने से इंकार कर दिया, जबर्दस्त जन आन्दोलन छेड़ दिया। रहस्योद्घाटन किया कि 1967 में इन्दिरा जी के राजमहल का अंग बनने के बाद से सेानिया ने 1980 के दशक में तब तक भारत की नागरिकता नहीं ली जब तक कि राजीव के लिए रास्ता साफ नहीं हो गया। इस पृष्ठभूमि में राष्ट्रपति भवन में कुछ हुआ कि सोनिया को प्रधानमंत्री पद को त्याग का नाटक करना पड़ा। हरकिशन सिंह सुरजीत से सलाह करके जनाधार शून्य गैर राजनीतिक नौकरशाह मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में राष्ट्रपति के सामने पेश करना पड़ा। सोनिया के त्याग के नाटक का पर्दाफाश अभी इसी सप्ताह पूर्व राष्ट्रपति कलाम के निजी सचिव श्री मेनन ने अपनी संस्मरणात्मक पुस्तक में कर दिया है। यदि सोनिया ने प्रधानमंत्री पद के लिए दावा पेश ही नहीं किया था तो राष्ट्रपति कलाम को उनकी नियुक्ति का पत्र टाइप करवाने की आवश्यकता ही क्यों पड़ी?सोनिया अपने विदेशी मूल के प्रति सजग हैं। उन्हें विश्वास है कि भारतीय जनता चाहे जितनी सोयी हो, पर इसे स्वीकार नहीं करेगी। इसलिए पिछले चार साल से राहुल को “युवराज” पद पर अभिषिक्त करने में जुटी हैं। पर राहुल उनकी सब कोशिशों के बावजूद अपनी राजनीतिक योग्यता सिद्ध नहीं कर पा रहे हैं। उनके लाख हाथ पैर पटकने पर भी उत्तर प्रदेश में सोनिया पार्टी 16 सीटों से आगे नहीं बढ़ पायी। गुजरात में उनके सब रोड शो फ्लाप हुए। सोनिया की पांच साल तक की व्यूह रचना भी नरेन्द्र मोदी को हिला नहीं पायी। अब अगले कदम के रूप में उन्होंने पार्टी के अन्य क्षमतावान युवा चेहरों के सामने सरकार के आखरी दिनों में सत्ता के कुछ टुकड़े फेंककर राहुल को अपनी पार्टी का महासचिव घोषित कर दिया। प्रचारित किया गया कि राहुल ने मंत्री पद को ठुकरा दिया। वंशवादी मानसिकता के बूढ़े लोगों ने उन्हें प्रधानमंत्री के योग्य बता दिया पर बहस को आगे बढ़ाने के लिए पार्टी प्रवक्ता ने ऐसे लोगों को चापलूस घोषित कर दिया।पर जो पार्टी ही चापलूसी में से पैदा हुई हो, चापलूसी पर ही जिन्दा हो तो सत्य कहां तक छिपेगा? राज्यसभा में सोनिया पार्टी के एक सदस्य ई.एम. सुदर्शन ने राहुल को अपनी पार्टी और लेागों का युवराज घोषित कर दिया। चापलूसों का जो गिरोह सोनिया के पार्टी अध्यक्ष के दस वर्ष पूरा होने को उनकी महानता का प्रमाणपत्र मान रहा है वह राहुल को युवराज कहने में क्यों शरमाएगा? राहुल को गरीबों, किसानों, वंचितों और वनवासियों का मसीहा सिद्ध करने की कोशिश हो रही है। मीडिया प्रचार पाने के लिए वे अपनी ही सरकार की नीतियों से त्रस्त प्रत्येक वर्ग की मांगों को लेकर प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री से खुलेआम भेंट कर रहे हैं, असंभव मांगें उठा रहे हैं। सुरक्षा घेरे को तोड़कर किसी दलित, किसी वनवासी के घर सोने का स्वांग रच रहे हैं और चापलूसों का गिरोह उन्हें एक साहसी, जुझारू नेता के रूप में पेश करने की कोशिश में लगा है। इसके लिए मीडिया को मैनेज किया जा रहा है। अभी कुछ समय पूर्व प्रकाशित के.के. बिडला ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि उनके पत्र “हिन्दुस्तान टाइम्स” में सोनिया की आलोचना छपने के अपराध में उन्हें दरबार में बुलाया गया। अपनी जान बचाने के लिए उन्होंने सम्पादक वीर संघवी पर जिम्मेदारी डाल दी तब वीर संघवी की पेशी हुई। उन्होंने सफाई दी और अब हिन्दुस्तान टाइम्स वंशवाद का बेशरमी से प्रचार कर रहा है। “संडे” साप्ताहिक, डेली टेलीग्राफ जैसे श्रेष्ठ पत्रों के जन्मदाता व एशियन एज के यशस्वी सम्पादक एम.जे. अकबर को रातोंरात एशियन एज और डेक्कन हेरल्ड के सम्पादक पद से हटा दिया गया। मीडिया मैनेजमेंट के ये नमूने हैं। चुनावी लोकतंत्र में मीडिया की भूमिका अहम होती है। मीडिया छवि बनाता है, बिगाड़ता है। वह सोनिया वंश के नापसंद समाजवादी पार्टी के ब्राांड अमिताभ बच्चन को पीछे धकेलने के लिए सोनिया पार्टी समर्थक शाहरूख खान को रातोंरात आसमान पर चढ़ा सकता है। भाजपा नेत्री स्मृति ईरानी की लोकप्रिय छवि में पंक्चर करने के लिए सास-बहू सीरियल की निंदा कर सकता है (हिन्दुस्तान टाइम्स 23 अप्रैल)। क्या सचमुच भारतीय मीडिया भारत में लोकतंत्र नहीं, वंशतंत्र चाहता है? क्या नकली गांधी और नकली कांग्रेस को जनता के मन में बैठाना चाहता है? क्या उसे पता नहीं कि तिलक-गांधी की कांग्रेस मर चुकी है। बोतल पर लेबिल पुराना है किन्तु अन्दर का द्रव नकली है बिल्कुल वैसे ही जैसे चीन में कम्युनिज्म और माओवाद मर चुका है। पर कम्युनिस्ट पार्टी के लेबिल के भीतर अधिनायकवादी तंत्र कायम है। क्या मीडिया को दिखाई नहीं देता कि राहुल अगर (24 अप्रैल, 2008)7

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