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धर्मशाला का टोंग-लेन चैरिटेबल ट्रस्ट

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Mar 2, 2008, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 02 Mar 2008 00:00:00

सामाजिक परिवर्तन की बयार-धर्मशाला से अजय श्रीवास्तवबर्फ ढकी धौलाधार पर्वत श्रृंखला की गोद में बसा खूबसूरत शहर धर्मशाला परमपावन दलाईलाम के निवास और तिब्बत की निर्वासित सरकार के कारण भी विश्व भर में प्रसिद्ध है। लेकिन यह बहुत कम लोग जानते हैं कि वहां प्रवासी वंचितों की एक झुग्गी बस्ती है जहां एक युवा बौद्ध भिक्षु एक क्रांतिकारी परिवर्तन के कुछ अद्भुत प्रयोग करने में जुटा है। इस युवा भिक्षु के प्रारंभिक कार्यों के परिणाम चौंकाने वाले हैं। भीख मांगने और कूड़ा बीनने वाले बच्चों की आंखों में अब उज्ज्वल भविष्य के सपने हैं और उनमें रंग भरने के लिए युवा भिक्षु ने अपना जीवन समर्पित कर दिया है। यही नहीं, अब वह हिमाचल प्रदेश के विभिन्न जिलों में झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले लगभग 10 हजार लोगों के जीवन को बदलने के लिए एक विस्तृत कार्ययोजना बना रहा है। राज्य में सभी झुग्गी बस्तियों में प्रवासी जन ही रहते हैं।धर्मशाला के निचले इलाके में चुरान खड्ड की झुग्गी बस्ती करीब 25 वर्ष पुरानी है। राजस्थान और महाराष्ट्र के लोग वहां नर्क जैसा जीवन व्यतीत कर रहे हैं। कुल 800 लोग वहां रहते हैं जिनमें से 315 बच्चे हैं। बस्ती के निवासियों का व्यवसाय कूड़ा बीनना, भीख मांगना, बूट पालिश करना या कोई इसी तरह का अन्य कार्य ही है। पुरुष आमतौर पर नशे के आदी हैं और धन कमाकर परिवार का खर्च चलाने का दायित्व महिलाओं का है। गंदगी, बीमारी और अशिक्षा व अंधविश्वास में जकड़े ‚ंचा है। तिब्बती शरणार्थी भिक्षु जामयांग (33) पिछले कुछ वर्षों से उन लोगों की जिन्दगी का हिस्सा बन गए हैं। बच्चे से लेकर बूढ़े तक उन्हें प्यार से “गुरुजी” कह कर पुकारते हैं।झुग्गी बस्ती के बुजुर्ग निवासी दयाल बताते हैं, “यहां के करीब 800 निवासियों में से 700 राजस्थान और 100 महाराष्ट्र के हैं। ज्यादातर लोग कूड़ा बीनने, बूट पालिश या भीख मांगने का काम करते हैं। अभी तक सब अनपढ़ थे। ये तो गुरुजी की कृपा है कि हमारे बच्चे भी लिखना-पढ़ना सीख रहे हैं।”जामयांग करीब पांच साल पहले इस बस्ती के कूड़ा बीनने और भीख मांगने वाले बच्चों के संपर्क में आए। मैक्लोडगंज में वे उन्हें कभी पैसे तो कभी खाना दे देते थे। वहां दो बच्चे बीमार थे। उनके इलाज के सिलसिले में वे चुरान खड्ड की झुग्गी झोपड़ियों तक पहुंच गए। वे बताते हैं, “शुरू में मैंने वहां बसे लोगों को बड़े पैमाने पर अनाज और कपड़े दिए। काफी समय तक यह सिलसिला चला। सैकड़ों Ïक्वटल अनाज देने और कपड़े बांटने के बाद भी उनकी गरीबी और मांगने की चाहत कम नहीं हुई। तब मुझे लगा कि उनकी समस्या का समाधान मुफ्त सामान देने में नहीं, बल्कि कहीं और छिपा है।”जामयांग ने तय किया कि वे झुग्गी बस्ती के लोगों के स्वास्थ्य, बच्चों की शिक्षा और किशोरों के व्यावसायिक प्रशिक्षण पर ध्यान केन्द्रित करेंगे। इससे ही उनका समग्र उत्थान एवं विकास संभव है। उन्होंने पालीथन चादरों और बांस के सहारे से दो टूशन केन्द्र बनाए। एक में पांच वर्ष तक के और दूसरे में उससे बड़े बच्चों को आज व्यावहारिक तौर-तरीके, शिक्षा तथा बातचीत करने के तरीके सिखाए जाते हैं। इस काम में उन्होंने उसी बस्ती के समझदार युवक-युवतियों-बीरू, शंकर और मीनू को लगाया। ये तीनों कुछ शिक्षित भी थे।धर्मशाला के दयानन्द माडल स्कूल की प्रधानाचार्य श्रीमती मीरा चौहान ने जामयांग के प्रयासों को सराहा और 20 बच्चों को अपने स्कूल में दाखिला दे दिया। यह बात 2004 की है। उन्होंने उस समय को याद करते हुए बताया, “मन मेंजामयांग चाहते थे कि ये बच्चे झुग्गी बस्ती में रहकर ही स्कूल जाकर पढ़ें। लेकिन इसमें व्यावहारिक दिक्कतें थीं। बच्चों की स्वच्छता पर वहां कोई ध्यान नहीं दे रहा था। इसलिए उन्होंने धर्मशाला के डिपो बाजार में एक छात्रावास शुरू किया। छात्रावास के वार्डन नरेन्द्र कुमार बेहद अनुशासित और संस्कारित साबित हो रहे हैं। छात्रावास में सभी आधुनिक सुविधाएं हैं।छात्रावास की तीसरी कक्षा की सारिका के कक्षा 2 में सभी विषयों में शत् प्रतिशत अंक आए हैं। वह कहती है, “मैं बड़ी होकर एयर होस्टेस बनना चाहती हूं।” इसी कक्षा की रंजीता डाक्टर बनने का सपना संजोए हुए है। उसके कक्षा 2 में 99 प्रतिशत अंक आए। इसी तरह अन्य बच्चे भी जीवन में ऊंचाइयां छूने की तमन्ना रखते हैं।चुरान खड्ड की झुग्गी बस्ती में भी समग्र क्रांति की बयार बह रही है। सीतो देवी कहती हैं, “हमने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि हमारे बच्चे “बड़े स्कूल” में पढ़ने जाएंगे। गुरुजी तो हमारे लिए भगवान हैं। अब हर कोई चाहता है कि उसके बच्चे भी पढ़ने जाएं।” पहले यही लोग अपने बच्चों को स्कूल भेजने केझुग्गी बस्ती में सफाई की कमी का मुख्य कारण वहां शौचालय और पानी की व्यवस्था का न होना है। गंदगी के कारण बीमारियां भी काफी हैं। टीबी, दमा, त्वचा रोग और अन्य संक्रामक रोगों से बहुत लोग पीड़ित हैं। जामयांग ने उनके स्वास्थ्य का दायित्व भी अपने कंधों पर लिया है। हर मंगलवार को वहां दिनभर एक क्लीनिक लगता है जिसमें डाक्टर व नर्स रहते हैं। वे सभी मरीजों की जांच कर उन्हें मुफ्त इलाज उपलब्ध कराते हैं। गंभीर मरीजों को टोंग-लेन ट्रस्ट के कार्यकर्ता धर्मशाला के सरकारी अस्पताल में ले जाते हैं। कई मरीजों का इलाज चंडीगढ़ में भी वे करा चुके हैं।बीरू कहता है, “दिल और गुर्दे के गंभीर मरीजों को गुरुजी खुद पीजीआई अस्पताल, चंडीगढ़ ले जाते हैं। कई बच्चों के दिल का आपरेशन भी वहां कराया गया है। मस्तिष्क टूमर से पीड़ित बालक संदीप को लेकर गुरुजी मुंबई के विख्यात जसलोक अस्पताल गए। वहां उस बच्चे के कई आपरेशन हुए। अब वह स्वस्थ होकर घर आ गया है। सिर्फ उसके इलाज पर 2 लाख 35 हजार रुपए खर्च हुए।”किशोरों के व्यावसायिक प्रशिक्षण के लिए साप्ताहिक कक्षाएं चलती हैं। 17 वर्षीय रानो कहती है, “मैं तो बिलकुल अनपढ़ थी। अब छोटे बच्चों के साथ बैठकर पढ़ने में शर्म आती है। इसलिए साप्ताहिक स्कूल में जाती हूं। वहां लिखना-पढ़ना सीखने के साथ ही अच्छे संस्कार और सिलाई- कढ़ाई भी सीखती हूं।” याद रहे, रानो हफ्ते में छह दिन कूड़ा बीन कर घर का खर्च चलाने में हाथ बंटाती है। भविष्य में वह कूड़ा बीनना छोड़कर सिलाई-कढ़ाई का काम करना चाहती है।जामयांग तिब्बत से यह सोचकर नहीं आए थे कि वे भारत में अति निर्धनों के बीच काम करेंगे। लेकिन संयोगवश वे बच्चों से जुड़े और चुरानखड्ड के अनुभवों ने एक दिशा दे दी। उन्होंने पूरे हिमाचल प्रदेश की झुग्गी-झोपड़ियों का सर्वेक्षण कराया जिससे पता चला कि करीब 10,000 लोग उनमें रहते हैं। उनके मूल राज्य, भाषा, खान पान, अपना राज्य छोड़ने के कारणों से लेकर शिक्षा और स्वास्थ्य की हालत का भी अध्ययन करवाया। ये सभी लोग गैर-हिमाचली हैं और झुग्गी झोपड़ी में नर्क का जीवन जी रहे हैं। वे उड़ीसा, बिहार, राजस्थान, महाराष्ट्र और पूर्वी उत्तर प्रदेश से आए हैं।अब जामयांग धर्मशाला में 100 बच्चों के लिए एक और छात्रावास शुरू करने जा रहे हैं। इसके बाद वे एक-एक करके सभी जिलों की झुग्गी झोपड़ियों में अपना काम शुरू करेंगे। झुग्गी-झोपड़ियों के विकलांगों के समग्र सशक्तिकरण की योजना भी उन्होंने बनाई है। उनके इस काम में सोसायटी फार डिसेबिलिटी एंड रिहेबिलिटेशन स्टडीज की हिमाचल28

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