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सेकुलर मीडिया का झूठा प्रचार बनाम मुम्बई दंगों का सच-सन्मित्रश्रीकृष्ण आयोग की रपट पर कार्यवाही को लेकर मीडिया की चीख-पुकार दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। शुरुआत में यह कह देना उचित होगा कि न्यायमूर्ति महोदय ने घटनाक्रम को सही परिप्रेक्ष्य में रखने के लिए तथ्यों की विस्तृत खोज करके एक अच्छा काम किया। हालांकि न्यायमूर्ति महोदय के व्यक्तिगत मत भी इस रपट में शामिल हो गए हैं। ऐसे संवेदनशील विषय पर उम्मीद यही थी कि रपट में निष्कर्ष निकालते समय व्यक्तिगत मत दूर रहेंगे।हाल के दिनों में मीडिया में जिस प्रकार का शोर सुनाई दिया उसके प्रमुखत: दो आयाम रहे हैं। पहला है इस तरह की मांग कि चूंकि मुम्बई विस्फोटों के लिए मुस्लिमों को सजाएं हुई हैं तो उसी की बराबरी करते हुए हिन्दुओं को भी यूं ही बरी नहीं किया जाना चाहिए। दूसरा यह सुझाव कि कुछ खास लोगों के खिलाफ मामला आयोग ने तय किया है और इसके बावजूद उनके विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं की गई है।हम विशेष रूप से इस परिप्रेक्ष्य में इस रपट का विश्लेषण करेंगे और मीडिया में उठ रहे कुछ बिन्दुओं की चर्चा करेंगे जिनमें तथ्यों को भुलाते हुए महज फिजूल शोर मचाया गया है। मीडिया में बार-बार उठाई जा रहीं बातों में से एक यह है कि रपट दंगे में मारे गए मुस्लिमों की “असाधारण रूप से बड़ी संख्या” का उल्लेख करती है। 8 दिसम्बर, 1992 की घटनाओं पर विश्लेषण करते हुए रपट 33 न्यायक्षेत्रों में 43 मामलों में पुलिस गोलीबारी से होनी वाली हत्याओं के बारे में बताती है। उसी संदर्भ में उपरोक्त टिप्पणी की गई है। अगर केवल इतने अंश को ही देखें तो यह रपट उस किसी भी व्यक्ति को भ्रम में डाल सकती है जिसको पूरी सूचनाएं न हों और यह उस मीडिया के लिए बहस के चारे का काम करती है जो खुद को सेकुलर कहता है। आखिर वह वास्तविक संख्या कितनी है जिससे आयोग तुलना करके यह निष्कर्ष निकालता है। 43 मामलों में पुलिस को गोली चलानी पड़ी जिनमें 21 हिन्दुओं, 31 मुस्लिमों और 3 अन्य की मौत हुई। अत: 21 की तुलना में 31 बड़ी संख्या है। यह केवल मरने वालों का आंकड़ा है, घायलों का नहीं। अगर कोई व्यक्ति 9 दिसम्बर से हताहतों की संख्या पर ध्यान दे तो उसे ऊपर की बात में जिस तरह से चीजों को सतही रूप में देखा गया है उसके सही परिप्रेक्ष्य की जानकारी होगी। पुलिस की गोलीबारी में 17 लोगों (5 हिन्दू और 12 मुस्लिम) की मौत हुई जबकि 13 हिन्दू, 12 मुस्लिम और 6 अन्य घायल हुए। मीडिया का चीजों को इस तरह से सरसरी तौर पर देखना और झूठ को बार-बार दोहराना केवल बहस को बढ़ाता है और यह दिखाता है मानो मुम्बई विस्फोट के बहाने मुसलमानों को सजा दी गई है तो निष्पक्षता की कसौटी तभी है कि दंगों के पीछे हिन्दुओं का हाथ बताया जाए। अगर आप यहां बताए गए वास्तविक आंकड़ों पर नजर डालें तो “असाधारण रूप से बड़ी संख्या” केवल 7, 8 और 9 दिसम्बर को दिखाई देगी। 10 और 11 को कुछ ही मौतों की जानकारी मिली। 7 तारीख को पुलिस ने दखल दी और 72 मौकों पर गोलीबारी हुई जिनमें 20 हिन्दू और 72 मुस्लिम मारे गए और 131 मुस्लिम तथा एक अन्य घायल हुए। यहां ध्यान रहे कि 7 तारीख वह दिन था जब मुस्लिम भीड़ ने दंगे शुरू किए थे। रपट में यह तथ्य दिया गया है। मुस्लिमों की भारी भीड़ सड़कों पर उतर आई और हिंसा फैल गई। घातक हथियारों से लैस भीड़ को देखकर सहज अंदाजा लगता था कि वे हिंसक इरादे से ही निकले थे। इस प्रकार “असाधारण रूप से बड़ी संख्या” का वास्तविक आंकड़ा ठीक उसी दिन का था जब दंगाई “असाधारण रूप से बड़ी संख्या” में मुस्लिम थे। सेकुलर मीडिया ने चीजों को हल्के तौर पर लेते हुए एक सेकुलर जामा पहना दिया- मुस्लिमों पर निशाना साधा।रपट आगे 1993 के दंगों का संदर्भ देती है। रपट में एक दिलचस्प पैरा भी है जिसके बारे में आजकल बहुत अधिक खबर सुनाई नहीं देती। दिसम्बर 1992 के अंतिम सप्ताह और जनवरी 1993 के पहले सप्ताह, खासकर 1 से 5 तारीख के बीच छुरेबाजी की कई घटनाएं हुर्इं जिनमें हिन्दू और मुस्लिम दोनों आहत हुए, हालांकि ऐसी ज्यादातर घटनाएं दक्षिण मुम्बई के मुस्लिमबहुल इलाकों में हुर्इं जबकि मरने वाले ज्यादातर हिन्दू थे। छुरेबाजी ऐसी तैयारी से और ऐसे पेशेवराना तरीके से की गई थी जिसका मकसद शिकार को मारना ही था। इसके बाद हत्यारों की कई मामलों में पहचान तक नहीं हो सकी, हालांकि, कम से कम उन मामलों में जिनमें मरने वाले हिन्दू थे, यह मान लिया गया कि हत्यारे मुस्लिम थे। छुरेबाजी का मकसद दिखता था हिन्दू-मुस्लिमों में साम्प्रदायिक आग भड़काना।चौंकाने वाली बात है कि ये सब हमले बड़े सुनियोजित थे, नौसिखियों द्वारा नहीं बल्कि पेशेवरों द्वारा एक वर्ग विशेष पर निशाना साधकर किए गए थे। सेकुलर मीडिया का लगातार अल्पसंख्यकों की ओर झुकाव आश्चर्य पैदा करता है। रपट आगे बढ़ती है और इन सुनियोजित हमलों के पीछे षडंत्रकारियों की पहचान करती है। दक्षिण मुम्बई में सक्रिय कुछ मुस्लिम आपराधिक तत्वों, जैसे सलीम रामपुरी और फिरोज कोंकणी की छुरेबाजी की घटनाओं के योजनाकारों के रूप में पहचान की गई है। रपट कहती है कि ये हमले ही भीड़ को लामबंद करने और आगे की घटनाओं के प्रमुख कारक थे। अन्य कारण मथाड़ी कामगारों की हत्या बताया गया। मथाड़ी कामगार यूनियन ने बंद का आह्वान किया था। मथाड़ी यूनियनों के नेता बड़ी सभाएं कर रहे थे। इस सभा के दौरान पुलिस और सरकार की फिरौती पर लगाम लगाने में असफलता पर उनकी भत्र्सना करते हुए भाषण दिए जा रहे थे। संभव है कि हिन्दुओं ने यह सोचकर तलवारें उठा लीं कि पुलिस उन्हें सुरक्षा नहीं दे पाएगी।जिस समय मथाड़ी कामगारों की हत्याएं हुईं, न तो पुलिस को और न ही किसी आमजन को हत्यारों के बारे में कोई सुराग हाथ लगा। बहुत बाद में उनकी जानकारी हुई। बहरहाल, शिवसेना की अगुवाई में हिन्दुओं ने हड़कम्प मचा दिया कि मुस्लिमों ने हत्याएं की हैं, जो कि हथियारबंद होने का आह्वान जैसा था। एक बार फिर उस समय घटनाओं के पीछे के “कारण” के रहस्यमयी घेरे को कुंद कर दिया गया जब सेकुलर तमगा लगाए मीडिया जोर शोर से आयोग के निष्कर्षों को लेकर यह आवाज उठाता घूम रहा था कि दंगों के पीछे सुनियोजित षडंत्र था और अल्पसंख्यक समुदाय को निशाना बनाया गया था।6 जनवरी, 1993 को डोंगरी, पिढ़ोनी, वी.पी. रोड और नागपाड़ा इलाकों में छुरेबाजी के कई मामले हुए जिनमें निर्दोष राहगीर आहत हुए, जिनको उनकी पहचान जानने के बाद चाकू मारे गए थे। कुल मिलाकर शाम तक छुरेबाजी की 18 घटनाएं दर्ज हुर्इं जिनमें आठ पिढ़ोनी में, दो धारावी में, दो वी.पी. रोड में, दो नागपाड़ा में और एक-एक घटना निर्मल नगर, खेरवाड़ी और अंधेरी में हुई। इनमें एक हिन्दू, एक मुस्लिम और दो अन्य मारे गए और 13 हिन्दू, एक मुस्लिम और एक अन्य घायल हुए। दंगाई भीड़ ने 7 हिन्दुओं और एक मुस्लिम को मार डाला जबकि 9 हिन्दू और 8 मुस्लिम घायल हुए।फिर से यह अजीब बात हुई कि 6 तारीख की घटनाओं, जिसके बाद आगे और घटनाएं घटीं, के बारे में कोई “असाधारण रूप से बड़ी” तुलना नहीं की गई। रपट में आगे 7 जनवरी की घटनाओं का उल्लेख है, जो इसके अनुसार दंगों के “93 वाले दौर का पहला दिन था। छुरेबाजी की घटनाओं में 16 हिन्दू, 4 मुस्लिम मरे जबकि 41 हिन्दू और 12 मुस्लिम घायल हुए। विभिन्न थाना क्षेत्रों में भीड़ द्वारा हिंसा फैलाने के 11 मामले हुए जिनमें 2 हिन्दू मारे गए जबकि 10 हिन्दू और 2 मुस्लिम घायल हुए। उस दिन आगजनी के 7 मामले दर्ज हुए, जिनमें सम्पत्ति के बड़े नुकसान के अलावा, 2 हिन्दू मारे गए जबकि 5 हिन्दू और 11 मुस्लिम घायल हुए।किसी भी सूरत में हिंसा का पहला पूरा दिन किसी समुदाय विशेष को निशाना बनाने में “असाधारण रूप से बड़ा” कहा जा सकता है।याद रहे कि मीडिया के उलटफेर यंत्र ने हमेशा ही दंगों के जनवरी “93 के दौर को हिन्दू भीड़ द्वारा बदला लेने वाले दौर के रूप में प्रस्तुत किया है।8 जनवरी को उकसावा ज्यादा था8 जनवरी, 1993 को बहुत सवेरे करीब 3 बजे, जोगेश्वरी की राधाबाई चाल में रहने वाले कुछ हिन्दुओं को अंदर बंद करके उपद्रवियों ने आग लगा दी थी। इसमें एक हिन्दू परिवार (बाने) की 5 महिलाएं और एक पुरुष तथा उनके पड़ोसी जलकर राख हो गए और तीन अन्य हिन्दू गंभीर रूप से जल गए। इसके बाद रपट बहुत अजीब सी टिप्पणी करती है। इनमें से एक हताहत विकलांग लड़की थी। इसको मीडिया ने बढ़ाचढ़ाकर सनसनीखेज बना दिया था।आश्चर्यजनक रूप से इससे पहले मीडिया के सनसनीखेजकरण की कोई आलोचना नहीं की गई। इतना ही नहीं तो रपट आगे “हिन्दू प्रतिक्रिया” के बारे में टिप्पणी करती है।”हिन्दू आतंकवादियों” को सजा देने आदि आदि के बारे में मीडिया के शोरगुल के बारे में इससे ज्यादा और क्या बताया जाए, जिसका पूरा जोर इसी पर है कि किसी तरह पूरी श्रीकृष्ण अयोग रपट को हिन्दुओं को सजा देकर मुस्लिमों को न्याय देने वाली सिद्ध किया जाए। यह शोरगुल दिसम्बर 1992 की घटनाओं पर केन्द्रित नहीं है, न ही यह जनवरी 1993 की घटनाओं से पहले की उन्मादी छुरेबाजी को लेकर है, न पहले पूरे दिन की हिंसा पर है बल्कि यह विशेष रूप से 8 जनवरी की सुबह के बाद की घटनाओं को लेकर है।अब हम 8 तारीख और उसके बाद के दिनों के तथ्यों पर नजर डालते हैं। विभिन्न थाना क्षेत्रों से 66 छुरेबाजी की घटनाएं दर्ज हुर्इं जिनमें 11 हिन्दू, 15 मुस्लिम और दो अन्य मारे गए, कई हिन्दुओं, मुस्लिमों को चोट पहुंची। हिंसक भीड़ द्वारा दंगे के 48 मामले हुए जिनमें 6 मुस्लिम मारे गए जबकि 11 हिन्दू, 17 मुस्लिम और एक अन्य घायल हुए। आगजनी के 31 मामले दर्ज हुए जिनमें, सम्पत्ति के नुकसान के अलावा, 6 हिन्दुओं, 2 मुस्लिमों की मौत हुई, 5 मुस्लिम, 2 हिन्दू घायल हुए। “हिन्दू प्रतिक्रिया” की बाबत इतना बताना बहुत होगा।विभिन्न थाना क्षेत्रों में 31 मौकों पर पुलिस को गोली चलानी पड़ी जिनमें 9 हिन्दू, 18 मुस्लिम मारे गए जबकि 20 हिन्दू, 24 मुस्लिम और एक अन्य घायल हुआ। 9 जनवरी को यह अफरातफरी जारी रही। 57 छुरेबाजी की घटनाओं में 8 हिन्दुओं, 18 मुस्लिमों की मौत हुई और 27 हिन्दू, 33 मुस्लिम और एक अन्य घायल हुए। भीड़ द्वारा हिंसा के 97 मामले हुए जिनमें एक हिन्दू और 6 मुस्लिमों की मृत्यु हुई जबकि 19 हिन्दू और 24 मुस्लिम घायल हुए। आगजनी के 73 मामले दर्ज हुए जिनमें सम्पत्ति के नुकसान के अलावा 3 हिन्दुओं और 6 मुस्लिमों की मौत हुई और 4 हिन्दू तथा 6 मुस्लिम घायल हुए। पुलिस गोलीबारी के 52 मामले हुए जिनमें 15 हिन्दू, 22 मुस्लिम और एक अन्य मारे गए।विशेष कार्यबल द्वारा पुलिस के सह आयुक्त आर.डी. त्यागी के निर्देशों पर कथित आतंकवादियों के विरुद्ध शुरू की गई कार्यवाही और कार्यबल की गोलीबारी के कारण 9 मुस्लिमों की मौत हुई। पुलिस एक भी कथित आतंकवादी को पकड़ने अथवा शस्त्र बरामद करने में कामयाब नहीं हुई। 10 जनवरी को और भी अधिक उथल-पुथल हुई जिसमें दोनों समुदायों के अनेक लोग हताहत हुए। विभिन्न थाना क्षेत्रों में 81 छुरेबाजी की घटनाएं हुर्इं जिनमें 10 हिन्दुओं और 39 मुस्लिमों की मृत्यु हुई और 24 हिन्दू तथा 42 मुस्लिम घायल हुए। आगजनी के 108 मामले हुए जिनमें सम्पत्ति के नुकसान के अलावा एक हिन्दू और 5 मुस्लिमों सहित 2 अन्य की मौत हुई जबकि एक हिन्दू, एक मुस्लिम और एक अन्य घायल हुए। 82 मौकों पर गोलियां चलीं जिनमें 22 हिन्दुओं तथा 23 मुस्लिमों सहित एक अन्य की मौत हुई जबकि 77 हिन्दू, 27 मुस्लिम और 2 अन्य घायल हुए। 11 तारीख को मुस्लिम हताहतों की संख्या कुछ ज्यादा थी। छुरेबाजी की 86 घटनाएं हुर्इं जिनमें 11 हिन्दू, 44 मुस्लिम और एक अन्य की मौत हुई जबकि 23 हिन्दू, 58 मुस्लिम और एक अन्य घायल हुए। 4 हिन्दू, 19 मुस्लिम तथा 2 अन्य भीड़ द्वारा हिंसा की 129 घटनाओं में मारे गए। आगजनी के 93 मामले हुए जिनमें 2 हिन्दू और 12 मुस्लिम मारे गए तथा 7 मुस्लिम घायल हुए। 67 मौकों पर गोलीबारी हुई जिनमें 19 हिन्दुओं सहित 7 मुस्लिमों की मौत हुई तथा 45 हिन्दू, 21 मुस्लिम और दो अन्य घायल हुए। 12 जनवरी को राधाबाई चाल जैसी ही घटना हुई मगर इस बार भीड़ हिन्दू थी और महिला मुस्लिम। रपट में लिखा है कि हालांकि उपद्रवियों को गिरफ्तार कर लिया गया और मुम्बई सत्र अदालत में उन पर मुकदमा भी चला। बाद में उन्हें इस आधार पर छोड़ दिया गया कि पंचनामे में गलतियां थीं और कि किसी प्रत्यक्षदर्शी को सामने नहीं लाया गया था। रपट में इस बात का कोई उल्लेख नहीं है जहां ऐसे ही किसी अन्य मामले में किसी को सजा हुई हो। 12 तारीख के आंकड़े भी “प्रतिक्रिया” का संकेत देते हैं। पुलिस को 31 मौकों पर अलग-अलग जगह गोली चलानी पड़ी जिनमें 4 हिन्दुओं और 6 मुसलमानों की मौत हुई तथा 23 हिन्दू और 7 मुस्लिम घायल हुए। छुरेबाजी की 56 घटनाओं में 3 हिन्दुओं, 27 मुस्लिमों की मौत हुई और 11 हिन्दू तथा 41 मुस्लिम घायल हुए। दंगाई भीड़ की हिंसा के 71 मामले हुए जिनमें एक हिन्दू और 6 मुस्लिम मारे गए। जबकि 9 हिन्दू और 21 मुस्लिम घायल हुए। 13 से 15 तारीख के बीच हिंसा कम होती गई और मरने वालों तथा छुरेबाजी की घटनाओं में मुस्लिमों के मरने की संख्या अधिक है जबकि घायलों में दोनों समुदायों के लोग बराबर थे। आयोग द्वारा दिसम्बर 1992 से लेकर जनवरी 1993 के बीच दर्ज आंकड़ा इस प्रकार है- मृत-900 (575 मुस्लिम, 275 हिन्दू, 45 अज्ञात और 5 अन्य)। मृत्यु का कारण पुलिस गोलीबारी (356), छुरेबाजी (347), आगजनी (91), हिंसक भीड़ का दंगा (80), निजी लोगों द्वारा गोलीबारी (22) तथा अन्य कारण (4)। घायल-2,036 (1105 मुस्लिम, 893 हिन्दू और 38 अन्य)। दिसम्बर 1992 में हिंसा के पहले दो दिन मुस्लिम भीड़ पर पुलिस गोलीबारी के कारण गरीब 100 मुस्लिमों की मृत्यु हुई। वास्तव में अगर आप हिंसा के चरम वाले दिनों को “हिन्दू प्रतिक्रिया” की दृष्टि से देखेंगे तो किसी एक दिन भी मुस्लिमों की कुल मृत्यु संख्या दिसम्बर 1992 में हिंसा के पहले दिन की मृतक संख्या के न तो बराबर होगी ना उससे ज्यादा होगी।दिसम्बर के दौर में रपट मुस्लिम प्रतिक्रिया के बारे में पूरी तरह से किसी व्यक्ति अथवा व्यक्तियों के समूह को दोषमुक्त ठहराती है। इसके बजाए यह इसे स्वत:स्फूर्त और नेतृत्वहीन बताती है जो एक शान्तिपूर्ण प्रदर्शन की तरह शुरू हुआ मगर जल्दी ही दंगों में बदल गया। उस दिन के घटनाक्रम की रिपोर्टिंग की भाषा से इस रपट की भाषा की जरा तुलना करें।मुस्लिमों की भारी भीड़ सड़कों पर उतर आई और नि:संदेह इसने भयंकर हिंसा और उत्पात मचाया। यह सशस्त्र भीड़ थी और हिंसक हमलों की पूर्व तैयारी के साथ उतरी थी। आखिर रपट में उस उग्र भीड़ की मानसिकता और तैयारी को सहज कैसे कह दिया? रपट में आगे शिवसेना, बाल ठाकरे, मधुकर सरपोतदार और मनोहर जोशी पर जनवरी 1993 के दिनों में उन्माद भड़काने का आरोप लगाया है। चूंकि कुछ आपराधिक मुस्लिमों ने शहर के किसी कोने में निर्दोष हिन्दुओं को मारा था, शिव सैनिकों ने शहर के दूसरे कोने में निर्दोष मुस्लिमों के विरुद्ध “प्रतिक्रिया” की।इस तरह की कोई सामग्री रिकार्ड में नहीं है जो यह दर्शाती हो कि इस कालखण्ड के दौरान कोई पहचाना मुस्लिम व्यक्ति या संगठन दंगों का दोषी था। हालांकि कुछ मुस्लिम और आपराधिक मुस्लिम तत्व हिंसा, लूट, आगजनी और दंगों में शामिल थे। रपट न तो मुस्लिम आपराधिक तत्वों का विशेष रूप से नाम देती है, न ही अपने निष्कर्ष में हिंसा के कृत्यों के लिए जिम्मेदार लोगों का नाम देती है। वास्तव में रपट के निष्कर्ष में विशेष रूप से जो नाम हैं वे उन 31 पुलिस अधिकारियों के हैं जिनके विरुद्ध यह खास कार्यवाही किए जाने की अनुशंसा करती है।नेताओं को कथित बरी किए जाने के बारे में मीडिया में काफी कुछ कहा जाता रहा है। मधुकर सरपोतदार, मनोहर जोशी और बाल ठाकरे के नाम बार-बार दोहराए जाते हैं। साथ ही कुछ मीडिया रपटें भाजपा नेता गोपीनाथ मुंडे तक का नाम उछालती हैं। मगर रपट के निष्कर्ष की वास्तविकता बिल्कुल अलग है। निष्कर्षों के पूरे खण्ड (खण्ड 1) में मधुकर सरपोतदार का नाम केवल एक बार आता है और वह भी किसी खास घटना का दोष देते हुए नहीं अथवा दंगे के लिए नहीं बल्कि “बदले की भावना” फैलाने के लिए। मीडिया में उनके खिलाफ जो भी रिपोर्टिंग हुई उसका अधिकांश हिस्सा खण्ड दो में आता है और सबसे गम्भीर और उनके विरुद्ध खास मामला अवैध रूप से पिस्तौल रखने का है।मनोहर जोशी का नाम केवल दो बार आता है। पहली बार तो 13 दिन की वाजपेयी सरकार के संदर्भ में जब उनसे आयोग को फिर से शुरू करने की बात कही गई थी। दूसरी बार जनवरी 1993 के दौर का दोषी बताते हुए आता है। एक बार फिर इसमें भी कोई खास घटना अथवा दंगा भड़काने का आरोप नहीं है बल्कि “बदले की भावना” का जिक्र है।निष्कर्ष रपट में गोपीनाथ मुंडे का नाम नहीं है, वास्तव में रपट में किसी भी हिंसा के लिए भाजपा के किसी नेता का नामोल्लेख नहीं है। यह तो केवल मीडिया का मिथक और एक शरारत है। मुंडे और भाजपा का मोटे तौर पर संदर्भ तब आता है जब मुंडे के सहायक को बिना लाइसेंस के हथियार सहित पकड़े जाने का उल्लेख है।बाल ठाकरे के बारे में तीन बार उल्लेख हुआ है। पहली बार उनके लेखों के लिए, दूसरी बार टाइम पत्रिका में उनके साक्षात्कार में दर्शाये रवैये को लेकर और तीसरी बार इस तरह कि मानो उन्होंने “बदले” का नेतृत्व एक जनरल की तरह किया। हालांकि निष्कर्ष खण्ड में नेतृत्व आदि का कोई विशेष उल्लेख नहीं है। खंड दो पत्रकार मोहिते, जो महापौर हंडोरे के साथ ठाकरे के घर गया था और वहां उसने ठाकरे की फोन पर बातचीत सुनी थी, के कथित नोट्स के बारे में है। जिसके आधार पर आयोग ने ठाकरे के संदर्भ में यह धारणा बनाई, जैसे उन्होंने दंगों का नेतृत्व किया था। हालांकि ठाकरे को कुछ वर्ष पहले कुछ समय के लिए गिरफ्तार किया गया था मगर उनके विरुद्ध वह मामला धराशायी हो गया।1992-1993 के दंगे वस्तुत: सभ्य समाज के लिए काला धब्बा हैं। इसके कारणों और प्रभाव को लेकर चुन-चुनकर आरोप मढ़ना 17 साल पुराने घाव को भरने जैसा नहीं है बल्कि यह वोट बैंक राजनीति और सेकुलर मीडिया के राजनीतिक दांवपेंच को दर्शाता है, जो 1993 के बम विस्फोटों की सजा को लेकर एक अपराध भाव में जी रहा है।भारत को हिंसक दंगों के पाप से मुक्ति दिलाने के लिए गंभीर बहस का ध्यान, कानून के क्रियान्वयन में सुधार और उसमें स्थानीय समुदायों की सहभागिता पर होना चाहिए। इसके बजाए यह एकपक्षीय सेकुलर तमगा, जिसे मीडिया बढ़ावा दे रहा है, न तो प्रभावित मुस्लिमों के लिए न्याय की बात करता है न ही उसी अनुपात में पीड़ित हिन्दुओं के लिए। गैर जिम्मेदार सवाल, जैसे, “हिन्दू आतंकवादियों के बारे में क्या कहेंगे?”, पूछ कर मीडिया तथ्यों से मुंह मोड़ रहा है और झूठी कहानियां गढ़ रहा है जो वास्तव में बहुत खतरनाक है।न्यायिक प्रक्रिया के तहत दोषियों के विरुद्ध कार्यवाही हो और यह मामला समाप्त हो। एकपक्षीय दोषारोपण, जिसके लिए मीडिया शोरगुल मचा रहा है, किसी के हित में नहीं है बल्कि यह घावों को हरा करता है तथा वोट बैंक राजनीति को हवा देता है।35
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