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डा. मुरली मनोहर जोशी से तरुण विजय की बातचीत

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Sep 9, 2007, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 09 Sep 2007 00:00:00

अमरीका से परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में 123 समझौता हमारी राष्ट्रीय संप्रभुता और परमाणु एवं ऊर्जा स्वायत्तता पर आघात करता हैसंधि अस्वीकारडा. मुरली मनोहर जोशी भारत-अमरीका परमाणु संधि के गहन अध्येता हैं तथा उन्होंने प्रारंभ में ही इस संधि के कुफलदायी प्रभाव के बारे में चेताते हुए संसद में भी प्रश्न उठाए, वक्तव्य दिए और प्रधानमंत्री को दो पत्र लिखे। वर्तमान विवाद के संदर्भ में उनसे की गई विशेष बातचीत के मुख्य अंश यहां प्रस्तुत हैं-अमरीका से परमाणु ऊर्जा सहयोग के लिए 1 2 3 समझौते के पक्ष और विपक्ष में अनेक तर्क दिए जा रहे हैं। भाजपा की इस बारे में स्पष्ट स्थिति क्या है?हमारा जो रुख प्रारंभ से था वही आज भी है, उसमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ। भाजपा ने स्पष्ट कहा है कि यह समझौता भारत की ऊर्जा स्वायत्तता, परमाणु स्वायत्तता और भारत की न्यूनतम प्रतिरोधक क्षमता, इन तीनों को ही प्रभावित करता है। इस सबसे ऊपर यह समझौता भारत की विदेश नीति पर भी प्रभाव डालता है।हमारे वैज्ञानिक थोरियम चक्र को पूरा करने के लिए बहुत तेजी से लगे हुए हैं। विश्व के गिने चुने देशों में भारत है, जो थोरियम चक्र पूरा करने की सिद्धता प्राप्त कर रहा है। इन सब स्वदेशी क्षमताओं पर इस संधि का दुष्प्रभाव पड़ेगा। इसके अलावा जब भी भविष्य में हम अपनी आवश्यकता के अनुसार परमाणु विस्फोट करेंगे तो यह समझौता रद्द हो जाएगा और हमें उस समय तक अमरीका से प्राप्त सभी संयंत्र, सामान और र्इंधन वापस लौटाना पड़ेगा। लेकिन यह समझौता केवल विस्फोट करने तक ही रद्द नहीं होगा बल्कि ऐसी अनेक बातें हैं जिनसे इस समझौते के रद्द होने की स्थिति अचानक सामने आ सकती है। उदाहरण के लिए, अमरीका कहेगा कि ईरान पर भारत अमरीकी नीतियों का साथ दे या दुनिया में जनतंत्र स्थापित करने के मामले में अमरीकी चौखटे में बनी नीतियों का भारत अनुसरण करे। परमाणु अप्रसार के लिए अमरीका की ओर से जो कोशिशें की जा रही हैं उनमें भारत सहायता करे और अगर अमरीकी राष्ट्रपति यह कह दें कि इन मामलों में भारत का व्यवहार और लेखा-जोखा ठीक नहीं है तो समझौता रद्द हो जाएगा। इसलिए यह कहना ठीक नहीं है कि सिर्फ विस्फोट करने पर ही यह समझौता रद्द होगा। अमरीका तथा अन्य परमाणु सामग्री आपूर्त्तिकत्र्ता देशों द्वारा जो भी सामान और र्इंधन दिया गया है वह तो समझौता रद्द होने की स्थिति में वापस देना ही पड़ेगा बल्कि जिस परमाणु र्इंधन का हमने उपयोग कर लिया है उसके परमाणु अवशिष्ट (न्यूक्लीयर वेस्ट) का एक ग्राम भी जब तक भारत के पास रहेगा, वह भी अमरीकी निगरानी में रखा जाएगा। यानी संयंत्र वापस चले भी जाएं तो भी भारत पर सदैव अमरीकी निरीक्षण का शिकंजा निरंतर कायम रहेगा। यह क्या बात हुई? यह क्या हम स्वीकार कर लेंगे?मैं अक्सर कहता हूं कि इस समझौते ने हमारे वैज्ञानिकों द्वारा निर्मित, पालित, पोषित और परिष्कृत परमाणु बम की निर्मम हत्या की है। इट्स ए ब्राूटल मर्डर आफ दैट न्यूक्लीयर बम। भारत में जितने भी परमाणु संयंत्र बने हैं और स्थापित हुए हैं उनमें से 95 प्रतिशत भारतीय स्वदेशी प्रतिभा और मेहनत से बने हैं। मुश्किल से 5 प्रतिशत विदेशी सहयोग का सहारा लिया गया। यह संधि उस समस्त परिश्रम को अपमानित करती है। अगर सरकार को परमाणु संयंत्र लगाकर ऊर्जा उत्पादन करना था तो भारतीय वैज्ञानिकों की योग्यता का उपयोग किया जाना चाहिए था। यहां के लोगों को रोजगार मिलता, यहां उद्योग बढ़ते, यहां की वैज्ञानिक प्रतिभा को प्रोत्साहन मिलता। हमारा व्यापार बढ़ता।परंतु इस समझौते के फलस्वरुप सस्ती और अधिक ऊर्जा मिलने की बात कही जा रही है?इस समझौते के फलस्वरुप जो परमाणु संयंत्र लगाए जाएंगे उनमें कई लाख रुपए का निवेश करना होगा। कम से कम दस वर्ष बाद हमें बिजली मिलेगी और वह भी हमारी ऊर्जा आवश्यकता का अधिकतम 20 प्रतिशत ही पूरा करेगी। बाकी आवश्यकताएं तो हमें स्वयं ही अन्य साधनों से पूरी करनी होंगी। सामान्य तौर पर आकलन किया जाता है कि एक मेगावाट परमाणु ऊर्जा निर्माण के लिए आठ से दस करोड़ रुपए की लागत आती है। यदि पांच सौ मेगावाट परमाणु ऊर्जा उत्पादन का संयंत्र बनाना है तो कम से कम पांच हजार करोड़ रुपए का पूंजीनिवेश करना होगा। यदि ऐसे पचास संयंत्र लगाए तो पच्चीस हजार करोड़ रुपए तो इन संयंत्रों में लगाने ही होंगे। इनके बनने में कम से कम सात-आठ साल लगेंगे। इतना सब करने के बाद हमें बीस प्रतिशत ऊर्जा मिलेगी, ऐसा कहा जा रहा है, वास्तविकता में कितनी मिलेगी यह तभी पता चलेगा। यह ऊर्जा कितनी सस्ती होगी, यह भी संयंत्र स्थापित होने के बाद ही अनुमान लगाया जा सकता है। यह समझौता चालीस साल के लिए किया गया है। यानी चालीस साल के लिए भारत बंध गया। इन पहलुओं पर सरकार ने गंभीरता से विचार ही नहीं किया।कहा जा रहा है कि इस समझौते से केवल बिजली उत्पादन नहीं बल्कि उद्योग और उत्पादन के क्षेत्र में विराट संभावनाओं के द्वार खुल जाएंगे?देखिए, ऊर्जा को विकास की कुंजी कहा जाता है और वह ऊर्जा हमें इस समझौते के अन्तर्गत प्राप्त होगी। पर इस ऊर्जा से होने वाले विकास की कुंजी हमारे हाथ में नहीं बल्कि वाशिंगटन के हाथ में होगी। यानी हम अपने औद्योगिक विकास की कुंजी विदेशियों के हाथ में सौंप रहे हैं। जब तक विदेशी सरकार र्इंधन देगी तब तक हम चलाएंगे वरना बंद करना पड़ेगा। मैंने सरकार से पूछा कि इस प्रक्रिया से मिलने वाली ऊर्जा के लागत मूल्य का कोई आकलन किया गया है या नहीं किया गया है, इसका भी सरकार के पास कोई जवाब नहीं था।एक और बात है कि इतनी बड़ी मात्रा में परमाणु र्इंधन का शोधन, पुन:संस्करण कर भारी जल बनाने की सुविधाओं का निर्माण करने में ही पूरा पूंजीनिवेश चला जाएगा तो हमारे स्वदेशी अनुसंधान और रक्षा विकास के क्षेत्र तो अभावग्रस्त हो जाएंगे। फिर डी.आर.डी.ओ. क्या करेगा? जो विदेशी संयंत्र लाएगा वह अपने साथ विदेशी इंजीनियर और कर्मचारी भी लाएगा, नौकरी उनको मिलेगी, भारतीयों को नहीं। तो रोजगार भी विदेश में बढ़ेगा, सामान भी विदेश से आएगा। मुनाफा भी उन्हीं को होगा, पैसा हमें देना पड़ेगा तथा उसके बाद भी हमेशा उन्हीं पर निर्भर रहना पड़ेगा।कहा जा रहा है कि सारी शंकाएं धीरे-धीरे स्वत: ठीक हो जाएंगी?कैसे ठीक हो जाएंगी, कौन ठीक करेगा? हमें तो नहीं लगता कि उसे कोई ठीक कर पाएगा। अन्तरराष्ट्रीय परिस्थिति में आज चारों तरफ अमरीका का वर्चस्व है और उसका दबदबा है, उसे कौन अपने स्वदेशी हितों के अनुकूल ढाल सकेगा।इसका हमारी विदेश नीति पर क्या असर होगा?हाईड एक्ट की जो शर्ते हैं और उसके अनुच्छेदों में जो मंतव्य प्रकट किया गया है और अमरीकी संसद यानी कांग्रेस की जो समझ सामने आई है उन सबको देखकर लगता है कि हमारी नीतियों पर दबाव आएगा ही आएगा। अमरीका कह सकता है कि भारत को इस समझौते के अन्तर्गत क्षेत्र में उसकी संसद की भावना के अनुरूप ही काम करना होगा। इसलिए वह खतरा तो हमेशा बना ही रहेगा, यह तयशुदा बात है।यह समझौता अमरीका के 1954 में बने परमाणु ऊर्जा कानून के अन्तर्गत किया जा रहा है, उसके अनुच्छेद 123 में परमाणु क्षेत्र में व्यापार और सहयोग की जो शर्तें हैं, जैसे-परमाणु संयंत्र और परमाणु र्इंधन, कलपुर्जे आदि के संबंध में जो शर्तें एवं अमरीकी दृष्टि है, वह लिखी हुई है। हम अगर अमरीका से अपनी शर्तों पर कोई समझौता करना चाहते हैं तो अमरीका 1954 के इस कानून के अनुच्छेद 123 को दिखा कर कह सकता है कि जब तक कोई बात इस अनुच्छेद के अनुरूप नहीं होती तब तक वह हमसे किसी भी प्रकार का समझौता या सहयोग नहीं कर सकता। परमाणु आपूर्त्ति समूह देशों के लोग भी भारत के साथ तब तक सहयोग नहीं कर सकते जब तक 1954 के अमरीकी कानून के अनुच्छेद 123 में संशोधन न कर लिया जाए। उसी संशोधन की कोशिश के फलस्वरुप हाईड एक्ट सामने आया है। लेकिन विडम्बना यह है कि हाईड एक्ट अनुच्छेद 123 के प्रतिबंधों को और अधिक पुष्ट करता है। जिसमें एक प्रावधान यह भी है कि अमरीकी राष्ट्रपति भारत के अच्छे या बुरे व्यवहार को प्रमाणित करेगा। वह अपना मूल्यांकन अमरीकी कांग्रेस को देगा कि भारत बड़ा अच्छा और “आज्ञाकारी बच्चा” रहा है या नहीं रहा है। अमरीकी राष्ट्रपति द्वारा दी गई उस रपट पर समझौता आगे बढ़ेगा या नहीं बढ़ेगा। इसे आप विक्रेता या क्रेता के उदाहरण से भी समझ सकते हैं। विक्रेता के पास कुछ सामान है जो आप खरीदना चाहते हैं। विक्रेता कहता है कि मेरी ये ये शर्तें हैं, उन्हें जब तक आप मानोगे नहीं, मैं सामान बेच नहीं सकता। आप क्रेता के रूप में जो भी कानून बनाना चाहें बना लीजिए, लेकिन वह आप पर ही लागू होगा। आपका कानून विक्रेता पर लागू नहीं हो सकता।क्या यह केवल राजनीतिक संयोग है कि आप और कम्युनिस्ट पार्टियां एक धरातल पर एक ही भाषा बोलने लगीं?हमारे और वामपंथियों के विरोध के कारणों में अन्तर समझना चाहिए। वामपंथी अन्ध अमरीका विरोध के कारण इस संधि के विरोध में खड़े हैं। अगर यही संधि कम्युनिस्ट सोवियत संघ या चीन के साथ हुई होती तो वामपंथी इसे खुशी-खुशी स्वीकार कर लेते। कम्युनिस्टों की यह मानसिकता हमें समझनी चाहिए कि उन्होंने तो आज तक यह नहीं माना है कि चीन अक्रांता है। जब चीन कहता है कि अरुणाचल प्रदेश चीन का हिस्सा है तो कम्युनिस्ट इसका जवाब देने में कन्नी काट जाते हैं, कुछ बोलते नहीं। उनका परमाणु संधि विरोध अमरीका विरोध के कारण है। हमारा विरोध राष्ट्रहित की दृष्टि से है। हमारा कहना है कि वर्तमान परिदृश्य में भारत और अमरीका के मध्य मैत्री की आवश्यकता है, परंतु यह मैत्री बराबरी के आधार पर होनी चाहिए। भारत को जितनी अमरीका की आवश्यकता है संभवत: अमरीका को उससे अधिक भारत की आवश्यकता है। यह परस्पर हितैषी संबंध है।इस संधि के स्वरूप में किस प्रकार का परिवर्तन आपको अपेक्षित है?हमारी राष्ट्रीय सम्प्रभुता, परमाणु स्वायत्तता, ऊर्जा स्वायत्तता, विदेश नीति की स्वायत्तता तथा परमाणु विस्फोट करने का हमारा अधिकार सुरक्षित रहे तो उसके बाद संधि पर विचार किया जा सकता है। बराबरी के स्तर पर समझौता हो और दोनों देश एक दूसरे का हित साधन करें तो कोई आपत्ति नहीं है।14

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