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मंथन

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Sep 9, 2007, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 09 Sep 2007 00:00:00

अब आतंकवाद के विरुद्ध राष्ट्रीय एकता का शंखनाददेवेन्द्र स्वरूप26 अगस्त रविवार के सभी दैनिकों के पहले पन्ने पर एक चित्र छपा। नीले रंग की कुर्सियों की लम्बी लम्बी कई कतारें। उनमें एक तरफ की कुर्सियां उखड़ कर गायब। पंक्तियों के बीच में पड़ी क्षत-विक्षत लाशें। यह दृश्य है हैदराबाद नगर में राज्य सचिवालय और हुसैन सागर के निकट अति सुरक्षा क्षेत्र में स्थित प्रसिद्ध लुम्बिनी पार्क का। यह सभागार लेजर शो का एकमेव स्थल होने के कारण पर्यटकों एवं स्थानीय नागरिकों को समान रूप से आकर्षित करता है। 2200 सीटों वाला यह सभागार शनिवार और रविवार की सायंकाल खचाखच भरा होता है। 25 अगस्त शनिवार की सायं 7.45 पर शो आरंभ होते ही सभागार में दो बमों का धमाका हुआ। वह विस्फोट इतना जबर्दस्त था कि तीन पंक्तियों की कुर्सियां सीमेन्ट से उखड़ कर 50 फीट ऊ‚पर उड़ गर्इं और उन पर बैठे दर्शकों के चिथड़े-चिथड़े उड़ कर इधर-उधर बिखर गए। यह संयोग ही था कि इस शनिवार को भारी वर्षा होने के कारण दर्शकों की संख्या केवल 600 रह गई थी, अन्यथा मृतकों और घायलों की संख्या कितने गुना होती इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।इस विस्फोट के लगभग 30 मिनट बाद ही 5 किलोमीटर दूर कोटी मुहल्ले में विश्व हिन्दू परिषद् के कार्यालय के निकट गोकुल चाट भंडार पर विस्फोट हुआ। यह भंडार खाने-पीने के सामान के लिए बहुत प्रसिद्ध है और सायंकाल वहां सैकड़ों की संख्या में स्त्री-बच्चे और युवा खाने का मजा लेने आते हैं। इसीलिए इस स्थान को विस्फोट के लिए चुना गया। दोनों जगह मिलाकर 45 लोगों के मरने और 82 के घायल होने के आंकड़े अभी तक सरकार द्वारा प्रसारित किए गए हैं।इन दोनों विस्फोटों के समय, स्थान और स्वरूप को देखकर 29 अक्तूबर, 2005 को दिल्ली में तीन अलग-अलग भीड़भाड़ भरे स्थानों पर लगभग एक ही समय थोड़े-थोड़े अन्तर के साथ तीन विस्फोटों का स्मरण आ जाता है, जिनमें 61 लोगों ने अपनी जान गंवाई थी और 92 घायल हुए थे। ये विस्फोट दीपावली पर्व के दो दिन पूर्व किए गए थे और हैदराबाद के ताजा विस्फोट गणेश चतुर्थी पर्व के कुछ दिन पहले।विस्फोट का समाचार आते ही प्रतिक्रियाओं का पुराना कर्मकांड फिर से शुरू हो गया। प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति ने मृतकों के प्रति संवेदना प्रगट की, गृहमंत्री ने घोषणा की कि हम आतंकवाद के सामने झुकेंगे नहीं। तुरन्त केन्द्र ने राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड और बम विशेषज्ञ रवाना कर दिए। राज्य के मुख्यमंत्री ने इन विस्फोटों के लिए पड़ोसी पाकिस्तान और बंगलादेश के आतंकवादियों को दोषी ठहराया, मृतकों के लिए राजकोष से मुआवजे की घोषणा कर दी। वीर गर्जना की कि हम जिस बहादुरी से नक्सलियों से लड़ रहे हैं उसी बहादुरी से इन आतंकवादियों से भी लड़ेंगे। पूरे देश में अलर्ट घोषित कर दिया गया। पुलिस ने सड़कों पर अवरोध लगा दिये। हर चौराहे पर पुलिस दिखाई देने लगी। पिछली बार दिल्ली में विस्फोटों के बाद हैदराबाद में अलर्ट हुआ इस बार हैदराबाद में होने पर दिल्ली में अलर्ट किया गया। इस देश पर आतंकी हमलों की ये दो ही घटनाएं नहीं हैं। उनका एक अनन्त सिलसिला है। टाइम्स आफ इंडिया जैसे बड़े अखबार ने ऐसे अनेक हमलों की सूची दी है और बताया है कि दुनियाभर में इराक के बाद भारत ही अकेला देश है जिसने आतंकी हमलों को सबसे अधिक झेला है और सबसे अधिक जानें खोयी हैं। उसका तो यहां तक कहना है कि जनवरी 2004 से अब तक के साढ़े तीन वर्षों में भारत में आतंकवाद का शिकार बने प्राणों की संख्या उत्तरी, दक्षिणी, मध्य अमरीका, यूरोप और यूरेशिया में आतंकी हमलों में मारे गये लोगों की संख्या से कहीं अधिक है।आतंकवाद का स्रोत1990 से लगातार आतंकी हमलों का शिकार बने भारत का नेतृत्व क्या अभी तक यह नहीं समझ पाया कि आतंकी अपने हमले का समय, स्थान, तिथि व स्वरूप अपनी सुविधा से तय करते हैं। अकस्मात् अनपेक्षित हमले द्वारा शत्रु को हतप्रभ करना और विश्व व्यापी प्रचार अर्जित करना उनकी रणनीति का मुख्य आधार होता है। भारत जैसे विशाल देश में एक साथ विस्फोट करके उसका अंग नहीं हो सकता। अत: किसी एक कोने में विस्फोट से घबराकर पूरे देश में अलर्ट की घोषणा को कारगुजारी का नाटक तो कहा जा सकता है पर आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई का संकल्प नहीं।उपरोक्त प्रारंभिक प्रतिक्रिया के बाद अब प्रतिक्रिया का दूसरा चरण आरंभ होता है। आतंकवादी कौन थे, कहां से आये थे, उन्होंने विस्फोटक कहां से खरीदे थे, कैसे थैले में रखे थे, यहां विस्फोट टाईमर द्वारा किया गया या आत्मघाती मानव द्वारा, इन आतंकवादियों का सम्बंध किस दल से हो सकता है- जैशे मुहम्मद से या लश्करे तोयबा से? हरकत उल जिहाद-ए-इस्लाम (हूजी) से या सीधे-सीधे अलकायदा से? उनका रेखाचित्र जारी कर दिया गया। प्रधानमंत्री ने आतंकवाद पीड़ितों के लिए स्थायी सहायता कोष की स्थापना की घोषणा कर दी जिसका अर्थ होता है कि हम आतंकवाद के विरुद्ध असहाय हैं। आतंकवादी संगठनों की सूची में 173 संगठनों के नाम हैं। सब अपने को जिहादी कहते हैं या मुजाहिदी कहते हैं, सब पैगम्बर मुहम्मद के अनुयायी हैं, प्रत्येक निजाम-ए-मुस्तफा की स्थापना के लिए संघर्ष कर रहा है। इस्लाम की विचारधारा उनको जोड़ने वाली कड़ी है।यदि यह सही है तो भारत में इस्लामी आतंकवाद का स्रोत पाकिस्तान और बंगलादेश में ही क्यों ढूंढा जाए? क्या भारत के 12 करोड़ मुसलमानों की इस्लाम के प्रति निष्ठा कच्ची और कमजोर है? 1947 के पूर्व पाकिस्तान (जिसमें पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान यानी बंगलादेश सम्मिलित थे) के निर्माण के लिए जो लम्बा आंदोलन चला क्या उसमें पूरे भारत के मुसलमान सम्मिलित नहीं थे? क्या 1946 के चुनावों में किसी भी प्रान्त के मुसलमान मतदाताओं ने मुस्लिम लीग के बजाय गांधी और नेहरू की कांग्रेस के पक्ष में वोट दिया था? इतिहास के सच से भागो मत, उसका मुकाबला करो।सच तो यह है कि यदि आतंकवाद से लड़ने का इरादा है तो आतंकवाद की जड़ों को खोजो। क्या आतंकवाद की जड़ कुछ चेहरों, कुछ संगठनों तक सीमित है? इन सब चेहरों और संगठनों की समान प्रेरणा क्या है? जिस विचारधारा ने इन चेहरों को जिहाद की प्रेरणा दी, जिसने इन अनेक संगठनों को जन्म दिया उस विचारधारा को गहरायी से समझो, उसमें जिहाद के बीज कहां हैं, क्यों हैं, यह खोजने का प्रयास करो। टाइम्स आफ इण्डिया ने आंकड़े देकर प्रमाणित किया है कि पूरी दुनिया में आतंकवाद की घटनाओं में आधी से अधिक अकेले इस्लामी विचारधारा की देन हैं।जिस विचारधारा ने भारत के तीन टुकड़े कर दिये, जिस विचारधारा ने कश्मीर को कब्रागाह बना दिया, जिस विचारधारा से उपजे आतंकवादियों ने दिल्ली से लेकर मुम्बई, भिवंडी, औरंगाबाद, बंगलौर, हैदराबाद, कोयम्बतूर, चेन्नै तक चप्पे-चप्पे पर निर्दोषों का खून बहाया, उस विचारधारा का वस्तुपरक अध्ययन करने का साहस कभी तुमने दिखलाया? क्या तुम आजतक एक भी आतंकवादी नरमेध के अपराधियों को पकड़ पाये? पकड़ोगे कैसे? जो विचारधारा जिहादियों को पैदा करती है उसके अनुयायियों को तो तुमने अपना वोट बैंक मान लिया है। उनके कन्धे पर बैठकर ही तुम सत्ता का सुख भोगना चाहते हो। तुम्हारी समूची राजनीति का सूत्र वाक्य है- “राष्ट्र से बड़ा दल, दल से बड़ा मैं”। तुम्हारी राजनीति में राष्ट्र है कहां? मानवता की तुम्हें चिन्ता है कब? तुम्हें केवल सत्ता चाहिए, वह भी दल या राष्ट्र के लिए नहीं केवल अपने लिए। इसीलिए तो तुम सलमान रुश्दी और तस्लीमा नसरीन जैसे इस्लामी विचारधारा के निर्भीक आलोचक मुसलमानों को सुरक्षा एवं प्रोत्साहन देने के बजाए उनकी पुस्तकों पर प्रतिबंध लगाते हो। उन्हें भारत की नागरिकता देना तो दूर, स्थायी वीजा देने में भी घबराते हो और हैदराबाद में तस्लीमा पर जानलेवा हमला करने वाले, उसे जान से मारने का फतवा जारी करने वालों को गले लगाते हो। इंडियन एक्सप्रेस ने अपने सम्पादकीय में ठीक ही लिखा है कि मजलिस-ए-इत्तिहादुल मुसलमीन के जिस विधायक ने प्रेस क्लब में तस्लीमा पर हमला किया था और खुलेआम यह धमकी दी थी कि अगर वह दोबरा हैदराबाद आयी तो उसे जान से मार दिया जाएगा, वह विधायक और उसका दल तो तुम्हारा गठबंधन-मित्र है। इंडियन एक्सप्रेस ने यह भी लिखा है कि जो कांग्रेस सरकार पुलिस बल की उपेक्षा कर नक्सलियों का सार्वजनिक अभिनन्दन कर सकती है वह आतंकवाद के विरुद्ध राष्ट्रीय संघर्ष का नेतृत्व कैसे कर सकती है? यही कारण है कि आजतक किसी भी आतंकी घटना का अपराधी नहीं पकड़ा गया। यदि पकड़ा गया तो वह राजनीतिक दबाव या न्याय-प्रक्रिया की कमजोरी के कारण रिहा हो गया। कोयम्बतूर में लालकृष्ण आडवाणी की यात्रा के समय विस्फोटों के आरोपी अब्दुल नजीर मदनी की रिहाई के लिए कांग्रेस, कम्युनिस्ट और द्रमुक तीनों में स्पर्धा चली, वह कल की ही तो बात है। गुप्तचर सेवाओं के पूर्व निदेशक बी.रमन ने टाइम्स आफ इंडिया (28 अगस्त) में ठीक ही लिखा है कि “राजनीतिज्ञों के लिए मानव जीवन से अधिक मूल्यवान वोट है।” और टाइम्स आफ इंडिया ने पहले पन्ने पर सुनिश्चित मत दिया है कि “आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई में हमारा राष्ट्र नपुंसक सिद्ध हुआ है।” (27 अगस्त)राष्ट्र नहीं, सत्ता की चिन्ताइस समय भी अमरीका के साथ परमाणु संधि के सवाल पर कांग्रेस और वामपंथियों की मुख्य चिन्ता भारत का राष्ट्रहित नहीं है, बल्कि भारतीय मुसलमानों की अमरीका विरोधी भावना का दोहन करना है। कम्युनिस्ट मानसिकता ने सत्ता प्राप्ति को ही क्रान्ति और माक्र्सवाद मान लिया है। उसके लिए किसी भी कंधे का सहारा लेना या किसी की भी पीठ में छुरा भोंकना यह कम्युनिस्टों का स्थायी स्वभाव बन गया है। इसलिए वे अमरीका-भारत संधि का तीव्र विरोध करके मुस्लिम मन को जीतने में लगे हैं। कांग्रेस उसकी काट में सच्चर रपट का इस्तेमाल करना चाहती है। किन्तु कम्युनिस्ट पार्टी आफ मुस्लिम (माकपा) ने सच्चर रपट और महाराष्ट्र के 1993 के दंगों पर श्रीकृष्ण आयोग की रपट को अभी से कांग्रेस के विरुद्ध उछालना शुरू कर दिया है। आण्विक ऊ‚र्जा आयोग के पूर्व निदेशक श्रीनिवासन ने ठीक ही कहा है कि भारतीय कम्युनिस्टों को राष्ट्र की नहीं केवल सत्ता की चिन्ता है। आंध्र प्रदेश की कांग्रेस सरकार ने न्यायालयी निर्णय की अवहेलना करके भी मुसलमानों को आरक्षण का झुनझुना थमा ही दिया। सभी छोटे-छोटे दल मुस्लिम वोट बैंक को रिझाने की चाहत में सेकुलरिज्म का राग अलापने लगते हैं। इसका ताजा उदाहरण है कर्नाटक जहां देवगौड़ा ने पूरा नाटक करके भारतीय जनता पार्टी के कंधों पर सवार होकर दो वर्ष सत्ता का सुख भोगा और जब पहले के लिखित समझौते के अनुरूप भाजपा को मुख्यमंत्री पद सौंपने का समय आया तो उन्हें पुन: “सेकुलरिज्म” याद आ गया। स्पष्ट है कि “सेकुलरिज्म” मात्र एक आवरण है सत्तालिप्सा की पूर्ति का।किन्तु प्रश्न है कि इस स्वार्थी, अदूरदर्शी, राष्ट्रघाती राजनीतिक नेतृत्व के रहते आतंकवाद का शिकार बन रहा राष्ट्रीय समाज अपने अस्तित्व की रक्षा कैसे करे? इस सत्तालोलुप नेतृत्व ने उसे जाति, क्षेत्र और दल के आधार पर बुरी तरह विभाजित कर दिया है। आतंकवाद के विरुद्ध एकजुट होकर खड़ा होने के बजाय जातिवादी गृह युद्ध की आग में झोंक दिया है। आखिर, गोहाना में एक वाल्मीकि युवक की हत्या की निन्दनीय और लज्जाजनक घटना को आधार बना कर दिल्ली से पंजाब तक आक्रोश के हिंसक प्रदर्शन से क्या निकलेगा सिवाय जाति संघर्ष के, जहर के? राजस्थान में “अन्य पिछड़े वर्ग” की श्रेणी से और नीचे “अनुसूचित जनजाति” की श्रेणी में जाने की मांग को लेकर गुर्जर समाज ने हिंसा का जो प्रदर्शन किया, गुर्जर-मीणा जातियों के संघर्ष का जो शर्मनाक दृश्य उत्पन्न हुआ, उससे क्या आतंकवादी ताकतों को बढ़ावा नहीं मिलता? आंध्र प्रदेश, बिहार, उड़ीसा, झारखंड और छत्तीसगढ़ आदि राज्यों में नक्सली आवरण में जो हिंसा का खेल चल रहा है उसका किसी विचारधारा से कोई सम्बंध नहीं, वह विशुद्ध जातिवादी संघर्ष है।अभी भी गुर्जर नेतृत्व जिले-जिले में जाति की महापंचायत बुलाकर संघर्ष की भूमि तैयार कर रहा है। इन सभी महापंचायतों में सचिन पायलट जैसे पढ़े-लिखे राजनीतिज्ञों की भूमिका स्पष्ट देखी जा सकती है। और तो और वह ब्राह्मण वर्ग, जिसने कभी अपने आध्यात्मिक-बौद्धिक बल और त्याग-तपस्या द्वारा इस विशाल देश में फैले समाज को उसकी सब विविधताओं के बीच सांस्कृतिक-सामाजिक एकता के सूत्र प्रदान किए थे, वह भी अब अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए इस जातीय स्पर्धा में कूदने को कशमशाने लगा है। इसके विपरीत आगरा में चार मुस्लिम युवकों की एक ट्रक द्वारा हत्या की घटना को लेकर पुलिस एवं व्यापारी वर्ग के विरुद्ध हिंसा का जो व्यापक प्रदर्शन किया गया, वह पूरे राष्ट्र के लिए गंभीर चेतावनी होना चाहिए। यह पीड़ा की बात है कि राष्ट्रीय समाज का त्वेष व शौर्य छोटी-छोटी बातों को लेकर सड़क पर पथराव के रूप में प्रगट होता है जबकि मुस्लिम समाज वैचारिक आधार पर अपने आक्रोश का निशाना तय करता है।भारत को इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति में लाने की पूरी जिम्मेदारी राजनीतिक नेतृत्व की है। राजनीतिक नेतृत्व की सत्तालोलुप अवसरवादी मानसिकता के निर्माण में वोट और दल की धुरी पर घूमने वाली वर्तमान राजनीतिक प्रणाली है। हमें विश्वास है कि किसी दूसरी प्रणाली में इसी नेतृत्व की दृष्टि व आचरण भिन्न होता। टाइम्स आफ इंडिया के एक सर्वेक्षण के अनुसार 73 प्रतिशत लोगों का मत है कि भारत को इस दुर्दशा से बाहर निकालने के लिए 80 प्रतिशत राजनेताओं को समुद्र में डुबोना होगा। जनमानस में यह परिवर्तन बहुत महत्वपूर्ण है। सौभाग्य से इस समय पूरा मीडिया आतंकवाद के खतरे को पहचान रहा है। राष्ट्र का वातावरण निर्माण करने में मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका को नकारा नहीं जा सकता है। अत: यही समय है जब आतंकवाद के विरुद्ध राष्ट्रीय एकता का शंखनाद किया जाना चाहिए। आतंकवाद विरोधी संकल्प हमारी राष्ट्रीय एकता का वाहक व आधार बन सकता है। (31.8.2007)16

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