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गवाक्ष

by
Aug 7, 2007, 12:00 am IST
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दिंनाक: 07 Aug 2007 00:00:00

सुनिए खुशवन्त सिंह जी!शिवओम अम्बरसुप्रसिद्ध पत्रकार-साहित्यकार श्री खुशवन्त सिंह के लोकप्रिय स्तंभ पढ़ना मुझे रुचिकर रहा है। उनके पास बात कहने का अपना एक खुशनुमा अन्दाज है। उनके विविध वर्णी अनुभवों से संयुक्त होना भी अच्छा लगता है। हां, नागवार होता है उनकी हिन्दुत्व और हिन्दी के प्रति अत्यन्त पूर्वाग्रहग्रस्त मानसिकता का साक्षात्कार करना। जब भी अवसर मिले वह अपनी इस प्रवृत्ति के प्रदर्शन का प्रयास करते हैं। पिछले कुछ दिनों से वह अचानक सनातन हिन्दू धर्म के उपनिषदों के प्रति उत्सुकता प्रकट करने लगे हैं। अपने किसी लेख में वह कभी गायत्री-मंत्र के अर्थ के प्रति तो कभी ईशावास्योपनिषद् की किसी सूक्ति के प्रति जिज्ञासा प्रकट करते हैं। उन्हें उत्तर देने वाले महानुभाव भी मिल ही जाते हैं। अगले ही लेख में वह उन अस्पष्ट उत्तरों का मखौल-सा उड़ाते हैं और फिर मंत्र की अर्थवत्ता पर प्रश्नचिह्न लगा कर अथवा किसी दार्शनिक प्रतिपादन को खारिज करके आत्मतुष्टि प्राप्त करते हैं। ईश्वर के सन्दर्भ में जानने का उनका व्यामोह उन्हें धर्मग्रन्थों को उलटने-पटलने को प्रेरित करता है तो उसके अस्तित्व को पुन:-पुन: नकार कर वह अपनी बौद्धिकता के स्फीत अहम् की खुद ही पीठ भी थपथपाते रहते हैं। मुझे आपत्ति है उनके द्वारा बिना सम्यक् अध्ययन के धर्मग्रन्थों पर की गई अधकचरी टिप्पणियों पर और तब मुझे लगता है कि हमारे वयोवृद्ध पत्रकार महोदय वस्तुत: वार्धक्य को उपलब्ध नहीं हो पाए, जराग्रस्त जरूर हो गए हैं!जराग्रस्त होना शरीर की नियति है किन्तु वार्धक्य को प्राप्त होना एक उपलब्धि है। “रघुवंश” में महाकवि कालिदास महाराज दिलीप का वर्णन करते हुए “वार्धक्यं जरसा बिना” अर्थात् उन्हें शरीर के जराजीर्ण होने से पूर्व ही वार्धक्य की उपलब्धि हो गई थी कहकर जैसे इन दोनों शब्दों की अर्थगहनता की व्याख्या सी कर देते हैं। एक सम्यक् रूप से वृद्ध हुआ व्यक्ति हिमालय के गरिमा मण्डित शिखर की तरह प्रतीत होता है। प्रणम्य और उपगम्य। किन्तु अधिकांश लोग तो शरीर से जीर्ण-शीर्ण होते जाने को ही वार्धक्य मानकर भ्रान्त हो जाते हैं, समझने लगते हैं कि उन्हें हर सन्दर्भ में टिप्पणी करने का अधिकार मिल गया है! श्री खुशवन्त सिंह स्वयं को एक नास्तिक उद्घोषित करते हैं किन्तु वस्तुत: वह एक ईमानदार नास्तिक भी नहीं हैं। एक नास्तिक कभी ईश्वर से सम्बंधित ऊहापोह में नहीं पड़ता। उसके लिए यह संसार एक प्राकृतिक संयोग है। इसके पीछे किसी आनन्दमय चैतन्य का सुचारू संयोजन है-ऐसा वह नहीं मानता। उसकी दृष्टि में यह संसार चैतन्य का विलास नहीं मात्र जड़ का विकास है। “यावत् जीवेत् सुखं जीवेत्” के दर्शन की चारूता में विश्वास रखने वाला चार्वाक नास्तिकता का मापदण्ड कहा जा सकता है। खुशवन्त जी अगर चार्वाक जैसे भी होते तो वह बौद्धिक विभ्रम के शिकार नहीं बनते। वस्तुत: उन्होंने अपने कौतूहल को जिज्ञासा मान लिया है। कौतूहल हर वस्तु के बारे में जानने के लिए बचकाने प्रश्नों से भरा होता है। जबकि जिज्ञासा अपने प्रश्नचिह्न के पीछे अपने समग्र व्यक्तित्व को खड़ा कर देने की संकल्पवत्ता है। ब्राहृ के सन्दर्भ में कौतुहल काम नहीं देता। वहां सच्ची जिज्ञासा चाहिए- “अथातो ब्राहृ जिज्ञासा।” अगर खुशवन्त जी एक बार पूरी श्रद्धा और आस्था के साथ गुरु नानकदेव की मंत्र-वाणी जपुजी साहब का ही सावधान होकर पाठकर लेते तो उन्हें उपनिषदों के सार-सूत्र की उपलब्धि हो जाती। जहां भी किसी समाधिस्थ प्रज्ञा ने परम सत्य की अनुभूति को अभिव्यक्त करने की चेष्टा की है, उपनिषद् निर्मित हो गए हैं, जपूजी भी एक ऐसा ही उपनिषद् है। उम्र के इस पड़ाव पर खुशवन्त जी के चित्त में ब्राहृ विषयक जिज्ञासा जाग रही है-यह अत्यन्त शुभ है, किन्तु उनकी विभ्रान्त बौद्धिकता उसे मात्र कौतुहल में परिवर्तित कर सारी दुनिया को अज्ञानी मानकर खुश है, यह एक विडम्बना है। वाहे गुरु से प्रार्थना है कि वह खुशवन्त जी के चित्त में अपने ही सवालों के प्रति समर्पित होने की ईमानदारी जगाएं ताकि उनकी जराग्रस्तता वार्धक्य की गरिमा से मण्डित हो सके।धृष्टता की पराकाष्ठाअभी कुछ दिन पूर्व किसी चैनल पर (संभवत: स्टार वन पर) एक हास्य-नाटिका प्रसारित हो रही थी जिसका कथानक रामायण से उठाया गया था। प्रसंग सीताहरण का था और इस कार्यक्रम में हमारी सांस्कृतिक चेतना के दीप्तिमंत्र नक्षत्रों भगवान राम, भगवती सीता और सुमित्रानन्दन लक्ष्मण को भोंडे ढंग से प्रस्तुत कर पूरे कथानक का मजाक उड़ाया गया था। मन्दोदरी को सीता की सखी के रूप में पर्णशाला में बैठे हुए दिखाया गया था और स्वयं जनकनन्दिनी को एक उद्धृत युवती के रूप में चित्रित किया गया था। हमारे पौराणिक तथा आध्यात्मिक प्रतीकों का उपहास करने का प्रगतिशील कदम काफी पहले हमारे स्वनामधन्य साहित्यकार उठा चुके थे। स्व. कमलेश्वर जब “सारिका” के सम्पादक थे, उसमें बहुत सी ऐसी लघुकथाएं छपती थीं जिनमें सम्पूजित पौराणिक पात्र खलनायक बनाए जाते थे। आत्ममुग्ध कथाकार राजेन्द्र यादव “हंस” के अपने एक सम्पादकीय में पवनपुत्र हनुमान को दुनिया का प्रथम आतंकवादी बता चुके हैं। सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार सुरेन्द्र शर्मा तथा प्रदीप चौबे की कुछ कविताओं में भी लक्ष्मण, शूर्पणखा, राम-रावण के मध्य कराए गए संवादों से छिछले हास्य की सृष्टि हुई है। एक मकबूल फिदा हुसैन का कारनामा तो हमें भत्र्सना के योग्य लगता है, किन्तु हिन्दू समाज के ही इन तमाम तथाकथित प्रगतिशीलों की धृष्टताएं उपेक्षणीय क्यों हैं? इन्हीं के सोपानों पर चढ़ते हुए आज एक चैनल धृष्टता की पराकाष्ठा पर आ पहुंचा है।20

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