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मंथन

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May 8, 2007, 12:00 am IST
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दिंनाक: 08 May 2007 00:00:00

राष्ट्रपति चुनावराष्ट्र हारा, राजनीति जीतीदेवेन्द्र स्वरूप25 जुलाई को डा. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम दिल्ली के भव्य-विशाल राष्ट्रपति भवन को खाली करके शिक्षा और विज्ञान की अपनी पुरानी दुनिया में वापस लौट गये। उनकी विदाई के इन क्षणों में राष्ट्र ने जो श्रद्धा, जो चिन्ता और जो पीड़ा व्यक्त की, उससे इतना तो स्पष्ट है कि उनके पांच वर्ष के राष्ट्रपति काल को कबीर की भाषा में “ज्यों की त्यों रख दीनी चदरिया” तो नहीं ही कहा जा सकता। 2002 में जब वे राष्ट्रपति भवन में आये थे तब देश के आणविक प्रक्षेपास्त्र कार्यक्रम के पुरोधा वैज्ञानिक से अधिक कोई पूंजी उनके पास नहीं थी। कुछ लोगों ने उनके मुस्लिम नाम के कारण उन पर मुस्लिम छवि थोपना चाहा तो स्व. रफीक अहमद जकारिया ने अपने लेखों से स्पष्ट कर दिया कि उन्हें मुसलमान मानना गलत होगा, उनमें मूलभूत इस्लामी निष्ठाओं का कोई अंश नहीं है। किन्तु इन पांच वर्षों में डा. कलाम ने सिद्ध कर दिया कि उन्हें किसी एक उपासना पद्धति के चौखटे में कसना व्यर्थ होगा, वे फतेहपुरी मस्जिद में जाकर नमाज पढ़ सकते हैं तो गीता के श्लोकों का भी उतने ही सच्चे मन से उच्चार कर सकते हैं। वे केवल भारतीय हैं, भारत माता ही उनकी आराध्य हैं, 2020 में “महान भारत” ही उनका एकमात्र सपना है। इन पांच वर्षों में इस सपने को ही उन्होंने प्रत्येक भारतीय में बोने की कोशिश की। राष्ट्रपति पद की औपचारिकता के घेरे को तोड़कर उन्होंने प्रत्येक भारतीय के दरवाजे पर जाने की कोशिश की। नन्हें मुन्नों से लेकर युवाओं तक, युवाओं से खुशवंत सिंह जैसे सौ साले बूढ़ों तक, अपढ़ किसानों से लेकर विश्वविद्यालय के प्रोफेसरों तक सभी से उन्होंने मुक्त संवाद स्थापित किया। वे पहले राष्ट्रपति थे जिन्होंने सियाचिन की दुर्गम हिमाच्छादित गगनचुम्बी पहाड़ी पर चढ़कर पहली बार भारतीय सेना के सर्वोच्च सेनापति की भूमिका का साक्षात्कार कराया। डा. कलाम ने कभी धोखे से भी ऐसा शब्द नहीं बोला जो विभेदकारी है, मनोबल को खंडित करता हो, जनमानस को दिग्भ्रमित करने वाला हो। पहली बार राष्ट्र ने अनुभव किया कि दलीय राजनीति से ऊपर उठकर राष्ट्रहित में सोचने वाला निष्पक्ष राष्ट्रपति कैसा हो सकता है।जन-मन की व्याकुलताशायद यही कारण था कि भ्रष्ट, अवसरवादी, सत्तालोलुप, स्वार्थ केन्द्रित, व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं की धुरी से बंधी, जाति, पंथ क्षेत्र आदि के संकीर्ण भेदों पर टिकी, अनेक छोटे-छोटे दलों में विखंडित राजनीति से ऊबा और त्रस्त जनमानस राष्ट्रपति पद पर डा. कलाम को दोबारा बैठाने के लिए व्याकुल हो उठा। उसे लग गया कि संविधान निर्माताओं ने 60 वर्ष पूर्व भावी भारत की जो कल्पना अपने मन में रखकर राष्ट्रपति के चयन की जो संवैधानिक व्यवस्था की थी वह इन साठ वर्षों में राजनीति का जो चरित्र विकसित हुआ है, उसके परिप्रेक्ष्य में कालबाह्र हो चुकी है। इसलिए समय की मांग है कि राष्ट्रपति पद के चयन का अधिकार क्षुद्र दलीय राजनीति से छीन कर जनता अपने हाथ में कर ले। जन मन की यह व्याकुलता अनेक रुाोतों से फूट कर बह निकली। प्रत्येक टेलीविजन चैनल, प्रत्येक दैनिक पत्र जन भावनाओं को मुखरित प्रदर्शित करने लगा। प्रतिदिन प्रसारित होने वाले जनमत सर्वेक्षणों ने स्पष्ट कर दिया कि राष्ट्रपति पद के लिए जनता के उम्मीदवार डा. कलाम हैं और कोई नहीं। जनमत के इस प्रबल ज्वार को देखकर वे राजनीतिक दल व नेता हतप्रभ थे जो डा. कलाम को अपने इरादों की पूर्ति में बड़ी बाधा के रूप में देखते थे। सोनिया गांधी डा. कलाम को नहीं चाहती हैं यह पहले दिन से स्पष्ट था। उनकी धारणा थी कि डा. कलाम के कारण ही प्रधानमंत्री पद उनके हाथ में आते-आते रह गया। यह सबको प्रत्यक्ष था कि “लाभ के पद” की व्याख्या वाला विधेयक यदि राष्ट्रपति कलाम ने वापस नहीं किया होता तो सोनिया जी को लोकसभा से त्यागपत्र देकर दोबारा चुनाव लड़ने के पापड़ न बेलने पड़ते। दागी मन्त्रियों के सवाल पर, राज्यपालों के दुरुपयोग के सवाल पर और ऐसे कितने ही सवालों पर राष्ट्रपति कलाम सत्तारूढ़ पक्ष की रबर की मुहर बनने को तैयार नहीं थे। वे फखरुद्दीन अली अहमद और ज्ञानी जैल सिंह जैसे राष्ट्रपतियों से अलग मिट्टी के बने थे। वे संविधान द्वारा आरोपित राष्ट्रपतीय सीमाओं को लांघने के लिए सन्नद्ध थे। वे सुरक्षा के घेरे में बंद राष्ट्रपति के बजाय जनता से सीधे संवाद करने वाला राष्ट्रपति बनना चाहते थे। इसलिए सोनिया पार्टी और दागी छवि के मन्त्रियों वाले दलों का उनका गठबंधन डा. कलाम को किसी भी मूल्य पर दोबारा राष्ट्रपति नहीं बनने देना चाहता था। यहां उन्हें वामपंथियों का सहयोग मिल गया। वामपंथियों ने तो पिछली बार भी डा. कलाम के विरोध में प्रत्याशी खड़ा करना आवश्यक समझा था। पर तब यू.पी.ए. के अन्य घटक दल डा. कलाम के पीछे खड़े थे अत: वे केवल प्रतीकात्मक विरोध पर ही सन्तोष कर पाये। पर इस बार तो सोनिया-लालू-पासवान-करुणानिधि आदि का सहारा उन्हें उपलब्ध था। इसलिए वे डा. कलाम को मैदान से हटाने की रणनीति बिछाने में लग गये।किन्तु प्रारम्भिक चरण में सबको विश्वास था कि भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन डा. कलाम को दोबारा राष्ट्रपति बनाना चाहता है। डा. कलाम के पक्ष में प्रबल जनमत पर सवार राजग के सामने टिक पाना सोनिया-लालू-वाम गठबंधन के लिए कठिन लग रहा था। इंडियन एक्सप्रेस जैसे दैनिकों ने डा. कलाम के पक्ष में नियमित अभियान प्रारंभ कर दिया था। एन.डी.टी.वी. के बिग फाईट के एंकर विक्रम ने तो स्पष्ट शब्दों में संविधान में परिवर्तन की मांग उठा दी थी। पूरा माहौल डा. कलाम के पक्ष में जा रहा था। उनके विरोधियों के पग डगमगाने लगे थे। वामपंथी अपनी अवसरवादी राजनीति को हमेशा सैद्धान्तिक आवरण पहनाने की कोशिश करते हैं। माकपा की वृन्दा कारत ने टेलीविजन के माध्यम से राजग पर हमला बोला। उन्होंने कहा कि हम चाहते थे कि डा. के.आर. नारायणन दोबारा राष्ट्रपति बनें तो अटल जी ने हमें कहा था कि एक ही व्यक्ति के दोबारा राष्ट्रपति बनने की परंपरा हमारे देश में नहीं है। ऐसा है तो वे डा. कलाम को दोबारा राष्ट्रपति क्यों बना रहे हैं? इसका सीधा सीधा उत्तर था कि परंपराओं के लिए राष्ट्र नहीं होता, राष्ट्र के लिए परम्परायें होती हैं। समय की आवश्यकता के अनुसार पुरानी परम्परायें नई परम्पराओं को जन्म देती हैं। भारतीय राजनीति इस समय पतन के जिस बिन्दु पर जा पहुंची है उसमें ऐसे राष्ट्रपति की आवश्यकता है जो दलीय राजनीति से ऊपर हो। डा. के.आर. नारायणन का राजनीतिक पक्षपात बहुत स्पष्ट था जबकि डा. कलाम ने अपने पांच वर्ष लम्बे कार्यकाल में अपनी दलनिरपेक्षता को प्रमाणित कर दिया है। इसके साथ ही माकपा ने अपने तरकश से दूसरा तीर निकाला। उन्होंने कहा कि राष्ट्रपति गैर राजनीतिक नहीं, राजनीतिक व्यक्ति होना चाहिए। वामपंथियों की राजनीति कितनी सिद्धान्तहीन और परिणाम केन्द्रित होती है यह तो इसी से स्पष्ट है कि वे के.आर. नारायणन जैसे राजनीतिक व्यक्ति को तो दोबारा चाहते थे जबकि डा. कलाम को काटने के लिए उन्होंने राजनीतिक प्रत्याशी को राष्ट्रपति बनाने का राग अलापना शुरू किया। और अब उप राष्ट्रपति पद के लिए वे गैर-राजनीतिज्ञ का राग अलाप रहे हैं जबकि उप राष्ट्रपति का राज्यसभा के सभापति के नाते राजनीतिक मुद्दों और बहसों पर ही प्रतिदिन निर्णय होता है। अब यह स्पष्ट हो चुका है कि उपराष्ट्रपति पद के लिए गैर-राजनीतिक प्रत्याशी का सिद्धान्त भाकपा के ए.बी. वर्धन और लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी को इस दौड़ से बाहर करने के लिए गढ़ा गया है। उपराष्ट्रपति पद के लिए हमीद अंसारी और मुशीरुल हसल के नाम गैर राजनीतिकों के रूप में उछाले गए। इंडियन एक्सप्रेस (24 जुलाई) में प्रकाशित अन्तर्कथा के अनुसार करात हमीद अंसारी के नाम पर अड़ गये तो सरकार गिरने के भय से सोनिया और लालू ने करात के सामने घुटने टेक दिए। नंदीग्राम में मुस्लिम विरोध से घबड़ायी माकपा अब मुसलमानों को यह संदेश देना चाहती है कि वह अकेली ही मुसलमानों की हित-चिन्तक है। वस्तुत: मुसलमानों को रिझाने के लिए माकपा, सोनिया पार्टी, लालू पार्टी और मुलायम पार्टी आदि सभी में होड़ लगी हुई है।सिद्धान्तवादी मुखौटाराष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पद के लिए माकपा के सिद्धान्तवादी मुखौटे को देखकर एक पुराना चुटकुला स्मरण आता है कि किसी कम्पनी का मालिक किसी ऊंचे पद पर अपने एक आंख वाले दामाद को नियुक्त करना चाहता था। पर नियमों के अनुसार चयन विज्ञापन द्वारा ही हो सकता था। इसलिए उन्होंने विज्ञापन निकाला कि शैक्षिक कार्यानुभव आदि योग्यताओं के साथ साथ प्रत्याशी पूरे विश्व को एक दृष्टि से देखने में समर्थ होना चाहिए। इस अंतिम योग्यता को केवल उनका दामाद ही पूरा कर सकता था।माकपा की इन सब सिद्धान्तवादी कलाबाजियों के बावजूद डा. कलाम का पलड़ा तब तक बहुत भारी था जबकि भाजपा और राजग के समर्थन का आभास उनके पीछे खड़ा था और देशव्यापी प्रबल जनमत तो चिल्ला चिल्ला कर उनका समर्थन कर ही रहा था। यदि यह स्थिति बनी रहती तो सोनिया-वामपंथी गठबंधन को सर्वानुमति के नाम पर घुटने टेकने ही पड़ते। पर पूरा पासा पलट गया जब उपराष्ट्रपति श्री भैरोंसिंह शेखावत प्रत्याशी घोषित हुए और राजग के नेता श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने एक पुस्तक के लोकार्पण कार्यक्रम में बेमौके सार्वजनिक घोषणा कर दी कि मैंने डा. कलाम को बता दिया है कि हमारे देश में एक व्यक्ति को दोबारा राष्ट्रपति बनाने की परम्परा नहीं है।उनकी इस घोषणा के अगले दिन से ही टेलीविजन चैनलों और दैनिक पत्रों में जनमत का उफान ठंडा हो गया। उसी क्षण से राष्ट्रपति का चुनाव जनता के हाथों से निकल कर पूरी तरह दलीय राजनीति की भंवर में फंस गया। संवैधानिक स्थिति तो पहले भी वही थी पर तब जनमत और राजग का संयुक्त मोर्चा डा. कलाम के विरोधियों पर भारी पड़ जाता।भैरोंसिंह शेखावत जी की परिपक्वता, क्षमता और कार्यकुशलता में कोई संदेह न होते हुए भी कहना पड़ेगा कि इस अवसर पर उन्होंने भारतीय राजनीति की बिछी हुई चौसर का ठीक आकलन नहीं किया। सोनिया विरोध से प्रेरित अमर सिंह, नटवर सिंह और राकांपा के डी.पी. त्रिपाठी ने उन्हें पूर्ण समर्थन का आश्वासन देकर खड़ा होने के लिए उकसाया, किन्तु फिर भैरोंसिंह जी की संघ, जनसंघ और भाजपा पृष्ठभूमि के प्रति मुस्लिम विरोध से भयभीत होकर पीछे हट गए। शायद उनकी इस कमजोरी को भांप कर ही शेखावत जी ने स्वयं को निर्दलीय प्रत्याशी घोषित कर दिया। इससे उनका जीवन भर का सैद्धान्तिक अधिष्ठान तो ढह ही गया पर उन्होंने यह कैसे मान लिया कि केवल “निर्दलीय” कहने मात्र से उनकी 55-60 वर्ष लम्बी पृष्ठभूमि पर परदा पड़ जाएगा।वामपंथी रणनीतिभारतीय राजनीति के इस सत्य को समझना बहुत आवश्यक है कि कांग्रेस के जन्मकाल से ही मुस्लिम समाज राष्ट्रीय धारा से अलग रहा है। गांधी और नेहरू तो क्या मौलाना आजाद को भी उसने स्वीकार नहीं किया। स्वतंत्रता पूर्व कांग्रेस की वही विरासत संघ, जनसंघ और भाजपा को मिली है। वे भले ही हिन्दुत्व को भारतीयत्व या राष्ट्रीयत्व के रूप में परिभाषित करें किन्तु सामान्य मुस्लिम मन उसे स्वीकार करने को तैयार नहीं। स्वतंत्र भारत का समूचा वोट गणित अब मुस्लिम वोट बैंक के इर्द गिर्द घूम रहा है। वस्तुत: भारत की चुनावी राजनीति में सबसे बड़ा निर्णायक दल मुस्लिम वोट बैंक बन गया है। यह सत्य इस राष्ट्रपति चुनाव में भी उभर कर सामने आया। इस स्थिति में डा. कलाम का व्यक्तित्व अचूक सिद्ध हो सकता था। किन्तु व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा और दलीय अभिनिवेश कभी कभी श्रेष्ठ लोगों को भी गड़बड़ गणित में फंसा देता है। वर्तमान राजनीति का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि वामपंथ अपनी सीमित शक्ति के आधार पर अपनी कुशल रणनीति द्वारा सोनिया और लालू जैसे सत्ताकांक्षियों के कंधों पर सवार होकर पिछले दरवाजे से केन्द्र में सत्तारूढ़ होने की शतरंज बिछा रहा है। उन्होंने एक ओर सोनिया पार्टी के किसी सक्षम नाम को स्वीकार नहीं किया, जिसके कारण प्रतिभा पाटिल का नाम अनायास उछला। उसे नारी सशक्तिकरण का सैद्धान्तिक आवरण पहनाया गया जबकि यही सोनिया मंडली यह सिद्धान्त उस समय भूल गई थी जब पिछली बार वाममोर्चे ने वयोवृद्ध डा. लक्ष्मी सहगल को डा. कलाम के विरुद्ध उतारा था। डा. लक्ष्मी से वैचारिक मतभेद होते हुए भी आजाद हिन्द फौज के माध्यम से भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में उनके योगदान की उपेक्षा नहीं की जा सकती। तब महिला सशक्तिकरण का सिद्धान्त क्यों नहीं याद आया?चाहे जो हो, डा. कलाम के मैदान से हटते ही राष्ट्रपति चुनाव पूरी तरह दल राजनीति के जाल में फंस गया। वस्तुत: यह चुनाव शेखावत और प्रतिभा के बीच नहीं, जनमत और दल राजनीति के बीच बन गया जिससे जनमत अर्थात् राष्ट्र हार गया और राजनीति जीत गई। डा. कलाम के राष्ट्रपति भवन से विदाई पर राष्ट्र ने अपनी पीड़ा को, उनके प्रति अपनी श्रद्धा को जिस तरह मुखरित किया है उससे स्पष्ट है कि वह दुखी है, पराजय के दंश से ग्रस्त है, रिक्तता के बोझ से दबा है। किन्तु इस जीत के परिणाम बहुत भयंकर हो सकते हैं।उपराष्ट्रपति पद के लिए तीन मुस्लिम प्रत्याशियों को तीन पक्षों की ओर से उतारा जाने से स्पष्ट है कि चुनाव राजनीति में अब मुस्लिम ही निर्णायक तत्व हैं। दूसरा खतरनाक तत्व है वामपंथी रणनीति। तिकोने संघर्ष में उनके प्रत्याशी की विजय सुनिश्चित दिखती है। इस प्रकार राष्ट्रपति पद, उपराष्ट्रपति पद व लोकसभा अध्यक्ष के पद पर उनके व्यक्ति होंगे। सत्ता में बने रहने के लिए सोनिया और उनके गठबंधन साथी वाम मोर्चे की हर शर्त को मानते रहेंगे। यह स्थिति खतरों से खाली नहीं है। राष्ट्रवादी नेतृत्व को इस स्थिति को ध्यान में रखकर ही अपनी रणनीति बनानी चाहिए थी। क्या अपने अस्तित्व को बचाने के लिए चुनाव लड़ना ही एकमात्र रास्ता है? क्या वामपंथ के प्रत्याशी को हराना प्राथमिकता नहीं होना चाहिए? (27 जुलाई, 2007)36

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