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तब धार्मिक भावनाओं से खिलवाड़ करने पर अंग्रेज झुके थे,

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Oct 6, 2007, 12:00 am IST
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दिंनाक: 06 Oct 2007 00:00:00

आज सेकुलरवाद के कारण रोज आघात होते है!!-शिवकुमार गोयलसवा सौ वर्ष पूर्व सन् 1883 में कलकत्ता उच्च न्यायालय में अंग्रेज न्यायाधीश द्वारा भगवान शालिग्राम की प्रतिमा को प्रस्तुत कर उनकी शपथ लेने के आदेश से पूरे देश का हिन्दू समाज उद्वेलित हो उठा था। प्रख्यात पत्रकार सुरेन्द्र नाथ बनर्जी ने जब इस निर्णय को हिन्दू समाज का अपमान बताया तो उन्हें अदालत की अवमानना करने का आरोप लगाकर जेल भेज दिया गया। किन्तु अब स्वाधीन भारत में मकबूल फिदा हुसैन हों या अन्य सेकुलर बुद्धिजीवी, लगता है उन्हें हिन्दू प्रतीकों-हिन्दू देवी-देवताओं का उपहास करने की पूरी छूट है।सन् 1883 में कलकत्ता उच्च न्यायालय के अंग्रेज जस्टिस नौरिस के समक्ष एक परिवार के विवाद का मामला पेश हुआ। जस्टिस नौरिस ने इस परिवार के इष्ट देवता शालिग्राम की प्रतिमा शपथ दिलाने के लिए अदालत में प्रस्तुत करने का आदेश दिया। परिवार को न्यायाधीश के आदेश के कारण शालिग्राम की प्रतिमा अदालत के समक्ष प्रस्तुत करनी पड़ी। जैसे ही यह समाचार आम जनता तक पहुंचा, उनमें क्षोभ की लहर दौड़ गई। भगवान की पवित्र प्रतिमा को एक विधर्मी अंग्रेज के आदेश पर पेश किए जाने से धार्मिक भावनाओं पर आघात पहुंचना स्वाभाविक ही था।प्रख्यात पत्रकार श्री सुरेन्द्र नाथ बनर्जी उन दिनों कलकत्ता से “बंगाली” साप्ताहिक का सम्पादन करते थे। वे अत्यन्त निर्भीक, तेजस्वी तथा धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। अंग्रेज न्यायाधीश के इस कृत्य को वे सहन नहीं कर सके। उन्होंने “बंगाली” में “जस्टिस नौरिस ने इष्ट देवता की प्रतिमा कचहरी में मंगाकर हिन्दुओं के ह्मदय पर आघात लगाया है” शीर्षक से समाचार प्रभावी ढंग से प्रकाशित किया। उन्होंने सम्पादकीय में लिखा-“जो अंग्रेज जज इतनी बात तक नहीं जानता कि भगवान शालिग्राम की पवित्र मूर्ति को कचहरी में मंगवाने से हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचेगी, उसकी योग्यता का सहज ही पता चल जाता है। अंग्रेज जस्टिस के इस कार्य का धार्मिक जनता को कड़ा विरोध प्रकट कर अपना कत्र्तव्य पालन करना चाहिए।””बंगाली” पत्र में समाचार व सुरेन्द्र बाबू का लेख छपते ही देशभर में रोष की लहर दौड़ गई। नौरिस साहब तो ठहरे अंग्रेज अधिकारी, वे इस कटु आलोचना को सहन न कर सके। उन्होंने सुरेन्द्र बाबू पर अदालत की मानहानि का मुकदमा चलाकर दो माह जेल की सजा सुना दी।श्री सुरेन्द्र नाथ बनर्जी को सजा मिलते ही लोगों का गुस्सा और बढ़ गया। कलकत्ता के प्रेसीडेन्सी मजिस्ट्रेट श्री बी.एल. गुप्त तुरन्त जेल पहुंचे तथा श्री बनर्जी को सभी आवश्यक सुविधाएं दिए जाने की व्यवस्था कर आए। अध्ययन के लिए पुस्तकों आदि की व्यवस्था भी कर दी गयी।कलकत्ता के प्रतिष्ठित नागरिक बाबू तारापद बनर्जी ने श्री सुरेन्द्र नाथ बनर्जी के बचाव के लिए एक राष्ट्रीय कोष की स्थापना कर दी। देखते ही देखते उस फण्ड में बीस हजार रुपए जमा हो गए। यह धनराशि उस समय की राष्ट्रीय चेतना व सुरेन्द्र बाबू की लोकप्रियता का ज्वलन्त उदाहरण है। कलकत्ता की विडन स्ट्रीट में एक विराट विरोधसभा हुई, जिसमें लगभग 25 हजार व्यक्ति उपस्थित थे। इस सभा में बंगाल के अनेक राजा-महाराजा, जमींदार व धार्मिक नेता उपस्थित थे। तब सभी ने एक स्वर से अंग्रेज जस्टिस नौरिस द्वारा शालिग्राम की मूर्ति को अदालत में मंगाये जाने की घटना पर तीव्र रोष प्रकट किया तथा श्री सुरेन्द्र बाबू की गिरफ्तारी व सजा को धर्म के लिए महान त्याग की संज्ञा दी।कलकत्ता से साप्ताहिक “उचित वक्ता” भी प्रकाशित होता था। वह अत्यन्त निर्भीक, राष्ट्रवादी व तेजस्वी पत्र था। 18 मई, 1883 के अंक में उसने सम्पादकीय टिप्पणी लिखी- “क्या वास्तव में सुरेन्द्र बाबू के साथ न्याय हुआ है।” पत्र के सम्पादक ने लेखकों व पत्रकारों का आह्वान किया- “सुरेन्द्र बाबू की ऐसी दशा देखकर किसी को भी लेखनी शिथिल नहीं करनी चाहिए। इस समय यदि हम लोग किसी विषय में ढीले हो जाएंगे तो हमसे फिर कभी कुछ नहीं बन पड़ेगा और नौरिस साहब निरंकुश होकर अन्याय के कार्य किया करेंगे। अत: देशीय सम्पादकों सावधान! कहीं जेल का नाम सुनकर किंकत्र्तव्यविमूढ़ मत हो जाना। यदि धर्म की रक्षा करते हुए, यदि सरकार को सत्य परामर्श देते हुए जेल जाना भी पड़े तो क्या चिन्ता है? इससे घबराने की किंचित भी आवश्यकता नहीं है।” हिन्दू समाज की इस एकजुटता तथा अपने मानबिन्दुओं के प्रति अटूट श्रद्धा भाव देखकर अंग्रेज शासकों को हस्तक्षेप करना पड़ा। अंत में श्री सुरेन्द्रनाथ बनर्जी को जेल से न केवल रिहा करना पड़ा अपितु अदालत में भगवान शालिग्राम की प्रतिमा मंगाए जाने पर क्षमा भी मांगनी पड़ी।आज स्वाधीन भारत में हिन्दू देवी-देवताओं, हिन्दू अवतारों, महापुरुषों का उपहास उड़ाने, उनके प्रति अनर्गल बातें प्रकाशित करने में किसी को भय नहीं लगता। यह सब “धर्मनिरपेक्षता” के नाम पर किया जा रहा है।30

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