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चाचा रामगुलाम का हिन्दी प्रेमहिन्दी को राष्ट्रसंघ की भाषा बनाने के प्रस्ताव में मारिशस के तत्कालीन प्रधानमंत्री की भूमिका-लल्लन प्रसाद व्याससम्पादक, विश्व हिन्दी दर्शनजनवरी, 1975 में नागपुर में प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन आयोजित किया गया था, जिसने विश्वभाषा के रूप में हिन्दी के हित में कई ऐतिहासिक कीर्तिमान स्थापित किए। प्रथम तो उससे देश-विदेश में ऐसे अनेक सम्मेलनों की श्रृंखला का सूत्रपात हुआ जिसके अंतर्गत सात सम्मेलन तो आयोजित हो चुके हैं और आठवां जुलाई, 2007 में न्यूयार्क में आयोजित होना है। द्वितीय, नागपुर सम्मेलन में पहली बार हिन्दी को राष्ट्रसंघ में स्थान देने की जोरदार मांग उठी थी, जो अब तक के सभी विश्व हिन्दी सम्मेलनों में दोहराई गई और आठवें सम्मेलन का तो आयोजन ही राष्ट्रसंघ के न्यूयार्क स्थित मुख्यालय में होने जा रहा है। तृतीय, हिन्दी, जो अपनी शक्ति, लोकप्रियता और व्यापकता के बल पर विश्वभाषा बन चुकी थी और जिसे यूनेस्को ने अधिकृत रूप से विश्व की तीसरी बड़ी भाषा के रूप में मान्यता दे दी थी, उस पर 30 देशों की पुष्टि की मुहर उसमें उपस्थित शीर्ष राजनेताओं और विद्वानों ने लगा दी। चतुर्थ, हिन्दी जगत में व्याप्त हीनता, निराशा और किंकत्र्तव्यविमूढ़ता को दूर करने के लिए उसके विराट स्वरूप का दर्शन कराया गया। पंचम, इस सत्य को व्यापक रूप से प्रकट किया गया कि हिन्दी भारत की सामासिक संस्कृति की संदेशवाहिका है और उसका अस्तित्व और व्यक्तित्व अपनी अन्य भगिनी भारतीय भाषों के साथ जुड़ा है। इसके अतिरिक्त भी अन्य अनेक उद्देश्यों की पूर्ति प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन से हुई।इस सम्मेलन के अध्यक्ष मारिशस के तत्कालीन प्रधानमंत्री डा. शिवसागर रामगुलाम थे और उद्घाटन किया था भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने। सम्मेलन के बाद एक आशीर्वाद सम्मेलन आचार्य विनोबा भावे के सान्निध्य में उनके आश्रम पवनार में हुआ।मेरा परम सौभाग्य था एक दिव्य प्रेरणा के अंतर्गत सम्मेलन का घोषित उपमंत्री और अघोषित समन्वयक बनाया जाना। हमारे नेता थे मराठी भाषी, हिन्दी के उपन्यासकार और अंग्रेजी दैनिक नागपुर टाइम्स के सम्पादक श्री अनंत गोपाल शेवड़े, जो सम्मेलन के महामंत्री थे।इस लेख का उद्देश्य विराट नागपुर सम्मेलन के अपूर्व ऐतिहासिक क्षणों के दौरान कुछ अज्ञात और कुछ अल्पज्ञात अंतरंग प्रसंगों को प्रकाश में लाना है, जो हिन्दी भाषा के वैश्विक इतिहास को बनाने में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सहायक बने हैं।हिन्दी विश्व की तीसरी बड़ी भाषा11 जनवरी को पहले दिन उद्घाटन में यूनेस्को के डायरेक्टर जनरल डा. अशर डन्योल को उपस्थित रहना था। इनका अंग्रेजी में लिखित भाषण और उसका हिन्दी अनुवाद हमारे पास आ चुका था। चूंकि दो प्रधानमंत्रियों की उपस्थिति में आयोजित उद्घाटन अधिवेशन का संचालन मुझे करना था अतएव यह तय हुआ था कि डा. डन्योल अपने अंग्रेजी भाषण का पहला पैरा पढ़ देंगे और फिर घोषणा कर देंगे कि उनका शेष हिन्दी अनुवाद मैं पढूंगा। तभी एक दिन पूर्व प्रसिद्ध साप्ताहिक धर्मयुग के तत्कालीन सम्पादक डा. धर्मवीर भारती ने मुझे सलाह दी कि आप यूनेस्को अधिकारी को सलाह दीजिए कि वे प्रारम्भ का एक वाक्य हिन्दी में बोलें जिसे आप रोमन लिपि में लिखकर उन्हें दे दें। हिन्दी प्रेमी जनता पर इसका विशेष प्रभाव पड़ेगा। मुझे यह सलाह जंच गई और मैं डा. डन्योल के पास इस अनुरोध के साथ गया। उन्होंने मेरा अनुरोध सहर्ष स्वीकार कर लिया और तद्नुसार जब दो-एक वाक्य हिन्दी में बोले तो यूगोस्लाविया में जन्मे इन सज्जन से कुछ हिन्दी शब्द सुनकर लोगों ने खूब तालियां बजाईं। उनका शेष भाषण मैंने हिन्दी में पढ़ा जिसमें पहली बार विश्व में अधिकृत घोषणा हुई थी कि हिन्दी को विश्व की तीसरी बड़ी भाषा माना गया क्योंकि चीनी कोई एक भाषा नहीं है। उसके कई रूप या शैलियां चीन में प्रचलित हैं और एक भाग की बोली दूसरे भाग के लोग नहीं समझते। उसके बाद तो कुछ शोधकर्ताओं ने हिन्दी को अंग्रेजी से भी पहले स्थान पर रखा यानी विश्व की प्रथम सबसे अधिक बोली-समझी जाने वाली भाषा।हिन्दी को राष्ट्रसंघ की भाषा बनाने की मांगसबसे ज्यादा दिलचस्प और ऐतिहासिक महत्व का संस्मरण इसी प्रसंग से जुड़ा है। हुआ यह कि नागपुर सम्मेलन के उद्घाटन सत्र में भारतीय प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी तथा देश-विदेश के अन्य विशिष्टजन के भाषणों के बाद मारिशस के प्रधानमंत्री डा. शिवसागर रामगुलाम का भाषण शुरु हुआ। वे अपना भाषण हिन्दी में लिखा कर लाए थे और उन्हें हिन्दी में लिखित भाषण पढ़ने का अभ्यास न रहने के कारण उसे बहुत रुक-रुक कर, धीमी आवाज में बहुत उबाऊ ढंग से पढ़ रहे थे। चूंकि यह अध्यक्षीय भाषण था तो लम्बा भी था-करीब आधे-पौन घण्टे का, जिसने 30-40 हजार उपस्थित जनसमूह के लिए धैर्य की परीक्षा उपस्थित कर दी। सभी महत्वपूर्ण विभूतियां भी बहुत असहज अनुभव कर रही थीं, किन्तु आयोजन की गरिमा और एक भारतमित्र विदेशी प्रधानमंत्री के प्रति सम्मान का भाव होने के कारण इतने बड़े जन समुदाय में से किसी ने भी चूं तक नहीं की।किसी प्रकार उनका भाषण पूरा हुआ। तब हम कुछ प्रमुख आयोजकगण ने विचार किया कि हिन्दी जगत की एक प्रमुख विभूति की गरिमा और प्रतिष्ठा की पुनस्र्थापना के लिए क्या करना चाहिए। आपस में यह राय बनी कि दूसरे दिन का प्रथम सत्र बहुत महत्वपूर्ण है जिसमें राष्ट्रसंघ में हिन्दी को उसका न्यायोचित स्थान दिलाने का प्रस्ताव विधिवत पेश होना है। इसमें अपने प्रमुख अतिथि डा. शिवसागर रामगुलाम को बुलाया जाए और उनसे अनुरोध किया जाए कि वे कोई लिखित भाषण न पढ़कर सहज रूप से बोलचाल की शैली और भोजपुरी मिश्रित बोली में अपना भाषण दें जैसा कि वे प्राय: मारिशस में करते हैं। अतएव इस मंतव्य के साथ मैं उसी दिन शाम को उनके पास गया और उन्हें प्रेम से “चाचा” सम्बोधित करते हुए उनके समक्ष मंतव्य प्रकट किया। साथ ही, यह भी कहा कि इस सत्र में राष्ट्रसंघ संबंधी प्रस्ताव पेश होने के कारण इसका बहुत महत्व है और इसमें भारत के विदेशमंत्री श्री यशवंतराव चह्वाण भी रहेंगे। घर के बड़े-बूढ़े जैसे बच्चों की बात मान लेते हैं, वैसे ही “चाचा रामगुलाम जी” ने हमारी बात मान ली और अपूर्व ऐतिहासिक महत्व के उक्त सत्र में बिना पूर्व घोषणा के उपस्थित हो गए। इस समय उन्होंने हिन्दी की अपनी बानी-बोली में बढ़िया भाषण देकर सबका मन मोह लिया। साथ ही, राष्ट्रसंघ में हिन्दी की मांग का जो आधार-स्तम्भ प्रस्ताव पेश होना था, उसके समर्थन में तत्काल एक अन्य देश का प्रधानमंत्री उपलब्ध हो गया। इसमें भारतीय विदेशमंत्री, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री श्री वी.पी.नाइक, काका कालेलकर, श्री विष्णु प्रभाकर के अलावा चेकोस्लोवाकिया के हिन्दी विद्वान डा. स्मेकल, जर्मनी के डा. लोठार लुत्से, रूस के प्रो. चेलिशेव, मारिशस के मंत्री श्री दयानंदलाल बसंतराय आदि ने भी भाग लिया। राष्ट्रसंघ में हिन्दी को उसका अधिकार दिलाने की मांग वाला प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित हुआ तो भविष्य के लिए मार्गदर्शक प्रकाश स्तम्भ बन गया। पहले विदेशमंत्री और फिर प्रधानमंत्री बने श्री अटल बिहारी वाजपेयी और श्री नरसिंह राव ने राष्ट्रसंघ में हिन्दी में भाषण देकर अच्छी शुरूआत की। नागपुर सम्मेलन के बाद ऐसे सभी सम्मेलनों तथा अन्य तद्विषयक अंतरराष्ट्रीय गोष्ठियों में यह मांग दोहराई जाती रही। यहां तक कि हमारी संस्था “विश्व साहित्य संस्कृति संस्थान” ने इंग्लैण्ड, हालैण्ड, सूरीनाम, भारत और त्रिनिदाद में विभिन्न अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी गोष्ठियां अनेक वर्ष 24 अक्तूबर राष्ट्रसंघ दिवस पर आयोजित कीं ताकि राष्ट्रसंघ में हिन्दी की मांग को बल मिले।महादेवी जी का गांधी जी को वचननागपुर सम्मेलन से एक और ऐतिहासिक घटना जुड़ी है-पहली बार हिन्दी के विश्वमंच पर हिन्दी का विश्व कवि सम्मेलन आयोजित होना। इसका संचालन और संयोजन प्रसिद्ध हिन्दी कवि डा. शिवमंगल सिंह सुमन के जिम्मे था। हमें इसके लिए एक उपयुक्त कवि अध्यक्ष की तलाश थी जिसके प्रति हिन्दी जगत में सम्मान और श्रद्धा का भाव हो। सौभाग्य से महिमामयी महादेवी वर्मा की ओर ध्यान गया जो सम्मेलन में आ चुकी थीं और समापन भाषण उन्हीं का होना था। मैं श्री सुमन को साथ लेकर महादेवी जी के पास गया और उनसे सर्वप्रथम विश्व हिन्दी कवि सम्मेलन की अध्यक्षता के लिए निवेदन किया। इस पर उन्होंने यह कहकर असमर्थता व्यक्त की कि मैंने एक बार किसी परिस्थिति में महात्मा गांधी को वचन दिया था कि वे कभी भी कवि सम्मेलन में भाग नहीं लेंगी। इस पर हम दोनों ने कहा कि आपने कवि सम्मेलन में कविता पाठ न करने का वचन दिया होगा, यहां आपसे कोई कविता पाठ के लिए अनुरोध नहीं करेगा। आपको तो इस अपूर्व ऐतिहासिक अवसर पर प्रथम विश्व हिन्दी कवि सम्मेलन की अध्यक्षता मात्र करनी है। कुछ शील-संकोच के साथ उन्होंने इसके लिए स्वीकृति दे दी और अंतत: उनकी अध्यक्षता में यह कवि सम्मेलन संपन्न हुआ। बात पुरानी कुछ इस प्रकार थी कि जब कई दशक पूर्व वे कवि सम्मेलनों में जाती थीं, तब एक प्रसिद्ध कवि ने उनको एक अभद्र सम्बोधन से सम्बोधित किया। इस पर उन्होंने क्षुब्ध होकर कवि सम्मेलनों में न जाने का निश्चय किया और बापू को किसी प्रसंग से इस घटना की सूचना दी। कहते हैं कि इस पर बापू ने व्यंग्य किया कि कवि कहीं कवि सम्मेलन में जाना छोड़ सकते हैं, वह भी तब जब वह शिखर की हिन्दी कवियत्री हो? तब महादेवी जी ने दृढ़तापूर्वक कहा था कि बापू, मैं आपको वचन देती हूं कि कभी कवि सम्मेलन में नहीं जाऊंगी यानी मंच से कविता पाठ नहीं करूंगी। विश्व हिन्दी कवि सम्मेलन में उनकी अध्यक्षता हो गई और बापू को दिए गए उनके वचनों की रक्षा भी हुई, यह हर्ष और संतोष की बात थी।इस प्रकार भाषा, साहित्य और संस्कृति के कितने ही प्रसंग नागपुर के प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन से जुड़े हैं जो ऐसे भावी सम्मेलनों के लिए नींव का पत्थर बन गए हैं। ऐतिहासिक झण्डा गीत के गायक श्री श्यामलाल गुप्त पार्षद ने इसे “भूतो न भविष्यति” बताया था और कहा था कि ऐसा अनुशासित, व्यवस्थित और उद्देश्यपूर्ण सम्मेलन उन्होंने महात्मा गांधी और नेताजी सुभाष बोस के दिनों में भी नहीं देखा। उन्होंने कई बड़े कांग्रेस अधिवेशनों में भाग लिया था। आचार्य किशोरीदास वाजपेयी ने इसे हिन्दी का “महाकुम्भ” बताया था और पं. श्रीनारायण चतुर्वेदी ने तो “सरस्वती” में सम्पादकीय लेख लिखा था, जिसका आशय था कि लोग मानते हैं कि अब चमत्कारों का युग नहीं रहा, परन्तु बीसवीं सदी में कोई चमत्कार दिखाई पड़ा तो वह नागपुर का प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन था। द36
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