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कम्युनिस्ट हिंसाचारगत 17 मार्च को नन्दीग्राम की घटना का निरीक्षण करने के लिए राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) का एक प्रतिनिधिमण्डल विपक्ष के नेता श्री लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में वहां गया था। इसमें राजग के संयोजक श्री जार्ज फर्नांडीस, शिवसेना के सांसद श्री अनन्त गीते, बीजू जनता दल के श्री रतन सिंह अचनाला, स्वतंत्र भारत पार्टी के वरिष्ठ नेता श्री शरद जोशी, भाजपा की राज्यसभा सदस्य श्रीमती सुषमा स्वराज एवं श्री एस.एस. अहलूवालिया शामिल थे। नन्दीग्राम से लौटकर श्रीमती सुषमा स्वराज ने पाञ्चजन्य को जो कुछ बताया, उसे यहां प्रस्तुत किया जा रहा है। -सं.नन्दीग्राम की घटना ने जहां एक ओर वामपंथियों की कलई खोलकर रख दी है, वहीं विशेष आर्थिक क्षेत्रों के माध्यम से देश में हो रहे औद्योगिकीकरण के सम्बंध में कुछ बुनियादी प्रश्न खड़े कर दिए हैं। नन्दीग्राम की घटना वीभत्स तो है ही, अविश्वसनीय भी है। सर्वहारा की बात करने वाले, अपने आपको किसानों का मसीहा कहने वाले वामपंथी इतनी निर्ममता से किसानों पर बर्बर अत्याचार करेंगे, इसकी कल्पना तब तक नहीं थी, जब तक कि राजग के प्रतिनिधिमण्डल की सदस्य के रूप में मैं नन्दीग्राम नहीं गई थी। मैं जनवरी में भी उस समय नन्दीग्राम गई थी जब तीन किसानों की हत्या हुई थी। वहां जाकर जो देखा, पाया उससे मन बड़ा दु:खी हुआ था। लेकिन लौटते वक्त एक बात वहां सुनी कि प. बंगाल के मुख्यमंत्री ने कहा है कि लोग जमीन अधिग्रहण की अधिसूचना की प्रतियां फाड़ डालें। आभास मिला था कि जमीन अधिग्रहण की यह प्रक्रिया रुक जाएगी, इसलिए कुछ आश्वस्त होकर मैं लौटी थी। लेकिन शायद यह चतुराई थी मुख्यमंत्री की, जिसे हम समझ नहीं पाए। अधिसूचना तो सरकार को वापस लेनी चाहिए थी, लेकिन उसकी प्रतियां लोगों को फाड़ने के लिए उन्होंने क्यों कहा?इस बार वहां जो कुछ सुनने या देखने को मिला उस पर आसानी से विश्वास नहीं किया जा सकता। लेकिन जब मैं अविश्वास भरी निगाहों से यह बात पूछती थी कि क्या ऐसा हुआ है, तो लेागों का एक ही जवाब होता था कि जो लोग माकपा को नहीं जानते वे ऐसा सवाल अक्सर पूछते हैं और जो माकपा को जानते हैं वे इस पर सहजता से विश्वास कर लेते हैं। क्योंकि ऐसा पहली बार नहीं हुआ है, यह माकपा की शैली ही है। उस समय मुझे स्मरण आया कि आज से कुछ वर्ष पहले तृणमूल कांग्रेस की नेता सुश्री ममता बनर्जी ने दिल्ली में प्रदर्शनी लगाई थी। इसमें वह उन लोगों को भी लेकर आई थीं जिनके हाथ माकपा को वोट न देने के कारण माकपा कार्यकर्ताओं ने काट डाले थे। मैं स्वयं उन लोगों से मिलने गई थी। उस समय भी मुझे विश्वास नहीं होता था। किन्तु जब उन्हें देखा और उनसे बातचीत की तो मुझे यकीन करना पड़ा था कि लोकतंत्र में ऐसा भी हो सकता है कि कोई व्यक्ति अगर तुम्हें वोट न डाले तो सजा उसी हाथ को कटवाकर उसे देनी पड़ेगी जिस हाथ से उसने अन्य किसी दल को वोट डाला था।नन्दीग्राम में किसानों से बात करने के बाद मुझे दो घटनाएं अभी भी झकझोर रही हैं। कृष्णेन्दु मण्डल नामक एक युवा फफक-फफक कर रोते हुए हम लोगों से मिला। हमने उससे पूछा कि क्या हुआ? उसने कहा कि उसका भाई पुष्पेन्दु मण्डल पुलिस की गोली से घायल होकर गिरा पड़ा था। वह उसको उठाकर ले जा रहा था तो पुलिस वालों ने रोक लिया और उसके बाद से भाई का कोई अता-पता नहीं है। वह जीवित है या मर गया, यह अभी तक मालूम नहीं है। उसका कहना था कि शायद उसकी सांस बची हो और अगर इलाज होता तो वह बच सकता था। यह कहकर वह फिर फूट-फूट कर रोने लगा। दूसरी घटना है एक वृद्धा की। वह आंखों से चिनगारियां उगलती हुई-सी सभा के अन्दर आई। वृद्धा ने बताया कि उनसे अपनी आंखों के सामने दो महिलाओं का घर्षण होते देखा। (बंगला भाषा में बलात्कार को घर्षण कहा जाता है।)इन घटनाओं को सुनने के बाद हम लोग दो अस्पतालों में गए। नन्दीग्राम में ही एक अस्पताल है जिसका नाम ग्रामीण अस्पताल है। वास्तव में वह एक स्वास्थ्य केन्द्र है, वहां अधिक सुविधाएं भी नहीं हैं। चिकित्सकों ने बताया कि यहां कुल 40 घायल भर्ती थे। उनमें से 30 महिलाएं थीं। चिकित्सकों ने बताया कि हमारे यहां 56 घायल लोग आए थे। 16 गंभीर हालत में थे, उन्हें बड़े अस्पताल भेज दिया गया है। अस्पताल में इलाज करा रहे घायलों से हम लोगों ने कुछ जानना चाहा तो वे अपनी व्यथा सुनाने की बजाए एक ही रट लगा रहे थे “बुद्धदेव और लखन सेठ को फांसी दो”। लखन सेठ वहां के सांसद हैं। लोगों का कहना था कि घटना के दिन लखन सेठ स्वयं वहां उपस्थित थे और उन्होंने अपनी देखरेख में यह सारा काण्ड करवाया है। पिछली बार भी जब मैं नन्दीग्राम गई थी तब लोगों ने कहा था कि लखन सेठ ने माकपा कार्यकर्ताओं के लिए यहां एक शिविर बना रखा है और उसी शिविर से सब कुछ संचालित होता है।अस्पताल के बाहर खड़ी भीड़ भी नारे लगा रही थी “बुद्धदेव को फांसी दो, लखन सेठ को फांसी दो।” ग्रामीण के अस्पताल के बाद हम लोग तमलुक गए, जहां एक बड़ा अस्पताल है। वहां चिकित्सकों ने बताया कि उनके यहां 34 लोग भर्ती थे, जिनमें 16 महिलाएं थीं। यानी दोनों अस्पतालों में भर्ती घायलों में 46 महिलाएं थीं। हमने पूछा कि इतनी बड़ी संख्या में महिलाओं के घायल का कारण क्या है? तो लोगों ने बताया कि वे अपनी जमीन को बचाने के लिए पूजा कर रही थीं। गौरांग ठाकुर की प्रतिमा उन्होंने वहां रखी हुई थीं और भजन-कीर्तन चल रहा था। उसी समय समीप के स्कूल की छुट्टी हुई, जिसमें 10 वर्ष से कम उम्र के बच्चे पढ़ते हैं। लगभग 40 बच्चे भी वहां आ गए। लोगों को लगा कि यदि महिलाओं और बच्चों को आगे कर दिया जाए तो शायद पुलिस वाले गोली न चलाएं। पर ऐसा हुआ नहीं और गोलियों के शिकार मासूम बच्चे और महिलाएं हुर्इं। ग्रामीणों ने एक और बात बताई कि पुलिस वालों ने एक बच्चे को उठाया और उसे जांघों से चीर कर नदी में फेंक दिया, हालांकि मैं इस पर विश्वास नहीं करती। हां, लेकिन यह बात एक ने नहीं उस तामलुक अस्पताल में भर्ती सभी 16 महिलाओं ने कही। आखिर सभी महिलाएं एक ही बात क्यों कह रही हैं?वहां दो महिलाएं ऐसी भी मिलीं जिनके साथ बलात्कार हुआ था। वे दोनों जार-जार रो रही थीं। एक ने मुझे बताया कि जब पुलिस दरिंदगी पर उतर आई तो वह अपने घर के पिछवाड़े, जहां गाय बंधती है, छिप गर्इं। लेकिन पुलिस वहां भी पहुंच गई और मेरे साथ बलात्कार करने लगी। बाद में मैं बेहोश हो गई। न जाने मेरे साथ कितने पुलिस वालों ने बलात्कार किया। दूसरी महिला ने बताया कि वह तो बेहोश पड़ी थी और जब होश आया तब पता चला कि उसके साथ क्या हुआ है। हम लोगों ने वहां के पुलिस अधीक्षक से पूछा कि इन पीड़ित महिलाओं की चिकित्सकीय जांच हुई या नहीं? तो उन्होंने कहा कि प्रथम सूचना रपट दर्ज न होने की वजह से ऐसी जांच नहीं हो पाई है। अब सी.बी.आई. वाले आए हैं। उन्होंने जांच कराने को कहा है, लेकिन 48 घंटे से ज्यादा का समय बीत चुका है, ऐसे में रपट क्या होगी, कह नहीं सकते।इस तरह की तमाम घटनाओं को देखने के बाद समझ में नहीं आता कि एक ऐसे देश में, जहां लोकतंत्र है, जहां 21वीं सदी की सभ्यता की बात होती है, वहां महज एक औद्योगिक घराने की जमीन देने के लिए कोई सरकार अपने ही लोगों को इतनी बर्बरता के साथ कैसे मार सकती है? लेकिन जिस तरह से वहां के राज्यपाल ने इस घटना को लिया उससे थोड़ी आशा जगी है। उन्होंने एक खुला पत्र मुख्यमंत्री के नाम लिखा, जिसमें उन्होंने कहा है, “मैंने दो दिन पहले ही आपको आगाह कर दिया था कि यह होगा, उसके बावजूद भी आप इस रक्तपात को रोक नहीं पाए। मैंने जो शपथ ली है वह मुझे प्रेरित कर रही है कि मैं केवल अपनी वेदना आपको टेलीफोन पर बताकर न रह जाऊं, बल्कि इसके बारे में अपना आक्रोश प्रकट करूं और मैं कहूं कि यह एक बहुत बड़ा काम है कि इस घटना के लिए मुख्यमंत्री और सम्बंधित अधिकारियों को प्रायश्चित करना चाहिए। राज्यपाल के उसी पत्र के आधार पर कोलकाता उच्च न्यायालय ने इस घटना की जांच सी.बी.आई. से कराने के आदेश दिए। न्यायालय ने यह भी कहा कि वहां किसी गैरसरकारी संगठन को जाने से न रोका जाए और पुलिसकर्मियों को हटाएं। लोकतंत्र के चार स्तंभ हैं- विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और प्रेस। कार्यपालिका के मुखिया के नाते राज्यपाल के खत लिखकर अपना फर्ज अदा किया। न्यायपालिका भी सक्रिय हुई। प्रेस वालों ने पिटाई खाने के बावजूद इस समाचार को जन-जन तक पहुंचाया। पर मुझे यह समझ में नहीं आ रहा है कि क्यों विधायिका को अपने कर्तव्य के पालन से रोका जा रहा है? संसद में हमने बार-बार यह बात कही कि राजग का प्रतिनिधिमण्डल नन्दीग्राम से लौटा है, उसे अपनी बात संसद में रखने की अनुमति दी जाए, उस पर चर्चा हो, लेकिन सरकार इसके लिए तैयार नहीं है। सरकार की अपनी दुविधा है। कांग्रेस की पश्चिम बंगाल की इकाई वहां राष्ट्रपति शासन की मांग कर रही है। संसदीय कार्य मंत्री स्वयं वहां होकर आए हैं। उनकी पत्नी वहां की विधायिका हैं। संसदीय कार्य मंत्री ने पश्चिम बंगाल में ही इसे गृह युद्ध की संज्ञा दी है। कांग्रेस के प्रतिनिधिमण्डल ने भी बिल्कुल वही रपट दी है, जो राजग की है। वाम मोर्चे के अन्य घटकों ने भी इस घटना की निन्दा की है। यहां तक कि माकपा के वरिष्ठ नेता ज्योति बसु भी इस मुद्दे पर बोले हैं। प. बंगाल के बुद्धिजीवी भी खुलकर बोल रहे हैं। विरोध स्वरूप वे सरकार से मिले पुरस्कार लौटा रहे हैं। पर अब तक दो लोग इस मुद्दे पर चुप हैं। एक हैं प्रधानमंत्री और दूसरी हैं कांग्रेस अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी। प्रधानमंत्री तो परिस्थिति-निरपेक्ष हैं। उनको कभी कोई घटना झिंझोड़ती ही नहीं है। लेकिन सोनिया गांधी इस बात के लिए विख्यात हैं कि देश में अगर कहीं भी कोई घटना होती है तो वह वहां पहुंच जाती हैं। लेकिन नन्दीग्राम की घटना को उन्होंने इतना हल्का करके आंका है कि न तो वह वहां पहुंची और न उन्होंने कोई बयान दिया। लोग पूछना चाहते हैं कि यह मौन किसलिए? इसलिए कि सरकार वामपंथ के समर्थन पर टिकी है। पहले समाजवादी पार्टी ने समर्थन वापस लिया। टी.आर.एस. भी गठबंधन से अलग हो चुकी है और माकपा समर्थन वापस लेती है तो सरकार धड़ाम से गिर जाएगी। लेकिन ऐसी सरकार चलाने से भी क्या फायदा जो लोगों को इस निर्ममता से मारे? ये ज्यादा से ज्यादा चुनाव आने तक इस सरकार को चला सकते हैं, लेकिन जब चुनाव आएंगे तो लोग सबक सिखा देंगे।यह तो नन्दीग्राम की घटना का एक पहलू है। दूसरा पहलू यह है कि पूरे देश में “औद्योगिकीकरण बनाम किसानों का हित” और “औद्योगिकीकरण बनाम खाद्य सुरक्षा”-विषयों पर बहस छिड़ गई है। विशेष आर्थिक क्षेत्र बनें, औद्योगिकीकरण हो, रोजगार बढ़े-इसकाकोई विरोध नहीं करेगा। हम भी मना नहीं करेंगे। देखा जाए विशेष आर्थिक क्षेत्र की योजना राजग सरकार के समय की है। लेकिन विशेष आर्थिक क्षेत्र किस भूमि पर बने कृषि योग्य भूमि पर बने या बंजर भूमि पर? उद्योग में रोजगार सृजित करने के लिए क्या किसानों के पेट पर लाट मार दी जाए? इन तीन वर्षों में ही क्या परिवर्तन हो गया कि गोदाम खाली हो गए और नई आवक क्यों नहीं है? आज वित्त मंत्री कहते हैं कि महंगाई का एकमात्र कारण है मांग के अनुपात में आपूर्ति नहीं है। आपूर्ति बढ़ाकर ही महंगाई पर काबू पाया जा सकता है। किन्तु आप आपूर्ति बढ़ाएंगे कैसे? कमी है खाने की वस्तुओं की। कमी है दालों की, कमी है चावल और गेहूं की। ये चीजें कारखाने में नहीं, जमीन में उगती हैं। अगर आप बाहर से भी अनाज आयात करते हैं तो वहां भी जमीन में भी उग कर आएगी लेकिनजो जमीन इसे उगा रही है उसे तो आप देना चाहते हैं उद्योग को। और नई जमीन सिंचित नहीं हो पा रही है। इस समय देश में सरकारी आंकड़े के अनुसार 8 करोड़ 58 लाख 50 हजार हेक्टेयर भूमि असिंचित है। और सरकार लक्ष्य रख पा रही है ज्यादा से ज्यादा 2 लाख 40 हजार हेक्टेयर भूमि को प्रतिवर्ष सिंचित करने का। वह भी यदि लक्ष्य पूरा हो जाए तो सारी भूमि को सिंचित करने में 35 साल लग जाएंगे। तब तक क्या होगा? इसलिए हमारा यह कहना है कि आप औद्योगिकीकरण की बात कर रहे हैं, लेकिन क्या आपने उस परिस्थिति की कल्पना की है कि सूचना प्रौद्योगिकी में तो भारत नेता कहलाएगा, लेकिन खाने के लिए भारत दूसरे देशों के आगे हाथ फैलाएगा? उस समय आप आई.टी. सुपर पावर होकर क्या करेंगे जब आपके लोग भूखे मरेंगे? इसलिए सबसे पहले यह सुनिश्चित होना चाहिए कि खाने भर का अन्न देश में जरूर पैदा हो। लेकिन यह कैसा औद्योगिकीकरण है, यह कैसा विशेष आर्थिक क्षेत्र है, जहां हमारी खाद्य सुरक्षा संकट में जा रही हो? जो भूमि इस समय उपजाऊ है, सिंचित है उसको यदि आप उद्योग को दे देंगे तो खाद्य संकट और गहराएगा। इसलिए इस पूरी की पूरी नीति को बदलने की आवश्यकता है। मुझे तो लगता है इस पर दो संशोधन तुरन्त होने चाहिए। पहला यह कि कृषि भूमि गैरकृषि कार्यों के लिए न तो खरीदी जाएगी, न बेची जाएगी और न ही अधिग्रहीत की जाएगी। ऐसा कानून अंग्रेजों के समय में था। दूसरा यह कि विशेष आर्थिक क्षेत्र उर्वर भूमि पर स्थापित न होकर बंजर भूमि पर स्थापित हो और इसके लिए सरकार किसान से जमीन न ले, कम्पनियां स्वयं खरीदें। हाल के वर्षों में गुजरात में सबसे ज्यादा पूंजी निवेश हुआ है पर नन्दीग्राम जैसी कोई घटना तो वहां नहीं घटी। क्योंकि वहां के मुख्यमंत्री ने पूंजी निवेशकों को साफ बता दिया है कि वे स्वयं किसान से बाजार भाव पर जमीन खरीदें और कर आदि की छूट सरकार देगी।8
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