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पाकिस्तान में हिन्दू और मन्दिरमां हिंगलाज के आराधकों का हाल-तरुण विजयहिंगलाज माता के दर्शन के लिए पिछले हजार वर्षों का इतिहास यही बताता है कि यह यात्रा दुनिया की सबसे दुर्गम तीर्थ यात्राओं में मानी जाती रही है। मृत्यु या दर्शन का संकल्प लेकर आने वाले तीर्थ यात्री माता के दर्शन कर अपने जीवन को सफल मानते थे। आश्चर्य की बात है कि जहां उत्तर में माता हिंगलाज की तीर्थ यात्रा के बारे में अपेक्षाकृत बहुत कम जानकारी रही, वहीं 1959 में विकास राय ने बंगला में मरू तीर्थ हिंगलाज नामक फिल्म बनाई थी। इस फिल्म की एक प्रति किसी प्रकार मुझे मिली। यह वास्तव में हिंगलाज तीर्थ यात्रा पर बनी बहुत मार्मिक एवं संवेदनशील फिल्म है। इसके मुख्य अभिनेता उत्तम कुमार और सावित्री थे। हेमन्त कुमार का इसमें संगीत रहा और उन्होंने इसमें बहुत सुन्दर गीत गाए हैं। इसमें यात्रियों का एक दल एक संन्यासी अवधूत के नेतृत्व में यात्रा पर चलता है। मार्ग की कठिनाइयों और उसमें एक गाने-बजाने वाले (उत्तम कुमार) का एक राजपूत कन्या (सावित्री) से प्रणय-प्रसंग भी होता है। इस प्रकार वे चंद्र गुप्त तक पहुंचते हैं रास्ते में तीर्थयात्री पानी और दुर्गमताओं को न झेल पाने के कारण कालकवलित हो जाते हैं। अंतत: तीर्थयात्री हिंगलाज दर्शन कर लौटते हैं। ऊंटों के काफिले और उनको संभालने वाले और उनके पठान यात्रियों के साथ जो आत्मीयता और स्नेह का सम्बंध स्थापित करते हैं, डाकुओं का आक्रमण, ये सब दृश्य इस फिल्म को रोमांचक बना देते हैं। आशा की जानी चाहिए कि इस प्रकार की एक फिल्म हिन्दी में भी बनेगी।हिंगलाज के दर्शन के बाद लौटते हुए मन संतुष्ट और तृप्त था। ऐसा लगता था कि जो प्राप्य था वह सब कुछ मिल गया। अब कराची में हम मंदिरों के दर्शन के लिए उत्सुक थे। सबसे पहले कराची में नीटिव चेटी के पास बने श्री लक्ष्मी नारायण मंदिर में हम गए। यह सागर तट पर बना संभवत: कराची के सबसे सुन्दर मंदिरों में से एक रहा होगा। परन्तु अब इसकी स्थिति उपेक्षित मंदिर जैसी ही है। प्राय: यहां पिंडदान और दिवंगत आत्माओं की शांति के लिए दीवारों पर प्राचीन शिलालेख आज भी खुदे हुए हैं। हमको मंदिर में आते देख वहां कुछ हिन्दू बहुत उत्सुकता से मिलने के लिए आए। परन्तु उन्होंने अपने विषय में या अपनी परिस्थिति के बारे में कुछ भी बताने से संकोच किया। वहां दो परिवारों के लोग पिंड दान के लिए भी आए हुए थे। उनमें से ज्यादातर महिलाएं ही थीं। परन्तु किसी भी महिला के माथे पर हमने बिंदी लगी नहीं देखी। वहां जो पुजारी थे वे भी प्राय: मुस्लिम पोशाक और वैसी ही आधे सर को ढंकी अद्र्धचंद्राकार टोपी पहने हुए थे। मंदिर के भीतर मूर्तियों की नियमित पूजा होती है वहीं विष्णु भगवान की मूर्ति के पास श्री गुरुग्रंथ साहब भी प्रतिष्ठित हैं।पाकिस्तान के प्राय: सभी मंदिरों में गुरुग्रंथ साहब और देवी-देवताओं की मूर्तियां एक साथ विराजमान होती हैं। यहां पर उस प्रकार का विभक्तिकरण नहीं दिखता है, जैसा कि हम भारत में देखते हैं। मंदिर में शिवलिंग, दुर्गा की मूर्ति, राधा-कृष्ण, विष्णु और संत झूलेलाल की भी मूर्तियां थीं। नीचे घाट बना हुआ था जो बहुत साफ नहीं कहा जा सकता था। जो पुजारी थे वे भी साधारण तरीके से ही पूजा पाठ करा रहे थे। अचानक वहां हमें एक मेंहदी से अपनी दाढ़ी को लाल किए सज्जन मिले। प्रथम द्रष्टया देखने पर लगता था कि संभवत: वे मुस्लिम हैं, लेकिन जब उनसे पूछा तो उन्होंने अपना नाम वालजी भाई बताया। मूल गुजरात के रहने वाले और कई पीढ़ियों से कराची में ही रहते हैं। उनका घर भारत में 6 दिसम्बर की घटनाओं के बाद ध्वस्त कर दिया गया था। डरे-डरे से ही रहते हैं। जब मैंने उनका घर देखने की इच्छा प्रकट की तो कुछ संकोच के साथ ही वे मुझे भीतर ले गए। उनका घर मंदिर के परिसर में ही है। घर में एक छोटा सा पूजा का स्थान था, उनका बेटा भी एक स्थानीय फैक्ट्री में काम करता है। घर में ही लगभग उनका अधिकांश समय बीतता है। जब मैंने उनसे पूछा कि आपकी वेशभूषा और दाढ़ी के रखरखाव को देखते हुए लगता नहीं है कि आप किसी मंदिर में पुजारी हैं। वे बोले, “अब तो यहां ऐसे ही गुजारा करना पड़ेगा। लेकिन आप हमारी कोई चिन्ता न करें। हम यहां अपनी स्थिति को संभालने में समर्थ हैं और जैसा बन पड़ता है, अपना जीवन बीता रहे हैं।” उनकी बहू और पोते से भी भेंट हुई। उनके घर में जो उनकी बहू के भी चित्र थे उनमें भी बहू के माथे पर बिंदी नहीं लगी हुई थी। पाठक शायद सोचेंगे कि मैं शायद बिंदी के विषय में कुछ ज्यादा ही आग्रही हो गया हूं। आखिरकार भारत में भी तो अनेक हिन्दू महिलाएं फैशन के कारण बिंदी नहीं लगाती हैं। किन्तु फैशन के कारण बिंदी नहीं लगाना, यह उनकी अपनी मर्जी की बात है। जब आप एक ऐसे समाज में रह रहे हों जहां बिंदी लगाने से खतरे दिखते हों और उन खतरों या दहशत के कारण आप बिंदी लगाना बंद कर दें तब आपके मन पर क्या गुजरती होगी यह कराची में ही जाकर महसूस किया जा सकता है। पर इस बात को बहुत फैलाया भी नहीं जा सकता। बहुत सामान्यीकृत भी नहीं किया जा सकता। बाकी कुछ मंदिरों में हमें यहां से काफी बेहतर स्थिति भी दिखी। वहां के प्रशासक, व्यवस्थापक और मंदिर समिति के प्रमुख काफी आत्मविश्वास से भरे हुए थे और उन्होंने कहा कि “यहां हिन्दुओं पर इस प्रकार का कोई संकट नहीं है जैसी कल्पना संभवत: आप भारत में रहकर करते हैं।” जैसे, हम कराची के एक प्रतिष्ठित रत्नेश्वर महादेव मंदिर में गए। वहां की समिति के प्रमुख श्री क्षेत्रपाल हैं। उन्होंने अपनी बहुत रोमांचक कथा सुनाई और मंदिर के बारे में भी विस्तार से बताया। रत्नेश्वर महादेव मंदिर और पूरे पाकिस्तान में प्रसिद्ध पंचमुखी हनुमान मंदिर के दर्शन बहुत आह्लादकारी थे। इसके बारे में हम अगले अंक में बताएंगे।37
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