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-भारत-बंगलादेश सीमा से तरुण विजय की रपट
सिल्चर से करीमगंज होते हुए बंगलादेश सीमा सौ किलोमीटर से भी कम है, लेकिन पांच-छह घंटे पकड़कर चलना चाहिए। यहां की सड़कें, वाहनों की व्यवस्था और बाजार का माहौल किसी उस पुराने वक्त की याद दिलाता है मानो हाल ही में आजादी मिली हो। कुछ ही वक्त पहले साम्राज्यवादी एक गुलाम देश को मुक्त कर गए हों और सब कुछ बनाना संवारना बाकी हो। सीमावर्ती क्षेत्र में आवागमन के लिए और तुरंत पहुंचकर निर्णायक कार्रवाई करने वाली सबसे पहली जरूरत होती है अच्छी सड़कें और यहां सड़कें ही सबसे खराब हैं। गड्ढे में सड़क है या सड़क में गड्ढे, यह कहना मुश्किल हो जाता है। लेकिन रास्ते के दृश्य प्राकृतिक मनोरमता के कारण बेहद सुंदर लगते हैं। धरा की इतनी समृद्धि, इतना सौंदर्य, इतनी प्राकृतिक संपदा ईश्वर ने इस क्षेत्र को दी है कि व्यक्ति भावविभोर हो उठे और ऐसा लगे कि यहां से बढ़कर मालामाल और कौन होंगे। लेकिन इस धरती पर रहने वाले लोग-किसान और मजदूर दरिद्रता के अतिरेकी छोर को दर्शाते हैं। ये दिन पूजा के दिन थे। हर रोज त्योहार का माहौल और इस क्षेत्र का सबसे बड़ा त्योहार ही पूजा यानी दुर्गा अष्टमी माना जाता है। साल भर के कपड़े, बर्तन इन्हीं दिनों खरीदे जाते हैं। घर में हर सदस्य के लिए कोई न कोई नया कपड़ा आना जरूरी है। गांव में दुर्गा प्रतिष्ठित की जाती हैं। हर दिन पूजन, अच्छा भोजन, मीठा और बाकी सब कुछ छोड़कर केवल खुशियों की बात। लेकिन जिस घर में दो वक्त का चूल्हा जलाना मुश्किल हो, जहां की फसल बेमौसमी बरसात, बदलते वातावरण के साथ-साथ सीमा पार से कभी भी अचानक होने वाली गोलीबारी और बमों के विस्फोट से कंपकंपाती हो, वहां की जिंदगी किस छोर में जाकर खुशी का पैबंद ढूंढे?
बाजार में सामान भरा हुआ है। 50 रुपए की साड़ी से लेकर 2-3 हजार रुपए तक के कपड़े, आभूषणों की दुकानें बहुत कम, ज्यादातर सिर्फ नकली या बनावटी आभूषण, पहनने के गमछे, सिंदूर, शंख की चूड़ियां और दवाइयों की दुकानें। चौंक गए आप? इस सबमें दवाइयों की दुकानों का क्या अर्थ? यह मुझे भी समझ नहीं आया। जितनी बनारस में पान की दुकानें होंगी या कोटा और मणिपाल में कोचिंग सेंटर, और स्कूल-कालेज, उतनी इस इलाके में दवाई की दुकानें मिलती हैं। हमारा असली मकसद था सीमा तक पहुंचना और वहां देखना कि सीमावर्ती गांव के लोग कैसे रहते हैं। वहां पर बाड़ कैसे लगाई जा रही है और सीमा सुरक्षा बल की स्थिति क्या है? यह पूरा क्षेत्र बराक घाटी का है। 40 से अधिक जनजातियां। मुख्यत: कार्बी, दिमासा, दिमासा कछारी बहुलता में हैं। पिछले 20 वर्षों में यहां बंगलादेशी घुसपैठियों की संख्या लगातार बढ़ती गई है। सीमा के सभी क्षेत्रों में बंगलादेशी मुस्लिमों की बस्तियां, दुकानें और खेती शुरू हो गई है। करीमगंज जिले की बंगलादेश सीमा से सटे हुए 20 गांव ऐसे हैं जो बंगलादेशी घुसपैठ के कारण मुस्लिमबहुल बन गए हैं। स्थानीय कामकाज, मजदूरी और रिक्शा चलाने वालों में भी ज्यादातर बंगलादेशी मुस्लिम ही दिखाई देते हैं। यह असम का बंगलाभाषी अंचल है, जहां के 6 में से 3 विधायक भारतीय जनता पार्टी के हैं। बंगलाभाषी हिन्दुओं में भाजपा के प्रति विशेष झुकाव इस कारण से हुआ था, क्योंकि भाजपा ने बंगलादेशी घुसपैठियों को निकालने का वचन दिया था। यहां के किसानों, नौकरी-पेशा और व्यापारी वर्ग पर बंगलादेशी मुस्लिम घुसपैठियों की छाया स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगी है। वह अपने आने वाले भविष्य के प्रति चिंतित हैं। उनका कहना है कि आज उन घुसपैठियों की संख्या विभिन्न क्षेत्रों में दस से पैंतीस प्रतिशत तक हो गई है तब ये हाल है तो जब वे पचास प्रतिशत से अधिक हो जाएंगे तो हमारा जीना दूभर हो जाएगा।
बराक घाटी की मूल प्राण धारा है बराक नदी। शांत, सुविस्तृत और गहरी। परंतु इस नदी का उपयोग अभी भी आदिमकालीन स्थिति की ही याद दिलाता है। बांध, तटबंध या तटरक्षक कहीं नहीं दिखते। पुरानी नौकाओं में लोग इस पार से उस पार जाते हैं या एक स्थान से दूसरे स्थान से सामान ढोकर लाते हैं। करीमगंज से पहले एक पुल आता है। सौ साल पुराना। अंग्रेजों द्वारा बनाया हुआ। इसी पुल से रेल भी चलती है और मोटर गाड़ियां भी। उस समय की इंजीनियरिंग का कमाल होगा लेकिन आज यह संग्रहालय की वस्तु लगता है। इस पुल की देखरेख भी ऐसी है कि उस पर चलते हुए डर लगता है कि अब गया तब गया। अगर इस पुल को कुछ हो गया तो उस पार जाने के लिए कोई साधन नहीं । करीमगंज पहुंचते -पहुंचते शाम हो गई थी। यहां एक मित्र के घर रुके। जिनके घर से बंगलादेश सीमा सामने दिखती है। बीच में है बराक नदी। दिन में सब कुछ सामान्य सा दिखता है। सीमा सुरक्षा बल भी और केन्द्रीय सुरक्षा बल के जवान भी। असली काम तो रात में होता है। भारी मात्रा में भारतीय दवाइयां बंगलादेश जाती हैं। इनमें से 90 प्रतिशत नशे की गोलियां और खांसी के वे सीरप होते हैं, जो तत्काल नशा करते हैं। आसपास के इलाकों में चलने वाले बसों और ट्रकों के ड्राइवर भी दो-दो, तीन-तीन बोतलें पीकर आगे गाड़ी ले जाते हैं। नशे के इतने अधिक प्रकार यहां प्रचलित हैं जिन्हें सुनकर हैरानी होती है। इनमें सफेद स्याही का इरेजर है तो विक्स वेपोरब भी डबल रोटी पर लगाकर नशे के रूप में इस्तेमाल की जाती है। मेंड्रेक्स गोलियों की तो भरमार है। यहां आकर पता चला कि सिल्चर और करीमगंज में दवाइयों की इतनी अधिक दुकानें क्यों हैं? रात के समय हजारों की संख्या में गाय, बैल और बछड़े बंगलादेश पहुंचाए जाते हैं। हालांकि उसका ज्यादा बड़ा केन्द्र पश्चिम बंगाल से सटी बंगलादेश सीमा पर है। स्थानीय निवासी अपना नाम न बताने के अनुरोध के साथ कहते हैं कि करीमगंज के जो हिन्दू गांव बंगलादेश सीमा से लगे हैं, वहां के किसान अपने गाय, बैल रात में कमरे के भीतर बंदकर ताला लगाकर खुद बाहर सोते हैं, क्योंकि बंगलादेशी गाय तस्कर इतने निधड़क और निर्भय हो गए हैं कि वे रात में भारतीय सीमा में घुसकर जबरदस्ती गाय और बैल बंगलादेश ले जाते हैं। ये सब बातें अविश्वसनीय लग रहीं थीं। लेकिन न सिर्फ गांव वालों ने बल्कि सीमा सुरक्षा बल के कुछ जवानों ने भी इन्हें सच बताया। सीमा सुरक्षा बल हो या अन्य कोई सुरक्षा बल, उन्हें यहां केन्द्र से न तो स्पष्ट निर्देश मिले हैं न ही उनकी ईमानदारी की कोई ख्याति है। सब कुछ सबके सामने खुलेआम होता है। रोकने का अर्थ है झगड़ा। झगड़े का नतीजा कई बार गोलीबारी में भी निकलता है। मामला हिन्दू-मुसलमानों का बन जाता है। उल्टे सुरक्षा बल के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाती है, इसलिए सुरक्षा बल भी यह सोचकर बहती गंगा में हाथ धोते हैं कि जब रोकने पर हमें कोई सहारा नहीं मिलेगा और न रोकने पर कोई कार्रवाई नहीं होगी तो फिर रास्ता बेरोकटोक ही क्यों न रहने दिया जाए, इसमें ज्यादा फायदा है। यह स्थिति भयानक और रोंगटे खड़े करने वाली है। यह भारत की अन्तरराष्ट्रीय सीमा का हाल है जहां आज की स्थिति में कोई राखनहार नहीं दिखता। स्थानीय हिन्दू केवल अपनी ताकत और भगवान के भरोसे रह गए हैं। उनका कहना है कि उन पर किसी भी विपत्ति के समय असम सरकार कोई कार्रवाई करेगी, इसका उन्हें रत्ती भर भरोसा नहीं है। यहां के मुसलमानों को अवैध हथियार रखने के जुर्म में पकड़ा जाए तब जरूर कार्रवाई होगी, लेकिन वह कार्रवाई उन्हें पकड़ने वालों के खिलाफ की जाएगी यह डर वर्तमान वातावरण ने बना दिया है। क्योंकि मुसलमानों का असम सरकार पर इतना अधिक दबदबा बन गया है कि अपने विरुद्ध किसी भी कार्रवाई को वे सेकुलरवाद और इस्लाम पर आघात के रूप में प्रदर्शित कर साफ निकल जाते हैं। और उससे बढ़कर सच्चाई यह है कि असम विधानसभा में बंगलादेशी घुसपैठियों द्वारा चुने गए विधायकों और मंत्रियों के सामने कोई कुछ बोल नहीं सकता। स्वयं मुख्यमंत्री उनकी झिड़की खाकर चुप रहते जाते हैं। अवैध हथियारों का हाल यह है कि करीमगंज में एके 47 और एसाल्ट राइफलें मुस्लिम घरों में पाए जाने के समाचार मिले हैं।
इस गंभीर परिस्थिति के लिए केवल सरकार ही एकमात्र दोषी नही है यहां के बंगाली हिन्दू जमींदार और पुरोहित वर्ग भी है, जो अपने कर्तव्य से विमुख पूरी तरह सरकार पर निर्भर हो गया है। बंगलाभाषी हिन्दुओं के पास सैकड़ों एकड़ जमीनें हैं, जिन पर भरपूर खेती होती है। वे अपने पैसे जमींदारी के झूठे रौब और स्तर तथा शानो शौकत बनाए रखने में एकदम आलसी और निखट्टू हो गए हैं। वे केवल गुवाहाटी, कोलकाता जाकर मजे करते हैं। खेत पर काम करना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं और उन्होंने अपने खेत ज्यादातर बंगलादेशी मुस्लिमों को जुताई, रोपाई और फसल काटने के लिए दे दिए हैं। सारा काम बंगलादेशी करते हैं और फसल का हिस्सा हिन्दू जमींदारों को घर बैठकर मिल जाता है तो वे उसी में मस्त रहते हैं। यहां परंपरा से हर गांव में हिन्दू मंदिर और अखाड़े बने हुए हैं। प्रत्येक अखाड़े के साथ पचास-सौ बीघा जमीन मंदिर सेवा के लिए रखी गई है। स्थिति अब यह हो गई है कि मंदिर की जमीन भी बंगलादेशी मुस्लिमों को जुताई पर दे दी जाती है। धीरे-धीरे इन जमीनों पर भी बंगलादेशी मुस्लिमों का कब्जा बढ़ता जाता है। वे पहले जुताई करते हैं फिर कब्जा करते हैं। हिन्दू झगड़ा कर नहीं सकते, मार-पिटाई और खून खराबा उनके बस की बात नहीं। रो पीटकर सरकार के पास जाते हैं। वहां वैसे भी सुनवाई नहीं होती। इसलिए अब इन ग्रामीण क्षेत्रों में यदि हिन्दू जाग्रत और संगठित नहीं हुए तो बंगलाभाषी हिन्दू अपनी जमीन अपने हाथों खो देंगे। अगले अंक में जारी
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