मदरसों का आतंकवाद से रिश्ता
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मदरसों का आतंकवाद से रिश्ता

by
Jun 8, 2006, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 08 Jun 2006 00:00:00

सदियों पुराना-शाहिद रहीमवर्तमान संप्रग सरकार के गृहमंत्री श्री शिवराज पाटिल ने अंतत: कांग्रेस की पारंपरिक नीति का पालन करते हुए मदरसों की स्वच्छता का फरमान जारी कर दिया। रविवार 23 जुलाई को नई दिल्ली में आयोजित एक समारोह में उन्होंने कहा- “मदरसे आतंक का केन्द्र नहीं हैं, बल्कि समाज सेवा के केन्द्र हैं और मानवता का पाठ पढ़ाते हैं। इसलिए हम यह स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं कि वे आतंकवाद का बीजारोपण कर रहे हैं। कुछ लोग अगर ऐसा कर रहे हैं, तो उन्हें जरूर सजा मिलेगी।” पाटिल के लंबे- चौड़े बयान में अधिकतर “वाक्य” मदरसों की प्रशंसा करते हैं और औपचारिक रूप से शिक्षकों में जागरण के अभाव को रेखांकित करते हैं।कुल मिलाकर श्री पाटिल का यह बयान भारत में मदरसों के इतिहास और स्थिति का अध्ययन नहीं बल्कि दलीय नीति के तहत मुस्लिम तुष्टीकरण का घिसा-पिटा राग है, जिसे कांग्रेस और कांग्रेसी संस्कृति से जनित अन्य दल परंपरागत रूप से गाते रहे हैं। श्री पाटिल एक वरिष्ठ राजनेता हैं। भारत की चुनौतीपूर्ण समस्याओं और उनके इतिहास का अध्ययन उन्होंने किया ही होगा। लेकिन मुझे धृष्टतापूर्वक कह लेने दीजिए कि उन्होंने मदरसों का इतिहास शायद नहीं पढ़ा है, वरना मुम्बई धमाकों की घटना के तुरन्त बाद, जबकि मारे गए 200 निर्दोषों की “तेरहवीं” भी नहीं हुई थी, वे ऐसा बयान नहीं देते जिससे आतंकवाद के गुप्त समर्थकों का मनोबल बढ़ता हो।हिन्दुस्थान में मदरसा शिक्षा का इतिहास मुगलों के हमलों के साथ प्रारंभ होता है। इतिहासकार नरेन्द्र नाथ के अनुसार मदरसा शिक्षा का विधान कुतुबुद्दीन ऐबक के काल में बना। उसी समय से ऊंच, मुल्तान, लाहौर, जौनपुर, खैराबाद, अजीमाबाद (पटना), सूरत, दिल्ली और आगरा आदि शहरों की सैकड़ों मस्जिदों में सबेरे से दोपहर तक मदरसे चलने लगे और वह परंपरा आज भी कायम है। फिर इल्तुत्मिश, अलाउद्दीन खिलजी, तुगलक और सिकन्दर लोधी के जमाने में मदरसों की बाढ़ सी आ गई। मुगलकाल में 1710 ई. में “मदरसा गाजीउद्दीन” शुरू हुआ जो बाद में दिल्ली कालेज बना।कांग्रेस के दिवंगत नेता माधव राव सिंधिया ने 7 मई, 1995 ई. को दिल्ली में आयोजित मुस्लिम शिक्षा सम्मेलन में तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री की हैसियत से यह स्वीकार किया था कि, “देश में 12,000 मदरसे चल रहे हैं”। आज उनकी संख्या 23000 से ज्यादा है। इनमें से 20,000 मदरसे सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों की स्थानीय मस्जिदों में चल रहे हैं, जिनमें योग्य शिक्षकों का नितांत अभाव है और इस्लाम का आधा-अधूरा ज्ञान रखने वाले बेरोजगार मुसलमान मदरसा शिक्षा के नाम पर चंदे की उगाही से अपनी रोटी कमा रहे हैं। मस्जिद से जुड़े होने के कारण गांव के भोले-भाले मुसलमान अनिवार्य होने पर भी उनका विरोध नहीं कर पाते। पूरे गांव की राजनीति, पांचवीं/सातवीं फेल, केवल दाढ़ी और टोपी की पहचान वाले से नियंत्रित होती है। ऐसी स्थिति में इस पर विश्वास करना कठिन है कि दाल-रोटी के लिए झूठ बोलकर चंदा उगाहने वाला कोई मुसलमान हवाला के माध्यम से आतंक फैलाने के लिए मिली मोटी रकम से इनकार कर देगा?खुसरो इन्स्टीटूट आफ सोशल साइन्सेज, नयी दिल्ली के एक अध्ययन के अनुसार देश में कुल 40,000 मदरसे हैं, जिनमें 23,000 मदरसे मस्जिदों में, 12 हजार झोपड़ों या कच्चे मकानों में चलते हैं। इन मदरसों को देश की चार वृहत मदरसा संस्थाओं, फिरंगी महल, लखनऊ; दारुल उलूम, देवबंद; नदवत-उल-उलेमा, लखनऊ और दारुल उलूम मनजर-ए-इस्लाम, बरेली से मान्यताएं प्राप्त होती हैं। ये मदरसे चूंकि अपने विद्यार्थियों को रोजगार के क्षेत्र में प्रासंगिक ही नहीं बना पाते, इसलिए अंधविश्वास के आधार पर “जिहाद” करने की आज्ञा देकर उन्हें विदा कर देते हैं।सच्चाई यह है कि मुस्लिम समाज की सांस्कृतिक पहचान अक्षुण्ण रखने के नाम पर मदरसा शिक्षित बेरोजगारों की भीड़ उन मुस्लिम धनाढ लोगों की गुलाम हो जाती है, जो देश के सत्ताधारी वर्ग से सत्ता में भागीदारी छीनने का संघर्ष कर रहे हैं।इसमें कोई संदेह नहीं है कि देश की समस्त मुस्लिम आबादी पर इस्लामी संस्थानों का वर्चस्व कायम है। ये इस्लामी संस्थान वैचारिक रूप से भारतीय मुसलमानों के आधुनिकीकरण का विरोध करते आए हैं। इन संस्थानों से बाहर निकले मुल्ला-मौलवी सफलतापूर्वक शिक्षित और आधुनिक मुसलमानों तथा साधारण मुसलमानों के बीच की खाई को गहरा करते आए हैं। लोकतंत्र, पंथनिरपेक्षता, विज्ञान, उद्योग और आधुनिक स्थितियों से सामंजस्य स्थापित करने के लिए “मजहब” की पुनव्र्याख्या का अभाव साधारण मुसलमानों को मस्जिद और मदरसों से बाहर कुछ देखने ही नहीं देता। दारुल-उलूम, देवबंदविश्व की सबसे बड़ी मजहबी शिक्षा की युनिवर्सिटी जामिया अजहर काहिरा, मिस्र के बाद देवबंद का यह मदरसा दूसरे नंबर पर है और शाह वलीउल्लाह (1760 ई. में मराठों पर आक्रमण के लिए अहमद शाह अब्दाली को निमंत्रण भेजने वालों में प्रमुख) तथा उनके कट्टर अनुयायी सैयद अहमद (1786-1831) की परंपरा का वाहक है। इन्हीं सैयद अहमद के नेतृत्व में इस्लामी आक्रमणकारियों ने पंजाब में सिख राजतंत्र के खिलाफ मई, 1831 ई. में जिहाद के नाम पर बालकोट पर हमला किया और मारे गए। इसी परंपरा के मौलाना मोहम्मद कासिम नानोतवी (1833-1977) और मौलाना राशिद अहमद गंगोही (1828-1905) ने 1857 ई.में शामली बगावत में अंग्रेजों के खिलाफ पराजय के बाद 30 मई, 1866 ई. को देवबंद में यह मदरसा स्थापित किया। 1879 ई. तक यह “दारुल उलूम” के नाम से प्रसिद्ध होने लगा। देवबंदी मदरसों पर इस्लाम की वहाबी विचारधारा का नेतृत्व हावी है, जो प्रारंभिक काल से ही सरकारी संरक्षण के प्रति अनिच्छा और कटुता का पालन करता आया है। देवबंदी उलेमा ने अपनी इस विचारधारा को मुस्लिम अलगाववादी आन्दोलन के लिए राजनीतिक जिहाद के रूप में उपयोग भी किया। देवबंद की शुरुआत करने वाले मौलाना महमूद-अल हसन (1850-1921) ने 1905 ई. में प्रथम विश्व युद्ध के दौरान अंग्रेजों के खिलाफ न केवल जबर्दस्त अभियान चलाया, बल्कि राजनीति में उलेमा की भागीदारी निश्चित करने के लिए “जमीयत उलेमा-ए-हिन्द” की स्थापना करके खिलाफत आन्दोलन के लिए नेतृत्व उपलब्ध कराने का प्रावधान भी किया। इसी मदरसे से उत्पन्न “वहाबी जंगजूओं” ने पूरे देश में मदरसों का एक जाल बिछा रखा है, जहां शिक्षा प्राप्त करने वाली आबादी भौतिक सुख-सुविधाओं के मामले में गैर मुस्लिमों से लगातार पिछड़ती रही है।पाकिस्तान से प्रकाशित “फ्राइडे टाइम्स” ने 4-10 फरवरी, 2000 के अंकों में “विशाल देवबंदी मतैक्य (दि ग्रैन्ड देवबंदी कन्सेन्सस) शीर्षक से खालिद अहमद का एक लेख छापा था। लेख के अनुसार “अफगानिस्तान में गृह युद्ध और कश्मीर में जिहाद ने धीरे-धीरे देवबंदी मतैक्य प्राप्त कर लिया।” खालिद ने लिखा- “जब मुल्ला उमर का तालिबान पाकिस्तान में लोकप्रिय हो रहा था, तो यह बात भी स्पष्ट हो रही थी कि उसने देवबंदी न्यायशास्त्र के तहत प्रशिक्षण लिया है। “हरकत-उल-अंसार” (मुजाहिद्दीन) कश्मीर का आतंकवादी संगठन भी देवबंदी विचारधारा का वाहक है।” खालिद ने लिखा है, “जॉन के. कूली ने अपनी किताब “अनहोली वार्स” (अपवित्र युद्ध) में कहा है, “मुल्ला उमर और ओसामा बिन लादेन पहली बार 1989 ई. में देवबंदी मस्जिद में ही मिले थे, जो कराची में “बनूरी मस्जिद” के नाम से प्रसिद्ध है।” देवबंद विश्वविद्यालय के कुलपति मौलाना अबुल हसन अल नदवी पश्चिम की उदारवादी शिक्षा पद्धति के कट्टर विरोधी थे। इसी कारण अलीगढ़ के सबसे बड़े आलोचक से उन्होंने कहा था- “मैं उनमें से हूं जो मानते हैं कि मजहब के आदेश तब तक स्थापित नहीं होंगे, जब तक इस्लामी आधार पर शक्ति और व्यवस्था का नियंत्रण स्थापित नहीं होता।” उनकी यह टिप्पणी प्रसिद्ध है कि “हिन्दू, यूनानी, रोमन और इस्लाम पूर्व अरबी सभ्यता, इस्लाम से न बेहतर थी, न हो सकती है।” (इस्लामिक फन्डामेन्टलिज्म इन इंडिया, एम.एस. अगवानी, पृ. 21-22, 34)फिरंगी महल, लखनऊऔरंगजेब द्वारा प्रदत्त जमीन का एक बड़ा टुकड़ा तत्कालीन मुल्ला कुतुबुद्दीन को मिला, जो अपने एक प्रतिद्वन्द्वी के हाथों मारे गए। उनके पुत्र मुल्ला निजामुद्दीन ने यहां विशेष रूप से “फिक्ह” (इस्लामी न्यायशास्त्र) पढ़ाने के लिए मदरसे की स्थापना की। शाह वलीउल्लाह, जो भारत में बीसियों इस्लामी संस्थानों के जनक थे, ने यहीं शिक्षा ग्रहण की। जमीअत उलेमा-ए-हिन्द के संस्थापक अब्दुल बारी भी फिरंगी महल इस्लामी विचारधारा के थे। देवबंद और फिरंगी महल, दोनों पंथों की परंपरा में हिन्दू-बहुसंख्यक समुदाय से समन्वय वर्जित है। हिन्दी पढ़ना गुनाह है। ऐसी स्थिति में इन पंथों के मदरसों को “मानवता का सेवक” कहना न केवल उनका हौसला बढ़ाने के समान है, बल्कि उनकी अलगाववादी/आतंकवादी विचारधारा का गुप्त समर्थन भी है, जो देशहित में तो नहीं ही है।आज जब हिन्दुस्थान की मजहबी इस्लामी संस्थाएं मुगलकालीन राजनीतिक विचारधारा और आदर्शों को वर्तमान मुस्लिम मानस में दुबारा स्थापित कर रही हैं, तो मदरसों को “क्लीन चिट” देने का क्या अर्थ है? डा. अल्लामा इकबाल का नाम तो सभी जानते हैं। उनकी मशहूर नज्म “सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा” आज भी बच्चे-बच्चे की जुबान पर है। परन्तु लोग यह भूल जाते हैं कि उन्हीं अल्लामा इकबाल ने दिसम्बर, 1930 ई. के मुस्लिम लीग के सम्मेलन में कहा था, “इस्लाम की सैद्धान्तिक आदर्शवादिता के खिलाफ तमाम सामाजिक मान्यताओं को नकारना जरूरी हो गया है.. एक को नकार कर हम सबको नकारने का प्रारंभ करेंगे।” (कम्युनिटी एण्ड कन्सेन्सस इन इस्लाम : फरजाना शेख, पृ.-16) जिस इकबाल ने कहा था, “मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना”, उसी इकबाल ने पाकिस्तान निर्माण की संकल्पना में आन्दोलन का रंग भरा। यह सत्य है। फिर कैसे भरोसा कर लिया जाए कि तमाम दूसरे मत-पंथों, पंथनिरपेक्षता, आधुनिकता, विकासशीलता, विज्ञान और मानवतावाद के बढ़ते हुए आन्दोलन को निरंतर नकारने वाले मदरसा शिक्षक और मदरसा छात्र “इकबाल” का अनुकरण छोड़ देंगे? मदरसा शिक्षा के समर्थक देश के विश्वविद्यालयों में “इकबाल” साहित्य पढ़ाते हैं, जो अब देश के लिए घातक हो रहा है। इसलिए राष्ट्रवादी शक्तियों को चाहिए कि वे न केवल मदरसों बल्कि “पाकिस्तान निर्माण” का समर्थन करने वाले तमाम उर्दू साहित्य के पठन-पाठन पर भारत में अविलंब प्रतिबंध लगवायें।कांग्रेस तो अवसरवादी पार्टी है, उसे सत्ता का लोभ है। सत्ता के लोभ में ही उसने पाकिस्तान का बंटवारा स्वीकार कर लिया। आज अगर कोई दुबारा देश बांटने की मांग करे, तो कांग्रेस क्या रूख अपनाएगी, इसमें बहुत अधिक संशय नहीं होना चाहिए।7

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