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जसवंत सिंह ने माना- "आप्रेशन पराक्रम" रुकवाने में उनकी भूमिका

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Jun 8, 2006, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 08 Jun 2006 00:00:00

बेबाक ईमानदारी से लिखा

अपने दृष्टिकोण से समसामयिक इतिहास

…लेकिन पुस्तक ने जो सवाल खड़े किए

उनके जवाब उसी भाव से देने चाहिए थे

-तरुण विजय

श्री जसवंत सिंह की पुस्तक “ए काल टू आनर” ने बाजार में आने से पहले ही खासा हंगामा खड़ा किया। उनकी विद्वता, अंग्रेजी भाषा पर पकड़, भाषा सौष्ठव, अंग्रेजों से बेहतर अंग्रेजी इस्तेमाल करने का नैपुण्य और भारत सरकार के अत्यंत महत्वपूर्ण पदों को संभालने का अनुभव इस पुस्तक को निस्संदेह पठनीय बनाता है। वे भारत के रक्षा मंत्री, वित्त मंत्री और विदेश मंत्री रहे। भाजपा के सर्वाधिक शक्तिशाली नेताओं के सर्वाधिक निकटस्थ होने का भी उन्हें सौभाग्य मिला। कैबिनेट के भीतर और बाहर जो घटित होता था उसकी उन्हें पूरी जानकारी रहती थी। विदेश मंत्री के नाते कठिनतम समयों का उन्होंने निर्वहन किया। उनके कर्तृत्व के अपार प्रशंसक भी हैं तो कठोरतम आलोचक भी। उनकी पुस्तक पर देश व्यापी चर्चा ने एक ओर जहां भाजपा नेताओं को सन्नाटे में डाल दिया है वहीं पुस्तक के प्रकाशक पांच दिन के भीतर ही नये संस्करण की तैयारी कर रहे हैं। कुछ अखबारों में छपा है कि इस पुस्तक की बीस हजार प्रतियां बिक चुकी हैं। इस हिसाब से जसवंत सिंह की रायल्टी भी काफी बढ़ी है।

27 जुलाई को दिल्ली के मौर्या शेरेटन होटल में उनकी पुस्तक को औपचारिक रूप से जारी करने के समारोह में देश के जाने माने पत्रकार, रक्षा विशेषज्ञ और श्री जसंवत सिंह के परिवार के सदस्य उपस्थित थे। परंतु जिस विचार परिवार से श्री जसवंत सिंह कम से कम बाहरी तौर पर जुड़े हैं, उसका कोई व्यक्ति इस कार्यक्रम में नहीं दिखा।

यह पुस्तक एक स्वतंत्र चेता राजनेता और लेखक द्वारा लिखा गया समसामयिक इतिहास है। यह बात अलग है कि लेखक भाजपा में भी हैं। यह इतिहास उन्होंने अपनी दृष्टि से लिखा है और यह किसी भी लेखक के साथ स्वाभाविक बात है। उन्होंने जोधपुर के पास जसोल में बीते अपने बचपन, उस समय की घटनाओं और राजपूताना के तत्कालीन वातावरण का बड़ा दिलचस्प और साहित्यिक ऊंचाइयों से वर्णन किया है। वे दस साल की उम्र तक अंग्रेजी नहीं जानते थे। न ही उन्होंने अंग्रेजी पढ़ी थी। अजमेर के मेयो कालेज में आए तो पहली बार अंग्रेजी सीखी। उनकी धर्म में गहरी आस्था है तथा धार्मिक ग्रंथों का गहराई से अध्ययन किया है। रामचरितमानस की अनेक सुंदर चौपाइयां, रहीम के दोहे, दुर्गा स्तुति और श्री राम के जीवन के अनेक प्रसंगों के श्लोक उन्हें कंठस्थ हैं, जिनमें से अनेक उनकी मेज पर अक्सर मैंने भी देखे हैं। कल उनकी प्रशंसा में इंडियन एक्सप्रेस के सामरिक सम्पादक राजा मोहन, स्तंभकार मेजर जनरल अशोक मेहता, अमरीका में पूर्व राजदूत नरेश चंद्रा, मन से भारतीय तथा पासपोर्ट से ब्रिटिश सर मार्क टली, रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर श्री विमल जालान आदि ने जो शब्द कहे वे किसी भी लेखक को अपने जीवन की एक बड़ी उपलब्धि महसूस करा सकते हैं। मगर सवाल यह है कि आप दुनिया में जितने भी बड़े हो जाएं, जिस विचार परिवार ने आपको सीढ़ियां चढ़ने में मदद दी, उसकी राय का उनके लिए कोई महत्व है या नहीं? शायद इसकी उन्हें चिन्ता भी नहीं है। किसी को यह बात समझ में नहीं आती कि कंधार में उन्होंने जो किया वह क्यों किया। पुस्तक में कंधार से निकलने की कोशिश में वे और जटिलता फैला गए। जसवंत सिंह जी जैसे प्रबल प्रतापी मंत्री का यह कहना कि वे अधिकारियों के दबाव में आ गए और इस कारण उन तीन आतंकवादियों को लेकर विमान में कंधार गए, किसके गले उतरेगा। अगर ऐसा है तो यह और भी लज्जाजनक है कि वे देश के स्वाभिमान के दबाव से नहीं झुके बल्कि अफसरों के कहने पर सौ करोड़ लोगों की इज्जत से खिलवाड़ कर बैठे। कंधार के हवाई अड्डे पर जो हुआ, उसका जो उन्होंने वर्णन किया है वह तथा उनके द्वारा बार-बार कहे जाने पर भी किसी भी तालिबानी मंत्री या नेता का उन्हें न मिलने आना और हवाई अड्डे पर उन्हें कुछ मेवे और नेल कटर एक थैली में भेंट स्वरूप देना, यह जसवंत सिंह नामक एक व्यक्ति का अपमान नहीं था बल्कि भारत का अपमान था। क्या उन्हें महसूस हुआ कि कंधार जाना गलती थी? नहीं। उन्हें नहीं लगता कि यह गलती थी।

पुस्तक परिचय

पुस्तक का नाम ए काल टू आनर- इन सर्विस ऑफ इमर्जेंट इण्डिया

लेखक जसवंत सिंह

पृष्ठ 426

मूल्य 495 रु.

प्रकाशक रूपा एण्ड कम्पनी, 7/16, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली-110002

जिन महत्वपूर्ण स्थितियों में रहते हुए श्री जसवंत सिंह ने, जिन निर्णयों को प्रभावित किया, उसका वृत्त चौंकाने वाला है। भारत के लोग यह जान नहीं पाए कि संसद पर 13 दिसंबर, 2001 के हमले के बाद भारत ने पाकिस्तान की सीमा पर आपरेशन पराक्रम के शानदार नाम से जो फौज इकट्ठा की, वह लगभग वहां एक साल खड़ी-खड़ी सुस्ताने के बाद वापस क्यों बुला ली गई? इस पूरी कवायद पर एक अनुमान के मुताबिक कई हजार करोड़

रुपये खर्च हुए।अब श्री जसवंत सिंह ने इसका खुलासा किया है। वे पुस्तक के पृष्ठ 268 पर लिखते हैं कि, “13 दिसंबर 2001 को संसद पर हमले के बाद आपरेशन पराक्रम के आरंभ में श्री राघवन (उन्होंने परिचय नहीं दिया। वे भारतीय विदेश सेवा के अधिकारी और उनके सचिव थे, जो आजकल पाकिस्तान में भारत के उप उच्चायुक्त हैं) ने पूछा कि हमारा उद्देश्य क्या है?” श्री जसवंत सिंह लिखते हैं कि, “मैंने इसके जवाब में कागज के एक टुकड़े पर लिखा, “सीमा पर घुसपैठ/आतंकवाद बिना लड़ाई किए परास्त करना, देश के “पाकिस्तान को सबक सिखाने वाले” मन (मूड) को दबाना और युद्ध की स्थिति में पाकिस्तान की युद्ध लड़ने की क्षमताओं को नष्ट और कमतर करना।” …इस काम में मुझे तीन चुनौतियों का सामना करना पड़ा। पहली आंतरिक थी जो सबसे ज्यादा कठिन थी, क्योंकि मुझे अपने सहयोगियों के साथ प्रतिबद्धता भी बनाए रखनी थी। इसमें मेरी सारी आंतरिक शक्ति और हिम्मत खर्च हो गई। इसके साथ ही मुझे तीनों सेनाओं के प्रमुखों को अपनी बात से संतुष्ट करते हुए इस तरह साथ लिए चलना था ताकि वे (पाकिस्तान के संदर्भ में) संयम को एक सामरिक लाभकारी बात के रूप में मानकर लड़ाई को टाल दें। पुन: यह आसान काम नहीं था। तीनों प्रमुख, सेना की भाषा में “टूट पड़ो” (टू हैव ए क्रेक) का एक मौका चाहते थे। मुझे न केवल उन्हें आग्रहपूर्वक रोकना पड़ा बल्कि ऐसा न करने के लिए समझाना पड़ा।”

श्री जसवंत सिंह ने यह बात बताकर देश का बहुत भला किया है। वह ऐसा मौका था जब सारा देश, पार्टीगत मतभेदों से ऊपर उठकर सभी राजनीतिक दल और विश्व जनमत पाकिस्तान को सबक सिखाने के किसी भी कदम के साथ खड़े थे। श्री जसवंत सिंह ने लिखा है कि ऐसा न होने देने के लिए उन्हें अपने सहयोगियों को भी मनाना पड़ा। वे सहयोगी कौन थे जो श्री जसवंत सिंह द्वारा समझाए जाने पर चुप हो गए? उससे भी बड़ी बात यह है कि तीनों सेनाओं के प्रमुख देश पर हुए इस भीषण हमले का जवाब देने के लिए तैयार थे पर उन्हें भी श्री जसवंत सिंह ने स्वाभाविक रूप से अपने पद के प्रभाव से रोका था। स्पष्ट कहा जाए तो कुछ न करने का आदेश दिया।

श्री जसवंत ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एक जगह जिक्र किया है और वहां भी लंदन इकोनामिस्ट के हवाले से संघ का परिचय दिया है। श्री लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में हुई सोमनाथ से अयोध्या रथ यात्रा, उसके संदर्भ में उठे भावनात्मक ज्वार या अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि के प्रति कुछ न लिखते हुए बाबरी ढांचे के ध्वंस के लिए भाजपा पर नकारात्मक टिप्पणी की और इसके साथ ही गोधरा के बाद गुजरात दंगों को, उनके अनुसार, न रोक पाने में भी भाजपा की बड़ी विफलता रही। गोधरा हत्याकांड के बारे में श्री जसवंत सिंह ने इतने सरसरी तौर पर जिक्र किया है कि रेल के डिब्बे में मरने वाले स्त्री-पुरुष-बच्चों की ठीक संख्या का जिक्र करने के बजाय कहा है, “60 से कुछ ही कम”। वे हिन्दू थे यह लिखना भी उन्होंने उचित नहीं समझा, हालांकि गोधरा के बाद में हुए दंगों में मारे गए लोगों की संख्या का जिक्र करते समय उन्होंने लिखा है- “254 हिन्दू और 790 मुसलमान।” क्या इन पर किसी प्रकार की टिप्पणी आवश्यक है?

निस्संदेह उन्होंने यह पुस्तक बेबाकी और ईमानदारी से लिखने की कोशिश की है। चूंकि यह पुस्तक सार्वजनिक है इसलिए उनके लिखे पर टिप्पणी करना और उस समसामयिक इतिहास में नेतृत्व की गलतियों का विश्लेषण करना वर्तमान और नये पाठकों का काम है। अच्छा होता कि राजग, खासकर भाजपा के वे नेता जो कंधार के समय निर्णय ले रहे थे, उस ईमानदारी से अपनी गलती भी मानते तो वह दाग मद्धिम हो सकता था। जीवन भर की उपलब्धियां एक तरफ रह जाती हैं और एक गलती का बोझ दूसरी तरफ। ऐसी अनेक गलतियां इस पुस्तक में उजागर की गई हैं।

यह भी समझ में नहीं आता कि अगर श्री जसंवत सिंह को दस साल पहले से पता था कि प्रधानमंत्री कार्यालय में एक जासूस है तो इतने लम्बे समय तक एक देशभक्त, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पुरोधा दल, जिसे सारी दुनिया हिन्दुत्वनिष्ठ पार्टी या हिन्दू राष्ट्रवादी मानती रही, के शीर्ष नेता ने यह बात छिपाए क्यों रखी? प्रधानमंत्री कार्यालय में जो जासूस था, उसे इस राष्ट्रवादी पार्टी द्वारा सरेआम फांसी दी जानी चाहिए थी। ऐसा कोई भी जासूस क्या कहा जाएगा, यह भी वे बताएं। क्या उसे भटका हुआ देशभक्त कहेंगे या गद्दार और देशद्रोही? यदि वह गद्दार और देशद्रोही है तो उसे भारत में जीने का हक क्यों होना चाहिए? और यह हक पिछले दस साल तक चुप रहकर क्यों दिया गया?

श्री जसवंत सिंह इस पुस्तक में हालांकि अमरीकी नीतियों के कुछ आलोचक भी दिखते हैं, लेकिन Ïक्लटन शासन के अमरीकी अधिकारियों के प्रति उनका गद्गद् भाव राष्ट्रवादी पार्टी के नेता के नाते एक अजीब कसैलापन पैदा कर गया। स्ट्रोब टालबोट और मैडीलीन एल्ब्रााइट की प्रशंसा में लिखे शब्द भारतीय पाठकों को अतिरंजनापूर्ण ही लगेंगे।

उन्होंने अत्यंत सावधानीपूर्वक जिन्ना के संदर्भ में भी इतिहास को ठीक करने की कोशिश की है। और जिन्ना के उस हिन्दू विरोधी और विभाजनकारी पक्ष के उभरने की जिम्मेदारी कांग्रेस पर डालकर यह आभास दिलाने का स्पष्ट प्रयास किया है कि अगर कांग्रेस ऐसी नहीं होती तो जिन्ना वैसे नहीं होते। हालांकि हम कांग्रेसी नेताओं की आलोचना करते नहीं अघाते, जिनके कारण देश को अपार क्षति हुई लेकिन कांग्रेस हमारी भारतीय राजनीतिक पार्टी है और वह जैसी भी है जिन्ना की तुलना में तो हम आज कांग्रेस को ही अपना मानेंगे।

जसवंत सिंह जी भक्त हैं और यह पुस्तक भी उन्होंने अपने दास्य भाव से ही लिखी है। पुस्तक के प्रारंभ में ही उन्होंने रामचरित मानस की एक पंक्ति लिखी- “सो सब तव प्रताप रघुराई, नाथ न कछु: मोरि प्रभुताई”। इसी के साथ उन्होंने यहूदियों के पवित्र ग्रंथ से तथा कुरान शरीफ से लगभग समान भाव को व्यक्त करने वाली पंक्तियां दी हैं, जो देवनागरी, हिब्राू और अरबी लिपि में अनुवाद सहित उद्धृत हैं। बाकी ग्रंथों के बारे में तो हम कुछ कहने के अधिकारी नहीं हैं। लेकिन रामचरितमानस में आतंकवाद निर्मूलन के कार्य हेतु रास्ता न देने वाले जिद्दी सागर के हठ पर रघुनंदन क्रुद्ध भी हुए थे और कहा था- विनय न मानत जलधि जड़, गए तीन दिन बीत, बोले राम सकोप तब, भय बिनु होय न प्रीत। श्री रामचरित मानस पर अपार श्रद्धा रखने वाले श्री जसवंत सिंह जी पाकिस्तान के संदर्भ में रघुवर की ये पंक्तियां क्यों भूल गए? यह पुस्तक समसामयिक इतिहास में रुचि रखने वालों के लिए ही नहीं, बल्कि इतिहास से सबक लेने को उत्सुक सभी भारतीयों के लिए पठनीय है।

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