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मिशनरियों की नीयत समझने लगे हैं लोग
प्रख्यात सर्वोदयी कार्यकर्ता, गांधीवादी चिंतक श्री घेलू भाई नायक सन 1948 से लगातार डांग जिले में स्वराज आश्रम का कार्य देख रहे हैं। गुजरात राज्य के नवसारी जिले के अमलसाड गांव के ब्राह्मण कुल में सन् 1924 में जन्मे श्री घेलू भाई जब एक वर्ष के थे, तब गांधी जी इनके घर पधारे थे। गांधी जी ने तब इनकी माता श्रीमती लक्ष्मी बेन को कहा था- “यह बालक अब मेरा है, देश-काज के लिए यह जीवन समर्पित करेगा।” गांधी जी की भविष्यवाणी सत्य हुई और घेलू भाई ने अपने बड़े भाई छोटू भाई नायक के साथ सन 1942 के आंदोलन में भाग लेते हुए जेल यात्रा की। घेलू भाई के जीवन पर सरदार वल्लभभाई पटेल का भी गहरा प्रभाव पड़ा। उन्हीें की छत्रछाया में इनका सामाजिक जीवन प्रारम्भ हुआ। सरदार पटेल की प्रेरणा से ही सन् 1948 में घेलू भाई ने डांग जिले की जनजातियों के कल्याणार्थ अपना जीवन समर्पित कर दिया। अब वे डांग के जिला केन्द्र आह्वा के स्थाई निवासी बन गए हैं। शबरी कुंभ के संपूर्ण आयोजन में भी उन्होंने सक्रिय भूमिका का निर्वहन किया। शबरी कुंभ और उससे जुड़े विविध प्रश्नों पर शबरी धाम (डांग) में राकेश उपाध्याय द्वारा उनसे की गई बातचीत के मुख्य अंश यहां प्रस्तुत हैं –
शबरी कुंभ के आयोजन पर व्यक्तिगत रूप से आपको क्या अनुभूति हो रही है?
मैं ऐसा मानता हूं कि गुजरात की पूरब पट्टी, जिसमें डांग जिला आता है, की जनजातियों के लिए शबरी कुंभ बहुत बड़ा महोत्सव है। जनजातियों की श्रद्धा-भक्ति और उनके विकास का कुंभ है यह।
इस आयोजन की आवश्यकता क्यों हुई?
यहां के लोगों में शबरी के प्रति व्यापक श्रद्धा-भावना एवं मान्यता है। मैंने खुद इस बात का अनुभव किया है। राम को रास्ता शबरी माता ने दिखाया, यह बात यहां की लोक-बोली में सभी को मालूम है। इस भावना को ही प्रबल बनाने के लिए शबरी कुंभ आयोजित हुआ।
हां, मैं एक बात और बताता हूं। कुछ लोगों ने यह प्रचार किया है कि यहां शबरी का निवास नहीं रहा है और शबरीधाम के रूप में एक कृत्रिम तीर्थ डांग में बनाया जा रहा है। यह सरासर झूठ है। मैं 1950 से डांग के जंगलों में पैदल घूमता रहा हूं। शबरी धाम और शबरी के प्रति यहां श्रद्धा-भावना सदियों से है।
आपने पहली बार शबरी धाम कब देखा?
सन 1949-50 में, तब यहां मन्दिर नहीं था। चमक-डोंगर पहाड़ी पर जो तीन शिलाए हैं, उन्हीं की पूजा यहां के लोग करते थे। उनकी मान्यता है कि इन्हीं शिलाओं पर बैठकर भगवान राम ने शबरी के बेर खाए थे। सन् 1950 में एक बार मैं रात को बारह बजे वहां गया तो मैंने पाया कि वहां एक दीपक जल रहा था, तब मैंने पहाड़ के नीचे के गांव में जाकर पता किया कि कौन यह दीपक जलाता है, कब से जल रहा है? तो गांव के लोगों ने बताया कि यहां दीया जलाने की प्रथा पुरानी है, कब से है, मालूम नहीं। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को यह प्रथा स्थानांतरित हुई। इसीलिए इस पहाड़ी का नाम “चमक-डोंगर” पड़ा यानी जो पहाड़ रात में चमकता है।
एक भावना देश में यह भी फैलाई गई कि शबरी कुंभ ईसाई मिशनरियों के विरुद्ध एक आयोजन है। इससे यहां डांग क्षेत्र में तनाव बढ़ने की आशंका थी।
अभी कल ही मुरारी बापू ने कहा कि जो वेटिकन से आए हैं, ऐसे ईसाइयों का मतान्तरण तो हम नहीं कर रहे हैं लेकिन जो जनजातीय समाज है, जो आस्था-विश्वास से हिन्दू ही है, वह यदि कहीं भूल-भटक गया है तो उसे घर वापस लाने में किसी को आपत्ति क्यों होनी चाहिए?
क्या अभी डांग में कोई तनाव है?
बिल्कुल नहीं। मैं तो यहां के ईसाइयों के घरों, चर्च में भी आता जाता हूं। वे तो शांत हैं, उनका यही कहना है कि हमें डांग में ही रहना है। किन्तु बाहर का मीडिया और मिशनरी लोग इधर-उधर की बातों को प्रचारित कर रहे हैं। यहां के लोगों में आपस में कोई दूरी नहीं है। क्या इस कुंभ में ईसाइयों को भी निमंत्रण दिया गया था?
हां, मैंने स्वयं दिया था। लेकिन कुछ बाहरी ईसाई नेताओं ने टीका-टिप्पणी शुरु कर दी। यहां के ईसाइयों की नाभि-नाल तो बाहर वालों से ही जुड़ी है सो बाहरी निर्देश के कारण यहां के ईसाई नहीं आए।
यह भी कहा जा रहा है कि शबरी कुंभ जनजातियों के हिन्दूकरण का प्रयास है?
बहुत सारे मीडिया वालों ने भी मुझसे यह पूछा है। पहली बात तो यह है कि यहां के जनजातीय प्रकृति पूजक हैं। डोंगर देव, नागदेव, सूर्य, चन्द्र, नदियों के प्रति वह आस्था रखते हैं। क्या हिन्दू रीति रिवाज इससे भिन्न हैं? पहाड़ों-नदियों-वृक्षों, नाग, सूर्य को संसार में कौन से धर्म के लोग पूजते हैं? दूसरी बात, मुझे तो डांग में रहते 57 साल हो गए, मैं देखता आ रहा हूं कि यहां के हर गांव में हनुमान जी विराजमान हैं, भगवान राम की पूजा होती है। सहस्रों वर्षों से यह रीति-रिवाज इन जंगलों में चल रहा है। कुछ लोग कहते हैं कि राम-हनुमान जनजातियों के देवता नहीं हैं, इन्हें जनजातियों पर थोपा जा रहा है। यह सुनकर मेरी आत्मा को कष्ट होता है। ऐसा कहने वालों की, मिशनरियों की नीयत अब लोग समझने लगे हैं।
यहां तो मतांतरण को लेकर पहले भी कुछ झगड़े हुए हैं।
1997 की बात है। ब्यारा तालुका के पीठवाड़ा ग्राम में एक ईसाई सम्मेलन हुआ था। वहीं पर घोषणा हुई कि आगे के कुछ वर्षों में पूरे डांग को ईसाई बना लेंगे। तब हम चौंके थे और तभी यहां के कुछ संतों ने आह्वा में जनजातीय बन्धुओं की एक जागरण धर्म-सभा आयोजित की थी। धर्मसभा में हिस्सा लेने वालों पर तब ईसाई मिशनरियों द्वारा प्रेरित कुछ लोगों ने हमला बोला। जारसोड़ गांव में मतांतरित ईसाइयों ने हनुमान जी की प्रतिमा उखाड़कर पूर्णा नदी में फेंक दी। एक-दो जगह प्रतिमाओं पर मल-मूत्र डाला गया। इसकी प्रतिक्रिया भी हुई और कुछ ग्रामों में जहां मतान्तरित ईसाई क्रिस्ती ढंग से उपासना आदि करते थे, ऐसी झोपड़ियों में कुछ लोगों ने आग लगा दी, थोड़ी बहुत तोड़-फोड़ हुई। इसी पर समूचे देश और विश्वभर में हंगामा मचा दिया गया। दुर्भाग्यवश मीडिया ने भी वही प्रचारित किया, जो मिशनरी चाहते थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जब यहां आए थे, मैंने उन्हें असलियत से अवगत कराया था।
यहां के सामाजिक वातावरण पर भविष्य में कुंभ के असर को आप किस रूप में देखते हैं?
कुंभ के कारण लोग अपने मूल को, अपनी जड़ों को गहराई से जानने लगे हैं। सारे भारत से जनजातीय समाज के लोग यहां आए हैं, साधु-संत, शंकराचार्य आए हैं। डांग क्षेत्र के पांचों जनजातीय राजाओं को आपने मंच पर देखा ही। जो लोग यहां से अपने ग्रामों को लौटेंगे, यहीं की दिव्यता का, शबरी माई के सन्देश का लोगों में वर्णन करेंगे तो उसका सकारात्मक प्रभाव होगा ही। आज डांग की आबादी 1 लाख 92 हजार है, इसमें लगभग 25-30 प्रतिशत मतांतरित ईसाई होंगे। इन मतांतरित ईसाइयों के मन पर भी इस कार्यक्रम का असर होगा, क्योंकि यह उनकी आत्मा व जमीन से जुड़ा कार्यक्रम है।
आगे इस प्रतिशत की स्थिति क्या रहने वाली है?
कुछ नहीं कहा जा सकता। यहां जो हो रहा है, पल-पल की खबर वेटिकन को पहुंच रही है, ऐसा मैं मानता हूं। वे अपने बने-बनाए साम्राज्य को इतनी आसानी से नहीं छोड़ने वाले हैं। मुझे तो लगता है कि वेटिकन के इशारे पर आगे आने वाले समय में इस पूरे दंडकारण्य क्षेत्र में मतांतरण हेतु भारी संसाधन झोंक दिए जाएंगे। जो हिन्दुत्वनिष्ठ संगठन और लोग यहां कार्य कर रहे हैं, उनके समक्ष मिशनरी लोग छल-प्रपंच कर भीषण बाधाएं उपस्थित कर देंगे।
देशभर में जो सर्वोदयी एवं गांधीवादी लोग हैं, जो किसी कारण से रा.स्व. संघ और उसके समविचारी संगठनों से दूरी भी रखते हैं, ऐसे लोगों को आपका क्या सन्देश है?
गांधी जी का सन्देश ही है कि हिन्दू समाज का मतांतरण नहीं होना चाहिए। बापू को भी मतांतरित करने का प्रयास लंदन में हुआ था। आज जो भी गांधीवादी कार्यकर्ता हैं, यदि वे रा.स्व.संघ व उससे सम्बंधित संगठनों पर कट्टरता फैलाने का आरोप लगाते हैं तो उन्हें एक बार डांग का प्रवास अवश्य करना चाहिए। सचाई सभी को पता लगनी चाहिए कि कौन कट्टरता फैला रहा है।
कहा गया कि कुंभ के कारण पर्यावरण को बड़ा नुकसान पहुंचा है।
(हंसते हुए) मुझे तो कहीं ऐसा नहीं दिख रहा है। डांग में कोई पेड़ तो दूर किसी पौधे को भी नुकसान नहीं पहुंचा है, उल्टे यहां का विकास हुआ है। हजारों नए पेड़ भी लगाए गए हैं। पचासों नवनिर्मित “चेक-डेम” के कारण इस क्षेत्र में पानी की जो समस्या थी, दूर हुई है।
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