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चर्चा-सत्र

by
May 2, 2006, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 02 May 2006 00:00:00

राजेश गोगनावरिष्ठ अधिवक्ता, सर्वोच्च न्यायालयमूर्ति की पीड़ाराजेश गोगनाघटना थोड़ी पुरानी जरूर है पर दुनिया के सभ्य कहे जाने वाले समाजों को सोचने पर विवश करती है। मणियम मूर्ति मलेशिया की सेना में थे और विश्व प्रसिद्ध पर्वत माउंट एवरेस्ट पर चढ़ने वाले मलेशिया के पर्वतारोही दल के सदस्य भी थे। 25 नवम्बर, 1995 को मूर्ति का विवाह कलियाम्माल से हुआ था। उनका एक बेटा भी है जिसकी उम्र अब 9 वर्ष है। सन् 1998 में एक दुर्घटना के दौरान मूर्ति को पक्षाघात हो गया तथा एवरेस्ट पर चढ़ने वाले मूर्ति पहिएदार कुर्सी तक सीमित हो गए। 11 नवम्बर, 2005 को मूर्ति अपनी पहिएदार कुर्सी से गिर गए और गहरी बेहोशी में चले गए। 20 दिसम्बर, 2005 को मूर्ति की मृत्यु हो गई। सन् 1998 से लेकर उनकी मृत्यु तक कलियाम्माल ने ही उनकी देखभाल की।21 दिसम्बर, 2005 को मलेशियाई सेना के मेजर ने मूर्ति की पत्नी को बताया कि मूर्ति ने इस्लाम मत स्वीकार कर लिया था अत: उनकी मृत देह को इस्लामी रीति-रिवाजों के अनुसार दफनाया जाएगा। कुछ देर बाद ही “इस्लामिक अफेयर्स रिलीजियस काउंसिल” के लोग मूर्ति का पार्थिव शरीर लेने आ गए। चूंकि मूर्ति की पत्नी को इस कार्रवाई पर गंभीर आपत्ति थी अत: अस्पताल के निदेशक डा. आजमी बिन शेख ने मूर्ति का शव इस्लामिक परिषद को देने से मना कर दिया। 21 दिसम्बर, 2005 को ही मूर्ति की पत्नी ने इस संबंध में एक मुकदमा क्वालालम्पुर उच्च न्यायालय में दायर किया और कहा की मूर्ति का शरीर उसे सौंप दिया जाए ताकि उनका अंतिम संस्कार हिन्दू रीति-रिवाजों से किया जा सके। श्रीमती मूर्ति ने उच्च न्यायालय को बताया कि उनके पति ने अपने परिवार, मित्रों तथा संबंधियों को कभी नहीं बताया था कि वह इस्लाम स्वीकार कर चुके हैं। वह हमेशा हिन्दू पद्धति से जीवन यापन करते थे, मंदिर जाते थे और अपने माथे पर तिलक भी लगाते थे। जनवरी, 2005 में मूर्ति ने स्थानीय थाईपूसम त्योहार पर अपना मुंडन भी करवाया था और अपनी पहिएदार कुर्सी से मंदिर भी गए थे। बेहोशी की स्थिति में जाने से 11 दिन पहले, 31 अक्तूबर, 2005 को टी.वी.-3 को दिए एक साक्षात्कार में मूर्ति ने पूरी दुनिया को बताया कि उन्होंने दिवाली का त्योहार किस तरह मनाया था। श्रीमती मूर्ति द्वारा दायर की गई याचिका को अत्यावश्यक मानते हुए क्वालालम्पुर उच्च न्यायालय ने मामले की सुनवाई 29 दिसम्बर, 2005 को निर्धारित की।मामला न्यायालय में लंबित था लेकिन मलेशिया का क्रूर इस्लामिक चरित्र अपना असली रूप दुनिया को दिखाना चाहता था। क्वालालम्पुर की शरीयत अदालत ने मुकदमा संख्या 14100-091-2005 पर 22-12-2005 को फैसला देते हुए घोषित किया कि मूर्ति ने इस्लाम स्वीकार कर लिया था अत: उसका अंतिम संस्कार इस्लामी रीति-रिवाजों के अनुसार किया जाए। शरीयत अदालत ने यह भी निर्देश दिया कि मूर्ति का मृत शरीर इस्लामिक परिषद के हवाले कर दिया जाए और पुलिस इस पूरी प्रक्रिया में उसकी मदद करे।इस पूरी प्रक्रिया में श्रीमती मूर्ति को पूर्व में कोई सूचना नहीं दी गई और न ही उन्हें अपना पक्ष रखने का कोई मौका दिया गया। शरीयत अदालत की सारी प्रक्रिया संदेहास्पद थी। मलेशिया की राष्ट्रीय एजेंसी के अनुसार मूर्ति के पार्थिव शरीर को हासिल करने का मुकदमा 22-12-2005 की दोपहर 2 बजे शरीयत अदालत में दाखिल किया गया। 3 बजे तक मुकदमे की सुनवाई पूरी हो गई और शरीयत अदालत ने फैसला दे दिया कि मलेशिया की सेना द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार मूर्ति ने 8 मार्च, 2005 को इस्लाम स्वीकार कर लिया था। लेकिन इस विषय पर कोई भी दस्तावेज किसी भी पक्ष को नहीं दिखाए गए।शरीयत अदालत के इस फैसले की जानकारी अस्पताल के निदेशक को दी गई। लेकिन अस्पताल ने मूर्ति का शव सौंपने से मना कर दिया क्योंकि मामला उच्च-न्यायालय में लंबित था। दिनांक 27 दिसम्बर, 2005 की सुबह 11.30 बजे मामले की सुनवाई उच्च न्यायालय में प्रारंभ हुई। श्रीमती मूर्ति के वकील ने उच्च न्यायालय से कहा कि इस्लामिक परिषद को यह सिद्ध करना चाहिए कि मूर्ति ने इस्लाम स्वीकार कर लिया था। मलेशिया सरकार तथा इस्लामिक परिषद के वकील ने उच्च न्यायालय में दलील दी कि मलेशिया के कानून के अनुसार उच्च न्यायालय शरई अदालत के फैसले पर पुनर्विचार नहीं कर सकता। मलेशिया सरकार के वकील ने न्यायालय में स्वीकार किया कि “मलेशिया के कानून के अनुसार श्रीमती मूर्ति के पास अपने पति की मृत देह प्राप्त करने का कोई वैधानिक उपाय उपलब्ध नहीं है।” दिनांक 28 दिसम्बर, 2005 को 11 बजे श्रीमती मूर्ति की याचिका रद्द करते हुए उच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि उसके पास शरई अदालत के फैसले को निरस्त करने का कोई अधिकार नहीं है।सभी इस्लामिक देशों की तरह मलेशिया में भी हिन्दू अहसहाय हैं। यह स्थिति इस्लाम से जुड़े सभी व्यक्तियों तथा संस्थाओं के लिए विचारणीय है। निश्चित तौर पर यह स्थिति अमानवीय है तथा मानवीय अधिकारों के हनन जैसी है। श्रीमती मूर्ति के वकीलों ने न्यायालय से निवेदन किया कि वह उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ उच्चतम न्यायालय में अपील करना चाहते हैं अत: कोई फैसला आने तक मूर्ति के शव को इस्लामिक परिषद को नहीं सौंपा जाए। इस पर उच्च न्यायालय ने स्थगन आदेश देने से मना कर दिया। दिनांक 28 दिसम्बर, 2005 की सुबह 11 बजे उच्चतम न्यायालय की कार्यवाही समाप्त हुई और उसी दिन 3 बजे मूर्ति के शव को इस्लामी रीति से दफना दिया गया। इस्लामी मलेशिया ने अपना क्रूर एवं अमानवीय चेहरा पूरी दुनिया के सामने उघाड़ कर रख दिया। श्रीमती मूर्ति की व्यथा मूर्ति के शव को दफन किए जाने पर ही समाप्त नहीं हो गई है। चूंकि शरीयत अदालत ने निर्णय दे दिया था कि मूर्ति ने इस्लाम कबूल कर लिया था इसलिए अब मूर्ति की एक तिहाई सम्पत्ति उसके परिवार को जबकि शेष सम्पत्ति इस्लामी कानून के आधार पर वक्फ के पास जाएगी। मलेशिया कानून के अनुसार मूर्ति की कर्मचारी निधि तथा बीमा का पैसा भी वक्फ के पास चला जाएगा। इस्लामी कानून के अनुसार मूर्ति का बेटा भी स्वत: मुस्लिम हो गया है। मलेशिया के कानून के अनुसार अब श्रीमती मूर्ति अपने बच्चे को भी अपने पास रखने की अधिकारी नहीं हैं। मलेशिया का दोहरा कानूनी तंत्र वहां रहने वाले हिन्दुओं तथा अन्य पांथिक समुदायों के लिए अति कष्टदायक स्थिति उत्पन्न कर रहा है।7

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