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कर्नाटक में जो हुआटी.वी.आर. शेनायपिछले एक दशक से हमें लग रहा था कि भारतीय जनता पार्टी के लिए कर्नाटक “दक्षिण का द्वार” साबित हो सकता है। तमिलनाडु में द्रमुक और अन्नाद्रमुक से या फिर आंध्र में तेलुगु देशम से गठजोड़ के बावजूद, कर्नाटक में ही आपको जमीनी स्तर पर भाजपा की उपस्थिति का सबूत मिल सकता है। लेकिन बंगलौर की चाभी थामने वाले द्वारपाल कौन होंगे, इसका अंदाजा किसने लगाया होगा?जनता दल (सेकुलर) को बांटने और भाजपा से गठजोड़ करने का दारोमदार- अथवा श्रेय- एच.डी. कुमारस्वामी को जाता है। लेकिन क्या वास्तव में उन्होंने यह सब अपने पिता की, अगर सहमति नहीं तो, जानकारी के बिना किया? यह सवाल तो है ही, लेकिन मैं यहां बताना चाहूंगा कि बंगलौर में जो नाटक हुआ उसकी चकाचौंध के कुछ हिस्सों पर कई अन्यों का भी हक बनता है। आज मैं दो खास जनता दल (सेकुलर) के विधायकों इकबाल अंसारी और जमीर अहमद खान का जिक्र करना चाहता हूं।गंगावती से विधायक इकबाल अंसारी धरम सिंह सरकार में चिकित्सा शिक्षा मंत्री थे। बंगलौर में चल रही अफवाहों के अनुसार, वह भाजपा के साथ गठजोड़ के लिए कुमारस्वामी पर सबसे अधिक दबाव बनाने वालों में से एक थे।जमीर अहमद खान चामराजपेट का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो कर्नाटक के कुछ विशिष्ट विधानसभा क्षेत्रों में से एक है। 2004 के विधानसभा चुनावों में यहां से खुद तब के मुख्यमंत्री एस.एम.कृष्णा चुनाव जीते थे। कांग्रेस से गठजोड़ के लिए जनता दल (सेकुलर) के अध्यक्ष एच.डी. देवेगौड़ा की प्रमुख मांगों में से एक थी कृष्णा को राज्य से बाहर किया जाना। सोनिया गांधी ने उस मांग को मानते हुए कृष्णा को मुम्बई राजभवन में भेज दिया। 2 जून, 2005 को वहां उपचुनाव हुए और जनता दल (सेकुलर) के लिए जमीर अहमद खान ने वह सीट कब्जा ली। (मैंने यहां “कब्जा” ली इसलिए लिखा है क्योंकि कई माह से चल रहे गठजोड़ के बावजूद जनता दल (सेकुलर) और कांग्रेस ने एक-दूसरे के खिलाफ उम्मीदवार खड़े किए थे।) बंगलौर के नेशनल ट्रांसपोर्ट के स्वामी जमीर अहमद भाजपा के साथ मेल करने के पैरोकार रहे हैं।तीसरा चुनाव क्षेत्र, जिस पर हमें ध्यान देना चाहिए, है रामनगरम, जिस पर 2004 में खुद कुमारस्वामी जीते थे। गत 22 जनवरी को रामनगरम का एक प्रतिनिधिमंडल देवेगौड़ा से मिलने गया था, वह उनसे अपने विधायक को कर्नाटक का अगला मुख्यमंत्री बनाने का आशीर्वाद चाहता था। दिलचस्प तथ्य यह है कि रामनगरम में मुस्लिम वोट बड़ी संख्या में हैं।”पंथनिरपेक्षता” ऐसा शब्द है जिसे भारत में कई तरह से तोड़ा-मरोड़ा जाता रहा है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के मुस्लिम दर्जे पर बहस करना “सेकुलर” बात है। (अदालत इससे सहमत नहीं है।) आंध्र प्रदेश में मुस्लिमों के लिए नौकरी में आरक्षण “सेकुलर” बात है। (अदालत इससे सहमत नहीं है।) लेकिन तब भी इस तरह की मूर्खतापूर्ण चुहलबाजियां इसलिए की जाती हैं क्योंकि सालों साल इससे लाभ होता आया है। क्या यह आज भी सच है?बिहार चुनाव परिणामों का विश्लेषण करें तो पाएंगे कि मुस्लिम मतदाताओं ने भाजपा को वोट दिया, पर यह इस कारण हो सकता है कि पार्टी नीतीश कुमार के साथ गठजोड़ किए हुए थी। लेकिन जब यही चलन गुजरात के स्थानीय निकाय चुनावों में दिखे तो आप क्या कहेंगे, खासकर तब जब मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी पर चुन-चुनकर निशाने साधे गए हों? और अब यही बात कर्नाटक में भी घटती दिख रही है।अगर भाजपा दिल्ली में सत्ता में होती तो शायद इसे समझना थोड़ा आसान होता; तब कांग्रेस कहती कि यह तो कुछ तात्कालिक स्वार्थ में डूबे लोगों का किया-धरा है। लेकिन पिछले आम चुनाव हुए अब लगभग 20 महीने गुजर चुके हैं और अब किसी के कांग्रेस के साथ गठजोड़ को तोड़कर भाजपा के साथ जुड़ने में कोई लाभ तक नहीं है। तब आखिर क्यों इकबाल अंसारी और जमीर अहमद खान जैसे प्रमुख मुस्लिम नेता “साम्प्रदायिक” भाजपा के साथ हाथ मिलाएंगे और वह भी पूरे मनोयोग के साथ अभियान चलाते हुए?कर्नाटक के घटनाक्रमों का दिल्ली में तुरंत कोई असर नहीं पड़ने वाला है। लेकिन वे संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सत्ता के अस्तित्व के पीछे जो केन्द्रीय सिद्धान्त है उसको चुनौती जरूर देते हैं। वह बेमेल गठबंधन वाम मोर्चे की उपज है, एक ऐसा सुविधाभोगी मेल जहां घटकों के बीच कोई साम्यता नहीं है। अमरीका के साथ परमाणु संधि से लेकर ईरान मुद्दे तक, सभी विषयों पर कम्युनिस्टों की आलोचनाओं को देखें और तब आपको पता चलेगा कि यह निश्चित तौर पर विदेश नीति तो नहीं ही है जो सरकार को सत्ता में बनाए है। खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश पर बौखलाते करात को सुनें, आप समझ जाएंगे कि आर्थिक नीति पर उनकी सोच को कितनी बड़ी खाई बांटे हुए है। उनको जोड़ने वाली एक ही बात है और वह है भाजपा को सत्ता से दूर रखना। अगर इसमें वे असफल रहते हैं- जैसा कि बिहार और कर्नाटक ने इंगित किया है- तो कांग्रेस और माकपा को क्या चीज जोड़े रखेगी?इन पंक्तियों को लिखते समय मुझे नहीं पता कि कर्नाटक का अगला मुख्यमंत्री कौन हो सकता है। लेकिन जब आप इन पंक्तियों को पढ़ रहे होंगे तब तक संभावना है कि दो वर्जनाएं ध्वस्त हो चुकी होंगी। पहली कि किसी दक्षिण भारतीय राज्य में भाजपा की सरकार कभी नहीं बन सकती है। दूसरी और इससे भी बड़ी है कि मुस्लिम हमेशा ही भाजपा से दूर रहेंगे। यह दूसरी वाली वर्जना शायद कांग्रेस को मंथन के लिए विवश करेगी।(27 जनवरी, 2006)17
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