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– डा. तारादत्त “निर्विरोध”
टूटा-सा कुछ अन्दर लगता,
मुझको अपना ही डर लगता।
आंखों का होना क्या माने,
जब अंधापन बाहर लगता।
जैसे काट दिया हो धड़ से,
अब तो ऐसा ही सर लगता।
पंछी का वह कटा हुआ पर
मुझे आदमी का पर लगता।
बेच रहा है जो सपनों को,
महानगर का “अफसर” लगता।
भीतर-बाहर सन्नाटा है,
घर जैसे मुर्दाघर लगता।
कैसे-कैसे खेल दिखाता,
मुझे समय भी जोकर लगता।
जो अपने में दफन हो गया,
मुझको कोई शायर लगता।
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