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जिहादी नेतृत्व की शर्तें
आल पार्टी हुर्रियत कान्फ्रेन्स के दोनों धड़ों सहित जम्मू-कश्मीर फ्रीडम मूवमेंट, जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट, मुत्तहिदा जिहाद काउंसिल आदि सभी जिहाद के पैरोकार संगठनों ने 24-25 मई, 2006 को श्रीनगर में हुई गोलमेज कान्फ्रेंस का इसलिए बहिष्कार किया कि वे इस बैठक को “गोलमेज कान्फ्रेंस” की संज्ञा नहीं दे सकते। मीरवाइज उमर फारुख (हुर्रियत-अंसारी ग्रुप) का मत है कि जिस बैठक में कश्मीर नेतृत्व, भारतीय और पाकिस्तानी तीनों पक्षों को शामिल न किया जाए वह गोलमेज कान्फ्रेंस नहीं हो सकती। इसी जिहादी नेतृत्व ने विगत 25 फरवरी को दिल्ली में आयोजित पहली गोलमेज कान्फ्रेंस का बहिष्कार भी इसी आधार पर किया था। दो दर्जन से अधिक अलगाववादी संगठनों के संयुक्त मंच हुर्रियत के 6 सदस्यों का एक प्रतिनिधिमंडल 3 मई को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मिलकर एजेन्डा निश्चित करने के लिए कह चुका था। इस पर प्रधानमंत्री ने ऐसा करने का आश्वासन भी दिया था। हुर्रियत के अध्यक्ष सैय्यद अली गिलानी ने इस संदर्भ में बी.बी.सी. उर्दू डॉट काम पर अपने विशेष लेख में कहा है- “सन 1947 ई. से 2006 ई. तक कुल 130 बार वार्ता आयोजित हुईं, लेकिन कोई समाधान सामने नहीं आया। वास्तविक समस्या जैसी थी, वैसी ही है। भारत एक तरफ शांति प्रक्रिया जारी रखने का दावा कर रहा है, लेकिन दूसरी तरफ कश्मीर को अटूट अंग घोषित कर सेना के लिए पक्के बंकर बनवा रहा है। लाखों कनाल जमीन पर सैनिक कब्जे के बाद भी अवन्तीपुरा में 7000 कनाल, भद्रवाह में 5000 कनाल, कृषि विश्वविद्यालय के साथ वाले हजारों कनाल क्षेत्र को सैनिक प्रभुत्व में दिया जा रहा है, अनेक क्षेत्रों को 90 वर्ष की लीज पर छीना जा रहा है इसलिए जब तक भारत जम्मू कश्मीर को विवादास्पद क्षेत्र नहीं स्वीकार कर लेता, सेना वहां से नहीं हटा लेता, आबादी क्षेत्रों को संवेदनशील करार दिये जाने का कानून वापस नहीं ले लेता, सेना के विशेषाधिकार स्थगित नहीं कर देता, तमाम नजरबंद लोगों को बिना शर्त रिहा नहीं कर देता, कश्मीर में अमन और जिहाद बन्द होने का सपना, सपना ही रहेगा। गिलानी ने यह भी कहा है कि 58 वर्षों में कश्मीर समस्या नासूर में परिवर्तित हो चुकी है जिसे 1 करोड़ 30 लाख लोगों का जनमत ही ठीक कर सकता है।
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