नेपाल की तपिश से अछूता नहीं रहेगा भारत
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नेपाल की तपिश से अछूता नहीं रहेगा भारत

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Apr 6, 2006, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 06 Apr 2006 00:00:00

लाल गलियारा बनने से पहले

कदम उठाना होगा

-वरुण गांधी

जो इतिहास को भूल जाते हैं वे इसे दोहराने पर मजबूर हो जाते हैं। सामरिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो भारत अपनी सीमाओं से बाहर न देखने का दोषी है, जो कि भूलवश इस सोच के कारण है कि विश्व की बाहरी घटनाओं का भारत पर कोई प्रभाव नहीं होगा। भारत की यह सोच कितनी गलत है। न केवल बाहरी घटनाओं ने भारत को सीधे प्रभावित किया है, बल्कि पिछले हजार वर्षों में इसे बहुत हानि भी पहुंचाई है तथा हाल के वर्षों में तिब्बत-चीन, पाकिस्तान, बंगलादेश, श्रीलंका, म्यांमार की घटनाओं ने भारतीय हितों को प्रभावित किया है। हमने इनमें एक मूकदर्शक बने रहने का मूल्य चुकाया है।

केवल बंगलादेश के मुद्दे पर ही भारत ने निर्णायक रूप से हस्तक्षेप किया जबकि श्रीलंका में एक स्पष्ट उद्देश्य का अभाव एक शर्मनाक स्थिति के उत्पन्न होने में परिणत हुआ। भारत में अंग्रेजों ने माओ जीदांग तथा चाऊ एन लाई के कम्युनिस्ट काडर के खतरे की अनदेखी की, वह भी तब जब वे अक्तूबर, 1934 में जीआंगी प्रांत में च्यांग काई शेक की सेना द्वारा पूर्णत: समाप्त किए जाने के कगार पर थे। जब इस समूह ने भारत की सीमा के निकट यूनान प्रांत में प्रवेश किया तो समय पर की गई कार्रवाई से वे समाप्त हो सकते थे। जब माओ की सेना ने तिब्बत तथा हुइ के गैर-चीनी क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया, यहां उनके द्वारा कई अवसरों पर छापे मारे गए थे। अंग्रेजों के पास, यह जानते हुए कि तिब्बत बौद्ध और हुइ मुस्लिम होने के कारण हान चीनियों से सांस्कृतिक रूप से काफी भिन्न थे, कम्युनिस्ट खतरे को समाप्त करने के पर्याप्त अवसर थे। वस्तुत: हुइ सुअर का मांस नहीं खाते, जो कि चीन में मांसाहार का प्रमुख भोजन है, वे कुत्ता, घोड़ा तथा चीनियों द्वारा स्वादिष्ट समझे जाने वाले अन्य पशुओं को भी खाने से परहेज करते हैं। अंग्रेज बने रहे और उन्होंने कम्युनिस्ट खतरे को बने रहने दिया, संभवत: इसलिए क्योंकि च्यांग काई शेक का सैन्य सलाहकार एक जर्मन हान्स वान सीकत था। 1977 में जब जमात-ए-इस्लामी ने गुलाम आजम को बंगलादेश में वापस आने की अनुमति प्रदान की और 1982 में जब बंगलादेश एक सेकुलर राष्ट्र से एक इस्लामी राष्ट्र बना तो भारत ने प्रभावी रूप से हस्तक्षेप नहीं किया। जब नवाज शरीफ ने जनरल परवेज मुशर्रफ को हटाया तो वह भारतीय वायु क्षेत्र में थे और व्यावहारिक तौर पर उन्होंने सैन्य विद्रोह का भारतीय वायु क्षेत्र के भीतर से समन्वय किया। यदि भारत के शासकों ने उस समय, इतिहास में बदलाव के प्रत्येक मोड़ पर, सामरिक तथा निर्णायक रूप से प्रतिक्रिया की होती तो हम जानते हैं कि परिणाम काफी भिन्न होते। एक बार फिर हम ऐसी ही घटनाओं की लंबी श्रृंखला का सामना कर रहे हैं। इस समय यह परिस्थिति नेपाल में है- जो 18 मई तक विश्व का एकमात्र हिन्दू राष्ट्र था। वहां जिस प्रकार से घटनाएं मोड़ ले रही हैं उस से यह लगता है कि वहां के वर्तमान शासक नेपाल को एक कम्युनिस्ट देश बनने देने के लिए तैयार हैं।

राजा ज्ञानेन्द्र की शक्तियों को कम करने के नाम पर नेपाली संसद ने मई 18, 2006 को यह घोषणा की कि शाही परिवार को कर अदा करने होंगे, शाही सलाहकार परिषद समाप्त कर दी जाएगी और घोषणा की कि नेपाल अब एक हिन्दू राष्ट्र न होकर एक सेकुलर देश बन जाएगा। यह मांग काफी हद तक कम्युनिस्टों के हिन्दू विरोधी रवैये के अनुरूप है। काठमांडू पोस्ट ने तो “नेपाली मैग्नाकार्टा का जन्म” शीर्षक से समाचार भी प्रकाशित किया। नेपाल की प्रगति तथा नेपाली राष्ट्र के सेकुलरीकरण की आवश्यकता के मध्य सम्बंध समझ में नहीं आता, विशेषकर तब जब हम अपने पड़ोस में राष्ट्र निर्माण के क्रियाकलापों और क्रांतियों के मध्य सह-सम्बंध देखते हैं। जब पाकिस्तान बनाया गया तो ईरान भी एक इस्लामी गणतंत्र बना। इसी प्रकार सेकुलर बंगलादेश के गठन के 10 वर्षों बाद वह भी एक इस्लामिक गणतंत्र बन गया। करजई के शासन के अंतर्गत अफगानिस्तान भी एक इस्लामी गणतंत्र है। ब्रिटिश राजतंत्र वास्तव में ईसाई प्रोटेस्टेंट मत का रक्षक है जबकि सऊदी अरब गणराज्य भी एक इस्लामी राष्ट्र है।

नेपाल नरेश न केवल राष्ट्र प्रमुख हैं बल्कि वह वास्तव में हिन्दू धर्म का एक अंग हैं। नेपाल के अनेक धर्मानुयायी उन्हें विष्णु का अवतार मानते हैं और इस प्रकार उनका राज्य भगवान विष्णु का राज्य माना जाता है। इसलिए, नेपाल के सेकुलरीकरण की मांग यद्यपि एक हिन्दू-विरोधी मांग नहीं है फिर भी यह नेपाल की मूल पहचान के विपरीत है और इसका उद्देश्य एक ही बार में नेपाली संस्कृति को बदल देना है। क्या यह एक अजीब बात नहीं है कि नेपाल के माओवादियों ने राजतंत्र को उखाड़ने का अपना अभियान 1996 में प्रारंभ किया, यानी ऐसे समय पर जब भारत में कम्युनिस्ट प्रभाव वाली तीसरे मोर्चे की सरकार सत्ता में थी? (13 दिन की वाजपेयी सरकार के अपदस्थ होने के बाद जब देवगौड़ा प्रधानमंत्री बने थे और तीसरे मोर्चे की इस सरकार को कम्युनिस्टों का समर्थन प्राप्त था।) और क्या यह भी विचित्र नहीं है कि नेपाल देश का सेकुलरीकरण 2006 में हुआ है, जब भारत में एक कम्युनिस्ट समर्थित सरकार सत्ता में है? 1996 से माओवादी संघर्ष में 10,000 लोग मारे जा चुके हैं।

नेपाल में इसके ज्ञात इतिहास में अधिकांशत: राजतंत्र ही रहा है। बहुदलीय राजनीति के साथ एक संक्षिप्त प्रयोग 1959 में समाप्त हो गया जब राजा महेन्द्र ने संसद को भंग कर सत्ता संभाल ली। 1991 में लोगों के विरोध के पश्चात प्रजातांत्रिक सुधार प्रारंभ किए गए थे, परंतु जल्दी-जल्दी सरकार के बदलने से उस देश में प्रजातंत्र सही रूप नहीं ले पाया। नेपाल को सबसे गंभीर खतरा माओवादियों से है और विडंबना है कि ये माओवादी गिरिजा प्रसाद कोइराला सरकार का समर्थन कर रहे हैं। साथ ही ये धुर वामपंथी आए दिन और अधिक हिस्सेदारी की मांग भी कर रहे हैं।

वह पाल वान हिंडनबर्ग जर्मनी के 86 वर्षीय राष्ट्रपति ही थे, जिन्होंने 1933 में हिटलर को जर्मनी का चांसलर नियुक्त किया था और उसने इतिहास का रूख बदल दिया। इसी प्रकार 80 वर्ष की उम्र के गिरिजा प्रसाद कोइराला का स्वास्थ्य बहुत अच्छा नहीं है और किसी मजबूत प्रजातांत्रिक ढांचे के मौजूद न होने, सेना तथा राजतंत्र के एकाएक कमजोर होने तथा अचानक की गई घोषणाओं ने नेपाल पर माओवादियों द्वारा कब्जा किए जाने के बीज बो दिए हैं। कल यदि प्रधानमंत्री को भगवान न करें, कुछ हो जाए तो यह स्पष्ट है कि सरकार पर नियंत्रण प्राप्त करने के लिए बहुदलीय सरकार में अव्यवस्था आ जाएगी और माओवादियों के लिए काठमांडू और फिर पूरे नेपाल पर नियंत्रण करने का मार्ग आसान हो जाएगा। राजा के अधिकार कम करने के शोरगुल में कोई यह नहीं पूछ रहा है कि माओवादियों ने अभी तक अपने हथियार क्यों नहीं डाले हैं।

किसी लोकतंत्र को कृत्रिम रूप से न बनाया जा सकता है और न बनाए रखा जा सकता है। दुनिया में ऐसे कई उदाहरण हमारे सामने हैं जैसे कि क्रांति के बाद के फ्रैंच जेकोबियन राज को “पूर्ण लोकतंत्र” ठीक ही कहा गया है, क्योंकि यह लोकतांत्रिक तो था किन्तु पूर्णत: अनुदार। फ्रांस अंतत: आधुनिक उदार लोकतंत्र बना परंतु केवल द्वितीय विश्व युद्ध के विनाश के पश्चात और राजतंत्र की सत्ता को उखाड़ फेंकने के 150 से भी अधिक वर्षों के बाद। नेपाल कब तक लोकतंत्र बना रह पाएगा? आर्थिक समृद्धि के अभाव में यह उत्सव शीघ्र ही समाप्त हो जाएगा और बहुदलीय लोकतंत्र के साथ नेपाल का प्रयोग भी। इसलिए भारत को नेपाली सेना को मजबूत करने के लिए अपनी सेनाएं भेजनी चाहिए। इस संक्रमण काल में काठमांडू की सुरक्षा की समीक्षा की जानी चाहिए और माओवादी तत्वों को अपने हथियार डाल कर हिंसा का मार्ग छोड़ देना चाहिए। माओवादी नेता प्रचंड को अज्ञातवास से बाहर आकर प्रजातांत्रिक प्रक्रिया में भाग लेना चाहिए। भारत-नेपाल सीमा को सील कर दिया जाना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि भारत से गए उत्साही काडर तथा तस्करी करके ले जाए गए हथियारों से माओवादी शक्ति में वृद्धि न हो।

1959 में समाजविज्ञानी सिमोन मार्टिन लिपसेट ने एक साधारण किन्तु शक्तिशाली तथ्य विकसित किया कि, “जितना अधिक समर्थ राष्ट्र होगा, लोकतंत्र को बनाए रख सकने की उसकी संभावनाएं उतनी ही अधिक होंगी। राजनैतिक वैज्ञानिक एडम परजेवोरसकी तथा फरनेन्डो लिमोन्गी द्वारा नागरिक की प्रति व्यक्ति आय तथा लोकतंत्र के मध्य इस गहरे सम्बंध का विस्तृत सांख्यकीय अध्ययन किया गया था। उन्होंने पाया कि यदि प्रति व्यक्ति आय 1500 डालर से कम है तो लोकतंत्र लगभग 8 वर्ष चल पाता है। यदि यह प्रति व्यक्ति 1500 डालर से अधिक परन्तु 3000 डालर से कम है तो यह समय बढ़कर 18 वर्ष हो जाता है। तथापि, यदि हम प्रति व्यक्ति 6000 डालर है तो लोकतंत्र में बने रहने की शक्ति आ जाती है। संक्षेप में, अमीर हो जाने पर लोकतंत्र कुल मिलाकर 736 वर्षों तक चले हैं। उनमें से एक भी समाप्त नहीं हुआ है। इसके विपरीत, ऐसे 69 लोकतांत्रिक देशों, जो गरीब अथवा प्रति व्यक्ति आय के अनुमान से नीचे थे, में से 39 असफल हुए हैं; जिनकी असफलता दर 56 प्रतिशत है। अध्ययन यह भी दर्शाता है कि किसी देश को लोकतंत्र में बदलने का प्रयास तब ही करना चाहिए जब वह 3000 डालर से अधिक की प्रति व्यक्ति आय प्राप्त कर ले। विश्व में इस नियम का केवल एक ही अपवाद है और वह अपवाद भारत ही है! नेपाल, जिसकी प्रति व्यक्ति आय 1500 डालर है, यदि माओवाद के खतरे की अनदेखी कर देगा तो लोकतंत्र को अधिक समय तक के लिए बनाए नहीं रख पाएगा।

भारत को इस बात की चिंता होनी चाहिए कि यदि नेपाल पर माओवादी कब्जा कर लें और हिमालय के दोनों ओर लाल झंडा लहराने लगे तो वह क्या करेगा? भारत नेपाल में कार्य कर रहे हजारों नेपाली नागरिकों से कैसे निपटेगा? भारतीय सेना में नेपाली गोरखाओं के मन पर नेपाल में माओवादियों की मौजूदगी का क्या प्रभाव पड़ेगा? चीन एक लाल नेपाल का उपयोग अपने लाभ के लिए किस प्रकार करेगा? भारतीय माओवादियों तथा नक्सलियों के विरुद्ध भारत के युद्ध पर इसके क्या प्रभाव होंगे, विशेषकर तब जब माओवादियों के कब्जे से प्रेरित होकर नक्सली भारत में अपनी गतिविधियां बढ़ा देंगे? अत: तुरंत कोई कदम उठाना जरूरी है। माओवादियों ने मांग की है कि राजा की रक्षा करने वाले चुनिंदा शाही सैन्य प्रहरियों को हटाया जाए और सेना का नाम शाही नेपाली सेना से बदलकर नेपाली सेना कर दिया जाए। इसके पीछे माओवादियों की क्या मंशा है? भारत को नेपाल में राजतंत्र के बने रहने, राजा की रक्षा करने के लिए कदम उठाने, काठमांडू की रक्षा की चिंता करने तथा नेपाली लोकतंत्र के लिए एक सुनियोजित तरीका अपनाने की चिंता करने तथा राजा को कमजोर करने की नहीं बल्कि नेपाल के लोकतांत्रिक संस्थानों को मजबूत करने की कोशिश करनी चाहिए, और भारतीय सेना की निष्पक्ष मौजूदगी में माओवादियों को हथियार-रहित करना चाहिए।द

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