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मंथन

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Mar 9, 2006, 12:00 am IST
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दिंनाक: 09 Mar 2006 00:00:00

ब्रिटिश कूटनीति की विजय है आरक्षण सिद्धांत-8गांधी जी गोलमेज सम्मेलन मेंन जाते तो…देवेन्द्र स्वरूपब्रिटिश प्रधानमंत्री रैम्जे मैक्डानल्ड द्वारा 17 अगस्त, 1932 को घोषित “साम्प्रदायिक निर्णय” के पीछे भारतीय राष्ट्रवाद के विरुद्ध जिस “दुष्ट षडंत्र” का गांधी जी ने उल्लेख किया उसकी कुछ झलक तत्कालीन वायसराय वेलिंग्डन एवं बम्बई प्रान्त के गवर्नर फ्रेडरिक साईक्स के गोपनीय पत्राचार में मिलती है। वायसराय ने 10 फरवरी, 1932 को साईक्स को लिखा, “हमारा निश्चित लक्ष्य लोगों को कांग्रेस आंदोलन से अलग करना और संवैधानिक सुधारों की ओर प्रवृत्त करना है। मुसलमानों को ठीक पटरी पर बनाए रखने के महत्व के प्रति हम पूरी तरह जागरूक हैं। गवर्नर साईक्स ने 19 अप्रैल, 1932 को वायसराय को लिखा कि “कांग्रेस के पूर्ण वर्चस्व के प्रति लोगों की आस्था को उखाड़ने में मदद करके ही हम अन्य दलों के इस प्रकार संगठित होने की आशा कर सकते हैं कि वे भविष्य में (कांग्रेस के विरुद्ध) एक सशक्त विपक्ष की भूमिका निभा सकें।”7 जून, 1932 को साईक्स ने अपनी रणनीति का खुलासा करते हुए वायसराय को लिखा, “मैं समझता हूं कि “दलित वर्गों” को राजनीतिक उद्देश्यों के लिए हिन्दुओं से पृथक समुदाय के रूप में गिना जाना चाहिए। और उनके प्रतिनिधित्व को हिन्दू वोट-संख्या में से कटौती के रूप में देखा जाना चाहिए।”साईक्स आगे लिखते हैं, “मैं पुन: दोहराना चाहता हूं कि अब कांग्रेस को मनाने का कोई प्रयास नहीं होना चाहिए। हमारी ओर से ऐसा कोई भी प्रयास मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यकों को हमसे दूर कर देगा।”भारतीय राष्ट्रीयता की आधारभूमि होने के कारण हिन्दू समाज को भीतर से तोड़ने की इस रणनीति में अंग्रेजों और मुसलमानों की मिलीभगत थी। 1906 में ही लार्ड मिन्टो से मुस्लिम प्रतिनिधिमण्डल ने अपने लिखित प्रतिवेदन में अनुरोध किया था, कि यदि हिन्दुओं की जनसंख्या में से निचली जातियों, प्रकृति पूजक वनवासियों और छोटे मजहबों के लोगों को निकाल दिया जाए, क्योंकि वे हिन्दू नहीं हैं, तो हमारा अनुपात चौथाई हो जाता है। आगे 1923 में कांग्रेस के काकीनाड़ा अधिवेशन में अपने अध्यक्षीय भाषण में मुहम्मद अली ने सुझाव दिया था कि “दलित वर्गों” का सवर्णों और मुसलमानों के बीच बराबर का बंटवारा कर दिया जाए। जैसा पहले बताया जा चुका है ब्रिटिश कूटनीति इस दिशा में उन्नीसवीं शताब्दी से ही सक्रिय थी, किन्तु गांधी जी के नेतृत्व में 1920 और 1930 के सत्याग्रहों में भारतीय राष्ट्रवाद का विराट रूप प्रगट होने पर घबराये हुए ब्रिटिश शासकों को हिन्दू समाज को तोड़ने के लिए अविलम्ब निर्णायक कदम उठाना आवश्यक हो गया। साईमन कमीशन, गांधी-ईर्विन समझौता, गोलमेज सम्मेलन और ब्रिटिश प्रधानमंत्री का साम्प्रदायिक निर्णय आदि पगों का एकमात्र लक्ष्य तथाकथित “दलित वर्गों” को हिन्दू समाज से अलग करना था।सच्चा प्रतिनिधिगांधी जी ने गोलमेज सम्मेलन में ही कह दिया था कि “अस्पृश्यों को पृथक निर्वाचन का प्रश्न ब्रिटिश सरकार का नया शिगूफा है। “अस्पृश्यों” को पृथक मताधिकार का अर्थ उन्हें सदा सर्वदा के लिए गुलामी के गढ्ढे में धकेलना होगा। सांप्रदायिक निर्णय की घोषणा के बाद जेल में बन्द गांधी जी ने जेल अक्षीक्षक ले. कर्नल ई.ई. डोयले को 26 अगस्त को स्पष्ट शब्दों में बताया कि, “बेचारे” दलित वर्गों को यह समझ नहीं है कि पृथक मताधिकार का अर्थ क्या होता है। न वे यह जानते हैं कि उनके नाम पर क्या किया जा रहा है। मैं पृथक मताधिकार के विरुद्ध जनजागरण का संकल्प लेकर भारत लौटा था, किन्तु मुझे तुरन्त ही जेल में ठूंस दिया गया।आगे उन्होंने कहा, “साम्प्रदायिक निर्णय में दलित वर्गों के पृथक निर्वाचन का अधिकार दिया गया था जबकि वे इसे कभी नहीं चाहते थे। महारों की छोटी सी संख्या ने डा. अम्बेडकर के नेतृत्व में पृथक मताधिकार की मांग उठायी, किन्तु उन्हें समूचे दलित वर्गों की ओर से बोलने का कोई अधिकार नहीं है। क्योंकि संयुक्त प्रान्त, बंगाल और अन्य प्रान्तों के दलित वर्गों ने निश्चित रूप से संयुक्त निर्वाचन की मांग की है।”गांधी जी ने गोलमेज सम्मेलन में चुनौती दी थी कि भारत में दलित वर्गों का सच्चा प्रतिनिधि मैं हूं या डा. अम्बेडकर, इसकी परीक्षा करनी हो तो हम दोनों को उत्तर भारत के किसी भी गांव में भेज दीजिए, तब सामने आ जायेगा कि वहां के अस्पृश्य लोग मुझे पहचानते हैं या डा. अम्बेडकर को। उस समय के दलित यथार्थ का जो चित्रण गांधी जी ने किया, हूबहु वही चित्रण विभिन्न प्रान्तों के ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा केन्द्र को भेजी गई गुप्त रपटों में मिलता है। “साम्प्रदायिक निर्णय” पर दलित वर्गों की प्रतिक्रिया के बारे में वायसराय की जिज्ञासा के उत्तर में सेन्ट्रल प्राविन्सेज के गवर्नर ए.ई. नेलसन ने 30 अगस्त, 1932 को रपट दी कि “यहां के दलित वर्ग अधिकांशत: पिछड़े और निरक्षर हैं। वे संयुक्त बनाम पृथक मताधिकार के प्रश्न पर कोई भी मत देने में सक्षम नहीं हैं। न ही वे समझते हैं कि हिन्दू समाज को तोड़ने का अर्थ क्या होता है। दलित वर्गों के नाम पर यहां केवल आधा दर्जन नेताओं के मत को ही बताया जाता है। ये या तो अम्बेडकर या राजा के अनुयायी हैं। उनका कोई सुनिश्चित मत नहीं है क्योंकि वे कई बार अम्बेडकर या राजा के पक्ष में पाला बदल चुके हैं। अत: साम्प्रदायिक निर्णय पर दलित वर्गों की वास्तविक भावनाओं को जानना लगभग असंभव है। विधान परिषद् में हाल की बहस में दलित वर्गों के एक प्रतिनिधि ने निर्णय के पक्ष में बोला तो दूसरे ने विरोध में।”दलित यथार्थमद्रास और उड़ीसा के गवर्नर ने 31 अगस्त को रपट दी “दलित वर्गों के बहुमत को पता तक नहीं है कि उन्हें कोई मताधिकार दिया जा रहा है। उनमें “वर्ग चेतना” का पूर्ण अभाव है। जहां तक दलित वर्गों का सवाल है उन्होंने पृथक मताधिकार की मांग कभी नहीं उठायी।”मद्रास सरकार की 16 सितम्बर, 1932 की रपट कहती है “इस समय यह कहना कठिन है कि “दलित वर्गों” का आम आदमी इस मामले में क्या सोचता है। संभवत: अधिकांश ने कभी इसके बारे में सुना भी नहीं है। केवल मुट्ठी भर लोग ही इस बारे में जागरूक हैं।”23 सितम्बर, 1932 को अगली रपट में म्रदास सरकार के मुख्य सचिव ने लिखा कि, “यह जानना जरूरी है कि इस प्रेसीडेन्सी में दलित वर्गों का भारी बहुमत अशिक्षित एवं असंगठित है। वे राजनीतिक घटनाचक्र से पूरी तरह अनभिज्ञ हैं। उन्हें जो बताया जाता है उसे भी पूरी तरह नहीं समझ पाते। अपनी छोटी सी जिन्दगी के बाहर की दुनिया के प्रति वे पूरी तरह उदासीन हैं।”यह था उस समय का दलित यथार्थ, जिन्हें जानने के कारण गांधी जी ने गोलमेज सम्मेलन में ही चेतावनी दी कि पृथक मताधिकार का अर्थ होगा प्रत्येक गांव में कमजोर दलित वर्ग एवं शक्तिशाली सवर्णों के बीच विभाजन। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। गांधी जी ने जेल अधीक्षक डोयले को भी 26 अगस्त को कहा, “इस सांप्रदायिक निर्णय में दलित वर्गों को शेष हिन्दू समाज से बीस वर्षों के लिए काटने की व्यवस्था की गई है। यदि एक बार इस आधार पर विधान सभाओं का गठन हो गया तो फिर इस दरार को पाटना असंभव हो जायेगा।”किन्तु ब्रिटिश सरकार इस विभाजन पर तुली हुई थी इसीलिए उन्होंने वरिष्ठ दलित नेता एम.सी. राजा की जगह डा. अम्बेडकर को गोलमेज सम्मेलन का निमन्त्रण दिया। एम.सी. राजा पहले दलित नेता थे, जिन्हें ब्रिटिश सरकार ने 1922 में मद्रास विधानसभा और 1927 में केन्द्रीय विधानसभा में दलित वर्गों के प्रतिनिधि के नाते मनोनीत किया था। किन्तु गोलमेज सम्मेलन में उन्होंने अम्बेडकर को बुलाया क्योंकि वे बौद्धिक क्षमता और अंग्रेजी भाषा में भाषण व लेखन की दृष्टि से एम.सी. राजा की तुलना में कहीं आगे थे। गोलमेज सम्मेलन के मंच से ब्रिटिश जनता और पश्चिमी देशों को वे अपनी भाषण कला से अधिक प्रभावित कर सकते थे। यह अभी तक रहस्य ही है कि जिन डा. अम्बेडकर ने 1928 में साईमन कमीशन को आरक्षण के साथ संयुक्त निर्वाचन का लिखित प्रतिवेदन दिया था, उन्हीं अम्बेडकर ने प्रथम गोलमेज सम्मेलन में पहुंच कर न केवल पृथक निवार्चन बल्कि हिन्दू समाज से पूर्ण सम्बंध विच्छेद की मांग क्यों उठायी। 1 जनवरी, 1931 को प्रथम गोलमेज सम्मेलन में भाषण करते हुए डा. अम्बेडकर ने कहा, “दलित वर्गों के हम 4 करोड़ तीस लाख लोग अपने और हिन्दुओं के बीच पूर्ण बंटवारा चाहते हैं। यहहमारी पहली मांग है। राजनीतिक उद्देश्यों के लिए हमें हिन्दू कहा जाता है किन्तु हिन्दुओं ने हमें सामाजिक दृष्टि से अपना भाई कभी नहीं माना।”एम.सी. राजा का स्वर डा. अम्बेडकर से बिल्कुल उल्टा था। साम्प्रदायिक निर्णय में दलित वर्गों के लिए पृथक निर्वाचन पर तीखी प्रतिक्रिया करते हुए राजा ने 13 सितम्बर, 1932 को केन्द्रीय विधानसभा में भाषण करते हुए कहा,”दलित वर्गों के हम लोग अपने को उतना ही सच्चा हिन्दू मानते हैं जितना कि कोई सवर्ण हिन्दू हो सकता है। हम अनुभव कर रहे हैं कि हिन्दुओं की नैतिक चेतना में इतना अधिक परिवर्तन आया है कि अब हम हिन्दू समाज के भीतर ही परिवर्तन लाकर अपना उद्धार होने की आशा कर सकते हैं, न कि अपने को उनसे अलग करके। सरकार ने जो रास्ता अपनाया है उससे इस प्रशंसनीय आन्दोलन की प्राप्ति निश्चित रूप से बाधित होगी।”राजा-मुंजे पैक्टसमरसता की इसी दृष्टि को अपना कर एम.सी. राजा ने दूसरे गोलमेज सम्मेलन की समाप्ति के तुरन्त बाद मार्च 1932 में हिन्दू महासभा नेता डा. मुंजे के साथ आरक्षण सहित संयुक्त निर्वाचन के आधार पर एक महत्वपूर्ण समझौता किया, जो उस समय राजा-मुंजे पैक्ट के नाम से चर्चित हुआ, किन्तु जो अब राजा के नाम के साथ पूर्णतया विस्मृति के गर्भ में समा गया है।(इस पैक्ट की विस्तृत जानकारी के लिए पढ़िए पुस्तक “जातिविहीन समाज का सपना”)राजा-मुंजे पैक्ट और भारत सचिव के नाम जेल से गांधीजी के 11 मार्च, 1932 के पत्र से घबराये डा. अम्बेडकर 22 मई, 1932 को इंग्लैंड के लिए रवाना हो गए और 17 अगस्त को सांप्रदायिक निर्णय की घोषणा के दिन ही स्वदेश वापस लौटे। डा. अम्बेडकर ने अपने इस इंग्लैंड यात्रा को पूरी तरह गुप्त रखने का प्रयास किया, किन्तु फ्री प्रेस जर्नल के एक संवाददाता ने उन्हें बम्बई बन्दरगाह पर इंग्लैंड जाने वाले जहाज पर चढ़ते देख लिया जिससे वह खबर प्रकाश में आ गई।किन्तु यहां प्रश्न खड़ा होता है कि ब्रिटिश प्रधानमंत्री के साम्प्रदायिक निर्णय के जाल में गांधी जी ने स्वयं को फंसने ही क्यों दिया? कांग्रेस के साईमन कमीशन के पूर्ण बहिष्कार को गोलमेज सम्मेलन पर लागू क्यों नहीं किया? पहले गोलमेज सम्मेलन में कांग्रेस उपस्थित नहीं थी। वहां जो कुछ हुआ उसकी जानकारी कांग्रेस को अवश्य प्राप्त हुई होगी। उससे ब्रिटिश कूटनीति के लक्ष्य को समझना कठिन नहीं था। फिर दूसरे गोलमेज सम्मेलन में गांधी जी अकेले ही क्यों गये? क्या सचमुच उन्होंने सोचा था कि उनके जिस आध्यात्मिक व्यक्तित्व ने हिन्दू मानस को स्पंदित व झंकृत कर दिया था, वह व्यक्तित्व गोलमेज सम्मेलन में ब्रिटिश सरकार द्वारा जुटाए गए जनाधारशून्य घाघ चेहरों को भी प्रभावित कर पायेगा? गोलमेज सम्मेलन में डा. अम्बेडकर अपनी वकीली तर्कशक्ति और अंग्रेजी में भाषण कला से गांधी जी पर भारी पड़ गये। वे और मुस्लिम प्रतिनिधि गांधी जी को सवर्ण हिन्दुओं के प्रतिनिधि की छवि देने में सफल हो गए। और सबसे बड़ा प्रश्न तो यह है कि गोलमेज सम्मेलन में ब्रिटिश कूटनीति के खेल को अपनी आंखों से देखने के बाद भी गांधी जी ने सम्मेलन के अन्तिम दिन अल्पसंख्यक समिति के सदस्यों की इस प्रार्थना पर हस्ताक्षर क्यों कर दिये कि अल्पसंख्यक समिति किसी सर्वसम्मत निर्णय पर न पहुंच पाने के कारण ब्रिटिश प्रधानमंत्री को अपनी ओर से कोई निर्णय देने का अधिकार देती है और वह अधिकार समिति के प्रत्येक सदस्य को शिरोधार्य होगा। एक प्रकार से गांधी ने स्वयं ही अपने को ब्रिटिश कूटनीति के जाल में फंसा दिया था। विचित्र यह है कि अल्पसंख्यक समिति के इस दस्तावेज पर गांधी जी ने हस्ताक्षरण किये, पर डा. अम्बेडकर ने नहीं किए।शताब्दी पुरुषगोलमेज सम्मेलन में गांधी जी की स्थिति पर प्रकाश डालने वाला एक बहुत दिलचस्प दस्तावेज दिल्ली स्थित राष्ट्रीय अभिलेखागार में सुरक्षित है। इस दस्तावेज में 18 जनवरी, 1932 को पुणे में हिन्दू महासभा के 40 शीर्ष नेताओं की बैठक में डा. मुंजे ने द्वितीय गोलमेज सम्मेलन का वृत्त प्रस्तुत किया। गांधी जी के महत्व को स्वीकार करते हुए डा. मुंजे ने कहा, “निश्चय ही गांधी जी इस समय शताब्दी पुरुष हैं। उनमें शक्ति पैदा करने और उसे एक बिन्दु (अर्थात् स्वयं) पर केन्द्रित करने की अपूर्व क्षमता है।” किन्तु यहां पहुंचकर उनका कौशल समाप्त हो जाता है और प्रत्येक चीज बिखरने लगती है। वह कभी परिस्थिति का लाभ नहीं उठा सकते। जो वह मुसलमानों को दे रहे थे, वही दलित वर्गों को देने को तैयार नहीं थे।डा. मुंजे ने कहा कि गोलमेज सम्मेलन में वस्तुत: गांधी जी ही भारत के एकमात्र सच्चे प्रतिनिधि थे। अपनी इस स्थिति की गरिमा के अनुरूप ही उन्हें गोलमेज सम्मेलन में अपनी भूमिका निभानी चाहिए थी। गांधी जी ने गोलमेज सम्मेलन में अकेले आकर भारी भूल की। यदि वे अपने साथ सभी वर्गों और संप्रदायों के कांग्रेसजनों का बड़ा प्रतिनिधिमंडल साथ लाते तो वे संकीर्ण सांप्रदायिक तत्वों के मुकाबले कांग्रेसी प्रतिनिधियों को खड़ा करके उनके दावों की कलई खोल सकते थे।डा. मुंजे ने पछतावे के स्वर में कहा कि गांधी के आने से पूरे गोलमेज सम्मेलन की दृष्टि उन्हीं पर केन्द्रित हो गई। यदि वे इंग्लैंड न आते तो शायद अन्य भारतीय प्रतिनिधि कुछ न कुछ प्राप्त करके लौटते।गोलमेज सम्मेलन से लौटकर डा. मुंजे ने साम्प्रदायिक निर्णय की घोषणा के पहले ही मार्च 1932 में एम.सी. राजा के साथ “आरक्षण के साथ संयुक्त निर्वाचन” के आधार पर जो पैक्ट किया, उसी आधार पर गांधी जी ने साम्प्रदायिक निर्णय की घोषणा के बाद आमरण अनशन के मूल्य पर पूना पैक्ट किया। जिन शर्तों को गांधी जी ने गोलमेज सम्मेलन के पहले और उसके मंच पर ठुकराया उन्हीं शर्तों पर उन्हें पूना-पैक्ट क्यों स्वीकार करना पड़ा, यह अगली किश्त में। द (25 अगस्त, 2006)39

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