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-दिल्ली ब्यूरो
वन्दे मातरम् गाने से मेरा इस्लाम खतरे में नहीं पड़ता
-शबनम शेख, अधिवक्ता, सर्वोच्च न्यायालय
वन्दे मातरम् हमारा राष्ट्रीय गीत है। सन् 1906 में जब बंगाल का विभाजन हुआ तब यह गीत सभी के ध्यान में आया था। वन्दे मातरम् से सभी हिन्दुस्थानियों का जुड़ाव है, चाहे वे हिन्दू हों या मुसलमान, सिख या फिर ईसाई। आजादी की लड़ाई हिन्दू-मुसलमानों ने साथ-साथ लड़ी और तब सबने आजादी का गीत वन्दे मातरम् गाया। इसलिए वन्दे मातरम् हिन्दू ही गाएं, मुस्लिम न गाएं, यह सोचने या कहने का कोई औचित्य नहीं है। अपने राष्ट्रीय गीत को गाने में किसी मुसलमान को क्या हर्ज हो सकता है।
मुस्लिम समाज के भीतर कई तरह के लोग हैं जो कई कारणों से इसका विरोध करते हैं या अपनी राय अलग रखते हैं। लेकिन मेरा मानना है कि वन्दे मातरम् गाने से हमारा किसी भी प्रकार का अहित नहीं होता, न मेरा इस्लाम खतरे में पड़ता है। इस्लाम हमारा ईमान है और सच्चे मुसलमान का ईमान पक्का होता है। इसलिए वन्दे मातरम् गाने से हमारा मजहब खतरे में नहीं पड़ता।
पूरा का पूरा वन्दे मातरम् पढ़ लें, एक-एक शब्द पर ध्यान दें, कहीं भी ऐसा नहीं लगता कि हम अपने खुदा के सिवा किसी और माबूद (ईश्वर) के सामने सिजदा कर रहे हैं। मैं वन्दे मातरम् गाती हूं , न केवल व्यक्तिगत रूप से बल्कि सभाओं और सार्वजनिक कार्यक्रमों में भी गाती हूं। मैं एक हिन्दुस्थानी हूं और प्रत्येक हिन्दुस्थानी का फर्ज है कि वह अपने राष्ट्रीय गीत को जरूर गाए। एक हिन्दुस्थानी होने के बाद ही हम हिन्दू, मुस्लिम सिख, ईसाई हैं। हम सबके लिए देश सबसे पहले होना चाहिए। इस्लाम तो हमारे दिल में है। हम अपने खुदा की इबादत किसी को दिखाने के लिए नहीं करते। हम जो इबादत करते हैं उसका सबाब ऊपर वाला हमें देता है। लेकिन हम जिस मुल्क में रहते हैं उसके राष्ट्रीय गीत, राष्ट्र गान की भी हम इज्जत करते हैं, उसे सलाम करते हैं। इसमें मजहब कहां आड़े आता है।
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