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चर्चा सत्र

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Mar 9, 2006, 12:00 am IST
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दिंनाक: 09 Mar 2006 00:00:00

अमरीका- इस्रायल को पछाड़ने के लिए शिया-सुन्नी गठजोड़

मुजफ्फर हुसैन

युद्ध की धधकती ज्वाला को भला कौन पसंद करेगा? युद्ध का दूसरा नाम ही बर्बादी है। लेकिन दुनिया के इतिहास में कुछ अवसर ऐसे भी आते हैं जब लड़ाई वरदान बन जाती है। कहते हैं लड़ाई के बाद ही शांति स्थापित होती है, यह बात भी परम सत्य है। इससे भी बढ़कर एक बात यह सिद्ध होती है कि लड़ाई यदि किसी में फूट का कारण बनती है तो इस सच्चाई से भी आंखें बंद नहीं की जा सकतीं कि लड़ाई दो दुश्मनों में एकता भी पैदा कर सकती है। लेबनान पर इस्रायल के भीषण हमले हुए। इस्रायल का कहना है कि फिलिस्तीन की असली ताकत लेबनान का आतंकवादी संगठन हिज्बुल्ला है। एक बार उसकी कमर टूट गई तो फिलिस्तीन और इस्रायल का मामला सुलझ जाएगा। लेकिन इस्रायल की यह समझ फिलहाल तो निराधार लगती है। हालात यह बता रहे हैं कि इस्रायल ने जाने-अनजाने में अपने दुश्मन को अधिक मजबूत कर दिया है। अब फिलिस्तीन की लड़ाई लेबनान लड़ रहा है। लेबनान का जिहादी संगठन हिज्बुल्ला शिया पंथी है, जबकि फिलिस्तीन सुन्नी बहुल देश है। दुनिया में आज तक जितनी भी लड़ाइयां मुस्लिमों ने अन्य पंथों-सम्प्रदायों से लड़ी है उतनी ही लगभग शिया-सुन्नी के बीच भी होती रही है। सुन्नी पंथ ने कभी शियाओं को मान्यता ही नहीं दी, बल्कि यह कहने से भी नहीं चूके कि वे मुसलमान ही नहीं हैं। बहुत दूर जाने की आवश्यकता नहीं है। 80 का पूरा दशक ईरान-इराक युद्ध में गुजरा है। उसका खात्मा तब हुआ जब अयातुल्लाह इमाम खुमैनी ने कहा कि मैंने विष का प्याला पी लिया है। आज भी इराक में जो युद्ध चल रहा है वह वास्तव में तो शिया-सुन्नी संघर्ष ही है। चूंकि शिया वहां सत्ता में आ गए हैं इसलिए सुन्नी गुट सद्दाम के समर्थक बन गए हैं। सद्दाम ने अपने शासन में असंख्य शियाओं को मौत के घाट उतारा और करबला जैसे पवित्र तीर्थ को अनेक बार अपमानित करने का प्रयास किया। सद्दाम पर जितने आरोप हैं उनमें 126 शियाओं के नरसंहार का मामला भी जुड़ा हुआ है। अफगानिस्तान के युद्ध में भी शिया गुट ने अमरीका की ईंट से ईंट बजाई। इस सफलता के बाद भी मुल्ला उमर ने कभी शियाओं को सत्ता में भागीदार नहीं बनाया।

भारत में भी 1936 से शिया-सुन्नी दंगे अवध में होते रहे हैं। “मदहे सहाबा” के विरोध में हजरत अली की प्रशंसा को शियाओं ने हमेशा प्राथमिकता दी इसलिए यह टकराव चलता रहा। इस्लाम शिया और सुन्नियों में उस समय बंट गया जब सुन्नियों ने प्रथम खलीफा हजरते अबू बकर को स्वीकार किया और उनके पश्चात हजरत उमर और हजरत उस्मान खलीफा घोषित किए गए। जबकि चौथे खलीफा के रूप में हजरत अली को स्वीकार किया गया। लेकिन शिया इस व्यवस्था को स्वीकार नहीं करते। उनका कहना है कि पैगम्बर हजरत मोहम्मद ने अपने जीवन काल में ही हजरते अली को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था इसलिए मजलिसे शूरा के गठन और खलीफाओं के चयन की आवश्यकता ही नहीं थी। शिया सम्प्रदाय हजरत अली को प्रथम इमाम के रूप में स्वीकार करते हैं।

शिया-सुन्नियों को एक करने के अनेक प्रयास हुए लेकिन वे सफल नहीं हुए। पिछले दिनों जब फिलिस्तीन और इस्रायल में संघर्ष प्रारंभ हुआ तो उसका सामना करने के लिए इस्लाम के दोनों पंथ एक हो गए। इस्रायल और फिलिस्तीन का युद्ध अन्य लड़ाइयों की तरह अभिशाप ही है लेकिन चूंकि अब इस्रायल के विरुद्ध शिया और सुन्नी एक मंच पर आ गए हैं इसलिए इस एकता के परिप्रेक्ष्य में इस जंग को वरदान भी कहा जा सकता है। इस्लामी जगत 1949 से ही जब इस्रायल बना, उसके विरुद्ध संघर्ष करता आ रहा है। उनके मतानुसार यह भूमि फिलिस्तीन की है। उनका दावा है कि साढ़े तीन हजार साल पहले इसी धरती पर डेविड ने वृहत्तर इस्रायल की स्थापना की थी। ईरान शाह के समय में अमरीका समर्थक था इसलिए उसने फिलिस्तीन को समर्थन नहीं दिया। अयातुल्लाह के समय में जब इस्लामी क्रांति हुई उस समय इस्रायल को छोटे शैतान की संज्ञा दी गई। अमरीका उसका समर्थक और ईरान विरोधी था इसलिए उसे बड़ा शैतान कहा जाने लगा। इसके बावजूद इस्रायल के विरुद्ध खुमैनी के तेवर बहुत तीखे नहीं थे। यह विरोध केवल कथनी के रूप में था। क्योंकि इराक से चल रहे युद्ध में इस्रायल से वह चोरी छिपे हथियार लेता था।

इस बार ईरान में राष्ट्रपति पद के चुनाव हुए तो अहमदीनेजाद निर्वाचित हो गए। अहमदीनेजाद राष्ट्रपति बनते ही इस्रायल और अमरीका के विरुद्ध अपना जोरदार विरोध प्रकट किया। अमरीका ने ईरान पर जब परमाणु ताकत के सम्बंध में अंकुश लगाने की मुहिम चलाई तो अहमदीनेजाद ने पलटवार किया और अमरीका को सीधा-सीधा कह दिया कि वह ईरान को इराक न समझे। उन्होंने आगे चलकर संयुक्त राष्ट्र संघ और अन्य अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इस्रायल को अपना निशाना बनाया। यूरोप और अमरीका से कहा कि वे इस्रायल को फिलिस्तीन से उठाकर किसी अन्य देश में ले जाएं। इस्रायल के अस्तित्व को मिटाने के लिए हुंकार भरनी शुरू कर दी। इस्रायल के इतिहास में यह पहला अवसर था जब किसी ने उसे इस प्रकार की धमकी दी हो। ईरान शिया देश है इसलिए सुन्नियों ने राहत की सांस ली और इस पर संतोष व्यक्त किया कि अब इस्रायल को पटखनी देने में शिया भी खुलकर साथ आ गए हैं। ईरान ने सीरिया, जोर्डन और अरब लीग के अन्य देशों को अह्वान किया। इस्रायल को लगा कि वह इस्लामी राष्ट्रों के बीच घिर गया है। अहमदीनेजाद ने यह भी कहा कि अमरीका की कमर तोड़ने के लिए उसके “बगल बच्चे” इस्रायल को समाप्त करना होगा। अब तक जो इस्लामी देश अमरीका के पिछलग्गू थे, उन्हें भी यह भय सताने लगा कि यदि वे अमरीका के समर्थक बने रहे तो अल कायदा के आतंकवादी उनके देश में भी पहुंचने लगेंगे। ईरान की खुली चुनौती इस्लामी जगत के लिए प्रेरणा बन गई। अमरीका को ठिकाने लगाने के लिए हर कोई अपनी तरह से विचार करने लगा।

अल कायदा सुन्नी संगठन है इसलिए अफगानिस्तान से लेकर इराक, चेचेन्या, सूडान और अफ्रीका के सोमालिया तक के सुन्नी आतंकवादी उसमें शामिल हो गए हैं। हिज्बुल्ला शियाओं का आतंकवादी संगठन है, जिसका मुख्यालय लेबनान के नगर बेरूत में है। शियाओं के प्रति सुन्नी संगठनों में अलगाव और घृणा की भावना थी। लेकिन जब हिज्बुल्ला फिलिस्तीनियों के समर्थन में उतर आया तो अरब देशों के सुन्नियों के मन में सहानुभूति पैदा हो गयी। हिज्बुल्ला का अर्थ है-अल्लाह की फौज। अल कायदा के दूसरे नम्बर के नेता अल जवाहिरी ने अलजजीरा पर प्रसारित एक सन्देश में कहा है कि इस्रायल की मौत अमरीका की मौत होगी। इसलिए हिज्बुल्ला का साथ देकर इस छोटे शैतान को समाप्त कर दो।

इराक के कुर्द भी सुन्नी और शिया हैं। वे अरब जगत के सबसे बड़े लड़ाकू हैं। इराक में उन्हें अमरीका के विरुद्ध एकजुट किया जा रहा है। यदि कुर्द संगठित हो गए तो यह मानकर चलिए कि इराक से अमरीका को बाहर निकलना ही पड़ेगा। उस समय अमरीका जिस तेल की खातिर यह सब कर रहा है, उसे कुछ नहीं मिलेगा। सुन्नी-शिया एकता इस्रायल के युद्ध के कारण पैदा हुई है जो अमरीका और इस्रायल के लिए अभिशाप बन सकती है।

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