|
-डा. दिनेश अग्रवाल
प्राध्यापक, यूनिवर्सिटी आफ पेन्सिलवेनिया
भारतीय इतिहास संकलन योजना द्वारा गत दिनों हिमाचल प्रदेश में आयोजित एक परिसंवाद में विद्वानों का निष्कर्ष था कि सिकंदर विश्वविजेता नहीं था बल्कि वह डोगराओं के हाथों जम्मू में पराजित हुआ था। पाञ्चजन्य के 12 नवम्बर, 2006 के अंक में हमने उस परिसंवाद की विस्तृत रपट प्रकाशित की थी। इसी विषय पर डा. दिनेश अग्रवाल ने कुछ समय पूर्व एक शोधपरक आलेख लिखा था। डा. अग्रवाल न्यूयार्क (अमरीका) में स्टेट कालेज (यूनिवर्सिटी आफ पेन्सिलवेनिया) में प्रोफेसर हैं। यहां हम डा. दिनेश अग्रवाल के उसी आलेख “एलेक्जेंडर: द आर्डिनेरी” का अनूदित अंश प्रकाशित कर रहे हैं- सं.
“सिकन्दर ने भारत में कभी विजय प्राप्त नहीं की”, इतिहास के धुंधलके में छिपा यह सत्य अब छन-छन कर बाहर आ रहा है। वास्तव में सिकन्दर तो पंजाब के तत्कालीन राजा पोरस से पराजित हुआ था। उसे अपने सैनिकों की प्राणरक्षा के लिए पोरस से एक सन्धि भी करनी पड़ी। क्योंकि पोरस की सेना के हाथों बड़ी संख्या में अपने सहयोगियों को मरता देख उसकी सेना में खलबली मच गई थी।
अपने विश्व-विजय अभियान में अनेक युद्ध जीतते हुए सिकन्दर ने फारस के राजा को हराने के बाद भारत पर हमला किया। उसने सिन्धु नदी पार की। तक्षशिला का तत्कालीन राजा आम्भी उससे आ मिला। आम्भी ने स्वयं ही सिकन्दर के सामने आत्मसमर्पण किया था क्योंकि वह पोरस से शत्रुता रखता था और सिकन्दर की सहायता से वह पोरस को हराना चाहता था। सिकन्दर की दु:खद पराजय और भारत में उसके विश्व-विजय के सपने के चूर-चूर हो जाने की कहानी की वास्तविकता को दरअसल ग्रीक इतिहासकारों ने छिपाया। ब्रिटिश राज्य में भी इतिहासकारों ने यही रुख अपनाया, लेकिन जैसा कि सत्य एक न एक दिन सामने आकर ही रहता है। अनेक यूरोपीय विद्वानों व इतिहासकारों द्वारा लिखे गए वृत्तान्त इस सन्दर्भ में दस्तावेज उपलब्ध कराते हैं और इतिहास के सामने एक भिन्न तस्वीर प्रस्तुत करते हैं। कर्टियस, जस्टिन, डियोडोरस, ऐरियन और प्लूटार्क जैसे विद्वान इस सन्दर्भ में विश्वसनीय और प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध कराते हैं कि सिकन्दर पोरस से पराजित हुआ था और उसे अपनी तथा अपने सैनिकों की जीवन रक्षा के लिए पोरस से सन्धि करनी पड़ी थी। भारत का “विजय अभियान” उसके लिए दुर्भाग्यपूर्ण सिद्ध हुआ और भारत से वापसी के समय उसकी सारी आशाएं धूमिल हो चुकी थीं।
इथियोपिक साहित्य में ई.ए.डब्ल्यू. बैस द्वारा लिखित “द लाइफ एण्ड एक्सप्लोइट्स आफ एलेक्जेण्डर” नामक दस्तावेज में निम्नलिखित विवरण मिलता है। “झेलम की लड़ाई में सिकन्दर की भयानक सैन्य हानि हुई, बड़ी संख्या में उसके सैनिक मारे गए। सिकन्दर ने महसूस किया कि अगर उसने लड़ाई जारी रखी तो वह पूरी तरह समाप्त हो जायेगा। उसने पोरस से युद्ध रोकने का आग्रह किया। पोरस भारतीय परम्परा का सच्चा वाहक था इसलिए उसने शरण में आए शत्रु का वध करना उचित नहीं समझा। इसके बाद दोनों में एक समझौता हुआ और सिकन्दर ने उसके राज्य में अन्य क्षेत्रों को जोड़ने में सहायता की।”
श्री बैस आगे लिखते हैं-“सिकन्दर के सैनिक बुरी तरह टूट चुके थे और बड़ी संख्या में अपने साथियों की शहादत पर वे विलाप करने लगे थे। उन्होंने अपने हथियार फेंक दिये और आत्मसमर्पण के लिए आतुर हो उठे। लड़ने की उनमें तनिक मात्र इच्छा शेष नहीं थी। अपने सैनिकों की ऐसी मनोदेशा देखकर सिकन्दर ने भी युद्ध न करना ही उचित समझा और उसने पोरस से स्वयं निवेदन किया कि मुझे क्षमा कर दो। तुम्हारी बहादुरी व ताकत को मैं जान चुका हूं। अब मैं और दु:ख नहीं झेल सकता। मैं अपना जीवन समाप्त करना चाहता हूं। मैं नहीं चाहता कि मेरे सैनिकों की भी हालत मेरे जैसी हो। अपने सैनिकों को मौत के मुंह में धकेलने का मैं अपराधी हूं। किसी राजा के लिए इससे ज्यादा दु:खद क्या हो सकता है कि वह अपने सैनिकों को मौत के मुंह में धकेलने का जिम्मेदार सिद्ध हो।”
क्या यही है “सिकन्दर महान!” ये क्या किसी विजयी सिकन्दर के शब्द हैं जिसने पोरस पर विजय प्राप्त की? क्या कोई विश्वविजेता इस तरह के शब्द बोल सकता है? इतिहास की पुस्तकों में लोगों को सिकन्दर की जिस “विजय” और “पराक्रम” का वर्णन मिलता है वह उपरोक्त उद्धरण से कतई मेल नहीं खाता। हममें से अधिकांश लोगों ने स्कूली पुस्तकों में पढ़ा है कि सिकन्दर ने पोरस को पराजित किया था और इस बात की उसके मन में पीड़ा थी कि संसार में विजय के लिए अब कोई भू-भाग बचा नहीं है। शायद इसीलिए वह इतिहास में “सिकन्दर महान” कहा गया। लेकिन सिकन्दर के सन्दर्भ में प्राप्त नये दस्तावेज इस मिथक व मान्यता को झुठलाते हुए बताते हैं वास्तव में सिकन्दर उतना महान नहीं था जितना बताया जाता है। वह सिर्फ एक साधारण सिकन्दर ही था।
एक और मिथक, जो पाश्चात्य इतिहासकारों ने सिकन्दर के बारे में फैलाया है, वह यह है कि सिकन्दर बहुत बुद्धिमान व दयालु राजा था और उसके मन में बहादुर व साहसी लोगों के लिए बहुत आदर का भाव था। ऐसी और भी बातें कहीं जाती हैं जबकि वास्तविकता कुछ और है। न तो वह बहुत बुद्धिमान था और न दयालु। दस्तावेज बताते हैं कि वह बहुत क्रूर शासक था और अपने शत्रुओं को कड़े से कड़ा दण्ड देता था। जैसे बैक्ट्रिया का राजा बसूस अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए बड़ी बहादुरी के साथ सिकन्दर से लड़ा। युद्ध में पराजित होने के बाद जब एक कैदी के रूप में उसे सिकन्दर के सामने लाया गया, सिकन्दर ने अपने सैनिकों को उस पर कोड़े बरसाने तथा बाद में उसके कान व नाक काटने का आदेश दिया। बड़ी निर्दयता से सिकन्दर ने उसका वध किया। इसी प्रकार बहुत सारे फारसी सेना के सेनापति उसके हाथों मारे गए। अरस्तु के भांजे कलस्थनीज को सिकन्दर ने इसलिए मारा क्योंकि उसने फारसी राजाओं की नकल करते हुए सिकन्दर की आलोचना की थी। सिकन्दर ने अपने मित्र क्लाइट्स की भी हत्या क्रोध में आकर की। अपने पिता के विश्वासपात्र योद्धा पर्मेनियन को भी सिकन्दर ने मौत के घाट उतारा। इसी प्रकार भारतीय योद्धाओं, जो मसंगा से लौट रहे थे, का अंधेरी रात में सिकन्दर ने क्रूरतापूर्वक वध किया। ये “पराक्रम” सिकन्दर की महानता व दयालुता की कहानी नहीं कहते बल्कि उसे एक साधारण आक्रमणकारी और साम्राज्यवादी ही सिद्ध करते हैं।
15
टिप्पणियाँ