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सरसंघचालक सुदर्शन जी ने सूचना प्रौद्योगिकी के स्नातकों से कहा-

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Mar 12, 2006, 12:00 am IST
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दिंनाक: 12 Mar 2006 00:00:00

प्रतिभा का उपयोग पीड़ितों की सेवा में करें

गत 4 नवम्बर, 2006 को भाग्य नगर (हैदराबाद) में सूचना प्रौद्योगिकी (आई.टी.) क्षेत्र में कार्यरत युवा स्नातकों और प्रशिक्षुओं का एक विशाल सम्मेलन आयोजित हुआ। इस सम्मेलन में रा.स्व.संघ के सरसंघचालक श्री कुप्.सी. सुदर्शन ने जो प्रभावी उद्बोधन दिया, सार संक्षेप में वह यहां प्रस्तुत किया जा रहा है। -सं.

हमारे देश का दुर्भाग्य है कि अंग्रेजों द्वारा भारत छोड़ने के बाद भी उनके द्वारा देश पर थोपी गयी व्यवस्थाएं आज भी जस की तस चल रही हैं। विकास का पश्चिमी माडल अत्यधिक ऊर्जा की खपत करने वाला, पूंजी केन्द्रित, श्रमिक विरोधी और पर्यावरण को नष्ट करने वाला है। इसका परिणाम हम देश की ऐसी दुर्दशा के रूप में देख रहे हैं कि सभी लोगों को आज भी देश में दो समय का भोजन उपलब्ध नहीं हो पा रहा है। वस्तुत: भारत और पश्चिम के समाज मूलक चिंतन में मौलिक अन्तर है। यह अन्तर जीवन के हर क्षेत्र में स्पष्ट दिखता है। हमारे लिए समाज सिर्फ अलग-अलग मानस के व्यक्तियों और अपने स्वार्थों की पूर्ति करने वालों का सम्मिलन नहीं है। समान इच्छाओं, परस्पर भ्रातृत्व भाव, एक दूसरे की चिन्ता और परिवार भाव से दुनिया की तरफ देखने का समान दृष्टिकोण, हमारे यहां के समाज की यही जीवन दृष्टि है।

आज दुनिया के लोग अनेक मौलिक सवालों की खेाज में लगे हुए हैं। मैं कौन हूं? कहां से आया हूं? क्यों आया हूं? यह ब्राह्माण्ड क्या है? और इस ब्राह्माण्ड से मेरा नाता क्या है? यह प्रश्न पूर्वकाल में भी जन-मन में गूंजते रहे है।

पश्चिम का विज्ञान ग्रीक के दर्शन से प्रेरित है। ग्रीक दर्शन पदार्थ और ईश्वरत्व में एक स्पष्ट अन्तर मानता है। बाद में पश्चिम में जो विज्ञान विकसित हुआ, उसने माना कि पदार्थ व ईश्वर, बुद्धि और शरीर के बीच द्वन्द्व है। ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में अरस्तु ने कहा कि पृथ्वी स्थिर है और सूर्य सहित अन्य सभी ग्रह पृथ्वी की परिक्रमा लगाते हैं। इस अवधारणा को बाइबिल ने भी सत्य माना। यही नहीं तो बाइबिल में इसके विरुद्ध किसी भी मत को ईश्वर की अवज्ञा मानते हुए इसके लिए कड़े दण्ड़ों का भी प्रावधान कर दिया गया। बाइबिल में विज्ञान के प्रतिकूल ऐसी और भी असंगत बातें सिद्धान्त रूप में सत्य मान ली गईं। जिसका परिणाम यह हुआ कि आगे के 1500 सालों तक अर्थात 14वीं शताब्दी तक पश्चिम में विज्ञान की प्रगति अवरुद्ध रही। 15वीं शताब्दी में कापरनिकस, कैपलर और न्यूटन ने चर्च के भय के बावजूद इन प्रस्थापनाओं को चुनौती दी। यही नहीं, कैथोलिक चर्च ने 1484 ईस्वी से लेकर 1784 ईस्वी तक यूरोप में चुड़ैल व डायन घोषित कर करोड़ों महिलाओं को मौत के घाट उतारा। स्त्रियों पर भयानक अत्याचार ढाये गये। लेकिन न्यूटन के यांत्रिक सिद्धान्त के आविष्कार ने विकास के बंद दरवाजे खोल दिये और आधुनिक विज्ञान का प्रारम्भ हुआ। न्यूटन ने सिद्धान्त दिया कि सम्पूर्ण विश्व यंत्रवत् है। गुरुत्व शक्ति द्वारा सम्पूर्ण विश्व संचालित होता है। उन्होंने ईश्वर की सत्ता को भी नकारा। ब्राह्माण्ड की इस यांत्रिक अवधारणा ने विज्ञान को ईश्वर से अलग कर दिया। 20वीं शताब्दी में अलबर्ट आइन्स्टीन द्वारा “थ्यौरी आफ रिलेटीविटी” प्रस्तुत किए जाने के पूर्व तक विज्ञान और ईश्वर को अलग मानने जैसी अवधारणाएं चलती रहीं। आइन्स्टीन ने कहा कि सभी चीजें अंशत: सत्य हैं और ब्राह्माण्ड से जुड़ी हुई हैं।

20वीं शताब्दी में विज्ञान में उल्लेखनीय प्रगति हुई विशेषकर नील्स बोर व अन्य वैज्ञानिकों ने परमाणु के सम्बन्ध में गहन शोध किए। आज विज्ञान यह मान चुका है कि सम्पूर्ण ब्राह्माण्ड आपस में गुंथा हुआ है। ब्राह्माण्ड का प्रत्येक कण दूसरे कण से जुड़ा हुआ है। इस प्रकार पश्चिम का विज्ञान परस्पर द्वन्द्व के सिद्धान्त से आगे आकर अब अद्वैत को मानने लगा है। हमारे लिए यह गौरव की बात है कि जिसे पश्चिम ने अब माना है, हजारों वर्ष पूर्व हमारे ऋषियों ने गहरे शोध के उपरान्त उसे बताया था। पश्चिम के विद्वान आज जो कह रहे हैं, हजारों वर्ष पूर्व इसे हमारे उपनिषद्कारों ने व्यक्त किया था। उपनिषद्कार लिखते हैं “बीज में वृक्ष और वृक्ष से बीज” तथा “ईसावास्य मिदं सर्वं”। अपरिमित भौतिक प्रगति के बाद भी पश्चिम आज तक इस सवाल का उत्तर नहीं दे सका है कि मैं कौन हूं? आज भी वह शरीर और मन तथा बुद्धि तक ही सीमित है। शरीर, मन और बुद्धि के अहंकार ने पश्चिमी समाज को प्रतिस्पर्धात्मक बना दिया है। आज जो शरीर, मन व बुद्धि की श्रेष्ठता को प्रदर्शित करने वाली प्रतियोगिताएं होती हैं, जैसे विश्व सुन्दरी प्रतियोगिता, सर्वश्रेष्ठ धावक या फिर सर्वश्रेष्ठ मुक्केबाज आदि, ये पश्चिम के मानस में सर्वश्रेष्ठता की भावना के ही परिणाम हैं। इसके विपरीत हमारे यहां शरीर, मन व बुद्धि से परे उस आत्म तत्व का विचार हुआ जो सम्पूर्ण चराचर में व्याप्त है, जो सारी सृष्टि का नियंन्ता है, व्यक्ति की सुप्तावस्था में भी जो सदा जाग्रत रहता है। हमारे यहां कहा गया कि व्यक्ति शरीर, मन, बुद्धि व आत्मा का समन्वित रूप है। आत्म तत्व ही व्यक्ति, समाज, सृष्टि तथा परमेष्टि को जोड़ने वाली कड़ी है।

वस्तुत: हिन्दू दर्शन व्यक्ति की पांच श्रेणियां बताता है जिसे क्रमश: नर राक्षस, नर पशु, नर, नरोत्तम और नारायण कहा जाता है। हिन्दू धर्म मनुष्य को नर राक्षस से नारायण बनने की शक्ति व प्रेरणा देता है। पश्चिम कभी धर्म की भारतीय अवधारणा को नहीं समझ सका। उसने इसे “रिलीजन” के समकक्ष रखने की कोशिश की। किन्तु “रिलीजन” एक छोटी अवधारणा है। धर्म की हिन्दू अवधारणा बहुत व्यापक है। दुर्भाग्यवश हमारे बौद्धिक और अकादमिक जगत ने धर्म और रिलीजन को एक मानते हुए आंख मूंदकर ब्रिटिश मान्यताओं का समर्थन किया। लेकिन हमारा धर्म पाश्चात्य “रिलीजन” का अनुवाद मात्र नहीं है, इससे कहीं आगे हमारे यहां धर्म कर्तव्यों का मूर्तिमंत आदर्श है। हिन्दू दर्शन अधिकारों में नहीं, कर्तव्य में विश्वास रखता है। वास्तव में प्राकृतिक संसाधन सीमित हैं। वे हमारी आवश्यकताओं को तो पूरा कर सकते हैं परन्तु हमारे लालच को नहीं। विकास का वर्तमान पश्चिमी माडल पूर्णत: शोषण पर आधारित है। प्रतिस्पर्धा व प्रभुत्व की होड़ के परिणामस्वरूप दो विश्व युद्ध हो चुके हैं और तीसरा कगार पर खड़ा है। आज विश्व को सही दिशा व मार्गदर्शन की जरूरत है। ऐसे में हिन्दू धर्म और दर्शन सम्पूर्ण विश्व को सही मार्गदर्शन व दिशा देने में सक्षम है। किन्तु हम ऐसा तभी कर सकेंगे जब हम अपने महान हिन्दू तत्व ज्ञान पर आधारित वैभवशाली भारत के सपने को साकार कर दिखाएं। हिन्दू पुनर्जागरण के संकेत मिल रहे हैं। इसलिए भारत माता के महान गौरव को पुनस्स्थापित करने के लिए हमें पूरी शक्ति से प्रयास करना है। आज दुनिया में जीवन के हर क्षेत्र में भारतीय प्रतिभाओं ने जो प्रतिमान स्थापित किए हैं, विशेषकर सूचना व प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में, वे हमारा माथा गर्व से ऊंचा करते हैं। किन्तु इसके विपरीत हमारे समाज का बहुत बड़ा हिस्सा ऐसा भी है जो भूख से, जो उचित चिकित्सा न मिलने के कारण तड़पने को विवश है। इनका जीवन घोर अभावों से जूझ रहा है। यह हमारा दायित्व है कि हम ऐसे शोषित, पीड़ित समाज की आगे बढ़कर सेवा करें। अपना सारा व्यक्तिगत वैभव, धन-सम्पदा, बौद्धिक शक्ति का हम अपने लिए आवश्यक मात्रा में उपयोग कर शेष सब भारत माता के वैभव के लिए न्योछावर कर दें, यह भाव जन-जन में जगाने की आवश्यकता है।

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